#OCRed using Google Vision on 5 March 2020. - Suhas Mahesh (suhas.msh@gmail.com) Page 1**************************************************************************************** स्वर्गवासी साधुचरित श्रीमान् डालचन्दजी सिंघी J ।। 14 HEMENT -24 ... , . T ak POWER ES R : RAM - RA 4491 .....mmmmmmmm..- W ... 73 434 . News 12 जन्म वि.सं. १९२१, मार्ग वदि ६ वर्गवास वि. सं. १९८४, पोष सुदि ६ Page 2**************************************************************************************** श Roman-am-Aadmin-a-mann---------Aam IHONSIN चजकल 0 सिंघी जैन ग्रन्थमाला Oषण(६)मणि 08 4.DOALAILA.MOTAARITALD ISोडालतरजासचा AAAAA thathwetherit AAA को श्रीराजशेखरसूरिकृत प्र ब न्ध -- 4Y --AALAAJA-A.A.MAA.A. R Page 3**************************************************************************************** संघी जैन ग्रन्थगला जैन आगमिक, दार्शनिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक, कथात्मक-इत्यादि विविधविपयगुम्फित प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, प्राचीनगूर्जर, राजस्थानी भादि भापानिबद्ध बहु उपयुक्त पुरातनवाड्मय तथा नवीन संशोधनात्मक साहित्यप्रकाशिनी जैन ग्रन्थावलि । कलकत्तानिवासी खर्गस्थ श्रीमद् डालचन्दजी सिंघी की पुण्यस्मृतिनिमित्त तत्सुपुत्र श्रीमान् बहादुरसिंहजी सिंघी कर्तृक संस्थापित तथा प्रकाशित सम्पादक तथा सञ्चालक जिन विजय अधिष्ठाता-सिंघी जैन ज्ञानपीठ, शान्तिनिकेतन सम्मान्य सभासद-भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिर पूना, तथा गूजरात साहित्यसभा अहमदाबाद, भूतपूर्वाचार्य-गूजरात पुरातत्त्वमन्दिर अहमदावाद; जैन वाड्मयाध्यापक विश्वभारती, शान्तिनिकेतन संस्कृत, प्राकृत, पाली, प्राचीन गूर्जर आदि अनेकानेक ग्रंथ संशोधक-सम्पादक । ग्रन्थांक ६ प्राप्तिस्थान संचालक -सिंघी जैन ग्रन्थमाला भारतीनिवास, न. १८. ] अहमदावाद (गूजरात) पो. शांतिनिकेतन (जि. बीरभूम (बंगाल) स्थापनाव्द] सर्वाधिकार संरक्षित. [वि० सं० १९८१ Page 4**************************************************************************************** श्रीराजशेखरसूरिकृत प्रबन्धकोश मिन मिन पाठभेद और विशेषनामानुक्रम-समन्वित मूल ग्रन्थ, सरल हिन्दी भापान्तर ऐतिहासिक-वस्तु-विवेचक भनेकानेक टिप्पनीद्वारा सुविवेचित, तया सुविस्तृत प्रस्तावना समलत सम्पादक जिन विजय जैन वाङ्मयाध्यापक, विश्वभारती, शान्तिनिकेतन प्रथम भाग विविधपाठान्तर-विशेषनामानुक्रमादियुक्त मूलग्रन्थ प्रकाशन-क्ता अधिष्ठाता-सिंधी जैन ज्ञानपीठ शान्तिनिकेतन विक्रमाद १९९४ प्रथमावृत्ति, एक सहम मनि [१९३५ मिष्टान्द Page 5**************************************************************************************** SINGHI JAINA SERIES A COLLECTION OF CRITICAL EDITIONS OF MOST IM POPTANT CANONICAL, PHILOSOPHICAL, HISTORICAL. LITERARY, NARRATIVE ETC WORKS OF JAINA LITEPATURE IN PRAKRIT, SANSKRIT, APABHRAMSA AND OLD VERNACULAR LANGUAGES, AND STUDIES BY COMPETENT RESEARCH SCHOLARS FOUNDED AND PUBLISHED BY ŚRĪMĀN BAHADUR SINGHJI SINGHI OF CALCUTTA IN MEMORY OF HIS LATE FATHER ŚRI DĀLCANDJI SINGHI. -an “GENERAL EDITOR JINA VIJAYA ADHISTHĀTĀ: SINGHĪ JAINA JÑĀNAPĪTHA, SANTINIKETAN. PRORARY MEMBER OF THE BHANDARKAR ORIES HONORARY MEMBER OF THE BHANDARKAR ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE OF POONA AND GUJRAT SAHITYA SABHA OF AHMEDABAD, FORIIERLY PRINCIPAL OF GUJRAT PURATATTVAMANDIR OF AHMEDABAD; EDITOR OF MANY SANSKRIT, PPAKRIT, PALI, APABHRAMSHA, AND OLD GUJPATI WORKS NUMBER 6 TO BE HAD FROM SANCĀLAKA, SINGHI JAINA GRANTHAMĀLĀ BHARATINIVAS, AHMEDABAD. (GUJRAT)) VISVABHARATI, TINIKETAN, PO. (BENGAL) Founded ] . All rights reserved All rights reserved. [ 1931. A. D. Page 6**************************************************************************************** PRABANDHA KOSA .- OF-> RĀJASEKHARA SÚRI CRITICALLY EDITED IN THE ORIGINAL SANSPRIT FPOM GOOD OLD MSS WITH VARIANTS HINDI TRANSLATION NOTES AND ELABORATE INTRODUCTION ETC. BY JINA VIJAYA SINGH PROFESSOR OF JAINA CULTURE AT VISVABHARATI SANTINIKETAN voor FIRST PART TEXT IN SANSKRIT WITH VARIANTS, APPENDICES AND ALPHABETICAL INDICES OF STANZAS AND ALL PROPER NAMES PUBLISHED BY THE ADHISTHĀTĀ-SINGHI JAINA JÑĀNAPĪTHA SANTINIKETAN V. E 1991) borst edition One ThousimCopies [ 1935 A. D Page 7**************************************************************************************** ॥ सिंघीजैनग्रन्थमालासंस्थापकप्रशस्तिः ॥ mutinatinatinutematematometernatimeterintenukrnet अस्ति वङ्गाभिधे देशे सुप्रसिद्धा मनोरमा । मुर्शिदावाद इत्याख्या पुरी वैभवशालिनी ।। निवसन्त्यनेके तत्र जैना ऊकेशवंशजाः । धनाढ्या नृपसदृशा धर्मकर्मपरायणाः ॥ श्रीडालचन्द इत्यासीत् तेष्वेको वहभाग्यवान् । साधुवत् सचरित्रो यः सिंघीकुलप्रभाकरः॥ वाल्य एवागतो यो हि कर्तु व्यापारविस्तृतिम् । कलिकातामहापुर्या धृतधर्मार्थनिश्चयः ॥ कुशाग्रया स्वबुद्ध्यैव सद्वृत्त्या च सुनिष्ठया । उपाय॑ विपुलां लक्ष्मी जातो कोट्यधिपो हि सः॥ तस्य मन्नुकुमारीति सन्नारीकुलमण्डना । पतिव्रता प्रिया जाता शीलसौभाग्यभूपणा ॥ श्रीवहादुरसिंहाख्यः सद्गुणी सुपुत्रस्तयोः । अस्त्येष सुकृती दानी धर्मप्रियो धियांनिधिः ॥ प्राप्ता पुण्यवताऽनेन प्रिया तिलकसुन्दरी । यस्याः सौभाग्यदीपेन प्रदीप्तं यद्गहाङ्गणम् ॥ श्रीमान् राजेन्द्रसिंहोऽस्ति ज्येष्ठपुत्रः सुशिक्षितः । यः सर्वकार्यदक्षत्वात् वाहुर्यस्य हि दक्षिणः॥ नरेन्द्रसिंह इत्याख्यस्तेजस्वी मध्यमः सुतः । सूनुवीरेन्द्रसिंहश्च कनिष्ठः सौम्यदर्शनः ॥ सन्ति त्रयोऽपि सत्पुत्रा आप्तभक्तिपरायणाः । विनीताः सरला भव्याः पितुर्मार्गानुगामिनः ॥ अन्येऽपि वहवश्वास्य सन्ति स्वस्रादिवान्धवाः । धनैर्जनैः समृद्धोऽयं ततो राजेव राजते ॥ अन्यच्च- सरस्वत्यां सदासक्तो भूत्वा लक्ष्मीप्रियोऽप्ययम् । तत्राप्येष सदाचारी तचित्रं विदुषां खलु ॥ न गर्वो नाप्यहंकारो न विलासो न दुष्कृतिः। दृश्यतेऽस्य गृहे वापि सतां तद् विस्मयास्पदम् ।। भक्तो गुरुजनानां यो विनीतः सज्जनान् प्रति । वन्धुजनेऽनुरक्तोऽस्ति प्रीतः पोष्यगणेष्वपि ॥ देश-कालस्थितिज्ञोऽयं विद्या-विज्ञानपूजकः । इतिहासादिसाहित्य-संस्कृति-सत्कलाप्रियः ॥ समुन्नत्यै समाजस्य धर्मस्योत्कर्षहेतवे । प्रचारार्थ सुशिक्षाया व्ययत्येष धनं धनम् ॥ गत्वा सभा-समित्यादौ भूत्वाऽध्यक्षपदाङ्कितः । दत्त्वा दानं यथायोग्यं प्रोत्साहयति कर्मठान् ॥ एवं धनेन देहेन ज्ञानेन शुभनिष्ठया । करोत्ययं यथाशक्ति सत्कर्माणि सदाशयः ॥ अथान्यदा प्रसङ्गेन स्वपितुः स्मृतिहेतवे । कर्तु किञ्चिद् विशिष्टं यः कार्य मनस्यचिन्तयत् ॥ पूज्यः पिता सदैवासीत् सम्यग्-ज्ञानरुचिः परम् । तस्मात्तज्ज्ञानवृद्ध्यर्थ यतनीयं मया वरम् ॥ विचार्यैवं स्वयं चित्ते पुनः प्राप्य सुसम्मतिम् । श्रद्धास्पदस्खमित्राणां विदुषां चापि तादृशाम् ॥ जैनज्ञानप्रसारार्थं स्थाने शान्तिनिकेतने । सिंघीपदाङ्कितं जैनज्ञानपीठमतीष्ठिपत् ॥ श्रीजिनविजयो विज्ञो तस्याधिष्ठातृसत्पदम् । खीकर्तुं प्रार्थितोऽनेन शास्त्रोद्धाराभिलाषिणा ॥ अस्य सौजन्य-सौहार्द-स्थैर्यौदार्यादिसद्गुणैः । वशीभूयाति मुदा येन स्वीकृतं तत्पदं वरम् ॥ तस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंघीकुलकेतुना । स्वपितृश्रेयसे चैषा ग्रन्थमाला प्रकाश्यते ॥ विद्वज्जनकृताल्हादा सच्चिदानन्ददा सदा । चिरं नन्दत्वियं लोके जिनविजयभारती ॥ MnAnaminimukutankwakrainedominatemalemdenukmdomkumkumkumkumkumtammandirmiumkumkumkumkumkamktanmkantankimamtinkamkrnermirmirmationermirmirmtember annet some monetantsustanet istantane Page 8**************************************************************************************** प्रवन्धकोश -- अनुक्रमणिका -- प्रास्ताविक वक्तव्य --- ग्रन्धारम्म १ भद्रबाहु-बराह प्रपन्ध २ आर्यनन्दिल प्रबन्ध ३ जीनदेवमूरि प्रबन्ध ४ आर्यखपटाचार्य प्रबन्ध ५ पादलिप्ताचार्य प्रबन्ध ६ वृद्धनादि-सिद्धसेनसरि प्रबन्ध ७ मल्लपादिसूरि प्रवन्ध ८ हरिभद्रमरि प्रबन्ध ९ वप्पमट्टिमूरि प्रबन्ध १० हेमचिन्द्रमरि प्रबन्ध ११ हर्पकवि प्रगन्ध १२ हरिहरकवि प्रबन्ध १३ अमरचन्द्रकवि प्रबन्ध १४ मदनकीर्तिकवि प्रनन्ध १५ सातवाहन प्रपन्ध १६ वचूल प्रगन्ध १७ विक्रमादित्य प्ररन्य १८ नागार्जुन प्रपन्ध १९ वत्मराज उदयन प्रसन्ध २० लक्षणसेन कुमारदेव प्रबन्ध २१ मदननर्म प्ररन्ध २२ रनारक प्रपन्ध २३ आमड [बारक] प्ररन्ध २४ वस्तुपाल-तेज.पाल प्रान्य - ग्रन्यारत प्रशस्ति १ परिशिष्ट-मत्रिवस्तुपालकृत मुकृतमूचि २ परिशिष्ट-सपादलक्षीय चाहमाननगनामावलि ३ परिशिष्ट-प्रान्पोशान्तर्गत सुभाषिताटि पास्यारतरण प्ररन्यकोगग्रन्यगत पद्यमचि प्रवन्धकोगग्रन्यागत विपनाम मद्रह पृष्ठाङ्क १-८ १-२ २-४ ५-७ ७-९ ९-११ ११-१४ १५-२१ २१-२३ २४-२६ २६-४६ ४६-५४ ५४-५८ ५८-६१ ६१-६३ ६४-६६ ६६-७४ ७५-७८ ७८-८४ ८४-८६ ८६-८८ ८८-९० ९०-९३ ९३-९७ ९७-१०० १०१-१३० १३१ १३२ १३३-१३४ १३५-१३६ ७-१४ Page 9**************************************************************************************** Entrato testosteron tartot t atart antanentemtontontoret ॥ सिंघीजैनग्रन्थमालासम्पादकप्रशस्तिः ॥ स्वस्ति श्रीमेदपाटाख्यो देशो भारतविश्रुतः । रूपाहेलीति सन्नाम्नी पुरिका तत्र सुस्थिता ॥ सदाचार-विचाराभ्यां प्राचीननृपतेः समः । श्रीमचतुरसिंहोऽत्र राठोडान्वयभूमिपः ॥ तत्र श्रीवृद्धिसिंहोऽभूत् राजपुत्रः प्रसिद्धिमान् । क्षात्रधर्मधनो यश्च परमारकुलाग्रणीः ।। मुञ्ज-भोजमुखा भूपा जाता यस्मिन्महाकुले । किं वर्ण्यते कुलीनत्वं तत्कुलजातजन्मनः ।। पत्नी राजकुमारीति तस्याभूद गुणसंहिता | चातुर्य-रूप-लावण्य-सुवाक्सौजन्यभूपिता ॥ क्षत्रियाणीप्रभापूर्णा शोर्यदीप्तमुखाकृतिम् । यां दृष्ट्वैव जनो मेने राजन्यकुलजा त्वियम् ।। सृनुः किसनसिंहाख्यो जातस्तयोरति प्रियः । रणमल्ल इति ह्यन्यद् यन्नाम जननीकृतम् ॥ श्रीदेवीहंसनामात्र राजपूज्यो यतीश्वरः । ज्योतिभैषज्यविद्यानां पारगामी जनप्रियः ॥ अष्टोत्तरशताब्दानामायुर्यस्य महामतेः । स चासीद् वृद्धिसिंहस्यं प्रीति-श्रद्धास्पदं परम् ॥ तेनाथाप्रतिमप्रेम्णा स तत्सूनुः स्वसन्निधौ । रक्षितः, शिक्षितः सम्यक्, कृतो जैनमतानुगः ॥ दौर्भाग्यात्तच्छिशोर्वाल्ये गुरु-तांतौ दिवंगतौ । विमूढेन ततस्तेन त्यक्तं सर्व गृहादिकम् ॥ तथा च- .. परिभ्रम्याथ देशेषु संसेव्य च वहून् नरान् । दीक्षितो मुण्डितो भूत्वा कृत्वाऽऽचारान् सुदुष्करान् ॥ ज्ञातान्यनेकशास्त्राणि नानाधर्ममतानि च । मध्यस्थवृत्तिना तेन तत्त्वातत्त्वगवेपिणा ॥ अधीता विविधा भाषा भारतीया युरोपजाः । अनेका लिपयोऽप्येवं प्रत्न-नूतनकालिकाः ॥ येन प्रकाशिता नैका ग्रन्था विद्वत्प्रशंसिताः । लिखिता वहवो लेखा ऐतिह्यतथ्यगुम्फिताः॥ यो बहुभिः सुविद्वद्भिस्तन्मण्डलैश्च सत्कृतः । जातः स्वान्यसमाजेषु माननीयो मनीषिणाम् ॥ . यस्य तां विश्रुतिं ज्ञात्वा श्रीमद्गान्धीमहात्मना । आहूतः सादरं पुण्यपत्तनात्स्वयमन्यदा ।। पुरे चाहम्मदावादे राष्ट्रीयशिक्षणालयः । विद्यापीठ इतिख्यातः प्रतिष्ठितो यदाऽभवत् ॥ आचार्यत्वेन तत्रोचैनियुक्तो यो महात्मना । विद्वजनकृतश्लाघे पुरातत्त्वाख्यमन्दिरे ॥ वर्षाणामष्टकं यावत् सम्भूष्य तत्पदं ततः । गत्वा जर्मनराष्ट्रे यस्तत्संस्कृतिमधीतवान् । तत आगत्य सल्लग्नो राष्ट्रकार्ये च सक्रियम् । कारावासोऽपि सम्प्राप्तः येन स्वराज्यपर्वणि ॥ क्रमात्तस्माद् विनिमुक्तः प्राप्तः शान्तिनिकेतने । विश्ववन्धकवीन्द्रश्रीरवीन्द्रनाथभूपिते ॥ सिघीपदयुतं जैनज्ञानपीठं यदाश्रितम् । स्थापितं तत्र सिंघीश्रीडालचन्दस्य सूनुना ॥ . श्रीवहादुरसिंहेन दानवीरेण धीमता । स्मृत्यर्थ निजतातस्य जैनज्ञानप्रसारकम् ॥ प्रतिष्ठितश्च यस्तस्य पदेऽधिष्ठातृसझके । अध्यापयन् वरान् शिष्यान् शोधयन् जैनवाङ्मयम् ॥ तस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंघीकुलकेतुना । स्वपितृश्रेयसे चैषा ग्रन्थमाला प्रकाश्यते ॥ विद्वजनकृताल्हादा सच्चिदानन्ददा सदा । चिरं नन्दत्वियं लोके जिनविजयभारती ॥ rampurnmarrrruperpret Page 10**************************************************************************************** सिंघी जन अन्यमाला] [प्रान्धकोश -- - - - " Ariesमालियालमाणिनियालादार Raiyाक्षावरनाम शाranrrrrft .73 महाशयग्दरमा 'ENCEFTERहिनावासaad Tran समारतवाट वीरचक्षयरReer" T दिवि धान Im fir at:- ART रि -२ । दियाजाग्रामविपनाजाला " | TEEJ . . .-1 विसरशीतित TEN । -१६ पाल्सावाला एसornfu Tपारगंगnarayr AM " मामायापकासटाया जाता Time : Arun माटरमादयमापा लिननग्गर पELI RETarrETE - वारीत प्रसाशनारामाउधना मागामायामा II II , सरितानाद्वानामपिन्दETE दानधरनmarT-IPI चनविधानपण्ािर511THEORAIPTETTE - - - ----- -- - गाराणायााडावायकरण माननारदपानागावर्षमाममजाक्तियपरवाना निन्धरादविरटिकामहकानारामसालिमपत्रमायादवानावासेपनीनयान गयातायावारिसरशालिगनिदाकटा मशायानरमतारामभदशगनाहिनी ना नधिकातिलानशाकालावयिमिततराशगनाहातासानायना नापयामिदिएगानमान सातीदिरा" "यापाममाENTRE Ashrलायतमयागारधााविनवर सदानंद रघरकामलादी राधापरदान विदिशानदाप्रीदरमासस्पति - पाटीदार यारानास यादगाकदा नियाकाम्पिावाग्रणमीयायत नासादी-नानास्लीपाईलाकाटिmuTईमालय साध्यादव सदंशास्टिाभिव्य निरासयानानपदएकीटावर HTRA TOrd प्राधनोरामनिगाराजगहमयमार यावयागाडमारदातदिनशानायापपरसंगान -STRETraरामदार वगो मासण्यावानाधकामनावित मधलादविगतमसा मालसमावदेगा ' टायगारामकाशिनिसनानासारोगा दानाबाद सचिवई दादगाamernाहत्या मामला सादा Enगमा पिन TTRIयतिपदादारा मस्या परसा गयगटाया न.- armyrnmsRAamanna • AnArrahmmeति नामिनायत माया Primarn . cी Artina-marrm Inte77 inारोपध्माराम Ther reamsur. 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" به هههه هه هه جمجمه به فهم و مه جه هه مه م سر برده مهدیه مهمه دهید و عیدیه صحیمی هند به هم میدم مدح و یقه ده وه ی به به بویی مهم و مو مخ | میرین ام ا م المسيح ه . ا )) المستثنی شد مهر : تمت تو ات ن ا سنة ثرم :" ...ته اتم واسه ی من شعر میری مامی شش ماه، امیر دمه من تا ما سمعت من مته مته م ن متت مست و ... می شود .. یم ارمله كملت : ما منتقل شد و در ماه نت ها به جا ش ده به مدارهای مهم به یه تار . و ایک سال به تمامی شما مهمتان را شامل ، و بحممه : د ملی - اشت: مد ::. نس: شهد .. . ته نانتر نانتت شملته من ده که تمامیت - مه شده تره نمیدم : - سه حه - - . - - - . در ما را جدا ... امساک اره دم - من ماله منه شناسی - توانم به ده سته م ته میکنید که سه ده ست سه .نه ام دی ' ا سد میمه شتر در نیم ن ت با ما ت له : همه مهم هست، تمدة لدها مستند.. . و لم ر م م م . م . م . . میشه مد شه بسته شم ب هشتی شما سامان ت ر استشنید بیشتر به ما می پرسرعت و یا عمل سست معمه ، ت : ۰۰ : به ه م ه مه . به نام جم - - متن تاتش به مدار نیست اما با این مهم تر تیر ماه به مدت سه ر مه وه م ئه ته لهم مهم ماه مه مهر شد .) منه .. هست اگر م رد بیسیم؟! به 42 41 تیم به مه سعاده به سم مهمه 7 ماه " " کا نت زيت الالكم انه مکرمہ کے مستدویہ سارامتر المسد : م ه م و م ب م م ه م مه شی ده ده ر ده ، در لا شد! سهم به سه رد شد ه ت مستم مه تبه در همه ما می شد. در ماسه سه نه متانت شده است. او م تت میشه با مداد . این است . هشت ماهه - : . دهم - هدست ، ده سته م مه له مهمتره - دارد ، در ما ب ه هنرمند در اثہ دو مت، ندا مه . - ة - . .. - ۸ مه ی همه ما مهم ,, نو منتر سه ما يعتبر م ت ه متنااامة دا نه ، من باید له امله دست داده است. تنه: د . د ده له مه ساله، متمند مزد باعث شد تا مسلم مدی-تات با ارزش می نشستن بر روی ماه مدام در سایه شما 1 ر مین نیست . هشت ماهه م .. سا مے شد ش فتة مترجة من اشاره به دست بسته ام مريه م مه . شما می توانستند ،،، م ، مهنده های درمان هایتان ا ستان شناسم، اما تا به اختلالات و مشکل تأمین ای که در نمونه ای استان { 2 ایعه یا عشا کے با برنامه با ما ت با ما در میدان تره بار تهران سسسسسسسسسسسسسسسسسسسسسسي اطا چوط علیط[12] [प्रवन्धकोश Page 12**************************************************************************************** Page 13**************************************************************************************** सिंघी जैन ग्रन्थमाला] الشمسشسشستش S A ARnikunालावालामंत्रीधनायात्रामा nिtains दिलासालाना मजा पालापावागावाशाराटारडयाattaraौघालावासारवालालमारमानासानासामाजिताइवानमा जबEATIONairfaताईयात्रायशितिनालायामाबायावतीनतिमतांताधारकमानातागुरागाचालावालामालमसामcिomrani PALघालतलवायाasanालातयविधानसनकमासोकालागानिरमाता पालानारामायामनारदवाभादा तालीवाना Fari MEकापातायघाचमातनिधिन जायसातितनवाधावपालमागणी antsyanायातायाासातारासतमानमानसातारा । RTIया .. UPामनारहारधखनिझापादनावित्रकाकालतलावाजवायाधिष्टाचारीमानोरायायायापुरवविधांगराकीताकाहारसमस जनरातिभिनीहासिधाबarusकशावरियतातिदउसलगतचागनवमलरानाभवानीमकारयन्हित्सादयतामासानायलाटदाला वासनाधीटपालवधनावारसवालोवाश्याविकालापावापासायलावागायनराध्यनमादतानाaaHITTEE मालामालकोवामितदानाuamalaniयक्षमणाववासवव्यातिलिवियरायावतntifivamधिनियमसादसावनचापागासवरनाATAR यामाहानमाविमा यungaata प्रजातिानामविजनलसारभावालालमविरmonan: PURPारस्वतापनामावललितावतियारसanादेवीलाप मापदहागावासात्मविनाशनावताकारिजात्रावास्यन् । जसबसचाना TARAगातावितासारो । नातवास्थरराएउपावादावापुवायारावारितादयतातिralia विवादोरिक्षाविnिistandeiaamrpant गतदिव्यातामामामाममिनिताराहारसनाधिनादापरिकलाविलीrina धारणालान्तानीeintuitamannamसासंघानानाशितावितियाललावालानरालासादादगावीरधवालनसता . MORधनलावधवागावांमआयातीयEOmanातिपरकामागाजावतकापालगामपियसामसनियामिनावमा Halaliजालमल्लि ज मनायनाराकामिनिसवामा करा AITIFI7 .. मयममुकत म लताखायलासिसकागितानिालिन्यातSREATMनसामाजाजादिनामाक्षसजाTMatrF यमुना 2. 10 ASEANजायमानामधारममावत"सिताधारहवाहिनावानवालामुनिताalaageमारोगावपादालचरामालिनी लगात -किताhaanाताचं सानिमाविकतानिधााजमानदहायतादाम्यायानधारासिर सतादिवस PATOrtanamang मादानयादिवतियाविनाmarलतानातिना तिनापतगतामाशिहरालालामावासाजराजापनातनायासनातन-real लासविनाrammRATHMIRITTENMAmarnationaitrinanमयमानताताnitigaruनयायालजनमानसलगाasraemunita, सवमासापशिसIRAanitomistrareanemaravaahityासापाकालाजारासालावासमयसमाTHenारामनवयाना 'सारकादायाविहानवमा लगानदाएतापाजापतयसमिनिधिका धमाका S.. Ini द ...... . Adme SIL NatEInfinitiatrinafiateur E nा attact - मे र:सनाaanita.mATERTAIMER Harpalitमामवाशनसंवमितीय प्रनताकमलतामाणिवपनामादितियताvara Taरियाकन लतिरस TATAPातालकासमपादंजिनबिनानाविध्यमिताधास्वाकाटयाधामविलनामाnिit.आकाटावागावातावानातELEffirm.in.• सनाटकासासगरिशि यात्यानधामानियनजातिधावीषयमालाकानि स्वतानिदतमया महान मानातिरोनालाfinाद सायानिशास्वाराजा AATE हिन्दसनार Rangiनानातिनघामानामभयतीताबिकापालिकामामतानामायणानन्दननिमाया निचलनामा सामान रिलीगना CHHATTRACTRanानानखानसावाबाराशि निजीसीचालवाकारितासनतासीहाडासवर्यालायामितियRANI नाटयmamathrumघागिनयंपवदवानातीयमानानिमायादारपातलिकामामहलमधuraमादागायतीरामधनmansiti againsमदिनमायाजधाचारिसन्यासियावामिनारामा माननीयवासनानोमादजातागितासालानाशाह 17 दारदमनना asianarmadhiनातावास्वागता दिनरागावमारताना नानाद्विारा निरीraims : Maina हायातीवकासापाmainानासानिमारिंगतदारयानावनिकरितारीaantarima BHARATलिलतानिभातयाधीवराक्षिाशादिशातर मायामालाnadiminaमायामानासानायाanAmari FREEारत नासिकायarहिनामिनावज्ञाप्रधानापरया, तारारामाशापादेयतीरादiner emins HOMEMATINEEMIRRITATE- योगासरवारितिnिil ion. H a; T HIHARTHI Rinoritramananागvi . . Ham ME. r Timum "B ", b.रायाaamtaपानामानात गपारा ti m iz.iITIOffirm .mirriti 147 Mahani नागनाtaram वदना"THERurs rautari1200 1 12. 24 MB , Thanntiny it im mortalitimir:5811. माय... * 41.53ni RSHTRIPTION गागार.in शिशेगाराहा Jatranamशनालय immi M a m .--- " anतगादा। मिततपासमाmar तारगमगवर141 अनमोसharliamrrint.Prhita , in sanimal EEPALI मायामाद..... TH711 गदURahuam र TAMINETorrenTraininamaintain मATu दमयममागरणाouaninाभिminitionTari-mata- स ॥तीधार1211 र शरिता naniki" inst - TH..Pre maratarrermetim r सजा Emains 10U तयाutmiR," मग u lu infaninारास minाएतार Hinai mmHnnel -विनाlaaap sall. ". Marria m maamin 11 - . . . - - . .. - - ruोमानासपाय MHIM गाल atni my J a . inka - -- प्रतिके आद्यन्त पन Page 14**************************************************************************************** प्रास्ताविक वक्तव्य । ११. प्रवन्धकोश-परिचय | रायन्धकोश नामका यह ग्रन्थ-जिसमे २४ प्रबन्ध होनेके कारण इसका दूसरा, और पाय विशेष प्रसिद्ध ऐसा, नाम चतुर्विंशति-प्रबन्ध भी है--किम्वदन्ती-मिश्रित एक अर्द्ध ऐतिहासिक और दूसरा अर्द्ध लोक- कथात्मक निवन्ध-सवह है । इसमे जिन २४ व्यक्तियोंके या प्रसिद्ध पुरुपोंके प्रवन्ध गून्ये गये हैं, उनमे से, अन्यकार-ही-ने कथनानुमार, १० तो जैनधर्मके प्रभावशाली आचार्य हैं, ४ सस्कृत भाषाके सुप्रसिद्ध कवि-पण्डित हैं, ७ प्राचीन अथवा मध्य-कालीन प्रसिद्ध राजा हैं, और, ३ जैनधर्मानुरागी राजमान्य गृहस्थ पुस्प हैं। | आचार्य भद्रवा से लेकर हेमचन्द्रसूरि तक जिन १० आचार्योंका वर्णन इसमे दिया गया है वे, तथा हर्ष, हरिहर, अमरचन्द्र और मदनकीर्ति-ये ४ कवि पण्डित, निस्सन्देह ऐतिहासिक पुरुष हैं । सातवाहन आदि जिन ७ राजाओंका चरित-वर्णन इसमे प्रथित है, उनमे से, अन्तिम दो-अर्थात् लक्ष्मणसेन और मदननर्मा-का समय मध्य काला उत्तर भाग होनेसे उनके अस्तित्व और समयादिका सप्रमाण उहेस इतिहासके ग्रन्थोंमे से मिल सक्ता है। वत्सराज उदयन, भारतीय इतिहासके प्राचीन युगमे हो जाने पर भी, महाकवि भास आदिके नाटकादिक ग्र अमर नाम प्राप्त कर लेनेके कारण ऐतिहासिकोंमे यथेष्ट परिचित है । सातवाहन और विक्रमादित्य, भारतीय साहित्य और जनश्रुतिम अत्यन्त प्रसिद्ध होने पर मी, वे कौन थे और कर हो गये इस विषयमे पुरातत्ववेत्ताओंमे अत्यन्त मत-वैविध्य है । तथापि, वे कोई ऐतिहासिक पुस्प जरूर थे, इतना स्वीकार कर लेनेमे कोई आपत्ति नहीं की जा सक्ती । वडचूल राजाके ऐतिहासिकत्वके लिये इन ग्रन्थोंको छोड कर, और कोई अधिक वैसा इतिहास-सम्मत प्रमाण अमीतक ज्ञात नहीं हुआ | अत एव उसके अस्तित्व-नास्तित्वके वारेमे विटोप कुछ कहा नहीं जा सकता । नागार्जुनका जो वर्णन इस सग्रहमे-अथवा इसके समान-विपयक अन्य अन्य अन्योंमें-दिया हुआ मिलता है, उससे तो, उसके कोई राजा या राजपुनप होनेरी बात बात नहीं होती। प्ररन्थगत वर्णनसे तो यह कोई योगी या सिद्धपुरुष नात होता है। तो फिर ग्रन्थकारने उसकी गणना राजा या राजपुस्पके रूपमे निम आगयसे की है सो ठीक समझम नहीं आता। मम्भव है, राजपुन (आधुनिक रानपूत) रणसिंहकी पत्नीके गर्भ में जन्म लेने-ही-के कारण उसकी गणना राजवर्गमे की गई हो। नागार्जुनरी कथा मी ऐतिहासिक दृष्टिसे उतनी ही सन्दिग्ध है जितनी सातवाहन और विक्रमकी है । तथापि, यह भी एक ऐतिहासिक व्यक्ति अवश्य थी इतना मान लेना इतिहासके विरुद्ध नहीं कहा जा सकता । राजमान्य जैन गृहस्थोमे आभट और वस्तुपाल मुप्रसिद्ध और मुज्ञात व्यक्ति हैं। परतु, काश्मीरनिवासी सघपति रन पारस्सी कथा, इतिहासके विचारसे, चैमी ही अज्ञात है जैसी चचूलकी कथा है। २ प्रयन्धकोशके समान-विपयक अन्य ग्रन्थ निनप्रभसूरि रचित निविधतीर्थक्ल्पकी प्रसारनामे हमने सूचित किया है कि-'विस्तृत जैन इतिहासकी रचनारे रिये, निन प्रन्याम से विशिष्ट सामग्री प्राप्त हो सस्ती है, उनमे (१) प्रभावक्चरित, (२) प्रबन्धचिन्तामणि, (३) प्रवन्धकोश, और (1) विविधतीर्थकल्प-ये ४ अन्य मुरस हैं। ये चारों अन्य परस्पर बहुत कुछ समान- विपयक हैं और एक-दमरेपी पूर्ति करनेवाले हैं। परन्धरोश इन चारोंमे काटनमकी प्टिसे कनिष्ट यानी मनसे पीठेरा है। इस प्रममे, प्रभारमचरित मनसे पहला [वि० स० १३३४ ], प्रबन्धचिन्तामणि दूमरा [वि० स० १३६१], विविधतीर्थकल्प तीमरा [वि. स. १३८९], और अन्यकोश चौथा [वि० स० १८०५] स्थान रगता Page 15**************************************************************************************** प्रवन्धकोश है। राजशेखर सूरिकी यह कृति, कितनेएक अंशोंमें, अपने पहलेके उन तीनों ग्रन्थोंका ऋण धारण करती है। इसमें के कितनेएक प्रकरण तो उक्त ग्रन्थोंमें से शब्दशः उद्धृत कर लिये गये हैं; कितनेएक थोडा बहुत भाषा या रचनामें परिवर्तन कर लिख लिये गये हैं; कितनेएक पद्यसे गद्यमें अवतारित किये गये हैं; और, कुछ प्रवन्ध, स्वतंत्र ढंगसे, मौलिक रूपमें भी गूंथे गये हैं। यहां पर, थोडीसी तुलना कर देखनेसे इस कथनका स्पष्ट दिग्दर्शन हो सकेगा। ६३. प्रभावकचरित और प्रबन्धकोश __ प्रभावकचरितके कर्ताका प्रधान उद्देश, अपने समयसे पहले हो जानेवाले जैनधर्मके उन प्रभावशाली आचा- यौँका चरित-गुम्फन करनेका है जिन्होंने अपने चारित्र-वल या विद्या-बल से जैन धर्मका विशेष गौरव बढाया है, और जैन इतिहासको उज्ज्वल बनाया है । आर्य वज्रस्वामी [परम्परागत मान्यताके मुताविक विक्रमकी प्रथम शताब्दी] से लेकर आचार्य हेमचन्द्र [ विक्रमकी १३ वीं शताब्दीका मध्यकाल ] तकके ऐसे २२ आचार्योंका उसमें चरित- वर्णन है । प्रवन्धकोशकारने उन २२ आचार्यों में से ९ आचार्योंके प्रवन्ध अपने संग्रहमें सङ्कलित किये हैं। यद्यपि, प्रभावकचरितके सिवा, इन आचार्योके चरित-विषयक और भी कोई संग्रह राजशेखरके सम्मुख होगा जिसमें से उन्होंने अपने प्रवन्धोंके लिये कितनीक सामग्री संगृहीत की है क्यों कि इन आचार्योंके चरितोंमें कई बातें ऐसी हैं जो प्रभावकचरितमें नहीं मिलतीं; और कई बातें, जो प्रभावकचरितमें हैं, वे इसमें नहीं मिलती-तथापि इसकी प्रधान सामग्री उसी ग्रन्थ परसे एकत्रित की गई मालूम देती है। इन ९ आचार्योंके सिवा, प्रभावकचरितमें, प्रस्तुत कोशमें की अन्य व्यक्तियोंका कोई विशेष निर्देश नहीं है। सिर्फ, सातवाहन और नागार्जुनका कुछ वर्णन पादलिप्त सूरिके चरिता- न्तर्गत मिलता है, और कुछ प्रसङ्ग विक्रमादित्यके विपयका वृद्धवादी सूरिके प्रवन्धमें मिलता है । इससे ज्ञात होता है कि राजशेखर सूरिने प्रभावकचरितमें से उतनी वस्तु नहीं ली जितनी प्रवन्धचिन्तामणिमें से ली है। ६४. प्रवन्धचिन्तामणि और प्रबन्धकोश __ प्रबन्धकोश-वर्णित व्यक्तियोंमें से भद्रबाहु (१) वृद्धवादी (६), मल्लवादी (७), हेमचन्द्र (१०), सातवाहन (१५), विक्रमादित्य (१७), नागार्जुन (१८), लक्ष्मणसेन (२०), आभड (२३), और वस्तुपाल (२४)-इस प्रकार ४ आचार्य, ४ राजा और २ राजमान्य जैनगृहस्थ-कुल १० व्यक्तियोंका वर्णन प्रवन्धचिन्तामणिमें मिलता है । प्रवन्ध- चिन्तामणिका वह वर्णन कुछ संक्षेपमें और सामासिक शैलीमें है। प्रवन्धकोशका कुछ विस्तृत और विश्लेपात्मक पद्ध- तिमें है । बहुतसी बातें नई भी हैं । हेमचन्द्र सूरिके प्रवन्धमें, एक जगह, ग्रन्थकार स्वयं कहते हैं कि-'इन आचार्यके जीवन-सम्बन्धमें जो जो वातें प्रवन्धचिन्तामणि ग्रन्थमें लिखी गई हैं, उनका वर्णन हम यहां पर नहीं करना चाहते । ऐसा करना चर्वित-चर्वण मात्र होगा। हम यहां पर उसके अतिरिक्त कुछ नवीन प्रबन्ध ही कहना चाहते हैं।' यद्यपि, हेमचन्द्र सूरिके प्रवन्धमें, ऐतिहासिक दृष्टिसे विशेष महत्त्वकी मालूम दे वैसी कोई बातें, इस ग्रन्थमें नहीं पाई जातीं; तथापि, वस्तुपालप्रवन्धमें, प्रवन्धचिन्तामणिकी अपेक्षा अनेक विशिष्ट और विश्वसनीय वातोंका सङ्कलन किया हुआ जरूर मिलता है। ६५. विविधतीर्थकल्प और प्रबन्धकोश प्रभावकचरित और प्रवन्धचिन्तामणिमें से जितनी सामग्री प्रवन्धकोशमें ली गई है उससे कहीं अधिक वस्तु विवि- धतीर्थकल्पमें से ली गई है । उक्त दो ग्रन्थों में से तो प्रधानतया वस्तु और वक्तव्य-ही-का संग्रह किया गया है। लेकिन तीर्थकल्पमें से तो कुछ पूरे प्रकरण या प्रवन्ध ही, शब्दशः ज्यों के त्यों, उद्धृत कर लिये गये हैं। सातवाहनप्रवन्ध, वङ्कचूलप्रवन्ध और नागार्जुनप्रवन्ध-ये तीनों प्रकरण तीर्थकल्पकी पूरी नकल हैं । उसमें सातवाहनका प्रकरण प्रतिष्ठान- । देखो, पृष्ट ४७, प्रकरण ६५७, पंक्कि १२-१६ । Page 16**************************************************************************************** प्रामाविक पपन्य । पुररन्य' [जार ३३-३१, पृष्टार ५९-६८] में है, पाचूना पी दीपुरीतीयाय [सार ४३, पृष्ठ ८१-८३] में है, और नागाना नान्त सम्भारकप-शिरोन्छ [पन्सार ५९, पृष्ट १०४] में है। या प्रियाग, सीपरमे प्राटा भागमे गूया गुभाई, निमरो प्रयन्धरोशपाग्ने, शब्दश मस्यूतमें मनुपादित पर निशा । (-और, निमममूरिन मी, यह प्रारण, सम्भवतः प्रयत्चरितामनिमें मे, गरवारसे प्रारमि सदन अगर परमे, निमिया ऐसा प्रतीत होता है । क्यों कि दोनोंमे गन्दरपना प्रार: एपनी है।) १६. पुगतनमयन्यसझा और प्रयन्धकोश प्रयनाचिनामी प्रपे मार मामय पनेयाने मे रिसनगर प्रीर्ण प्रय धारा महा, इस प्रन्यगालार हिनीय प्रमाणे रूपमे, मी मन्चरे माप प्रालित हो रहा है। उम सदोमिने अनेर पुरात पोथियों परसे ग रि । म परं प्रकरण में है, जो निस्मन्देद, प्रयन्धोश पतार पूर्य गहुए पर जा माहै। प्र म लिए प्रपा रोग हैं जो रु महहरे प्रसन्यो । प्रारणोरे मार प्राय• पूर्णगया माम्य गरो है। प्राधा निमादिन्यप्रयन्थी ६९८ और ६९९ ये दोनों प्रारण पुगात-प्रयत्ध-ममा ६११ मोर ६१२ प्रारकी पूरी पर है।गी सरह हेमप द्ररिपे प्रपन्धमे पे ६५८,६५९, ६६०, ६६१ और ६६३ पेग पुगताम० म०६८३,६८४, ६८५ और ६८६ प्ररणारे माय गपू मगाता रगते हैं। एमाग गा tir प्रोकारने ये मप प्रारण 'उ पुगता समद परमे ही उग पिये होो पादि । र निगा, मलपपपारे पास भी पुर पु०प्र० स० फे ६ ओर ६५२ प प्रफरपरे माग दिया। Page 17**************************************************************************************** . . प्रवन्धकोश सम्वादक कुछ उल्लेख आया है; और वहां पर, विशेपमें, एक पुरातन प्राकृत गाथा उद्धृत की हुई है जिसमें कहा गया है कि संवत् ९९० में रत्नने रैवतगिरि पर कांचन भवनसे लाकर मणिमय विवकी स्थापना की । इन दोनों उल्लेखोंके अतिरिक्त राजशेखर सूरिको, शायद और भी कोई आधारभूत ग्रन्थ या प्रवन्ध, इस प्रवन्धकी रचनामें रहा हुआ हो । ६८. प्रवन्धकोशकी रचना-शैली ___ जैसा कि खुद ग्रन्थकार लिखते हैं, प्रवन्धकोशकी रचना, खास करके मुग्धजन-साधारण पठित वर्ग-के अवबोधके लिये की गई है और इस लिये इसका ग्रन्थन 'मृटु' अर्थात् सरल और सुबोध ऐसे गद्यमें किया गया है । एक मल्लवादिसूरि-प्रवन्ध पद्यमें बना हुआ है-जो शायद किसी अन्य ग्रन्थमेंसे तद्वत् उद्धृत कर लिया गया मालूम देता है-परंतु उसका पद्य भी वैसा ही सरल और सुगम है। संस्कृत साहित्यमें इस प्रकारकी गद्य रचना बहुत कम मिलती है। इसके पहले, पुराने समयमें, ऐसे ग्रन्थ प्रायः पद्यवन्ध रचे जाते थे। पुराण, कथा, चरित इत्यादि ग्रन्थोंकी रचना विशेपतया पद्य-ही-में होती थी। पुराने कई जैन ग्रन्थकार, जिन्होंने सूत्रात्मक और उपदेशात्मक ग्रन्थोंकी जो गद्यमय व्याख्याएं अथवा टीकाएं बनाई हैं, उनमें भी जहां कोई कथाका प्रसंग आगया तो उसे प्रायः पद्य-ही-में लिखना उन्होंने पसंद किया है। गद्यमें जो ऐसी कोई कथा, आख्यायिका आदि रची जाती थी तो वह काव्यात्मक-उपमा आदि अलङ्कारोंसे परिपूर्ण कवितास्वरूप-होती थी। उसमें कथा या चरितकी सामग्री गौण होती थी-वर्णन और विवेचनकी अधिकता ही उसमें मुख्य रहती थी। कथा, चरित आदिकी वस्तु जिनमें अधिकतया गुम्फित की जाती थी ऐसी पद्यरचनाएं भी प्रायः पाण्डित्यपूर्ण पद्धतिसे बनाई जाती थीं । ग्रन्थकारोंका लक्ष्य, हमेशांह, अपना पाण्डित्य प्रदर्शित करनेकी और अधिक रहता था; और, ग्रन्थरचनामें जहां कहीं उनको मौका मिल जाय वहां वे अपनी विदग्धताका परिचय देने के लिये उत्सुक रहते थे। इसी ग्रन्थका उपर्युक्त कुछ कुछ आदर्शभूत ग्रन्थ, प्रभावकचरित, वैसी ही एक पाण्डित्यपूर्ण रचना है । वह सम्पूर्ण ग्रन्थ पद्यमें है । अनुष्टुप् छन्दके सिवा और भी कई छन्दोंका उसमें प्रयोग किया गया है । यद्यपि उसमें कहीं कान्यकी कोई सामग्री नहीं है, तथापि उसकी रचना-पद्धति काव्यके ढंगकी है । उसके कर्ताका उद्देश मुग्ध-जनोंको अवबोध करानेका नहीं है। लेकिन विदग्ध-जनोंको अपनी विद्वत्ताका आस्वाद करानेका है । मेरुतुङ्ग सूरिने इस लक्ष्यको कुछ वदला है और बुद्धिमान् वर्गको भी सुखसे ज्ञानप्राप्ति करानेकी इच्छासे उन्होंने अपना पूर्वोक्त प्रवन्धचिन्तामणि ग्रन्थ गद्यमें बनाया है। मेस्तुङ्गकी रचना-प्रणालि यद्यपि प्रासादिक और सुललित है तथापि वह प्रस्तुत प्रबन्धकोशके कर्ताकी शैलीकी जितनी सुगम और सरल नहीं है । वह समास-बहुल होकर कुछ संक्षिप्त-स्वरूपात्मक है । उसका विपय काव्यमय न होने पर भी उसकी भापा कुछ पुरातन गद्य-काव्य ग्रन्थोंका अनुकरणाभास कराती है। उसकी वाक्य-रचना कहीं कहीं जटिल-सी मालुम देती है। प्रवन्धकोशकी रचना एकदम सरल, सगम और वोलचा तरह सीधी-सादी है। इसके वाक्य विल्कुल अलग अलग और छोटे छोटे हैं। इसमें न कोई वैसी समस्त-शब्दोंसे लदी हुई लम्बी पंक्तियां हैं, न कोई दूरान्वयवाली वैसी कोई दुरववोध उक्तियां हैं। न अल्पाभ्यासीको अपरिचित ऐसे शब्दोंकी कोई समधिकता है, न क्रियापदके कठिन रूपोंकी भरमारसे कोई क्लिष्टता है । प्रायः सारी कृति कर्म-उक्ति- प्रधान है। संस्कृत भापाका थोडा-सा भी अध्ययन करनेवाला विद्यार्थी इसको सुगमतासे पढ-समझ सकता है। संस्कृतके प्रचलित कोशोंमें नहीं मिलनेवाले और देश्य भापाकी सन्तति समझे जानेवाले ऐसे शब्दोंका भी कचित् व्यवहार ग्रन्थकारने निस्सकोच होकर किया है जिसको शायद संस्कृतके पुराणप्रिय पण्डित लोक, अपशब्द भी कह वैठें । परंतु हमारे मतसे इसमें कोई आक्षेपयुक्त वात नहीं दिखाई देती। हम तो इसको एक प्रकारसे भापाके जीवनको पोपण करनेवाली वडे महत्त्वकी बात समझते हैं। सरल और सुगम संस्कृत-रचना करनेवालोंके * पुरातनप्रवन्धसंग्रह, पृष्ठ ९७, प्रकरण ६२१९, पद्याङ्क २९९. Page 18**************************************************************************************** प्रास्ताविक वकन्य। लिये यह एक आदर्शभूत अन्य कहा जा सकता है । सस्कृत भाषा भी ऐसी सरल बनाई और लिखी जा सकती है, जिसको बहुत सुगमताके साथ अधिक जनता समझ सके, इस बातकी, यदि सस्कृत-प्रेमियोंको कुछ आफाक्षा है, तो उन्हें भापाके क्लेवरको देश्य और विदेश्य ऐसे अनेक नये नये शब्दों द्वारा पुष्ट करना ही चाहिए । उससे हमारी इस मातामहीकी मृतप्राय आत्मा पुन सचेतन हो सकती है, और, वह पुनर्जन्म धारण कर आर्य सस्कृतिका पुनरुत्थान करनेमें हमे एक नई शक्ति प्रदान कर सकती है । मालूम देता है, कि इस प्रकार सरल रचना होने-ही-से, इस ग्रन्थका, प्रवन्धचिन्तामणि वगैरह प्रन्थोंकी अपेक्षा, अधिक प्रसार और वाचन-पठन होता रहा है और इसी कारण इसकी प्राचीन हसलिसित प्रतिया जहा वहा भण्डारोंमे यथेष्ट सरयाम उपलब्ध होती है। ६९. प्रस्तुत आवृत्तिकी सशोधन-सामग्री इस ग्रन्थका पाठ-सगोधन करनेमे हमने जिन जिन प्रतियोंका मुख्य आधार लिया है, उनका वर्णन इस प्रकार है। A. प्रति -पाटणके सघवाले ग्रन्थभण्डारसे प्राप्त प्रति। इसके अन्तभागमे लिपिकाने अपना नाम-ठाम आदि सूचक इस प्रकार पुप्पिका-लेस लिसा है- सवत् १४५८ वर्षे प्रथम भाद्रपद शुदि ११ एकादश्यां तिथौ बुधवारे श्रीसागरतिलकसरिणा स्वशिष्यपठनार्थं श्रीअणहिल्लपुरपत्तने प्रवन्धानि राजशेप(ग्व)र सूरिविरचितानि आलिलिखे । यादृश पुस्तके दृष्ट तादृश लिग्वित मया । यदि शुद्धमशुद्धं वा मम ढोपो न दीयते ॥१॥ अर्थात्-सवत् १४५८ के वर्पके प्रथम भाद्रपद मासकी शुदि ११ और बुधवारके दिन, सागरतिलक सूरिने अपने शिष्यके पढनेके लिये, अणहिल्लपुर पाटनमै, राजशेसर सूरिके बनाए हुए इन प्रपन्धाकी प्रतिलिपि की । इससे सूचित होता है कि इस प्रतिको एक विद्वान् आचार्यने अपने हाथसे लिसी है और सो भी निजके शिष्यके पढने के लिये, अत इसे एक उत्तम प्रकारकी, आदर्शभूत, प्रति कहना चाहिए । इसके अक्षर बहुत ही सुन्दर और सुवाच्य है तथा पाठ भी प्राय शुद्ध और निर्धान्त है। इसके पन्नोंकी कुल संख्या १०५ है। पन्नोमा नाप, अन्य सर्व सामान्य प्रतियोंसे कुछ वडा है । वे लम्बाईमे करीव पूरे १ फूट, और चौडाईमे करीव ५ इच जितने है। पन्नेकी प्रत्येक पूठी (पृष्टि-पार्श्व) पर १५-१५ पक्तिया है ! मध्य भागमे, दोनों तरफ, कहीं चतुष्कोण और कहीं कुण्डाकृतिके रूपमे १-१इच जितनी जगह कोरी रन दी गई है, जिसमें, पुरातन तालपत्री पोथियोकी तरह सूत पिरोनेके लिये छेद बने हुए हैं। प्रत्येक पक्तिमे, जहा जहा आवश्यकता मालूम दी, पदच्छेद बतलानेके लिये, अक्षरोंके शीर्ष पर वैदिक स्वर- चिह्नके ढगकी ऐसी सूक्ष्म दण्ड-रेसा दे दी गई है। स्वर-सन्धिके नियमानुसार जहा स्वरोंका लोप अथवा सन्धि होकर रूपान्तर हो गया मालूम दिया, और जिससे पटनेवालेको पदच्छेद या सन्धिच्छेद करनेमे कुछ लिष्टता प्रतीत होती मालूम दी वहा, लिपिाने उन उन अक्षरोंके सिरे पर, तत्तत् स्वरसूचक कुछ चिह्न आदि लिस दिये हैं । यथा 'अ' अक्षरके लिये 5 ऐसा सूक्ष्म अवग्रह चिह्न लिसा है, 'आ' के रिये कहीं A ऐसी और कहीं ऐसी, कारुपादके * इस पत्ति के बाद, निम लिखित ५-६ पद्य भी लिपिफताने कहींसे लिस लिये मालम देते है। दाता बलियाचयिता मुरारिन मही याचि मुखस्य काले । दातु फल बन्धनमेव जात नमो नमस्ते भवितव्यताये ॥१॥ मात पाणिनि सणु प्रलपित कातन्त्रकन्था वृथा मा कार्यो कटु शाकटायनवच क्षुद्रेण चान्द्रेण किम् । क फण्ठाभरणादिमिठरयत्यात्मानमन्येरपि श्रूयन्ते यदि तारदर्थमधुरा श्रीसिद्धहेमोक्तय ॥२॥ गोअटी पडिऊ पिच्छ हले गोकुसुमतले णहि पिच्छ हले। गोचरणथियाऊ पिच्छ हले गोदतिहिं सजई पिच्छ हले ॥३॥ वटवृक्षो महानेप मार्गमावृत्य तिष्ठति । तावत्वया न गन्तव्य याचदन्यन गच्छति || ॥ नमो दुर्वाररागादिजेने ते यत्र य ससा । न्यायसम्पन्नविभव, सादरोपि निमुचति ॥ ५ ॥ अहिंसापरमो धमों पैरवारनिवारणे । फातनस्य प्रवक्ष्यामि कथा तुभ्यमह हितात् ॥ ६॥ Page 19**************************************************************************************** प्रवन्धकोश आकारकी रेखा दी है; और 'इ' के लिये “ ऐसा सङ्केत किया है। 'उ' के लिये उ ऐसा छोटा कदका उकार, 'ए' के लिये ए और 'ऐ' के लिये ए ऐसा पृष्टमात्रायुक्त 'ऐ'कार लिया हुआ है । सम्बोधनात्मक पदको स्पष्टतया सूचित करनेके लिये उसके ऊपर ह ऐसा पृष्टमात्रावाला 'हे'कार लिख दिया गया है। अनेक स्थलों में, शब्दविशेषों पर- खास करके प्राकृत शब्दों पर-कुछ टिप्पनके रूपमें, प्रतिशब्द या अर्थबोधक देश्य झब्द भी, हाशियोंमें लिख दिये गये हैं और उनका स्थान निर्दिष्ट करनेके लिये उस उस शब्दके ऊपर = ऐसा छोटा डवल उस दे दिया गया है । इस प्रकार, इस प्रतिको लिपिकर्ताने वडे अच्छे ढंगसे बहुत ही स्पष्ट और सुवाच्य बनानेकी इच्छासे-खूब प्रेमसे लिखा मालूम देता है। __ वास्तवमें, प्रवन्धकोश तो, इस प्रतिमें, ९२ वें पन्नेकी पहली पूंठी पर समाप्त होगया है। उसके पीछे, लिपिकाने प्रवन्धचिन्तामणिके प्रथम प्रकाश गत मुजराजचरितके प्रारंभसे लेकर, भोज-भीमभूप-वर्णन नामका उसका पूरा दूसरा प्रकाश (-हमारी आवृत्तिके पृष्ठ २१ से ५२ तकका, मुंज-भोजके सम्बन्धका, समग्र वृत्तान्त) लिख दिया है। अन्तमें इस प्रकार प्रवन्धचिन्तामणिका यह प्रकरण लिखा हुआ होनेसे, उक्त भण्डारकी सूचिमे इस प्रतिका नाम भी केवल प्रवन्धचिन्तामणि ही लिखा हुआ है । प्र० चि० का सम्पादन करते हुए हमने इस प्रतिका भी, उक्त प्रकरणके पाठ-संशोधनमें उपयोग किया था और इसकी संज्ञा वहां Pa रखी थी (-देखो प्र० चिं० प्रसावना, पृष्ट ७.) ___ इस प्रतिके कुछ पन्ने नष्ट होगये मालूम देते हैं । १० से २० तकके पन्ने किसी दूसरेके हाथके लिखे हुए हैं और पीछेसे इसमें मिलाये हुए हैं। ४२ और ४३ वें पन्ने हैं तो इसी लिपिकर्ताक हाथके लेकिन हैं वे किसी दूसरे ग्रन्थके । ये दो पन्ने किसी नाटकके हैं । आद्यन्त न होनेसे नाटकका नाम नहीं मिल सका । हरिश्चन्द्र विपचक कोई प्रकरण है। ४३ व पन्नेमें उसका ५ वा अंक समाप्त होता है। मालूम देता है, सागरतिलक सूरि-ही-के हाथकी लिखी हुई नाटकग्रन्थकी कोई प्रति, और प्रवन्धचिन्तामणिकी यह प्रति, कभी किसी वेष्टनमें, एक साथ वन्धी रही होगी और कभी किसी कारणसे पन्नोंमें गडवड उपस्थित होनेसे, इसके पन्ने उसमें और उसके पन्ने इसमें, रख दिये गये होंगे। पन्नोंका रंग-ढंग और नाप आदि एकसा ही होनेसे ऐसी गडवडीका होना सहज है। __B प्रति.-पाटणवाले उसी भण्डारमेंकी दूसरी प्रति । इसकी पत्र-संख्या कुल ५७ है । लिपिकर्ता वगैरहका कोई उल्लेख नहीं है । अक्षर अच्छे हैं लेकिन पाठ-शुद्धि साधारण है। प्रति है पुरातन; करीब च्यार सौ वर्षसे पहलेकी लिखी हुई होगी। ___C प्रति.-उक्त भण्डारमेंकी एक तीसरी प्रति । यह प्रति त्रुटित है। इसमें, वीच वीचमें से, बहुतसे पन्ने नष्ट होगये हैं। इसके अक्षर अच्छे वडे और सुवाच्य हैं। परंतु वहुतसा भाग खण्डित होनेसे इसका कुछ अधिक उपयोग न हो सका । अन्तके पन्ने भी वहुतसे नहीं हैं। इससे लिखे जानेके समय आदिका कुछ पता नहीं लग सका । प्रतिका रंग-ढंग देखनेसे मालूम देता है कि, यह, सम्भवतः A प्रतिसे भी कुछ पुरातन हो। E. D. प्रति. ये दोनों प्रतियां अहमदावादके सुप्रसिद्ध डेलाके उपाश्रयमें रक्षित ग्रन्थभण्डारमें से प्राप्त हुई हैं। ये दोनों एक ही लिपिकर्ताके हाथकी लिखी हुई हैं। इनका लिखनेवाला कोई व्यावसायिक लेखक है-जिसे गूजरातीमें लहीया कहते हैं। उसको भापा या विपयका किंचित् भी ज्ञान नहीं मालूम देता । 'चतुर्विंशतिप्रवन्धा' की जगह 'चतुव्यंशतंप्रवन्धाः' और 'शिवमस्तु' के स्थान पर 'शवमस्तु' लिखा है । B प्रतिके अन्तमें उसने अपना नाम-निर्देश 'पंडत भूधरसुत पंडत मेघा लिखितं ॥' इस प्रकार किया है। D प्रतिके अन्तमें लेखनसमाप्तिके समयका भी उल्लेख है । यथा- संवत् १५२९ आसोविदि ९ भोमे । पंडित मेघा लिखितं । Page 20**************************************************************************************** प्रास्ताविक वक्तव्य । ___E प्रतिकी पत्रसख्या ५७ है, और D की ६९ । इसके सिवा दोनों प्रतियोंमे और कोई विशेष भेद नहीं है। कहीं __ कहीं कुछ पाठ-भेद, जो शब्द या अक्षर अशुद्धिके कारण, दिखाई देता है वह पडित मेघाफी अज्ञताका परिणाम है। P प्रति -पाटणकी हेमचन्द्राचार्य ग्रन्थावलीमे प्रकाशित, पोथीके आकार-ही-मे छपी हुई १३८ पत्राङ्कवाली प्रति । ___ यह प्रति वि० स० १९७७ मे छपी है। वीरचन्द्र और प्रभुदाम नामक श्रावक पण्डितोंने इसका सगोवन किया है। सशोधनसे मतलब सिर्फ व्याकरणकी दृष्टिसे पाठको शुद्ध बना देना और उसे छपा देना इतना ही समझना चाहिए। इससे अधिक कुछ परिश्रम करना, एकाधिक प्रतियोंका मिलान कर पाठकी शुद्धा-शुद्धिका निर्णय करना, भिन्न भिन प्रतियोंमे प्राप्त पाठोका सग्रह करना और उसे यथोचितरूपमे मुद्रित करना-इत्यादि प्रकारकी जो आधुनिक ग्रन्थ- सम्पादनी शास्त्रीय पद्धति है उससे हमारा पुराणप्रिय पण्डित-मण्डल और साधु-समाज प्राय अज्ञान है । अत यथापि जैन समाजम, पिछले कुछ वर्षोंसे, ग्रन्थोंके प्रकाशित करनेकी प्रवृत्तिका सूप उत्साहके साथ प्रसार हो रहा है, तथापि उक्त कारणले, विद्वत्समाजमे उसकी प्रतिष्ठा जितनी होनी चाहिए उतनी नहीं हो पाती और उसके अभानमे हमारे अनेकानेक असाधारण महत्तनाले ग्रन्थ-रत्न भी विद्वानोंका लक्ष्य आफर्पित नहीं कर सकते। अस्तु । ___यह P सजक पुस्तक जिम पुरातन प्रतिके उपरसे मुद्रित की गई है, उसके अन्तिमोल्सको, सशोधक पण्डितोंने, जैसामा वमा ही छाप देनेकी उदारता वतलाई है इससे उसके लिपि का नाम स्थानादिका पता लग जाता है। यह उल्लेस इस प्रकार है- श्रीमत्तपागच्छे प० सागर धर्मगणयः (1) तच्छिष्य प० कुलसारगणयस्तेनैपा प्रतिः सम्पूर्णी- कृता सपरोपकारार्थम् । मणूदगामे लिखिता । एषा प्रतिर्वाच्यमानाविचलकाल नन्दतात् ।। यह प्रति, उक्त अन्य सर प्रतियोंसे, कुछ विशेप पाठ-भेद रसती है । यद्यपि यह पाठ-भेद वैसा कोई विशेष मह- नवाला नहीं है-प्राय ग्रन्थकारके अध्याहृत शब्द, पद या वाक्यागोंको उल्लिसित कर देनेवाला मान है- तथापि इमकी बहुलता अवश्य उसयोग्य है । इसका यह पाठ-भेद एक प्रकारसे प्रक्षिप्त-पाठात्मक हैं, और इसीलिये हमने इसको [ ] ऐसे चतुप्पोण कोष्ठकके भीतर रसा है। वस्तुपाल-तेज पालप्रवन्धमे इमकी विपुलता अधिक उपलब्ध होती है। __v प्रति मेरल वस्तुपाल-तेज पालप्रवन्धवाली एक ९ पन्नोंकी प्रति हमारे निजके सग्रहमे है, जिसका उपयोग हमने उक्त प्ररन्धके पाठसयोधनमे किया है। यह प्रति अच्छी और शुद्धप्राय है । इसका आलेसन स० १४७७ मे हुआ, ऐमा इम पुष्पिकालेससे विदित होता है- सवत् १४७७ वर्षे पौपवदि १० भूमौ । सूर्यपुरे लिखित ॥ छ । ___ इम प्रपन्य अन्तिम पृष्टमे कुछ जगह साली होनेके कारण, पीछेसे किसी दूसरेने, मनी वस्तुपालने जो जो मुमत कार्य रिये उनी एक तालिका लिस ली है, जिससे हमने, प्रस्तुत पुस्तकमे, परिगिष्ट १ के रूपमे (पृष्ठ १३२ पर) मुद्रित कर दी है। इम तालिकाके पृष्ठी पिछली वाजू पर, जैन आगम ग्रन्थोकी नामावलि लिखी हुई है और उसके अन्तम इस प्रकारका पुप्पिका-लेस है- संवत् १४७९ वर्षे चैत्रवदि तृतीया शुक्रे श्रीसूर्यपुरे भद्दा० श्रीरत्नसिहसूरिशिष्य पडित- राजकलोलगणिना लिग्विता ।। श्रीः ।। इमसे ज्ञात होता है कि उक्त वस्तुपाल प्र० लिखे जानेके २ वर्ष वाद, पडित राजकल्लोल गणिने वस्तुपालकी यह मुस्तसूचि लिसी है । यह सूचि बहुत अगोंमे तो उस सूचिसे मिलती-जुलती है, जो राजशेसर सूरिने प्रसन्यकोशके आसिरी भागमे दी है। प० राजक्होल गणिकी लिखी हुई सूचि, जैसा कि उसरे प्रारभरे उल्लेससे ज्ञात होता है, वस्तुपालरे वनवाये हुए सोपारा ग्रामके आदिनाथके मन्दिरमेकी प्रास्त प्रशस्ति परसे लिखी गई है। अत उसकी ऐतिहासिकता निस्सन्देह प्रमाणभूत मानी जा सकती है। Page 21**************************************************************************************** प्रवन्धकोश ६१०. चाहमानवंशकी नामावलि ___ प्रवन्धकोशकी कितनीएक प्रतियोंमें, ग्रन्थान्तमें, सपादलक्ष देश-(सवालख, राजपूतानेके जयपुर राज्यका कुछ भाग) जिसका प्रसिद्ध नाम शाकम्भरी (सांभर ) प्रदेश भी है-पर राज्य करनेवाले पराक्रमी और रणवीर चाहमान वंशके राजाओंकी नामावलि लिखी हुई मिलती है। इस नामावलिका प्रबन्धकोशके साथ कोई सम्बन्ध न होने पर भी, यह इसकी प्रतियोंमें क्यों लिखी मिलती है इसका कुछ कारण ज्ञात नहीं होता। हमने, उपर्युल्लिखित जितनी प्रतियां, प्रस्तुत सम्पादनके काममें ली उनमें से B, D और E नामकी प्रतियों में यह वंशावलि लिखी मिली है। इसको हमने पुस्तकान्तमें, द्वितीय परिशिष्टके रूपमें दे दिया है।। ११. सुभाषितवचनावलि __ इस ग्रन्थका पठन करते समय, इसमें हमें कुछ ऐसे भी वाक्य, पद्यांश या पंक्त्यंश मालूम दिये जो सुभाषितके ढंगके हो कर विद्वानोंको वाग-व्यवहारमें लानेके कामके हो सकते हैं। उन सबका, पृथक् नारण कर, तीसरे परिशिष्टके रूपमें, पृष्ठ १३५-३६ पर, उन्हें मुद्रित कर दिया है । १२. द्वितीयभाग-हिन्दी भाषान्तर प्रास्तावित ग्रन्थका संपूर्ण हिन्दी भापान्तर, द्वितीय भागके रूप में प्रकट होगा। ग्रन्थगत ऐतिहासिक वातोंका विस्तृत विवेचन और ग्रन्थकर्ताका विशेष परिचय आदि अन्य जातव्य बातें, उसी में विस्तारके साथ लिखी जायंगी। इस लिये उस विषयमें यहां और कुछ कहना अप्रासङ्गिक होगा। ६१३. प्रतियोंके पत्र-पृष्ठोंकी कुछ प्रतिकृतियां सम्पादनकार्यमें प्रयुक्त, उपर्युक्त जिन प्रतियोंका हमने वर्णन दिया है उनमें से, A प्रतिके १, ९१ और १०५ वें । पत्रके एक एक पृष्ठका B, E, और D प्रतियोंके अन्तिम पृष्ठोंका, और ए प्रतिके आवन्त दोनों पृष्टोंका हाफ्टोन ब्लॉक वनवा कर उनके चित्र भी इसके साथ दे दिये हैं जिससे जिज्ञासु पाठकोंको उनकी लिपि आदिका प्रत्यक्ष दर्शन हो सकेगा। अन्तमें, पाटण और अहमदावादके उक्त भण्डारोंमें से, जो ये प्रतियां हमको प्राप्त हुई, उसके लिये, हम उन भण्डार-रक्षकोंके और प्रतियां प्राप्त करा देनेवाले सज्जनोंके पूर्णतया कृतज्ञ हैं। किं बहुना ? । पोष शुक्ल १, संवत् १९९१ ) अनेकान्त विहार भारती निवास अहमदावाद.) जिन विजय Page 22**************************************************************************************** ॥ ॐ अहम् ॥ श्रीराजशेखरसूरिविरचितः चतुर्विशतिप्रबन्धापरनामा ॥प्रबन्ध को शः॥ 10 राज्याभिषेके कनकासनस्थः सर्वाङ्गदिव्याभरणाभिरामः। श्रियेऽस्तु वो मेरुशिरोऽवतसः कल्पद्रुकल्पः प्रथमो जिनेन्द्रः॥१॥ विवेकमुच्चैस्तरमारुरोह यस्ततोऽद्रिशृङ्गं चरण ततस्तपः। ततःपर ज्ञानमयोत्तमं पदं श्रियं स नेमिर्दिशतृत्तरोत्तराम् ॥ २॥ यस्मै स्वयंवरसमागतसप्ततत्त्वलक्ष्मीकरग्रहणमाचरतेति भक्त्या। सप्त व्यधात्फणिपतिः फणमण्डपान्किं वामानभूः स भगवान् भवतान्मुदे वः॥३॥ अर्थेन प्रथमं कृतार्थमकरोद् यो वीरसवत्सरे दाने च व्रतपर्वजेऽयं परमार्थेनापि विष्वग जनम् । यद्दत्ताऽऽगमशुद्धवीजकवलादद्यापि तत्त्वाभिधा लभ्यन्ते निधयो बुधैर्भरतभुव्यस्या स धीरः श्रिये ॥४॥ देयासुर्याय मे जिनपगणभृतो भारती सारतीव्रा भारत्याः सौम्यदृष्ट्या विलसतु मम सा सन्तु सन्तः प्रसन्नाः। सूरिमें सद्गुरुः श्रीतिलक इति कलाः स्फोरयत्वस्तविनः शिष्याः स्फुर्जन्तु गर्जन्त्वविरलसुकृतश्रेणयः श्रावकौघाः ॥५॥ १) इह किल शिष्येण विनीतविनयेन श्रुतजलधिपारगमस्य क्रियापरस्य गुरोः समीपे विधिना 15 सर्वमध्येतव्यम् । ततो भव्योपकाराय देशना क्लेशनाशिनी विस्तार्या । तद्विधिश्चायम्-अस्ख- लितम्, अमिलितम्", अहीनाक्षर सूत्रमुच्चार्यम्" । अग्राम्यललितभङ्गयार्थः कथ्यः । कायगुप्तेन परितः सभ्येषु दत्तदृष्टिना यावदर्थबोध वक्तव्यम् । वक्तुः प्रायेण चरितैः प्रवन्धैश्च कार्यम् । तन्त्र श्रीपभादिवर्धमानान्तानां जिनानाम्, चक्र्यादीनां राज्ञाम्, ऋषीणां चार्यरक्षितान्तानां" धृत्तानि चरितानि उच्यन्ते । तत्पश्चात्कालभाविनां तु नराणा वृत्तानि प्रवन्धा इति। 20 ३२) इदानीं वय गुरुमुखश्रुतानां विस्तीर्णानां रसाढयानां चतुर्विशतेः प्रधानां सङ्ग्रह कुर्वाणाः स्म । तत्र सूरिप्रवन्धा दश, कविप्रवन्धाश्चत्वारः, राजप्रवन्धाः सप्त, राजाद्गश्रावकम- 1P भरणे। 2CP तर। 3 AB फ्ण. 40 च। 5AB गुर। 60 सुहत। 70 इह हि । 8B दिनये। 9C देगिना। 10 A नाशी। 11 B नास्ति पदमिदम् । 12 B विना नास्त्यन्यनेद पदम् । 13 C चरितश्च । 14C रक्षिताना। 15 P नास्त्येवरपदम् । Page 23**************************************************************************************** प्रवन्धकोशे बन्धास्त्रयः, एवं चतुर्विंशतिः। १ भद्रबाहु-वरायोः , २ आर्यनन्दिलक्षपकस्य', ३ जीवदेवसूरी- णाम् , ४ आर्यखपटाचार्याणाम् , ५ पादलिप्तप्रभूणाम् , ६ वृद्धवादि-सिद्धसेनयोः, ७ मल्लवादिनः, ८ हरिभद्रसूरीणाम् , ९ बप्पभनिरीणाम् , १० हेमसूरीणाम् , ११ श्रीहर्पकवेः, १२ हरिहरकवेः, १३ अमरचन्द्रकवेः, १४ दिगम्बरमदनकीर्तिकवेः, १५ सातवाहन-१६वकंचूल-१७ विक्रमादित्य- 5१८ नागार्जुन-१९ उदयन-२० लक्षणसेन-२१ मदनवर्मणाम् , २२ रत्न-२३आभड-२४ वस्तु- पालानां चेति । एषु प्रथमं भद्रवाहु-वराहप्रबन्धः। १. भद्रबाहु-वराहप्रवन्धः । ६३) दक्षिणापथे प्रतिष्ठानपुरे भद्रवाहु-वराहाहौ द्वौ द्विजौ कुमारौ निर्धनौ निराश्रयों प्राज्ञी वसतः । तत्र यशोभद्रो नाम चतुर्दशपूर्वी समागतः। भद्रवाहु-वराही तद्देशनां शुश्रुवतुः। यथा- 10 १. भोगा भङ्गुरवृत्तयो बहुविधास्तैरेव चायं भवस्तत्त्वस्येह कृते परिभ्रमत रे ! लोकाः! सृतं चेष्टितैः । ___ आशापाशशतोपशान्तिविशदं चेतः समाधीयतां काप्यात्यन्तिकसौख्यधामनि यदि श्रद्धेयमस्मद्वचः ॥ १॥ ___एतच्छ्रवणमानत एव प्रतिवुद्धौ गृह" गत्वा तौ मन्त्रयेते स्म-जन्म कथं वृथा नीयते? । तावद्भोगसामग्री नास्ति, तर्हि योगः साध्यते। २. अग्रे गीतं सरसकवयः पार्श्वतो दाक्षिणात्याः पृष्ठे लीलावलयरणितं चामरग्राहिणीनाम् । 15 __ यद्यस्त्येवं कुरु भवरसास्वादने लम्पटत्वं नो चेचेतः ! प्रविश सहसा निर्विकल्पे समाधौ ॥२॥ __ -इति विमृश्य द्वावपि वान्धवौ प्रवव्रजतुः । .६४) भद्रबाहुश्चतुर्दशपूर्वी षट्त्रिंशद्गुणसम्पूर्णः सूरिरासीत् । दर्शवैकालिक-उत्तराध्ययन- दशाश्रुतस्कन्ध-कल्प-व्यवहार-आवश्यक-सूर्यप्रज्ञप्ति-सूत्रकृत-आचाराङ्ग-ऋपिभाषिताख्यग्र- न्थदशकप्रतिवद्धदशनियुक्तिकारतया पप्रथे, "भाद्रवाहवीं नाम संहितां च व्यरचयत् । तदा 20 आर्यसम्भूति विजयोऽपि चतुर्दशपूर्वी वर्तते । श्रीयशोभद्रसूरीणां स्वर्गगमनं जातम् । भद्रयाहु- सम्भूतिविजयौ लेहपरौ परस्परं भव्याम्भोरुहभास्करौ विहरतो' भरते पृथक् पृथक् । वरा- होऽपि विद्वानासीत् । केवलमखर्वगर्वपर्वतारूढः सूरिपदं याचते भद्रवाहाहसहोदरपार्थात् । भद्रवाहुना भाषितः सः-वत्स! विद्वानसि, क्रियावानसि, परं सगर्वोऽसि । सगर्वस्य सूरिपदं न दमः। एतत्सत्यमपि तस्मै न सखदे। यतो 'गुरुवचनममलमपि सलिलमिव महदुपजनयति 25 श्रवणस्थितं शूलमभव्यस्य' । ततो व्रतं तत्याज । मिथ्यात्वं गतः पुनर्द्विजवेषं जग्राह । ६५) व्रतावस्थाऽधीतशास्त्रार्थज्ञतया वाराहसंहितादिनवीनशास्त्ररचनायां प्रजगल्भे'; लोकेषु च जगाद-अहं बाल्ये लग्नमभ्यस्यामि स्म । तद्विचार एव लीनस्तिष्ठामि स्म । एकदा प्रतिष्ठाना- हहिः शिलायामेकस्यां लग्नं मण्डयामि स्म । सायममृष्ट एव तस्सिन् स्वस्थानमागत्य स्वपिमि स्म । सुप्तोऽहं तल्लग्नममृष्टं स्मरामि स्म । ततो माटुं तत्र यामि स्म । तत्र लग्नाधिष्ठिते शिलातले 30 पञ्चानन उपविष्टोऽभूत् । तथापि तदुदरदेशे करं निक्षिप्य मया तल्लग्नं मृष्टम् । तावता" पञ्चाननः 1 P क्षपणकस्य । 2 B ०खपुटा। 3 B वप्पहट्टि० C वप्पभट्ट०। 4 A वज्रः। 5C रत्नश्रावक०। 6 P तेषु । 7 AB 'वराह' नास्ति । 8 C निराश्रियौ। 9 C तत्र च। 10 C श्रितं । 11C गृहे। 12 CP भग। 13 AB संभूतः। 14 BC विहरती। 15 BC नास्त्येतत्पदम् । 16 P प्रगल्भे। 17 A तावत् । Page 24**************************************************************************************** भद्रवाहु-वराहप्रबन्ध साक्षाझास्कर एवाभृत् । तेनाह भापितः वत्स । तव दृढनिश्चयतया लग्नग्रहद्भक्त्या च वाढ तुष्टोऽस्मि । रविरहम्, वर वृणीष्व । अथ मयोक्तम्-स्वामिन् । यदि प्रसन्नोऽसि, तदा निजविमाने चिरं मामवस्थाप्य, सकलमपि ज्योतिश्चक्र में दर्शय । अथाह मिहिरेण चिरं स्ववि- मानस्थः खे 'भ्रामितोऽस्मि । सूर्यसङ्क्रमितामृतसन्तर्पितेन च मया क्षुत्नृपादिःखं न किञ्चिद- नुभूतम् । कृतकृत्यश्च सूर्यमापृच्छय ज्ञानेन च जगदुपका महीलोक भ्रमन्नस्मि । अह 'वराह- 5 मिहिरः' इति वाच्यः । इत्यादि स्वैर प्रख्यापयामास । सम्भाव्यत्वात् लोके पूजा परमामाप"। प्रतिष्ठानपुरे शत्रुजित भूपालं कलाकलापेन रञ्जयामास । तेन निजपुरोहितः कृतः। यतः- ३ गौरवाय गुणा एव न तु ज्ञातेयडम्बर । वानेय गृह्यते पुष्पमङ्गजस्त्यज्यते मल ॥३॥ ___E) अथ श्वेताम्बरान्निन्दति-किममी वराकाः काका विदन्ति ।मक्षिकावद्भिणिहणायमानाः कारास्था इव कुचेलाः कालं क्षपयन्ति । क्षपयन्तु । तच्छृण्वतां श्रावकाणां शिरःशूलमुत्पेदे । धिगि- 10 दामस्माक जीवितम् । येन गुर्ववज्ञां सहामहे । किं कुर्मः? । अय कलावानिति नरपतिना पूज्यते। राजमि पूज्यते यश्च सर्वेरपि स पूज्यते । भवतु । तथापि भद्रबाहुमाह्वयामस्तावत् । इति समय तथैव चकुः । आगताः श्रीभद्रया- हवः। कारितः श्रावकैः सस्पर्दि" प्रवेशमहः। स्थापिता गुरवः सुस्थाने । नित्य व्याख्यारसानास्त्रा. दयामासुः सभ्याः। भद्रयाबागमे स" वराहो वाढ मम्लौ" । तथापि तेभ्यो नापकर्तुमशकदसौ ।15 ६७) अब्रान्तरे वराहमिहिरगृहे पुत्रो जातः । तज्जन्मतुष्टः प्रभूत धनं व्ययति स्म । लोकाच पूजामामोति स्म । 'पुत्रस्य वर्षशतमायुः' इति तेन नरेन्द्रादिलोकाग्रे सभासमक्ष प्रख्यापितम् । गृहे उत्सवादयस्तस्य । एकदा सदसि वराहः प्राह स्म"-अहो! सहोदरोऽपि भद्रबाहुम पुत्रजन्मो- त्सवे नागात्-इति याद्या एते । एतदाकर्ण्य श्रावकैर्भद्रवादुर्विजप्तः-एवं" एव असौ वदन्नास्ते । गम्यतां भवहिरेकदा तद्गृहम् । ना वृधन्मुधा क्रोधः । श्रीभद्रबाहुनाऽऽदिष्टम्-"द्वौ क्लेशो 20 कथ कारयध्वे? । अयं वालः सप्तमे दिने निशीथे बिडालिकया घानिप्यते । तस्मिन्मृते शोकवि- सर्जनायापि गन्तव्यमेव तावत् । तत. श्रावकैरूचे-तेन विप्रेणोपराजमर्भस्य "समागत- मायुरुक्तम् । भवद्भिः "पुनरित्थंमादिश्यते । किमेतत् । श्रीभद्रबाहुनामिना भणितम्-जानस्य प्रत्ययः सारम् , स चासन्न एवास्ते । स्थितास्तृप्णी श्रावकाः । आगत सप्तम दिनम् । तत्रैव द्विपहरमान्य राज्यां बाल स्तन्य पाययित धान्यपविष्टा । द्वारशाम्बाग्रेन्य गेला 25 बालमस्तके पतिता जनान्तरसञ्चारात् । प्रमीतो वाल । रुद्यते वराहगृहे । मिलितो लोकः। भद्रयाहुनाऽपि श्रावका उक्ताः-गोकापनोदो धर्माचार्यः' इति तत्रास्माभिरधुना गन्तव्यम् । श्रावफशतवृता" गतास्तत्राचार्याः । वराहः शोकशङ्कुसकुलोऽप्यभ्युत्थानाशुचितमकरोत् । अभ्यदधाच-आचार्याः । भवता ज्ञान मिलितम् । केवल विडालीतो मृत्युन, किन्त्वर्गलातः । 1AB हठया । 2 P 'या' नाम्नि! 3 P स्थापय । 4A मपि में। 5A प्रदर्शय । GA विहाय "मिहरेण', 7P पिनाइन्यत्र 'प्रमिता। 8AB क्षुत्तपादि। 9B'च' नाम्नि। 10 B सम्मा यत । 11C परमाप, P परमामाप्य । 12 AC पदन्ति । 13 AB धिगलाक। 14 P ससई०। 15 P नास्ति 'स'। 16 A मम्ले। 17 AB व्यययनि । 18.1 ग्राहस्य । 19 Bण्यममा। 20 CD विमानायामपि। 21 P 'तत' नाम्नि। 22 A समा । 23P पुनरिद । 21P मानायर्या रात्री। 25 AB रामे। 26 P ममतो। 27 PC वावृता। 28 CP 'श' नासि। 29 A गंठीत । Page 25**************************************************************************************** प्रवन्धकोशे भगवाहुना 'निजगदे-तस्या अर्गलाया लोहमय्या अग्रभागे रेखामयी विडाल्यस्ति, नासत्यं ब्रूमः । आलीयांवलोकिताऽर्गला, तथैवास्ते । अथोवाच वराहः- तथा पुत्रशोकेन न खिद्येऽहम् , यथा राजविदिताख्यातपुत्रशतायुष्क वैफल्येन खिद्ये । धिगमीषां निजपुस्तकानां प्रत्ययेनास्मा- भिर्ज्ञानं प्राकाशि । एतान्यसत्यानि तस्मात् मृज्मः-इत्युक्त्वा कुण्डानि जलैरपूपुरत् । 5 पुस्तकानि माष्टुं स यावदारभते, तावद्भद्रबाहुना बाहौ धृत्वा वारितः-आत्मप्रमादेन ज्ञानं विनाश्य कथं पुस्तकेभ्यः कुप्यसि ? । एते पुस्तकाः सर्वज्ञोक्तमेव भाषन्ते, ज्ञाता तु दुर्लभः। अमुकस्मिन् अमुकस्मिन् स्थाने त्वं विपर्यस्तमतिर्जातः, आत्मानमेव निन्द । __४. प्रभुप्रसादस्तारुण्यं विभवो रूपमन्वयः । शौर्य पाण्डित्यमित्येतदमचं मदकारणम् ॥ ४॥ ___ मत्तस्य च कुतो विचारसूक्ष्मेक्षिका ?। तस्मान्मा भाजीः पुस्तकान् । इति निषिद्धः, विलक्षी- 10 भूय स्थितो वराहः । तत्रान्तरे पूर्व तत्कृतार्हन्मतगर्हापीडितमनसा केनापि श्रावकेण पठितम्- ५. युष्मादृशाः कृपणकाः कृमयोऽपि यस्यां भान्ति स्म सन्तमसमव्यगमन्निशाऽसौ । सूर्यांशुदीप्तदशदिदिवसोऽधुनाऽयं भात्यत्र नेन्दुरपि कीटमणे ! किमु त्वम् ॥ ५॥ __इति वदन्नेव नष्टः सः । वाढं पीडितो वराहः। अत्रान्तरे स्वयमागतो राजा। राज्ञोक्तम्- मा स्म शोचीः, भवस्थितिरियं विछन् ! । तदा जिनभक्तेन राजमन्त्रिणैकेन भणितम्-ते आचार्या 15 नवा आयाताः सन्ति, यैर्डिम्भस्य सप्ताहमात्रमायुरभाणि । ते सङ्गतवाचो महात्मानः । केनापि दर्शिता भद्रवाहवः-एते" ते । तदा द्विजस्तथा दूनो यथा स एव विवेद । गतो राजाऽपि, भद्रवाहुरपि, लोकोऽपि स्वस्थानम् । राजा श्रावकधर्म प्रतिपेदे । ___८) वराहोऽपमानाद्भागवती दीक्षां गृहीत्वाऽज्ञानकष्टानि महान्ति कृत्वा जैनधर्मद्वेषी दुष्टो व्यन्तरोऽभूत् । ऋषिषु द्वेपवानपि न प्रवभूव । 'तपो हि वज्रपञ्जरप्रायं महामुनीनां परप्रेरित- 20 प्रत्यूहपृषत्कदुर्भेदतरम्' । अतः श्रावकानुपद्रोतुमारेभे । गृहे गृहे रोगानुत्पादयामास । श्रावकैः पीडात्तैर्भद्रबाहुरादरेण विज्ञप्त:-भगवन् ! भवति सत्यपि यद्वयं रुग्भिः पीड्यामहे, तत्सत्य- मिदम्-'कुञ्जरस्कन्धाधिरूढोऽपि भषणैर्भक्ष्यते” इति । गुरुभिरभाणि-मा भैष्ट, सोऽयं वराह- मिहिरः पूर्ववैराद्भवद्भ्यो दुध्रुक्षति । रक्षामि पाणेरपि वज्रपाणेः । ततः पूर्वेभ्यः उद्धृत्य 'उवसग्गरं पासम्' इत्यादि स्तवनं गाथापञ्चकमयं सन्ददृभे गुरुभिः, पाठितं" च तल्लोके । 25 सद्यः शान्तिं गताः क्लेशाः । अद्यापि कष्टापहारार्थिभिस्तत्पठ्यमानमास्ते । अचिन्त्यचिन्तामणि- प्रतिमं च तत् । श्रीभद्रवाहनां विद्योपजीवी चतुर्दशपूर्वी श्रीस्थूलभद्रः परमतान्यचुचूर्णदिति । ॥ श्रीभगवाहु-वराहप्रवन्धः ॥१॥ 1 A भिजगदे। 2 CP आनीता। 3 CP तायुस्त्व०। 4 B प्रकाशितं । 5 A तस्मान्मृज्मः, B मृत्युः । 6 AB नास्ति । 7 P द्विर्नास्ति । 8 P 'च' नास्ति। 9 BCP याताः। 10 B सप्ताहमायु० । 11 B एतेन । 12 A भक्षितः। 13 A गुरुर। 14 A. वराहखेचरः, BC वराहवरः। 15 P दुधुक्षति। 16 C प्राणैरपि। 17 CP पठितं । 18 P लोकः। 19 A कष्टापहाधि० । 20 A .न्यनुचू० । Page 26**************************************************************************************** आर्यनन्दिलपमन्य । २. अथार्यनन्दिलप्रवन्धः । ६९) पद्मिनीग्चण्डपत्तने पद्मप्रभेनामा राजा । तस्य भार्या पद्मावती । तस्मिन् पुरे पद्म- दत्तनामा श्रेष्ठी वसति । तस्य कान्ता पद्मयशा नाम । तयोः सुतः पद्मनामाऽभूत् । वरदत्तेन सार्थवाहेन स्वकीया बरोट्या नाम पुत्री तस्य दत्ता । स तां व्यवायत् । ___ अन्यदा वरदत्तो वैरोट्याजनकः सपरिवारो देशान्तरं गच्छन् वनवेन दग्धः । वैरोट्या 5 'श्वभूः शुश्रूष्यमाणाऽपि निष्पितृकां भणित्वाऽपमानयति । यतः- ६ रूप रहो धन तेज सौभाग्य प्रभविष्णुता । प्रभावात्पैतृकादेव नारीणा जायते ध्रुवम् ॥१॥ सा श्वश्रूवचनैः कुकूलानलकर्कशैः पीडिताऽपि दैवमुपालभते, न श्वश्रू निन्दति । चिन्त- यति च- __७ सव्वो पुवकयाण कम्माण पावए फलविवाग । अवराहेसु गुणेमु य निमित्तमित्त परो होइ ॥ २॥ 10 ६१०) अन्यदा वैरोट्या भोगीन्द्रस्वमसूचित गर्भ धभार । पायसभोजनढोद उत्पन्नः। तदाऽऽचार्यनन्दिलनामा सूरिरुद्याने समवासापीत् , सार्द्धनवपूर्वधर आर्यरक्षितखामिवत् । श्वश्रूरिति वक्ति-अस्या वध्वाः सुता भविष्यति, न तु सुतः । इति कर्णकचकर्कशतद्वचः- पीडिता सती सा सती वधूः सूरिवन्दनार्थं गता । सूरयो वन्दिताः। 'स्वस्य श्वथ्या सह विरोधोऽ- कधि । सूरिभिरुक्तम्-पूर्वकर्मदोपोऽयम् , क्रोधो न वर्द्धनीयः भयहेतुत्वात् । वत्से। 15 ८ इह ए चिय कोवो सरीरसतावकलहवेराइ । कुणइ पुणो परलोए नरगाइसुदारुण दुक्स ॥३॥ पुत्र च लप्स्यसे । पायसदोदस्ते जातोऽस्ति । सोऽपि यथातथा पूरयिष्यते । इति सा सरि- वचसाऽऽनन्दितचित्ता निजगृहमागच्छत् , अचिन्तयच्च- ९ अस्मामिश्चतुरम्बुराशिरसनापिच्छेदिनी मेदिनी भ्राम्यद्भिः स न कोऽपि निस्तुपगुणो दृष्टो निशिष्टो जन । यस्याऽने चिरसञ्चितानि हृदये दु खानि सौख्यानि वा व्याख्याय क्षणमेकममथवा निश्वस्य विनम्यते ॥ ४॥20 एते तु" गुरवस्तादृशाः सन्ति । ६११) पद्मयशा अपि चैत्रपूर्णिमायामुपोपिता पुण्डरीकतपसि क्रियमाणे उद्यापनमारेभे । तदिने पायसपूर्ण"प्रतिग्रहो यतिभ्यो दीयते, साधर्मिकवात्सल्य च क्रियते । तया सर्व कृतम् । वध्याः पुनर्वैरभरीत्कुलत्यादि कदशन दत्तम्। वधू. पुनः स्थाल्यामुवृत्तं" पायस प्रच्छन्न गृहीत्वा वस्त्रे यद्धा घटे क्षिप्त्वा जलाशय" जलाय गता । वृक्षमूले कुम्भ मुक्त्वा यदा हस्तपादप्रक्षा-25 लनार्थं गता, तावताऽलिस्तरनामा नागः पातालेऽस्ति, तस्य कान्तायाः क्षीरांनदोहदः समजनि। पृथिव्यामायाता क्षीरान गवेपयति । तत्र तरोर्मूले घटमध्ये क्षीरान्नं दृष्टम् , भुक्त च । येन मार्गेणागता, तेनैव गता नागपत्नी । यदा वैरोट्या पादशौच कृत्वा समायाति, तावत् क्षीरान्न न पश्यति । तथापि न चुकोप, न विरूप पभापे । किन्त्वेव यभाण- येनेद भक्षित भक्ष्य पूर्यता तन्मनोरय । 1 BC नदिम। 2AC प्रमो। 3CDP नामा। 1A. दायेन। 5CD स्व । GAD भ| TAB कर्ण। 8Pत बस्स । 9 BC पूपिये। 10 ABD 'T' नास्ति। 11 P पूर्ण । 12P मावा। 13 Pउस । 14 Prया। 15D नाम्ति। 16P सिना.न्यत्र नाम्ति। 17 PCD पायम । Page 27**************************************************************************************** . प्रबन्धकोशे । इत्याशिषं ददौ । इतश्चालिञ्जरपत्न्या तर्वन्तरितस्थितया तस्यास्तदाशीर्वचनं श्रुतम् । स्वस्था- नमेत्य स्वभत्रै निवेदितं च । वैरोट्या स्वगृहमागता। ततो रात्रौ चैरोट्याप्रातिवेश्मिक्याः स्त्रिया: स्वप्ने नागपत्न्या कथितम्-भद्रे! अहं अलिझरनागपत्नी । मदीया तनया वैरोट्या । तस्याः पायसदोदोऽस्ति, स त्वया पूरणीयः । तथा तस्याने कथनीयम्-तव पितुहं नास्ति, परमहं 5 पितृसमानोपकारं करिष्यामि, श्वश्रूपराभवाग्नितापमुपशमयिष्यामि । तया प्रातिवेशिमक्या प्रातर्वैरोट्या क्षीरान्नं भोजिता । सम्पूर्णदोहदा सुनमजीजनत् । नागकान्तयाऽपि सुतशतमः सूयत । वैरोट्यापुत्रनामकरणदिने पन्नगेन उत्सवः कारितः । यत्र पितृगृहं पूर्व स्थितं तत्र धवलगृहं कारयित्वा पातालवासिभिनागैरलङ्कृतम् । गजा-ऽश्व-वरवाहन-पदाति-वर्गसहिता नागलोकाः समाययुः। तस्या गृहं लक्ष्म्या संकीर्ण चक्रुः। ['अलिञरपत्नी पतिना (पत्या?) .0 पुत्रैश्च युता दिव्यवस्त्र-पट्टकूल-वर्ण-रत्न-खचितसर्वाङ्गाभरणादिकं सर्व मनोज्ञं वस्तुसमूहं वैरो- ट्यायाः प्रतिपन्नसुतात्वेन पूरयति । वैरोच्या अलिश्चरपत्नीगृहे नित्यं यात्यायाति च । अलिञ्जर- पल्याऽतीव मान्यते, पूज्यते वैरोट्या। श्वश्रूस्तथारूपं पितृगृहमेलापकमिव दृष्ट्वा ['तां वैरोट्यां] वधू सत्कर्तुमारेभे-'लोकः पूजितपूजकः'। वैरोट्याया रक्षार्थ नागवध्वा [स्विकीयलघवः शतं पुत्राः] सर्पकाः समर्पिताः । तया सर्पा घटे क्षिप्ताः। तत्र च कयापि कर्मकर्या अग्नितप्तस्थाली- 15 मुखे सर्पघटो दत्तः । ['तत्क्षणमेव] वैरोट्ययोत्तारितः। पानीयेनाभिषिक्तास्ते ततः स्वस्थाः सम्पन्नाः । एकस्तु शिशुर्विपुच्छो जातः । यदा स' स्खलति क्षौति, तदा वैरोट्या ब्रूते-चण्डो जीवतु । वैरोट्या जातकस्य लेहेन मोहितास्ते सर्वे वान्धवरूपाः सर्पाः क्षौमरत्नवर्णादि दत्त्वा नामकरणं च कारापयित्वा" यथास्थानं ययुः । वैरोट्या नागप्रभावात् गौरवपात्रं जाता। __अन्यदालिञ्जरः स्वपुत्रं पुच्छरहितं दृष्ट्वा चुक्रोध । [मिम पुत्रः केन दुरात्मना विपुच्छ! 20 कृतः। ततो वैरोट्यया कृतो विपुच्छो मे पुत्रः-इत्यवधिना ज्ञात्वा वैरोट्याया उपरि पूर्व सुप्र- सन्नोऽपि चुकोप । ] कुपितः सन् विरूपं कर्तुं अवधिना" ज्ञात्वा वैरोट्यागृहमगमत् । अलिञ्जरो ___ गूढतनुर्गृहमध्ये स्थितः। यदा वैरोट्या ध्वान्तभरे सति गृहापवरकमध्ये प्रविष्टा, तदा तयो- __ क्तम्-चण्डो जीवतु चिरम् । तच्छ्रुत्वा नागराजः सन्तुष्टस्तस्यै नुपूरे ददौ। अद्यप्रभृति वत्से! __ त्वया पाताले आगन्तव्यम् , नागाश्च त्यगृहमेष्यन्ति-इति प्रसादः कृतः। सा वैरोट्या पाताले 25 गमनागमनं करोति, नागवरात् । ["नागदत्तः' इति नाम दत्तं पुत्रस्य ।] तदा पद्मदत्तो वैरो- ट्याश्वशुरः श्रीआर्यनन्दिलक्षपकैरेवमुक्तः त्वया स्ववध्वाऽग्रे कथनीयम् , नागाश्रयं गतया त्वया नागा वक्तव्या, भवद्भिर्लोकस्यानुग्रहः कर्तव्यः । कोऽपि न दंष्टव्यः । तत्सूरिवचनं श्वशुरेण तस्यै, तया च नागेभ्यः कथितम् । तत्र गता च वैरोट्या एवमुचैर्जगौ-साऽलिञ्जरपत्नी जीयात् । सोऽलिञ्चरोजीयात् । येनाहमपितृगृहाऽपि" सपितृगृहा कृता । अनाथापि सनाथा सञाता । भो 30 भो नागकुमाराः ! आर्यनन्दिलेन महात्मना एवमादिष्टम्-लोको न पीडयितव्यः। [लोकस्या- नुग्रहः कार्यः] वैरोट्या पुनरपि स्वगृहं गता । गुरुणा 'वैरोट्यास्तवो' नवो विरचितः। यो वैरोट्या- __ 1 AC'च' नास्ति । 2 P पितृकुलं । 3 AB नामकरणनामदिने। 4 ABD वासिभिरधिकृतं नागैः। 5 P विना 'लम्या' नास्ति । + P विनाऽन्यत्र नास्ति कोष्टकान्तर्गत एप पाठः। 6 P तथाविधं। 7 CD सर्पाः। 8 AB सुस्थाः । 9 AC यदासौ। 10 P क्षिती। 11 P च कारयित्वा। 12-13 P नास्ति । 14 B गृहमध्यं । 15 P विनाऽन्यत्र नास्ति । 16 AB करणीयः। 17 AB 'अहमपि सपितृगृहा' इत्येव। 18 ABD जाता। 1P विना नास्त्यन्यत्रैप पाठः । Page 28**************************************************************************************** जीवदेवसूरिप्रयन्धः । स्तवं पठति, तस्य पन्नगभयं नास्ति । पन्नगाः सर्वे वैरोटयया गुरोः पार्धमानीताः । उपदेशं श्राविताः । उपशान्तचित्ताः सवृत्ताः' । नागदत्तनामा चैरोट्यापुत्रः सौभाग्यरद्गभूरभूत् । पद्म- दत्तेन मियासहितेन व्रतं गृहीतम् ! तपस्तत्वा स्वर्ग गतः। पद्मयशा अपि तस्य देवत्व प्राप्तस्य इच्छासिद्धियुजो देवी सन्नाता। वैरोट्या च फणीन्द्राणां ध्यानान्मृत्वा धरणेन्द्रपत्नीत्वेनोत्पन्ना । तत्रापि 'वैरोट्या' इति नामास्याः। ॥ इति आर्यनन्दिलप्रवन्धः ॥२॥ 15 ३. अथ श्रीजीवदेवसूरिप्रवन्धः। ६१२) गूर्जरधरायांवायुदेवतास्थापितं वायट नाम महास्थानम् । तत्र धर्मदेवनामा श्रेष्ठी धन- वान् । तस्य शीलवती नाम गेहिनी गेहश्रीरिव देहिनी। तयोः सुतौ महीधर-महीपालौ । महीपाला फ्रिडाप्रियो न कलाऽभ्यास करोति । ततः पित्रा इतितो रुष्टो देशान्तरमसरत् । धर्मदेवश्रेष्ठी 10 परलोकं प्राप्तः । महीधरोऽपि श्रीजिनदत्तसूरीणां वायटंगच्चीयानां पादमूले प्रवव्राज । स राशि- सूरि म सूरीन्द्रो बभूव । महीपालोऽपि पूर्वस्यां दिशि राजगृहे पुरे दिगम्बराचार्यदीक्षां प्राप्या- चार्यपदमवाप । 'सुवर्णकीर्तिः' इति नाम पप्रथे । श्रुतकीर्तिना गुरुणा तस्मै द्वे विद्ये प्रढत्ते-चक्रे- श्वरीविद्या परकायप्रवेशविद्या च । धर्मदेवे दिवंगते शीलवती दुःग्विन्यासीत् । यतः- १० यथा नदी विनाऽम्मोदाद्यामिनी शशिन विना । अम्मोजिनी विना मानु मा कुलरधूम्तथा ॥१॥ राजगृहागतपरिचितमनुष्यमुग्वेन वपुनं स्वर्णकीर्ति तत्रस्यं ज्ञात्वा तमिलनाय गता। मिलिनः सुवर्णकीर्तिस्तस्याः। उन्मीलितो मातापुत्रस्नेहः । एकदा तया सुवर्णकीर्ति पित:- तव पिता दिवमगमत् । त्वमत्र सूरिः । महीधरस्तु राशिल्लसूरि म श्वेताम्बरसरिपदे वर्तते । वायटप्रदेशे विहरति । युवां द्वावेकमतीभूय एकं धर्ममाचरतम् । वायटमानीतस्तया सः। द्वौ पान्धवावेकत्र मिलितौ । सुवर्णकीर्ति पितो मात्रा-वत्स त्व श्वेताम्बर एधि । सुवर्णकीर्ति-20 वेदति-राशिल्लसूरिदिगम्बराचार्यों भवतु मदनुसरणात् । एवं वर्तमाने मात्रा द्वे रसवत्यौ कारिते । एका विशिष्ट । द्वितीया मध्यमा कटम्यार्थी। दिग्वासाः प्रर्वमाकारितः। रसवती भुते म्वरम् , कुरसवतीं पश्यत्यपि न । राशिल्लसूरिशिष्यो द्वावागतौ । ताभ्यां निर्जरा. र्थिभ्यां कुरसवती विजहे । मात्रा भोजनादनु दिगम्बरः प्रोक्तः-वत्स! एते श्वेताम्बरा:25 शुद्धाः, त्वमाधाकर्मचिन्तां न करोपि । पते तु वदन्ति- ११ भुतड आहाकम्म सम्म न य जो पडिछमई लुद्धो । सबजिणाणानिमुहस्स तस्म आगङ्गा नत्यि ॥२॥ तथैव च पालयन्ति । तस्मादेतेपां मिल, मोक्षमिच्छसि चेत् । सुवर्णकीर्तिर्मातृवचसा प्रबुद्धः श्वेताम्बरदीक्षामाददे । 'जीवदेवसूरिः' इति नाम तस्य दशसु दिक्षु विस्तृतम् । यतिपञ्चशती सहचरो विहरन् भव्यानां मिथ्यात्वादिरोगान् सुदेशनापीयूपप्रवाहेण निर्दलयति श्रीसूरिः"। 30 १३) एकदा देशनायां योगी कश्चिदागतः । [स त्रैलोक्यजयिनी विद्यांसाधयितु द्वात्रिंश- 1ABD नास्ति। 2A यायः। 3A पायद। 1A शिना। 5 ABD नास्न्येतत्पदम् । GA मदारणात् । 7ACD अपरा। 8P०९म्मद। B.पां। 10 AD .दत्त। 11 P धीरे । 12 AB दायात | tv फोएकान्तगत पाट P पिना नास्यन्यत्र । Page 29**************************************************************************************** प्रवन्धकोशे लक्षणभूषितं नरं विलोकयति । तस्मिन्समये ते त्रय एव । एको विक्रमादित्यः, द्वितीयो जीव- सूरिः, तृतीयः स एव योगी, नान्यः । राजाऽवध्यः । नरकपाले एकपुटी पण्मासी यावद्भिक्षा याच्यते भुज्यते च, ततः सिध्यति । तेन सूरि छलयितुमायातः । सूरीणां सूरिमन्त्रप्रभावा- इस्त्राण्येव नीलीभूतानि न पुनर्वपुः। ततो गुरुसमीपस्थवाचकजिह्वा स्तम्भिता]। श्रीजीवदेव- 5 सूरिदृष्टौ जिह्वया योगपट्टपर्यस्तिकां ववन्ध । सभ्यलोको विभाय । प्रभुभिः स कीलितः । ततस्तेन खटिकया भूमौ लिखितम्- १२. उवयारह उवयारडउ सव्वु लोउ करेइ । अवगुणि कियइ जु गुणु करइ विरल जणणी' जणेइ ॥३॥ __ अहं तव च्छलनार्थमागतोऽभूवम् । त्वया ज्ञातः, स्तम्भितः, प्रसीद, मुञ्च, कृपां कुरु- इत्यादि । ततः कृपया प्रभुभिर्मुक्तोऽसौ वायटनगरे बहिर्मठी गत्वा तस्थौ । प्रभुभिः स्वगच्छ: 10 समाकार्योक्तः-योगी दुष्टो बहिर्मठेऽस्ति अमुकदिशि । तस्यां दिशि केनापि साधुना साध्व्या वा न गन्तव्यमेव । तथेति तन्मेने सर्वैः। साध्व्यौ तु द्वे ऋजुनया कुतूहलेन तामेव दिशं गते। योगिना समेत्य चूर्णशक्त्या वशीकृते तत्पाव न मुञ्चतः । प्रभुभिः स्ववसतौ दर्भपुत्रकः कृतः। तत्करच्छेदे योगिनोऽपि करच्छेदः । मुक्ते साध्व्यौ । मस्तकक्षालनात्परविद्याविदलने सुस्थीभूते ते। ६१४) अथान्यदोजयिन्यां विक्रमादित्येन वत्सरः प्रवर्तयितुमारेभे। तत्र देशानामनृणीकरणाय 15 मन्त्री निम्बो गूर्जरधरादिशि प्रहितो विक्रमेण । स निम्बो वायटे श्रीमहावीरमासादमचीकरत् । ___ तत्र देवं श्रीजीवदेवसूरीन्द्रः प्रत्यतिष्ठिपत् । अन्येार्वायटे लल्लो नाम श्रेष्ठी महामिथ्याम् । तेन होमः कारयितुमारब्धः। विप्रा मिलिताः। आसन्नादाचाम्लिकाद् द्रुमामाकुलोऽहिः कुण्डा- सन्नोऽपतत् । निघृणैर्विप्रैः स वराक उत्पाट्य वहौ" जुहुवे। लल्लस्तद् दृष्ट्वा विरक्तो विप्रेषु उवाच- अहो! निष्ठुरत्वमेतेषाम् । एवं जीवहिंसारता ये । तस्मादलमेभिरुभिः । एवं वदन् विप्रान् 20 विमृज्य खगृहमगमत् । दर्शनानामाचारान्विलोकते। एकदा मध्याह्ने श्रीजीवदेवसूरीणां साधुस- वाटकस्तद्गृहे भिक्षार्थ गतः । तयोः शुद्धभिक्षाग्रहणात्तुष्टः । लल्लेन तो मुनी आलापितौ- युवयोः के गुरवः ? । ताभ्यां श्रीजीवदेवसूरयः कथिताः । लल्लस्तत्र गतः । श्रावकद्वादशवतीं ससम्यक्त्वां ललौ । अन्यदा लल्लेनोक्तम्-सूर्यपर्वणि मया द्रव्यलक्षं दाने कल्पितम्। तस्याई व्ययितम्, शेषमई गृहीत ! न गृह्णन्ति ते निर्लोभाः। लल्लो वाढं प्रीतः । गुरुभिरुक्तम्-अद्य 25 सायं प्रक्षालितैकपादस्य तव यत्प्राभृतमायाति तदस्मत्पावें आनेयम् । इति श्रुत्वा गृहं गतो लल्लः । सायं केनापि "द्वौ वृषभौ प्राभृतीकृतौ । लल्लेन गुरुपार्श्वमानीतौ । गुरुणोक्तम्-यत्रैतौ स्वयं यात्वा तिष्ठतः। तत्रैतद्रव्यव्ययेन चैत्यं काराप्यम् । तच्छुत्वा तेन वृपौ स्वच्छन्दं मुक्ती पिप्पलानकग्रामे" गतौ कचित् स्थितौ । तत्र भूमौ लल्लेन चैत्यमारब्धम् । निष्पन्नम् । तत्रावधूतः कोऽप्यायातः । तेनोक्तम्-अत्र प्रासादे दोषोऽस्ति । जनैरुक्तम्-को दोषः । तेनोक्तम्- 30 स्त्रीशल्यमास्ते । लल्लेन तच्छ्रुत्वा गुरवो विज्ञप्ताः । गुरुभिरुक्तम्-निःशल्यां भूमिं कृत्वा पुनः प्रासादः कार्यते । लल्ल! त्वया द्रव्यचिन्ता न कार्या । तदधिष्ठान्यो धनं पूरयिष्यन्ति । प्रसाद उत्कीलयितुमारेभे । शब्द उत्पन्न:-चैत्यं नोत्कीलनीयम् । गुरवो विज्ञप्ताः। तैानं दः । 1 BD दृष्टो । 2 B जिह्वाया; P स्वजिह्वाया। 3 P सव्वउ । 4 C अवगुण। 5 CD गुण। 6 A विरला । 7 C जणिणि। 8 P नास्ति। 9 A वर्तयि०; P संवत्सरः प्रवतः। 10 AB नास्तीदं पदम् । 11 ABD अग्नौ । 12 AB नास्ति । 13 DP सर्वदर्शना०। 14 P कथितं। 15 P द्वे। 16 B तत्रैव द्रव्य०। 17 AB ग्राम । Page 30**************************************************************************************** पटाचाय आर्यसपटाचार्यप्रवन्धः । अधिष्ठात्री देव्याययौ । तयोक्तम्-कन्यकुञ्जराजसुताऽहं महीनाम्नी पूर्व गूर्जरदेशे वसन्ती म्लेच्छसैन्ये समागते पलायमाना तेपु पृष्ठापतितेपु भियाऽन्न कृपेऽपतम् । मृत्वा व्यन्तरी जाता। अतः स्वागास्थिशल्याकर्पण नानुमन्ये । मामधिष्ठात्री कुरु । यथा ऋद्धिं वृद्धि कुर्वे । गुरुभिः प्रतिपन्नम् । ततस्तद्दत्तभूमौ तद्योग्या देवकुलिका कारिता। तत्र चामितं धनं लब्धम् । लल्लो निष्प- तिमल्लसुखभाजनमभवत्, सङ्घश्व तुष्टः । लल्लरोपाद् द्विजैर्मुमूर्षुगौश्चैत्ये क्षिप्ता। सा तत्र 5 मृता। श्रावकैर्विज्ञप्तं तद् गुरवे । गुरुणा विद्यारलागीब्रह्मभवने' क्षिप्ता। 'यचिन्त्यते परस्य तदायाति सम्मुग्वमेव' । ब्राह्मणैरनन्योपायत्वाजीवदेवसूरयोऽनुनीताः-जीवदेवसरे! तारय नः। श्रीसूरिभिस्ते तर्जिताः, उक्ताश्च-यदि मचैत्ये मत्पदृसूरेश्च श्रावकवत् सर्वी भक्तिं कुरुध्वे, मत्सूरेः सूरिपदप्रस्तावे हेममययज्ञोपवीत 'दत्य, तत्सुखासनं वयं वध, तदा गामिमां ब्रह्मा लयादाकृपामि, अन्यथा तु न । तैरपि कार्यातुरैः सर्वमप्यगीकृतम् । अक्षरादिभिः स्थैर्यमुत्पा-10 दितम् । ततो गौराकृप्याचार्यैर्वहि: क्षिप्ता । तुष्ट चातुर्वर्ण्यम् । कालान्तरे मरणासन्नैः सूरिभि- स्तस्माद्योगिनो विभ्यद्भिः स्वकीयाखण्डकपालस्य सर्वसिद्धिहेतोभजन श्रावकाग्रे कथितम् । अन्यथा विद्यासिद्धी सङ्घोपद्रव करिष्यति । तथैव तैस्तदा चक्रे । योगी निराशविरमरोदीत् ॥ ॥ इति श्रीजीवदेवसूरिप्रवन्धः समाप्तः ॥३॥ 15 20 ४. अथार्यखपटाचार्यप्रवन्धः । ६१५) कापि गच्छेऽनेकातिशयलब्धिसम्पन्नाः श्रीआर्यखपटा" नाम आचार्यसम्राजः। तेपां शिप्यो भागिनेयो भुवनो नाम । ते सूरयो भृगुकच्छं विजहुः । तत्र चलमित्रो नाम चौद्धभक्तो राजा । वौद्धाश्च महामामाणिकास्तागयजमानगर्विताश्च दुर्दान्ताः । 'एकं वानरी, अपरंवृश्चिकेन जग्धा' इति न्यायात् ते" श्वेताम्बराणां धर्मस्थाने तृणपूलकान्निक्षेपयन्ति । 'यूयं पशवः' इति भावः । तयाँऽप्रज्ञया खपटाचार्या न चुऊधुः, गुरुत्वात् । यतः- १३ उपद्रवत्सु क्षुद्रेषु न क्रुध्यन्ति महाशया । उत्कालै शफरैः किं स्यालोल कल्लोलिनीपति ॥१॥ भुवनस्तु धुकोप । श्रावफशतसहस्रसङ्लो राजः पार्श्व ययौ । श्रीसङ्घ-गुर्वनुजां गृहीत्वा तत्रोचैरुवाच- १४ तावहिण्डिमघोपणा विदधता तावप्रशसन्तु च, स्वात्मान प्रथयन्तु तावदतुला रीढा च पूज्ये खला। ___यावत् प्राज्यघृतप्रतर्पितहदानुप्ररोहपृथु-ज्वालाजालकरालजल्पनिवहनोंतिष्ठतेऽय जन ॥२॥ 25 राजा घलमित्रेणोक्तम्-साघो ! कि फिमात्य ? । भुवनो वभाण-तव गुरवस्तार्किकमन्या गेहेन- दिनः श्वेताम्यरान्निन्दन्ति । ततो वयं वादाय त्वत्सदः सम्प्राप्ताः" । आस्फालय तान्मया सहकदा, भयतु श्रोतृणां कर्णकौतुकम् । ततो राजा ते आहताः । चतुरङ्गसभायां वाद ___1P महणीना। 2C पवनी। 3Pप्रोल्या मामपिटानी रय पुर। D यहा। 5P पर उत् पादप । GDP देपात् । 7A भुवने। 8B 'मय' मानि। एतदन्तगंवा पति पतिता B भादशे। 9 Dरेष। 10P गपत्री 11 DP मरणामतो। पदनगर: पाटो नानि ABD मादी। 12 BD गपुटा। 13 'ते' नास्ति PI 14 BC पम्पाने। 15P मनपा। 10 BD क्षम्यन्ति; Cपुप्यति। 17AB माता । 18 A सायत् मया। ३.को. Page 31**************************************************************************************** प्रवन्धकोशे कारिताः। भुवनमुनिपञ्चाननतर्कचपेटाताडिताः फेरण्डा इव तृष्णीकाः समजनिपत । राजादिभि- र्घोषितो जयः श्वेताम्बरशासनस्य । वर्तन्ते चैत्येपु महोत्सवाः । बौद्धास्तु हिमतपद्मवनाभा जाताः । तं बौद्धापमानं श्रुत्वा बौद्धाचार्यों गुडशस्त्रपुराद् वृद्धकराख्यो महातार्किको भृगुपुरम- गात् । राजानमवोचत्-श्वेताम्बरैः सह मां वादं कारापय । राज्ञा भुवनप्रज्ञास्फूर्जितेन 5 वारितोऽपि नास्थात् । वादेऽजित एव सोऽपि भुवनेन जितः। न खलु यमो भूतानां प्रायते । जित्वा सभ्याः प्रभापिताः-भो! भो! शृणुत- १५. यट्टको दृषदो यदुष्णकिरणो ध्वान्तस्य यच्छीतगुः, शेफालीकुसुमोत्करस्य च दशाकर्षः पतङ्गस्य यत् । ____ अद्रेर्यत्कुलिशः प्रचण्डपवनो मेघस्य यद्यत्तरोः, पर्यत्करिणो हरिः प्रकुरुते तद्वादिनोऽसावहम् ॥ ३॥ सभ्याश्च चमत्कृता उज्जुघुपुः-जयति धवलाम्बरशासनम् । वृद्धकरः पुनरपंमानाशनितप्तोऽन- 10 शनं कृत्वा गुडशस्त्रपुरे वृद्धकराख्यो यक्ष उत्पन्नः । प्राग्वैरेण जैनानुपद्रवति, व्याधिवईन- भापन-धनहरणादिप्रकारैः । गुडशस्त्रपुरसङ्घन आर्यखपटास्तविज्ञप्ताः तत्र गताः । तत्र च यक्षायतनं प्रविश्य यक्षस्य कर्णयोरुपानही ववन्धुः; वक्षसि पादौ ददुः । लोको मिलितः । राजा तव्रत्यः तत्रागतः । राज्ञि तत्रागते आचार्याः श्वेतवस्त्रेण स्खं सर्वमङ्गमावृत्य तस्थुः । राजा यत्र यत्रोदघाटयति. तत्र तत्र स्फिविव दृश्यते। ततः कुतो राजा घातान्दापयति ग्वपटाचार्य- 15 स्याङ्गे । ते घाताः शिरीषकोपादपि कोमलेष्वन्तःपुरीणामङ्गेयु लेगुः । उच्छलितोऽन्तःपुरे स्त्रीणां • कोलाहल:-हा नाथ ! रक्ष रक्ष, हा! हन्यामहे केनाप्यदृप्टेन, कथं जीविष्यामः १ । राजा सूरि- शक्तिचमत्कृतमनाः सूरीणां पैदोर्लग्नः-प्रसद्य मम सपरिजनस्य जीवितभिक्षां देहि; कृपाल- स्त्वम्-इत्याधुवाच । यक्षस्तु स्वस्थानादुत्थायोपसूरि समागतो विनीतः पादसंवाहनां कुरुते । मम कीटिकामात्रस्योपरि वः कः कटकारम्भः-इति ब्रूते । मिलितो लोकः । आर्यखपटर्यक्ष 20 ऊचे । रे अधम ! अस्मथ्यान्परावुभूषसि ? । पराभव, यद्यस्ति प्राभवम् ! । यक्षः प्राह स्म-'हनूमति रक्षति सति शाकिन्यः पात्राणि कथं असन्ते?' । तव भृत्योऽस्मि । मा मां पीडय । तव सङ्घ बान्धववक्षिताऽस्मि । राजादयः सर्वे चमत्कृताः सूरिभक्ता बभूवुः । सूरयः प्रासादा- निर्गत्य यदा वहिर्गतास्तदा यक्षः पापाणमूर्तिः सहायातः । द्वे दृपदौ, द्वे दार्पदकुण्डिके, सूक्ष्मयक्षाः सहागुः । नगरप्राकारद्वारायातेन सूरीन्द्रेण यक्षाद्या विसृष्टाः स्वस्थानमगुः। कुण्डिके 25 तु पुरद्वारे सूरिणा स्थापिते, लोके ख्यातिनिमित्तम् । राजा प्रयोध्य सद्यः श्रावकः कृतः। स्वसौधं गतः । 'प्रभावनानर्तकीरङ्गाचार्य' इति स" सूरीन्द्रस्तत्र चातुर्वण्येन वर्णयामासे । तदैव भृगुपुरा- त्साधू द्वावागतौ । ताभ्यां प्रभवः प्रोक्ताः-भगवन् ! भृगुपुरादत्रागच्छद्भिर्भवद्भिः कपरिका गूढमधारि, सा क्षुल्लकेनैकेनावाच्यत । वाचयता आकृष्टिलब्धिलब्धा । तद्वशादिभ्यानां गृहेषु निष्पन्नां रसवतीमाकृष्यानीय भुङ्क्ते स्म । तथा कुर्वन् गच्छेन ज्ञातो निषिद्धो न निवर्तते, रसने 30न्द्रियपरवशत्वात् । ततः सङ्घन हकितः। "क्रुद्धो गत्वा बौद्धानां मिलितः । तदाचार्य इव जातः । बौद्धानां पात्राणि मठात्खेन गृहमेधिनां गृहेषु नयति । ततो भक्तपूर्णानि तानि खेनैव 1 A हिमहृत; B हिमवत् ; D तुहिनमहत। 2 P नास्ति 'मां'। 3 B स्फूर्तितेन; P स्फूर्तिज्ञेन । 4 BD वादिजित । 5 P धीयते। 6 P नास्ति। 7 P वृद्धकरोऽपमाना० । । एतद्गतः पाठो नास्ति A आदर्श । 8A मृत्वा । 9 B विज्ञाः। एतदन्तर्गता पंक्तिः पतिता D आदर्शे। 10 BD स्फिजा०। 11 P पादौ। 12 'तु' नास्ति AB13 BD पुरप्रा०। 14 नास्ति 'स' P। 15 DP ऋद्धा। Page 32**************************************************************************************** पादलिप्ताचार्यप्रवन्धः। भठमायान्ति । तथा दृष्ट्वा लोको यौद्धभक्तो भवन्नास्ते । यदुचितं तत्कुरुध्वम् । तदवधायखपट- देवा भृगुपुरमगुः। प्रच्छन्नाः स्थिताः। चौद्धानां पात्राणि अन्नपूर्णान्यागच्छन्ति । शिलाविकुर्वणेन खे यमनुः । पतन्ति पात्रेभ्यः शालि-मण्डक-मोदकाद्यशाश्च लोकस्य मस्तकेषु । चेल्लकः सूरीणां समागमन सम्भाव्य भीतो नष्टो पराकः । सूरयः ससडा बौद्धानां प्रासादमगमन् । बुद्ध उपल- मूर्तिः सम्मुग्व उत्थितः । जय जय महर्पिकुलशेखर !-इत्यादि स्तुतीरतनिष्ट । पुनर्जिनपति-5 शासनस्य प्रभावः प्रोद्दिदीपे । आर्यखपटा अन्यत्र विजहुः। . ६१६) इतश्च पाटलीपुत्रंपत्तने दाहडो नाम नृपो विप्रभक्तो जैनयतीनाहयत्, अयोचच्च- विप्रान्नमस्कुरुत इति । जैनरुक्तम्-राजन् ! नेदं युक्तम्, गृहिणोऽमी, वय च यतयो वन्द्याः । दाहडेनोक्तम्-न बन्दध्ये चेच्छिरांसि वः कृन्तामि । जैनयतिभिः सप्तदिनी याचिता । राज्ञा दत्ता । दैवाढार्यग्वपटशिष्य उपाध्यायो महेन्द्रनामा भृगुकच्छात्तप्रायातः । तदने यतिभि:10 स्वदव कथितम् । तेन सन्धीरितास्ते । प्रातः करवीरकम्ये द्वे रक्तन्वते लात्वा महेन्द्र उपदाहड- भगात् । तदऽष्टमदिनमत्यूप वर्तते । राजोक्तम्-श्वेताम्बरा विप्रप्रणामायाहृयन्ताम् । आइताः, अग्रे जस्तस्थुः। महेन्द्रेण रक्तां कम्यां वाहयित्वा राजा भापितः-किं प्रथममितो नमामः, 'किं वा इतो नमामः? इति । एतगणनसमकालमेव विप्राणां मस्तकास्युटित्वा ताडफलवद्भूमौ पेतुः । तद् दृष्ट्वा भीतो राजा चानि करोति स्म-पुनर्नवमविनयमाचरिष्यामि-दति उवाच 115 तदा महेन्द्रेण पठितम्- १६ क कण्ठीरवकण्ठकेमरर्सटाभार स्पृशत्यहिणा ?, क कुन्तेन शितेन नेनकुहरे कण्डूयन काहति । क' सनिाति पन्नगेश्वरशिरोरत्नावतसश्रिये ?, य श्वेताम्बरशासनस्य कुरुते वन्यस्य निन्दामिमाम् ॥ ४॥ विशेषतो भीतो नृपो दर्शनस्य पादेवलगीत् । तदा महेन्द्रेण धवला करवीरकम्या दिग्द्वयेऽपि वाहिता । पुनर्विप्राणा मस्तकाः खस्थानेपु ससञ्जः । प्रतियोधितो राजा विप्रलोकश्च । एव प्रभा-20 वनाऽभूत् । [*भुवनोऽपि चौद्धान्परिहत्य स्वगुरूणां मीलितः। तेन स्वगुरवः क्षामिताः। तैर्गुरुभि- स्तस्य भुवनस्य बटुमानं दत्तम् । पश्चाद्भुबनो गुणवान् , विनयवान्, चारित्रवान्, श्रुतवान् , जातः ततः] आर्यनपटाः सूरिपद भुवनाय दत्त्वाऽनशनेन द्यामारुरुहुः। १७ जीवितव्य च मृत्युश्च द्वयमाराधयन्ति ये । त एव पुरुमा शेप पशुरेप जन पुन ॥५॥ ॥ इति महाप्रभावकश्रीखपटाचार्यप्रयन्धः ॥४॥ 25 ५. अथ पादलिप्ताचार्यप्रवन्धः । ६१७) कोशलानाम नगरी तत्र विजयवर्मा राजा नयविक्रमसागरः । फुल्लनामा श्रेष्टी जैनः प्राज्ञो दानभटः । तस्य प्रतिमाणा नाम पती रूपशीलसत्यनिधिवसुधा । सा निप्पुत्रत्वेन विद्यते। केनाप्युक्तम्-चैरोट्यां देवीमाराघय। तपोनियमसयमैस्तयाऽऽराधिता सा प्रत्यक्षीयभूय, 1AB 'भा' मानि। 2A घमा । 3BD प्रारिदीप र प्रदिदीपे। 4AB .पुरे परने, D पुरे पत्तने । 5 BP reम। GA मादय साम्। 7 BD नास्तीद दिनीय धारयम्। 8P महेन्द्रणोणम् । 9A फेरि०। 10 AB मानि। • पुष गठ पारP विनाम्पत्र मोरगम्यते । Page 33**************************************************************************************** १२ प्रबन्धकोशे अभिदधौ च-वत्से ! किमर्थं स्मृताऽहम् ? । श्रेष्ठिन्योक्तम्-पुत्रार्थम् । वैरोट्ययोक्तम्-वत्से ! शृणु, विद्याधरवंशे श्रीकालिकाचार्योऽभूत् । तस्य विद्याधरो नाम गच्छः । तत्र आर्यनागहस्ती नाम सूरिरास्ते । स सम्प्रति इमां नगरीमागतोऽस्ति । क्रियाज्ञानार्णवः, नस्य पादोदकं पिव । तत्र श्रेष्ठिनी भावनाभरभरिता गता। करस्थगुरुपदप्रक्षालनजलपात्रः शिप्यकः सम्मुखमा- 5 गच्छन् दृष्टः। श्रेष्ठिन्या पृष्टम्-तपोधन ! किमेतत् ? । शिष्यकेणोक्तम्-गुरूणां पादोदकम् । तया पीतम् । अथ गुरवोऽवन्दिषत । गुरवः प्राहुः-यन्मत्तो दशकरान्तरस्थया त्वयाऽम्भः पीतं तत्ते पुत्रस्त्वत्तो दशयोजनान्तरितः स्थाता । ततः पश्चादन्ये नव पुत्रा भवितारः सारश्रियः। सा चम्पककुसुममकरन्दपानमत्तमधुपध्वनिकोमलया गिरा वभाषे-आद्यः पुत्रो युप्मभ्यं दातव्यो मया-इत्युक्त्वा निजसदनमगमत् । भर्ने गुरुक्तं स्त्रोक्तं चाचकथत् । तुष्टः सः। श्रेष्ठिनी 10 काले नागेन्द्रवप्नसमभावं पुत्रं प्रासूत । 'माङ्गल्योत्सवाः प्रसरन्ति स्म । गुम्सत्कः सन् बईते । नागेन्द्र इति नाम तस्य । शरीरावयवैर्गुणैश्च सकललोककमनीयैर्ववृधे । गुरुभिरागत्याष्टमे वर्षे ___ दीक्षितः । मण्डनाभिधस्य मुनेः पार्थे पाठितः । बाल्येऽपि सर्वविद्यो जातः । १८) एकदा गुरुणा जलार्थ प्रस्थापितो विहृत्यागत आलोचयति- १८. अंबं तंवच्छीए अपुप्फियं पुप्फदंतपंतीए । नवसालिकंजियं नववहूइ कुडएण मे दिन्नम् ॥१॥ 15 इति गाथया गुरुभिर्भणितम्-'पलित्तओ'-शृङ्गारगर्भभणितिश्रवणात्-किल त्वं विनेयक ! रागाग्निना प्रदीप्त इति भावः । नागेन्द्रेणाचक्षे-भगवन् ! मात्रया एकया प्रसादः क्रियताम् , यथा 'पालित्तओ' इति रूपं भवति । अत्र को भावः ?-गगनगमनोपायभूतां पादलेपविद्यां मे दत्त येनाहं 'पादलिप्तक' इत्यभिधीये । ततो गुरुभिः पादलेपविद्या दत्ता । तद्वशात्खे भ्रमति । दशवर्षदेशीयः सन् सूरिपदे स्थापितः। बहुशिष्यपरिकरितो भ्रमति। नित्यं शत्रुचयोजयन्तादि- 20 पश्चतीर्थी वन्दित्वाऽरसविरसमश्नाति । तपस्तप्यते। १९. यदूरं यदुराराध्यं यच्च दूरे प्रतिष्ठितम् । तत्सर्व तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ॥ २ ॥ ततः सर्वसिद्धयः। ६१९) एकदा पाटलीपुत्रं गताः। तत्र मुरुण्डो" नाम खण्डितचण्डारिमुण्डो राजा । तस्य षण्मासान् यावच्छिरोतिरुत्पन्नाऽऽस्ते । मन्नतन्त्रौषधैर्न निवृत्ता । विशेषविदुरान्सूरीनागतान 25 श्रुत्वा राज्ञा मन्त्रिणः प्रहिताः प्रोचुः-भगवन् ! राजराजेन्द्रस्य शिरोर्तिनिवर्त्यताम् , कीर्तिधमौं संचीयेताम् । ततः सूरीन्द्रो राजकुलं गत्वा मन्त्रशक्त्या क्षणमात्रेण शिरोर्तिमपहरति स्म । ततोऽद्यापि पठ्यते- २०. जह जह पएसिणिं जाणुयंमि पालित्तओ भमाडेइ । तह तह से सिरवियणा पणस्सइ मुरुंडरायस्स ॥३॥ प्रीतो राजा। संवृत्ता उत्सवाः। पादलिप्तसूरीणां यशसा पविनितानि सप्तभुवनानि । राजास्तौति- ___30 २१. चेतः सार्द्रतरं वचः सुमधुरं दृष्टिः प्रसन्नोज्वला, शक्तिः क्षान्तियुत् श्रुतं हृतमदं श्रीदीनदैन्यापहा । रूपं शीलयुतं मतिः श्रितनया स्वामित्वमुत्सेकिता, निर्मुक्तं प्रकटान्यहो नव सुधाकुण्डान्यमून्युत्तमे ॥ ४ ॥ 1 A आचार्य० । 2 P नास्ति 'ततः। 3 'कुसुम' नास्ति P। 4 P चाकथयत्। 5 AB मङ्गलोत्सवाः। 6 A.B स्पृहणीयैः। 7 C बालो। 8 AP स्थापितो। 9 A परिवारितो विहरति । 10 AB व्यवस्थितं । 11 BC मुरण्डो। 12 'यावत्' नास्ति P। 13 नास्ति 'आस्ते' A। 14 P सूरिणा। 15 AB समधुरं । 16 ABD क्षान्तिकला। . Page 34**************************************************************************************** पादलिप्ताचार्यप्रवन्धः। १३ ६२०) एकदा सभायां नृपेणोक्तम्-राजकुले महान्विनयः । आचार्येरभिहितम्-गुरुकुले महीयान्विनयः। तत आचार्याः प्राहु:-यो वः परमभक्तो राजपुत्रोऽस्ति, स आहृयताम् । इद च तस्मै कथ्यताम्-गत्वा विलोकय गगा कि पूर्ववाहिनी, किंवा पश्चिमवाहिनी? इति । आहुतो राजपुत्रः, प्रहितश्च विलोकनाय । यत्र तत्र भ्रमित्वा समागतः । भापितो भूपालेन-विलोकिता गहा?, कि पूर्ववाहिनी, पश्चिमवाहिनी वा? । अथ राजपुत्रः प्रचख्या-किमत्र विलोकनीयम् ? 5 याला अपि विदन्ति-गद्गा पूर्ववाहिनी' । गत्वा च विलोकिता मया, पूर्ववाहिन्येवास्ते । राजा श्रुत्वाऽस्यात् । सूरिभिः साधुः स्वस्तस्मै कर्मणे प्रहितस्तत्र गतः । दण्डकं प्रवाह्य व्यलो- कत, पूर्ववाहिनी सुरवाहिनी । उपसूरि समागतोऽभापत-अह गहां पूर्ववाहिनीं पूर्वमश्रौपम् , गत्वाऽपश्यश्च तथैवाज्ञासिपम् । तत्त्व तु स्वय सद्गुरवो विदन्ति । एतच राजपुत्र यत्योश्चरित राज-सूर्यो: प्रच्छन्नचरैरुक्तम् । राजा' मेने स्वय-महीयान् गुरुकुले विनयः। ततः पश्यते- 10 २२ निवपुच्छिएण गुरुणा भणिओ गगा कओमुही वहइ । सपाइयव सीसो जह तह सवत्य कायव्व ॥ ५॥ ६२१) पाटलिपुत्रादय सूरीन्द्रो लाटान गतः । तत्रैकस्मिन्पुरे पालैः सह क्रीडति । मुनयो गोचरचर्याथै गताः । तावता आवकाः प्रवन्दनार्थमायाताः । आकार संवृत्योपविष्टः प्रभुः। श्राद्धेघु गतेपु पुनरपवरकमध्यं गत्वा खेलति । तावता केऽपि वादिनः समायाताः। तैर्विजनं दृष्ट्या 'कूकुकृ' इति शब्दः कृतः" । सूरीन्द्रेण तु 'म्याउं' इति विडालशब्दः कृतः। ततो दर्शनं । दत्तम् । वादिनः पादयोः पेतुः प्रभोः" । अहो । प्रत्युत्पन्नमतित्वम् ते, चिरं जय पालभारति!। तत आरब्धा प्रभुणा तैः सह गोष्ठी । तेप्वेकेन पृष्टम्- २३ पालित्तय । कहसु फुड सयल महिमडल भमतेण । दिह सुय च करय वि" चदणरससीयलो अग्गी ॥६॥ प्रभुणाऽभाणि- २४ अयसाभिओगसमियस्स पुरिमस्म सुद्धहिययस्म । होइ वहतस्स दुह् चदणरससीयलो अग्गी ॥ ७॥ तुष्टास्ते वादिनः, तुष्टुयुः-साक्षादमरगुरुरेव त्वम्, धन्या ब्राह्मी, या ते वदने वसति । इत्तश्च ये पूर्व ब्राह्मणाः खपटाचार्यगच्छीयेनोपाध्यायेन महेन्द्रेण भापिताः, ते बलात्केचित्प्र- ब्राजिताः। तेपां स्वजनाः पाटलिपुत्रपत्तने वसन्ति । पूर्ववैराज्जैनयतीनुपद्रवन्ति । सा" वाती प्रमुश्रीपादलिसाचार्यः श्रुता । वय ते गगनेन तत्र गताः, अभ्यधुश्च-रे! मयि वीर सति के नाम जैनजनमुपद्रवन्ति"? । 'जर्जराऽपि यष्टिःस्थालीनां भजनाय प्रभवत्येव' । ततस्ते काफनाश नष्टाः। प्रभुः पुनर्भृगुपुरमगमत् । तत्रार्यसपटसम्प्रदायात्सकलाः कलाः प्रजग्राह । ढकपर्वते नागार्जुन: मभुणा ग्वगमनविद्या शिक्षापितः परमाहेतोऽजनि । तेन पादलिप्तकपुरं नव्य कृतम्, दशाहमा पहपोग्रसेनभवनादि च तत् तत् । तत्र प्रभुणा गाथायुगलेन स्तवनं यद्धम् । तत्र हेमसिद्विवि- चाऽवतारिताऽस्तीति"वृद्धाः प्राहुः । नागार्जुनेन च रसःप्रारब्धः। सोऽतिकृच्छेऽपि कृते न यन्ध. मायाति । ततो वासुकिनागस्तेनारादः । तेन श्रीपादलिन चोपायोऽर्पितः-पटि कान्तीपुर्या: 3c "श्रीपार्श्वनाथमानीय तदृष्टा रसं यासि, तदा यन्यमायाति," नन्यधा । नागार्जुनेन पृष्टम्- 1ABमहान् । CD यापा। 3Cरिरोग्यम्। 1ABD मशि। 5P 'म्य नानि। GAB नास्ति'पण'। 7PD राजा) SABD ग्रहीपान्। 9 सटानारगत । 10 AB भावपु। 1IA प्रोकः। 12 प्रमो' नानि AI 13ABाया। 14P साच। 1SAD Tी। 10A रिवाज से एसा । 17दर्शित 1 18 ABD 4' मामिल। 19A मापासना प्रभुः पुनर पितः परमाहतोऽजनि । तन Page 35**************************************************************************************** प्रवन्धकोशे कथमेति श्रीपार्श्वनाथः ? । वासुकिना पादलिप्तेन च प्रोक्तम्-उत्पाट्यानय गगनाध्वना । गतो नागार्जुनः कान्तीम् । तत्र चैत्यं पृच्छति । तत्र धनपतिश्रेष्ठी चैत्यगोष्ठिकः । तस्याग्रे नैमि- त्तिकेन प्रोक्तम्-पार्श्व रक्षेः; धूर्त एकस्तद्धरणाय भ्रमन्नस्ति । स सचतुष्पुनो देवं रक्षति । नागार्जुनस्तत्र गतः । तेषु रक्षत्सु हरणावसरो नास्ति । तैरेव सह नागार्जुनेन प्रीतिरारेभे । 5 विश्वास उत्पन्नः। आरात्रिकमङ्गलदीपकसमयें पितृपुत्रेषु प्रणामाधोमुखेपु पावं खेन गृहित्वा गतो नागार्जुनः । सेडीसंज्ञनदीतटे श्रीपार्श्वदृष्टौ रसः स्तम्भितः, स्तम्भनकं नाम तत्तीर्थ पप्रथे, स्तम्भनपुरं नाम पुरं च ।। ६२२) अथ श्रीपादलिप्साचार्याः प्रतिष्ठानपुरं दक्षिणाशामुखभूपणं गोदावरीनदीतरङ्गरगन्ज- लकणहृतपान्थश्रमभरं जग्मुः । तत्र सातवाहनो राजा विदुपां योधानां दानशौण्डानां 10 भोगिनां च प्रथमः। तस्य सभायां वार्ताऽभूत् , यथा-पादलिप्साचार्याः सर्वविद्यावनितावदनरत्नद- पंणाः समागच्छन्तः सन्ति प्रातः । ततः सर्वैः पण्डितैः सम्भूय स्त्यानघृतभृतं कचोलकमर्पयित्वा निजः पुरुष एक आचार्याणां सम्मुखः प्रेपितः । आचार्यघृतमध्ये मृच्येका क्षिप्ता; तथैव च प्रति- प्रेषितं तत् । राज्ञा स वृत्तान्तो ज्ञातः। पण्डिताः पृष्टाः-घृतपूर्णकच्चोलकपणेन वः को भावः । तैरुक्तम्-एवमेतन्नगरं विदुषां पूर्णमास्ते, यथा घृतस्य वर्तुलकम् ; तस्माद्विमृश्य प्रवेष्टव्यम्- 15 इति भावो नः । राज्ञा निगदितम्-तर्हि आचार्यचेष्टाऽपि भवद्भिर्जायताम्-यथा निरन्तरेऽपि घृते निजतिक्ष्णतया सूची प्रविष्टा, तथाऽहमपि विद्वन्निविडे नगरे प्रवेक्ष्यामि-इति दध्वनुः । पण्डिताः सर्वे राजेन्द्रोऽपि संमुखं गताः । सुरसरिल्लहरिहारिण्या वाण्या तुष्टुवुः । नगर- _ मानीतो गुरुः । निर्वाणकलिका-प्रश्नप्रकाशादिशास्त्राणि सन्ददर्भ । एकां च तरङ्गालोलां नाम चम्पू राज्ञोऽग्रे नवां निर्माय सदसि व्याचख्ये प्रभुः । तुष्टो" राजा । भवत्ययं कवीन्द्रः । 20 २५. शाणोत्तीर्णमिवोज्वलद्युति पदं वन्धोऽर्द्धनारीश्वरः, श्लाघालङ्घनजातिको दिवि लतोद्भिन्नेव चार्थाद्गतिः । ईषचूर्णितचन्द्रमण्डलगलत्पीयूपहृयो रस- स्तत्किञ्चित्कविकर्ममर्म न पुनर्वाडिण्डिमाडम्बरः ॥ ८॥ इत्येवं कवयोऽपि तुष्टुवुः । एका तु वेश्या विदुषी राजसभ्या गुणज्ञाऽपि सूरीन्द्राम्न स्तौति । ततो राज्ञा भणितम्-वयं सर्वे तुष्टाः, स्तुमः सर्वे केवलमियमेका न स्तौति । तत्क्रियतां येन स्तुते। तदाकर्ण्य सूरयो वसतिमाययुः । रात्री गच्छसम्मत्या कपटमृत्युना मृताः, पवनजयसाम- 25 र्थ्यात् । [ विद्यावलात् ] शवयानमाश्रितः सूरिः । चातुर्वण्र्य रोदिति । वेश्यागृहद्वारे नीतं शबयानम् । वेश्याऽपि तत्रागता रुदती वदति - २६. सीसं कहवि न फुटुं जमस्स पालित्तयं हरंतस्स । जस्स मुहनिज्झराओ तरङ्गलोला नई बूढा ॥ ९॥ पुनरजीवत्प्रभुः । वेश्ययाऽभाणि-मृत्वाऽऽत्माऽस्तावि!। 'मृत्वाऽपि पञ्चमो गेयः' इति किं न श्रुतम् । अथ प्रभुः शत्रुञ्जये रदनसंख्योपवासानशनेन ईशानेन्द्रसामानिकत्वेनोदपद्यतेति । ॥ इति श्रीपादलिप्ताचार्यप्रवन्धः ॥५॥ 30 1 'स' नास्ति ABI 2 A. आरात्रिकप्रदीपमङ्गलसमये। 3 PB पितापु०। 4 A 'तत् नास्ति; BD ततः। 5 AC सम्पूर्ण । 6 CP प्रेषणे। 7 BP विदुपैः। 8 P नास्ति सर्वे। 9 CD गतः। 10 BCP तुतुपुः। 11 P नास्तीदं वाक्यं । 12 P नास्ति। 13 A आदर्श एवैतत्पदं दृश्यते। 14 A भारोपितः। 15 A चकि। Page 36**************************************************************************************** वृद्धवादि-सिद्धसेनयोः प्रबन्ध । ६. अथ श्रीवृद्धवादि-सिद्धसेनयोः प्रवन्धः । ६२३) विद्याधरेन्द्रगच्छे श्रीपादलिप्तसूरिसन्ताने स्कन्दिलाचार्याः साधितजैनकार्याः पुस्फुरुः । ते यतनया विहरन्तो गौडदेशं ययुः। तत्र कोशलाख्यग्रामवासी मुकुन्दो नाम विप्रः । स तेषां सूरीणां मिलितः । इत्य देशनामओपीत्- २७ मोगे रोगभय सुखे क्षयमय वित्तेऽग्निभूभृद्भय, दास्ये स्वामिभय गुणे खलभय वशे कुयोपिद्भयम् । 5 स्नेहे वैरमय नयेऽनयभय काये कृतान्ताद्भय, सर्व नाम भय भवे यदि पर वैराग्यमेवामयम् ॥ १॥ श्रुत्वा भवोछिग्नश्चारित्रं गृहीत्वा गुरुभिः सम भृगुपुरं गतः । स मुकुन्दमुनिस्तारखरेणा- धीते । रात्रौ साधूनां निद्राभगो भवति । ततस्तान दुर्मनायमानान् ज्ञात्वा गुरुभिः पठन्निपि. दोऽसौ । यथा-वत्स! नमस्कारान् गुणय । रात्राच्चैर्भापणे हिंस्रजीवजागरणादनर्थदण्डो मा भूदिति । ततो दिवापठने श्रावक-श्राविकादीनां कर्णज्वरो भवति । केनाप्युक्तम्-किमय-10 मियद्वयाः पठित्वा मुशल पुष्पापयिष्यति ? । तच्छ्रुत्वा मुकुन्दः खिन्नः । सद्यो महाविद्यार्थी एकविंशत्योपवासर्जिनालये ब्राह्मीमारराध । तुष्टा सा प्रत्यक्षीभूय जगाद-सर्वविद्यासिद्धो भव । ततः कवीन्द्रीभूय स्वगुर्वन्तिकमागत्य सङ्घसमक्षमक्षामस्वरेण यभाण-यन्ममोपहास: केनापि कृतः-'यदयं कि मुशल पुप्पापयिष्यति" विलोफयत लोकाः । मुशल पुष्पापयामि। इत्युक्त्वा मुशलमानाय्य चतुप्पथे स्थित्वा तत्पुष्पापयामास, मन्त्रशक्तिमाहात्म्यात् । स्कन्ध- 15 स्थितेन तेन भ्रमति पठति च- २८ पत्तमवलनिय तह जो जपइ फुल्लए न मुसलमिह । तमह निराकरित्ता फुल्लड मुमल ति ठावेमि ॥२॥ तथा- २९ महो' शृङ्ग शक्रयष्टिप्रमाण शीतो वह्निर्मारुतो निष्प्रकम्प । यस्मै यद्वा रोचते तन्न किश्चित् वृद्धो वादी भापते क किमाह ॥३॥ 20 अप्रतिमल्लो वादी सोऽभूत् । स्कन्दिलाचार्यैः स्वपदे निवेशितः। 'वृद्धवादी' इति स्यातं । तन्नाम । स्कन्दिलाचार्याः समाधिमृत्युरथेन द्यामगमन् । ६२४) एकदा वृद्धवादी भृगुपुर गच्छान्नास्ते। इतश्चावन्त्या विक्रमादित्यो राजा । यस्य दानानि- ३० अष्टौ हाटककोटयनिनवतिर्मुक्ताफलाना तुला , पञ्चाशन्मदगन्धलुब्धमधुपकोधोद्धुरा सिन्धुरा । ____लावण्योपचयप्रपचितदृशा पण्याङ्गनाना' शत, दण्डे पाण्ड्यनृपेण ढौकितमिद वैतालिकस्यायंताम् ॥ ४॥ 25 इत्यादीनि ख्यातानि । तस्य राज्ये मान्यः कात्यायनगोत्रावतंसो देवर्षिर्द्विज । तत्पनी देव- सिका। तयोः सिद्धसेनो नाम पुनः। सें प्रज्ञापलेन जगदपि तृणवद्गणयति,मज्ञायाश्च इयत्ता नास्ति । जगति ततः पठ्यते- ३१ मिता मू पत्यापा स च पतिरपा योजनशत, सदा पान्य पूपा गगनपरिमाण कलयति । इति प्रायो भावा स्फुरदवधिमुद्रामुकुलिता , सता प्रशोन्मेष. पुनरयममीमा विजयते ॥ ५॥ 30 येन वादे जीये तस्याह शिप्यः स्याम्-इति प्रतिज्ञा तस्य । क्रमेण वृद्धवादिनः कीर्ति श्रुत्वा स । 1 BC कपीन्दो भूया। 2AB कन्यन्याने। 3P धामि। 4AP महोगा। 5A पारागनाना। GA बेवारिकापार्पित C.स्थापितम् । Page 37**************************************************************************************** 10 % 3D १६ प्रवन्धकोशे तत्सम्मुखं धावति स्म । सुखासनारूढो भृगुपरं गतः । तावमृगुकच्छान्निर्गतो वृद्धवादी मार्गे मिलितः। परस्परमालापः[जातः]। सिद्धसेनो भापते-वादं देहि । सूरिराह-दद्मः, परमत्र के सभ्याः ? । सभ्यान् विना वादे जिताजिते को वदेत् ? । सिद्धसेनेनोक्तम्-एते गोपालकाः सभ्या भवन्तु । वृद्धवादिना भणितम्-तर्हि ब्रूहि । ततः सिद्धसेनस्तत्र नगरगोचरे चिरं संस्कृतेन 5 जल्पमनल्पमैकरोत् । क्रमेण च स्थितः। गोपैरुक्तम्-किमप्ययं न वेत्ति । केवलमुच्चैः पूत्कारं पूत्कारं कौँ नः पीडयति । धिर धिम् । वृद्ध ! त्वं ब्रूहि किञ्चित् । ततो वृद्धवादी कालज्ञः कच्छां दृढं बद्धा घीन्दिर्णिच्छन्दसा क्रीडति- ३२. नवि मारियइ नवि चोरियइ परदारह गमणु निवारियइ । थोवाथोवं दाइयई सग्गि टुकुटुकु जाइयइ ॥६॥ ३३. [*गुलसिउं चावइं तिलतांदली वेडिई वजावई वांसली । पहिरणि ओढणि हुइ कांवली इणपरि ग्वालइ पूजइ रुली ॥ ७ ॥] पुनः पठति नृत्यति च- ३४. कालउ कंवलु अनुनी चाटु छासिहिं खालडु भरिउ नि पाटु । - अइवडु" पडियउ नीलइ झाडि" अवर किसर गह सिंग" निलाडि ॥ ८॥ गोपा हृष्टाः प्रोचुः-वृद्धवादी सर्वज्ञः । अहो! कीदृक् श्रुतिसुखमुपयोगि पठति । सिद्ध- 15 सेनस्तु असारपाठकः-इत्यनिन्दन् । ततः सिद्धसेनः प्राह-भगवन् ! मां प्रव्राजय । तव शिष्यो- ऽहं भवामि वादे सभ्यसम्मतं जितत्वात् । अथ वृद्धवादी आह-भृगुपुरे राजसभायामावयोर्वा- दोऽस्तु । गोपसभायां को वादः ? । सिद्धसेनेनोक्तम्-अहमकालज्ञः । त्वं [तु] कालज्ञः । यः कालज्ञः स सर्वज्ञः। त्वयैव जितम् । इत्येवं वदन्तं तं तत्रैव दीक्षयामास । तत्र भृगुपुरनरेन्द्रेण तं वृत्तान्तं ज्ञात्वा तालारसो नाम ग्रामः स्थापितः प्रौढः । नाभेयचैत्यं कारितम् । नाभेयविम्ब 20 वृद्धवादिना प्रतिष्टितम् । सङ्घो जगर्ज। सिद्धसेनस्य दीक्षाकाले 'कुमुदचन्द्र' इति नामासीत् । सूरिपदे पुनः 'सिद्धसेन दिवाकर' इति नाम पप्रथे। तदा "दिवाकर' इति सूरेः संज्ञा । स्वामि- शब्दवद् ,"वाचकशब्दवच । वृद्धवादी अन्यत्र विहरति । सिद्धसेनस्त्ववन्तीं ययौ । सङ्घः सम्मुख- मागत्य तं सूरि 'सर्वज्ञपुत्रक' इति बिरुदे पठ्यमानेऽवन्तीचतुष्पथं नयति । तदा राजा विक्रमा- दित्यो हस्तिस्कन्धारूढः सम्मुखमागच्छन्नस्ति । राज्ञा श्रुतम्-'सर्वज्ञपुत्रक' इति । तत्परीक्षार्थ 25 हस्तिस्थ एव मनसा सूरेनमस्कारं चकार, न वाक-शिरोभ्याम । सरिश्वासन्नाय वभाण । राजेन्द्रेण भणितम्-अवन्दमानेभ्योऽस्माकं को धर्मलाभः ? । किमयं समयों लभ्यमानोऽस्ति ? । सूरिसुन्नाम्णाऽभाणि-चिन्तामणिकोटितोऽप्यधिकोऽयं वन्दमानाय देयः। न च त्वया न वन्दिता वयम् , मनसः सर्वप्रधानत्वात् । अस्मत्सार्वज्ञपरीक्षायै हि मनसाऽस्मान- वन्दथाः । ततस्तुष्टो राजेश्वरो हस्तिस्कन्धादवरुह्य सङ्घसमक्षं ववन्दे कनककोटिं चानाययत् । 1 केवलं P आदर्श दृश्यते। 2 A को जिताजितं वदेत् ; B जिताजितं को वदेत् । 3 A 'अनल्पं' नास्ति । 4 A.BD 'च' नास्ति। 5 Bधीन्दण; Cघींदिण; P धिन्दिणि। 6 B थोवाथोवडं। 7 P दावियइ। 8 CP टुगु टुगु । * P विहा. यैतत्पद्यमसदीयेप्वादशेषु नोपलभ्यते। 9 P वाटु; B बट्ट। 10 A छासिहिं भरिउ दीवड पाटु; B दइअड पट्ट। 11 B अडवड। 12 P डाडि। 13 A संगु। 14 केवलं A. आदर्श एष दृश्यते । 15 केवलं P आदर्श लभ्यते । 16 B तालरसो। 17 'वाचकशब्दवत्' पतितं P आदर्श। 18 P सूरिः श्रुत्वा । Page 38**************************************************************************************** वृद्धवादि-सिद्धसेनयो प्रपन्य । आचार्यः सा न जगृहे, निर्लोभत्वात् । राज्ञाऽपि न जगृहे, कल्पितत्वात् । तत आचार्यानुज्ञया सङ्घपुरुपैर्जीर्णोद्धारे व्ययिता । राजवहिकायां त्वेवं लिखितम्- ३५ धर्माम इति प्रोक्त दूरादुच्छ्रितपाणये । सूरये सिद्धसेनाय ददौ कोटि धराधिप ॥ ९॥ श्रीविक्रमाने अवसरे तेनैव भगवता भणितम्- ३६ पुन्ने वाससहस्से सयमि परिसाण नवनवइकलिए । होही कुमरनरिन्दो तुह विक्कमराय सारिच्छो ॥ १०॥ 5 ६५) अन्यदा सिद्धसेनश्चित्रकूटमटति स्म । तत्र चिरन्तनचैत्ये स्तम्भमेकं महान्तं दृष्ट्वा कश्चिदमाक्षीत्-कोऽयं स्तम्भो महान् ', किंमयः । तेनोक्तम्-पूर्वाचार्यैरिह रहस्यविद्यापुस्तकानि न्यस्तानि सन्ति । स्तम्भस्तु तत्तदोपधद्रव्यमयः । जलादिभिरभेद्यो वज्रवत् । तद्वचनं श्रुत्वा सिद्धसेनस्तस्य स्तम्भस्य गन्ध गृहीत्वा प्रत्यौपधरसैस्तमाच्छोटयामास । तैः स प्रातरम्बुजव- 'विचकास । मध्यात्पतिताः पुस्तकाः। तत्रैक पुस्तक छोटयित्वा वाचयन्नाद्यपत्र एव द्वे विद्ये ।। लभते स । एका सर्पपविद्या, अपरा हेमविद्या । तत्र सर्पपविद्या सा-ययोत्पन्ने कार्य मान्त्रिको यावन्तः सर्पपान जलाशये क्षिपति तावन्तोऽश्ववारा द्विचत्वारिंशदुपकरणसहिता निःसरन्ति । ततः परवलं भज्यते । सुभटाः कार्यसिद्धरनन्तरमदृश्यीभवन्ति । हेमविद्या पुनरक्लेशेन शुद्धहेम- कोटी: सद्यो निष्पादयति, येन तेन धातुना । तद्विद्याद्वयं सम्यग् जग्राह । यावदने वाचयति तावत्स्तम्भो मिलितः पुस्तकगर्भः। खे च वागुत्पन्ना-अयोग्योऽसि ईदृशानां रहस्यानाम् , मा। चापल कृथाः, सद्यो मा म्रियस्व-इति । ततो भीतः स्थितः । यद्विद्याद्वय लब्धं तल्लन्धम् । नाधिकं लभ्यते, अप्राप्तितः । चित्रकूटात्सिद्धसेनोऽथ पूर्वदेशे कूर्मारपूरं गतः । तत्र देवपालं राजान प्रयोध्य नीलीरागजैनमकापीत् । तत्रास्यात् । नित्यमिष्टा गोष्ठी वर्तते। कियानपि कालो जगाम । एकदा राजा रह एत्य साश्रुणा विज्ञप्तम्-भगवन ! पापा वयम् , नेदृशमधुरभवंदगोष्ठी- योग्याः, येन सङ्कटे पतिताः स्म । सूरीन्द्रः पप्रच्छ-कि सङ्कटं वः? । राजा प्राह-सीमाल-१ भूपालाः सम्भ्य मद्राज्यं जिघृक्षव आयान्ति । सूरिराह-राजन् ! मा म विह्वलो भूः । तवैव राज्यश्रीवशे यस्याह सखा । राजा दृष्टः । परचक्रमायातम । विद्यादयशक्त्या राजे समाँ विहितः सूरिणा । भग्नं परवलम् । गृहीतं तत्सर्वस्वम् । वादितान्यातोद्यानि । ततो वादं राजा सूरिभक्त सम्पन्नः । सूरयः सगच्छा अपि क्रियाशैथिल्यमापत । यतः- ३७ चाटुकारगिरा गुम्फै कटागचक्षुपाम् । केलिकलोलितै श्रीणा' भिद्यते कस्य नो मन ॥ ११॥ " ३८ सुअई गुरू निचिंतो' सीसानि सुअति तस्स अणुकमसो । ओमाहिजइ मुक्सो हुडाहुहु सुअतेहिं ।।१२।। श्रावकाः पौषधशालायां प्रवेशमेव न लभन्ते । ३९ दगपाण पुष्फफल अणेसणिज मिहत्यफिचाइ । अजया पडिमेवती जइवेसविडवगा नवर ॥ १३ ॥ इति गाथा समाचार्यते । तदपयः श्रुत्वा धृवादी कृपया तं निस्तारयितुमेकाकीभूय गच्छं पभेषु न्यस्य तत्रागतः । द्वारे स्थित' । सूरीणामने कथापयति द्वार्थः । यथा-वादी 1C भपते, D मले। 2P कोर्टी। 3AP मिष्टगोष्टी। 4 BC 'भवद' नास्ति । 5.1P स्त्रीणा। G AC स्यह। 7A निषो Cनिघतो, D निजवो। 8 B सुस्यो। 9ADहाहह। 10 BCD सेहती। 11 P ai गट । ३ . यो. Page 39**************************************************************************************** १८ प्रवन्धकोशे एको ज्यायानायातोऽस्ति । मध्ये सूरिभिराहृतः । पुर उपवेशितः । वस्त्रावगुण्ठितसर्वकायो वृद्धवादी वदति । व्याख्याहि- ४०. अणफुल्लिये फुल्ल म तोडहिं मां रोवा मोडहिं । मणकुसुमेहिं अचि निरंजणु हिंडहि काई वणेण वणु ॥१४॥ सिद्धसेनश्चिन्तयन्नपि न वेत्त्यर्थम् । ततो ध्यायति-किमेते मे गुरवो वृद्धवादिनः ? येपां 5 भणितिमहमपि व्याख्यातुं न शक्नोमि । पुनः पुनः पश्यता उपलक्षिता गुरवः । पादयोः प्रणम्य क्षामिताः, पद्यार्थ पृष्टाः। तेऽथ व्याचक्षिरे । यथा-'अणफुल्लियफुल्ल' प्राकृतस्यानन्तत्वात् अप्राप्तफलानि पुष्पाणि मा त्रोटय । को भावः ?-योगः कल्पद्रुमः। कथम् ?-यस्मिन्मूलं यमनि- यमाः, ध्यानं प्रकाण्डप्रायम्, स्कन्धश्रीः समता, कवित्व-वक्तृत्व-यश:-प्रताप-मारण-स्तम्भनो- चाटन-वशीकरणादिसामर्थ्यानि पुष्पाणि, केवलज्ञानं फलम् । अद्यापि योगकल्पद्रुमस्य पुष्पा- 10 ण्युद्गतानि सन्ति; तत्केवलफलेन तु पुरः फलिष्यन्ति । तान्यप्राप्तफलान्येव किमिति त्रोटयसि मा त्रोटय इति भावः । 'मा रोवा मोडहिं' इह रोपाः पञ्चमहावतानि, तानि मा मोटय। मन:- कुसुमैर्निरञ्जनं जिनं पूजय । वनाइनं किं हिंडसे-राजसेवादीनि कृच्छ्राणि विरसफलानि कथं करोषि; इति पदार्थः । ततो वादी तां गुरुशिक्षा मूर्ध्नि धृत्वा राजानमापृच्छय वृद्धवादिना सह निविडचारित्रधरो विजहार । अपरापरगुरुभ्यः पूर्वगतश्रुतानि लेभे । वृद्धवादी द्यां गतः । 15_(२६) एकदा सिद्धसेनः सङ्घ मेलयित्वाह स्म-सकलानप्यागमानहं संस्कृतान्करोमि, यदि आदिशथ । ततः सङ्घो वदति स्म-किं संस्कृतं कर्तुं न जानन्ति श्रीमन्तस्तीर्थकरा गणधरा वा । यदर्धमागधेनांगमानकृपत? । तदेवं जल्पतस्तव महत्प्रायश्चित्तमापन्नम् । किमेतत्तवाये कथ्यते ?; स्वयमेव जानन्नसि । ततो विमृश्याभिदधेऽसौ-सङ्घोऽवधारयतु, अहमाश्रितमौनो द्वादशवार्पिकं पाराश्चिकं नाम प्रायश्चित्तं गुप्तमुखवस्त्रिकारजोहरणादिलिङ्गः प्रकटितावधूतरूपश्च- 20 रिष्याम्युपयुक्तः । एवमुक्त्वा गच्छं मुक्त्वा ग्रामनगरादिपु पर्यटन् द्वादशे वर्षे श्रीमदुज्जयिन्यां महाकालप्रासादे शेफालिकाकुसुमरञ्जिताम्बरालङ्कृतशरीरः समागत्यासांचके । ततः-देवं कथं न नमसि ? इति लोकैल्प्यमानोऽपि नाजल्पत् । एवं च जनपरम्परया श्रुत्वा विक्रमादित्यदेवः समागत्य जल्पयांचकार-क्षीरलिलिक्षो! भिक्षो! किमिति त्वया देवो न वन्द्यते? । ततस्तु [राजानं प्रति ] इदमवादि वादिना-मया नमस्कृते दे। लिङ्गभेदो भवतामप्रीतये भविष्यति । 25 राज्ञोचे-भवतु, क्रियतां नमस्कारः। तेनोक्तम्-श्रूयतां तर्हि । ततः पद्मासनेन भूत्वा द्वात्रिंशद्- द्वात्रिंशिकाभिर्देवं स्तोतुमुपचक्रमे । तथाहि- ४१. स्वयम्भुवं भूतसहस्रनेत्रमनेकमेकाक्षरभावलिङ्गम् । __अव्यक्तमव्याहतविश्वलोकमनादिमध्यान्तमपुण्यपापम् ॥ १५ ॥ इत्यादि ['श्रीवीरद्वात्रिंशद्वात्रिंशिका कृता । परं तस्मात्तादृक्षं चमत्कारमनालोक्य पश्चात् 30 श्रीपार्श्वनाथद्वात्रिंशिकामभिकर्तु कल्याणमन्दिरस्तवं चक्रे] प्रथमश्लोके एव प्रासादस्थितात् शिखिशिखाग्रादिव लिङ्गाद्भूमवर्तिरुदतिष्ठत् । ततो जनैर्वचनमिदमूचे-अष्टविद्येशाधीशः 1 AB अणहुल्लियं । 2 B मन मारोवा। 3 AC हिंडयं; P हिंडइ। 4 P नास्ति 'काई'। 5 B संस्कृतमयान् । 6 B मागधिना। 7 B नास्ति। 8 केवलं P पुस्तक एवैतत्पदं दृश्यते। 9 AP नास्ति 'देवे। 10 P नास्ति । + एपः कोष्टकान्तर्गतः पाठः P पुस्तके एवोपलभ्यते नान्यत्र, प्रक्षिप्तप्राय एपः। Page 40**************************************************************************************** १९ वृद्धवादि-सिद्धसेनयोः प्रबन्धः । कालाग्निरुद्रोऽयं भगवांस्तृतीयनेत्रानलेन भिर्दू भस्मसात्करिष्यति । ततस्तडित्तेज इव सतड- त्कारं प्रथमं ज्योतिर्निर्गतम् । ततः श्रीपार्श्वनाथविम्ब प्रकटीवभूव । तद्वादिना विविधस्तुतिभिः स्तुतं क्षमितं च । राजा विक्रमादित्यः पृच्छति-भगवन् ! फिमिदमदृष्टपूर्व दृश्यते ?, कोऽयं नवीनो देव. प्रादुरभूत । अथ सिद्धसेनः प्रोवाच-राजन् ! पूर्वमस्यामेवावन्त्यां श्रेष्ठिनीभद्रासू- नुत्रिंशत्पनीयौवनपरिमलसर्वस्वग्राही 'अवन्तीसुकुमाल' इति ख्यातः श्रेष्ठ्यासीत् । स शालि-5 भद्र इव गृव्यापार कमपि नाकापीत् । किन्तु मातैव सर्वामपि गृहतप्तिमकृत । एकदा दशपू. वघर आर्यसुहस्त्याख्यो मौर्यवंशमुकुटसम्प्रतिपगुरुः सगच्छो विहरन्नवन्तीमागत्य भद्रानुमत्या गृहैकदेशेऽस्यात् । रात्री ते नलिनीगुल्माख्यस्य स्वर्विमानस्य विचार गुणयन्ति । तपोधनजने विश्रान्ते सति तं विचारं शृण्वन् सान्द्रचन्द्रातपायां निशि स्वैरं पद्भ्यां भ्रमन्नवन्तीसुकुमालस्त- अायातः सम्यगोपीत् । आगत्य गुरुन् जगौ-भगवन् ! किमेतद् गुण्यते । आयरक्तम्-10 वत्स ! नलिनीगुल्मविमानविचारः। अवन्तीसुकुमालः प्राह स्म-ईदृशमेवेदं प्रेत्य मयाऽनुभूतम् । इदं केनोपायेन लभ्यते? । आर्यभणितम्-चारित्रेण । अवन्तीसुकुमालोऽप्याविभातात् गृही. तनलिनीगुल्मविमानग्रहणप्रतिज्ञः स्वयं कृतलोचः पश्चाद्गुरुभिरपि दत्तसामायिकः कन्यार- कुंडगाख्यं उमशानमेत्य कायोत्सर्गी भवान्तरभार्यया शृङ्गालीत्वमापन्नया सार्भया क्षुधितया दर्भसूचीवेधक्षरत्तद्रुधिरधारागन्धलुब्धागतया भक्षितः, सद्भावनाजर्जरितपापकर्मा नलिनीगुल्म-15 माप । मातस्तन्माता सलुपा गुरुमुखादवगतपुत्रवृत्तान्ता तच्छमशानमागत्य विललाप विविध विविधम् । पुनर्ग्रहमागता । एकां सगी वधूं गृहे मुक्त्वा एकत्रिशता वधूभिः सह सयममा- दाय दिवं लेभे । सगर्भस्थितवचूकाजातपुत्रेण स्फीतयौवनेनायं प्रासादः कारितः । मम पितुर्महाकालोऽत्राभूदिति 'महाकाल'नाम दत्तम् । श्रीपार्श्वनाथविम्ब मध्ये स्थापितम् । कत्यप्यहानि लोकेन' पूजितम् । अवसरे द्विजैस्तदन्तरितं कृत्वा मृडलिङ्गमिट स्थापितम् । अधुना 20 मत्कृतस्तुतितुष्टः श्रीपार्श्वनाथः प्रादुरासीत् । मत्प्रेरितगासनदेवतावलात्तु मृडलिट् विदः । सत्यासत्ययोरन्तरं पश्य । तच्छ्रवणान्नृपः शासने ग्रामशतान्यदत्त देवाय । उपगुरु ससम्यक्त्वां द्वादशवतीमुपादत्त । अश्लाघत वादीन्द्रम्- • ४२ अहयो यहव सन्ति भकभक्षणदक्षिणा । एक एव स शेपो' हि "परिनीधरणक्षम ॥ १६ ॥ तथा त्वम् । अहो कवित्वशक्तिस्ते ! ४३ पद मपदि कस्स न स्फुरति शर्करापाकिम, रसालरससेकिम भणितिवैभव कस्स न । ___ तदेतदुभय किमप्यमृतनिझरोगारिमै-स्तरङ्गयति यो रसै स पुनरेक एव क्वचित् ॥ १७ ॥ ४४. न नामा नो" वृत्त्या परिचयवशाच्छन्दसि न वा, न शन्दव्युत्पत्त्या निभृतमुपदेशान्न च गुरो । अपि त्वेता खैर जगति सुकनीना मधुमुचो, विपच्यन्ते वाच सुकृतपरिणामेन महता ॥ १८॥ इति स्तुत्वा सम्राट स्वस्थानमयासीत् । वादीन्द्रोऽपि प्रभावनातुष्टेन सडेन मध्येकृतः। 30 २७) अन्येाः सिद्धसेनो विहरन् ॐकारार यं मालवेपु नगरं ययौ । तत्र भक्तः श्रावकैर्विजप्त 25 1P मिदमपू। दिमान' नाम्नि P1 3 B सन्यार, D कन्याए । 4 CD फुहा० । 5 B पीवयधुका पौयनेन । G BCीपाश्चपिम्य । 72 लोफे। 8 P मक्षपारपरा । 92 श्रीशेपो। 10 P घरगे। 11 P मा । Page 41**************************************************************************************** प्रवन्धकोशे सूरये। यथा-भगवन् ! अस्यैव नगरस्यासन्नो ग्राम एक आसीत् । तत्र सुन्दरो नाम राजपुत्रो ग्रामणी । तस्य द्वे पल्यौ । एका प्रथमां पुत्री प्रासूत, अखिद्यत च। तदैव सपन्यप्यासन्नप्रसवा वर्तते । मा स्म इयं पुत्रं प्रसूय भर्नुः सविशेपं वल्लभा भूत्-इति स्त्रीत्वोचितया तुच्छया बुद्धया सूतिकामेकामवोचत-यदा इयं मे सपत्नी प्रसवकाले दैववशात्त्वामाह्वयति, तदा त्वया परस्था- 5 नात्प्रथमं सङ्ग्रहीतं मृतं कश्चिदपत्यं तत्र सञ्चार्यम् । तज्जातकं चेत्पुत्रो भवति तदा स्वयं गृहीत्वा ग्रामारे व्युत्स्रष्टव्यम् । इदं हेम गृहाण-इति सूत्रणां चक्रुपी । विधिवशात्तत्र तत्तया तथैव कृतम् । राजपुत्रो जातमात्रो प्रामारे क्षिप्तो ही । स राजपुत्रः पुण्याधिक इति तत्कुलदेवतया धेनुरूपण दुग्धं दत्त्वा पालयन्त्याऽटवपदेशीयः कृतः। अत्रैव ॐकारनगरे शिवभवनाधिका- रिणा भरटकेन दृष्टः, आलापितः, स्वां दीक्षां ग्राहितः । अन्यदा कन्यकुब्जदेशाधिपतिर्नरेन्द्रो 10 जात्यन्धो दिग्विजयकार्येण प्रत्यासन्नः समावासितः । रात्रौ लघुभरटकस्य शिवादेशः सञ्जातः- त्वया कन्यकुब्जेशाय शेपा देया । तयाऽसौ सज्जाक्षो भावी । तदाक्यं लधुवृहद्गुरवे समा- ख्याय तदाज्ञया शेपामादाय स्कन्धावारमध्यमेत्य राजामात्यानुवाच-भो! भो! स्वनाथमस्म- सम्मुखमानयध्वम् । यथा सद्यः कमलदलललितं स्खविपयग्रहणक्षमाक्षं कुर्महे । ततोऽमात्य- नुन्नो राजा तत्रायातः । ऋपिदत्तां शेपामादायाक्ष्णोर्निवेश्य सज्जाक्षो जातः। प्रीतः भक्त्या 15 ग्रामशतानि शासनेऽदात् । अत्रैव च ॐकारे इममुत्तुस् प्रासादमचीकरत् । वयमिह पुरे वसामः । जैनः प्रासादः कारयितुं न लभ्यते । मिथ्याहशो वलिनः। तस्मात्तत्कुरु येन इतोऽधिकं तुङ्ग रम्यं चैत्यं निष्पद्यते । बली त्वमेवेति । तद्वचनं श्रुत्वा वादी अवन्तीमागत्य चतुःश्लोकी हस्ते कृत्वा विक्रमादित्यद्वारमेत्य द्वास्थेनोपराजं श्लोकमचीकथत् । स तेन कथितो यथा- ४५. दिक्षुर्भिक्षुरायातस्तिष्ठति द्वारि वारितः । हस्तन्यस्तचतुःश्लोक उतागच्छतु गच्छतु ।। १९ ।। तं श्लोकं श्रुत्वा विक्रमादित्येन प्रतिश्लोकः कथापितो यथा- ४६. दत्तानि दशलक्षाणि शासनानि चतुर्दश । हस्तन्यस्तचतुःश्लोक उतागच्छतु गच्छतु ॥ २० ॥ वादिना तं श्लोकं श्रुत्वा द्वास्थद्वारेण भाणितं राजे-दर्शनमेव भिक्षुरीहते नार्थम् । ततो राज्ञा खदृष्टौ आइतः। उपलक्षितो भापितश्व-भगवन् ! किमिति चिराद दृश्यध्वे? | आचार्य रुक्तम्-धर्मकार्यवशाचिरादायाताः । श्लोकचतुष्टयं शृणु । राज्ञि शृण्वति पठितं तत् । यथा- 25 ४७. अपूर्वयं धनुर्विद्या भवता शिक्षिता कुतः । मार्गणौधः समभ्येति गुणो याति दिगन्तरम् ॥ २१ ॥ ४८. सरस्वती स्थिता वक्त्रे लक्ष्मीः करसरोरुहे । कीर्तिः किं कुपिता राजन् ! येन देशान्तरं गता ॥२२॥ ४९. कीर्तिस्ते जातजाड्येव चतुरम्भोधिमज्जनात् । आतपाय धरानाथ ! गता मार्तण्डमण्डलम् ॥ २३ ॥ ५०. सर्वदा सर्वदोऽसीति मिथ्या संस्तूयसे जनैः । नारयो लेभिरे पृष्ठं न वक्षः परयोपितः ॥ २४ ॥ श्रुत्वा तुष्टो विक्रमश्चतुरो गजान् यथासंख्यं वसन-सुगन्धद्रव्य-हेमनाणक-हारादिपूर्णान्- 30 आनाय्य सूरिमभाणीत्-इमे गृह्यन्ताम् । सूरिरूचे-नैतदर्थ्यहम् । पुनर्विक्रमो भणति- मन्महीसारभूतांश्चतुरो देशान् खैरमादत्व । वाद्याह-इदमपि नेच्छामि । तर्हि किमिच्छ- सीति?। श्रूयताम्-ॐकारे चतुर्दारं जैनप्रासादं शिवप्रासादादुच्चं कारय । स्वयं सपरिच्छदः 20 1 P राजपुत्राग्रणीः। 2 P राजपुत्रोऽपि। 3 B नास्ति 'प्रीतः। 4 BCE द्वारि तिष्ठति वारितः। 5 CD राज्ञः। Page 42**************************************************************************************** मल्लवादिप्रनन्ध । २१ 10 २८) प्रतिष्ठां च तत्र कारयेति । राज्ञा तत्तथैव कृतम् । प्रभावनया सङ्घस्तुष्टः । एवं जैन धर्म द्योतयन् वादी दक्षिणस्यां पृथ्वीस्थानपुरं विहरन् गतः । तत्रायुरन्तं ज्ञात्वाऽनशनं लात्वा वर्गलोक- मध्यवात्सीत् । तनत्यसवेन चित्रकूटे सिद्धसेनगच्छं त वृत्तान्त ज्ञापयितुं वारग्मी भट्ट एकः प्रस्थापितः। स तत्सूरिसभायां श्लोकपूर्वाद्धं पुनः पुनः पठति स्म यथा- ५१ स्फुरन्ति वादिसद्योता साम्प्रत दक्षिणापथे । पुनः पुनः पाठे सिद्धसारखतया सिद्धसेनभगिन्योक्तम्- नूनमस्तगतो वादी सिद्धमेनो दिवाकर ॥ २५ ॥ पश्चाभट्टेन प्रपश्योक्तम् । ततः शोको विहितो विसृष्टश्च । ॥ इति वृद्धवादि-सिद्धसेनयोः प्रवन्धः ॥ ६॥ more- ७. अथ श्रीमल्लवादिप्रवन्धः । श्रीइन्द्रभूतिमानम्य प्रभावकशिरोमणेः । श्रीमल्लवादिसूरीन्दोश्चरित कीर्त्यते मया ॥१॥ खेटाभिधं महास्थानमस्ति गूर्जरमण्डले । देवाटित्याहयस्तन्न विप्रोऽभूद्वेदपारगः ॥२॥ सुभगाख्या सुता तस्य विधवा यालकालतः । कस्मादपि गुरोर्मत्रं सौर सा प्राप भक्तिभाक् ॥३॥ आकृष्टस्तेन मन्त्रेण भास्करस्तामुपागमत् । तद्भोगलाभादापन्नसत्त्वा सा न चिरादभृत् ॥ ४ ॥15 वैक्रियेभ्यः सुरानेभ्यो गर्भो यद्यपि नोद्भवेत् । तदानीं त्वौदारिकाङ्गधातुयोगात्तु सम्भवी ॥५॥ आपाण्डुगण्डफलकां ग्लानागीं वीक्ष्य तां पिता। यभापे किमिदं वत्से ! निन्द्यमाचरितं त्वया ॥६॥ सा प्रात् म पितर्नेयं प्रमादविकृतिर्मम । मन्त्राकृष्टागतोष्णांशुन्यासः पुनरयं बलात् ॥ ७ ॥ इत्युक्तोऽपि विषण्णात्मा देवादित्यः कुकर्मणा । तां पुत्री प्रेपयामास सभृत्यां वलभी पुरीम् ॥८॥ कालेन तत्र साऽसूत पुत्रं पुत्री च सुद्युतम् । तत्रैवोवास सुचिर जनकार्पितजीविका ॥९॥ 20 क्रमेण ववृधाते तौ पुत्रौ पालार्कतेजसौ । यावदष्टौ व्यतिक्रान्ता वत्सराः क्षणवत्तयोः ॥१०॥ तावदध्यापकस्यान्ते पठितुं तौ निवेशितौ । कलहेम निष्पितृकमूचिरे लेखशालिकाः ॥ ११ ॥ तद्गिरा खिद्यमानोभः पप्रच्छ जननी निजाम्। कि मातास्ति मे तातो येन लोकोक्तिरीदृशी ॥१२॥ माता जगाद नो वेद्मि कि पीडयसि पृच्छया। ततः खिन्नःस सत्त्वाढयो मर्नुमैच्छद्विपादिभिः ॥१३॥ साक्षादागत्य तं भानुरूचेऽहं वत्स! ते पिता । पराभवकरो यस्ते तस्याहं प्राणहारकः ॥ १४ ॥25 इत्युक्त्वा कर सूक्ष्ममेकं तस्य समार्पयत्। ताट्योऽनेन त्वया द्वेपी सद्यो मततिचादिशत्॥१५॥ तेन करशस्त्रेण घालः स वलवत्तरः। विनुवन्त वित्रुवन्तमवधील्लेखशालिकम् ॥ १६ ॥ वलभीपुरभूपेन श्रुतो पालवधः स तु । कुपितस्तं शिशुं सद्यो जनैः खान्तिकमानयत् ॥ १७ ॥ उक्तश्च-रे! कथ हंसि नृशंस शिशुकानमून् ?। वालः प्रत्यार-न पर बालान्हन्मि नृपानपि ॥१८॥ इत्थं वदन् महीपालमहन् कर्करकेण तम् । मृतस्य तस्य साम्रज्ये स राजाऽजनि विक्रमी ॥१९॥30 1 AC प्रबन्धौ। 2 PD तेन। 3 BC सदा। 4 B शारकम् । Page 43**************************************************************************************** प्रवन्धकोशे 10 ६२९) शिलादित्य इति ख्यातः सुराष्ट्राराष्ट्रभास्करः। लेभे सूर्याद्वरं वाहं परचक्रोपमईकम् ॥ २० ॥ निजां खसारं स ददौ भृगुक्षेत्रमहीभुजे । असूत सा सुतं दिव्यतेजसं दिव्यलक्षणम् ॥ २१॥ शत्रुचये गिरौ चैत्योद्धारमारचयच्च सः। श्रेणिकादिश्रावकाणां श्रेणावात्मानमानयत् ॥ २२॥ 5 कदाचिदागतास्तत्र बौद्धास्तर्कमदोद्धराः । ते शिलादित्यमगदन्-सन्ति श्वेताम्बरा इमे ।। २३ ॥ वादे जयन्ति यद्यस्सांस्तदैते सन्तु नीवृति । वयं यदि जयामोऽमूंस्तदा गन्तव्यमेतकैः ॥ २४ ॥ दैवयोगाजितं बौद्धैः सर्वे श्वेतम्बराः पुनः । विदेशमाशिश्रियिरे पुनः कालवलार्थिनः ॥ २५ ॥ शिलादित्यनृपो बौद्धान् प्रपूजयति भक्तितः । शत्रुञ्जये च ऋषभस्तैवुद्धीकृत्य पूजितः ॥ २६ ॥ ३०) इतश्च सा शिलादित्यभगिनी भर्तृमृत्युतः। विरक्ता व्रतमादत्त सुस्थिताचार्यसन्निधौ ॥ २७॥ अष्टवर्ष निजं बालमपि व्रतमजिग्रहत् । सामाचारीमपि प्राज्ञं किञ्चित्किञ्चिदजिज्ञपत् ॥ २८ ॥ एकदा मातरं साध्वीं सोऽपृच्छदभिमानवान् । अल्पः कथं नः सङ्घोऽयं प्रागप्यल्पोऽभवत्कथम् ॥ २९॥ साऽप्युदश्रुरभाषिष्ट-वत्स! किं वच्मि पापिनी । श्रीश्वेताम्बरसङ्घोऽभूदु भूयानपि पुरे पुरे ॥३०॥ 15 तादृक्प्रभावनावीरसूरीन्द्राभावतः परैः । खसात्कृतः शिलादित्यो भूपालो मातुलस्तव ॥३१॥ तीर्थ शत्रुञ्जयाहूं यद्विदितं मोक्षकारणम् । श्वेताम्बराभावतस्तद्वौद्वैर्भूतैरिवाश्रितम् ॥ ३२॥ विदेशवासिनः श्वेताम्बराः खण्डितडम्बराः। क्षिपन्ति निहतौजस्काः कालं कचन केचन ॥३३॥ इति श्रुत्वाऽकुपद्वालस्तथागतभटान् प्रति । प्रतिज्ञां च चकारोच्चैः प्रावृडम्भोधरध्वनिः ॥ ३४॥ . नोन्मूलयामि चेद्वौद्धान् नदीरय इव दुमान् । तदा भवामि सर्वज्ञध्वंसपातकभाजनम् ॥ ३५ ॥ 20 इत्युक्त्वाऽम्बां समापृच्छय बाल कालानलद्युतिः। मल्लनामा गिरिं गत्वा तेपे तीव्रतरं तपः॥३६॥ आसन्नग्रामभक्षेण पारणं च चकार सः। दिनैः कतिपयैस्तच्च जज्ञौ शासनदेवता ॥ ३७॥ ___ भूत्वा व्योमनि साऽवादीत्-केमिष्टाः ?, सोऽपि बालकः। तच्छुत्वाऽऽख्यत्सानुभवं वल्ला' इति खदत्तदृक् ॥ ३८॥ षण्मास्यन्ते पुनः सोचे खस्था 'केन सहे त्यथ ? । बालर्षिरप्यभाषिष्ट 'समं धृतगुडैः शुभैः ॥३९॥ 25 अवधारणशक्त्या तं योग्यं शासनदेवता । प्रत्यक्षा न्यगदद्वत्स! भूयाः परमतापहः ॥ ४०॥ नयचक्रस्य तकस्य पुस्तकं लाहि मानद !। वाणी सेत्स्यति ते सम्यक् कुतर्कोरगजाङ्गुली ॥४१॥ भूमौ मुमोच तं तर्कपुस्तकं वालको मुनिः। प्रमादः सुलभस्तत्र वयोलीलाविशेषतः ॥ ४२ ॥ रुष्टा शासनदेव्यूचे विहिताशातना त्वया । सान्निध्यं ते विधाताऽस्मि प्रत्यक्षीभविता न तु ॥४॥ तं लब्ध्वा पुस्तकं मल्लवादी देदीप्यते स्म सः। शस्त्रं पाशुपतमिव मध्यमः पाण्डुनन्दनः ॥ ४४ ।। 30 आगत्य वलभीद्रगं सुराष्ट्राराष्ट्रभूषणम् । शिलादित्यं युगप्रान्तादित्यातिरुवाच सः॥४५॥ 1A राष्ट्र। 2 CD वाढं। 3 A. नास्ति पदमेतत् । 4 A भक्ततः। 5 B स्वसाकृत्य । 6 AP निहितौ० । 7 A मदनाम । Page 44**************************************************************************************** मल्लवादिप्रवन्ध । बौद्धैर्मुधा जगबग्ध प्रतिमल्लोऽहमुत्थितः । अप्रमादी मल्लवादी त्वदीयो भगिनीसुतः॥४६॥ शिलादित्यनृपोपान्ते चौद्धाचार्येण वाग्ग्मिना । वादिवृन्दारकश्चक्रे तर्कवर्करमुल्वणम् ॥४७॥ मल्लवादिनि जल्पाके नयचक्रवलोल्यणे । हृदये हारयामास पण्मासान्ते स शाक्यराट् ॥४८॥ पण्मासान्तनिशायां स स निशान्तमुपेयिवान् । तर्कपुस्तकमाकृष्य कोशात्किञ्चिदवाचयत् ॥४९॥ चिन्ताचक्रहते चित्ते नार्थीस्तान्धर्जुमीश्वरः । बौद्धः स चिन्तयामास प्रातस्तेजोवधो मम ॥५०॥ 5 श्वेताम्बरस्फुलिङ्गस्य किश्चिदन्यदहो! महः । निर्वासयिष्यन्तेऽमी हा' घौद्धाः साम्राज्यशालिनः ॥ ५२ धन्यास्ते ये न पश्यन्ति देशमग कुलक्षयम् । परहस्तगता भार्या मित्र चापदि सस्थितम् ॥ ५२ ॥ *इति दुःखौघसघटाद्विदद्रे तस्य हृत्क्षणात् । नृपाहानं समायातं प्रातस्तस्य द्रुतं द्रुतम् ॥ ५३॥ नोद्घाटयन्ति तच्छिष्या गृहद्वारं वराककाः । मन्दो गुरुर्नाद्य भूपसभामेतेति भापिणः ॥५४॥ तद्गत्वा तत्र तैरुक्तं श्रुत्वा तन्मल्ल उल्लसन् । अवोचच शिलादित्यं मृतोऽसौ शाक्यराट् शुचा ।।10 स्वयं गत्वा शिलादित्यस्तं तथास्यमलोकत । बौद्धान्प्रावासयदेशाधिक प्रतिष्ठाच्युतं नरम् ॥५६॥ मल्लवादिनमाचार्य कृत्वा वागीश्वरं गुरुम् । विदेशेभ्यो जैनमुनीन् सर्वानाजूहवन्नृपः ॥ ५७ ॥ शत्रुञ्जये जिनाधीश भवपञ्जरभञ्जनम् । कृत्वा श्वेताम्बरायत्तं यात्रां प्रावर्तयन्नृपः॥५८॥ ६३१) कालान्तरे तत्र पुरे रको नामाभवद्वणिक् । __तस्य कापर्टिको हट्टे न्यासीचक्रे महारसम् ॥ ५९॥ रसेन तेन स्पृष्टस्य लोहस्य तपनीयताम् । स दृष्ट्वा हसदनपरावर्त चकार च ॥१०॥ वञ्चयित्वा कार्पटिकं रकः सोऽभून्महाधनः। तत्पुन्या राजपुत्र्याश्च सख्यमासीत्परस्परम् ॥६१॥ हैमी कङ्कतिकामेका दिव्यरत्नविभूपिताम् । रङ्कपुत्रीकरे दृष्ट्वा याचते स नृपात्मजा ॥ १२ ॥ तां न दत्ते पुना रङ्को राजा त याचते बलात् । तेनैव मत्सरेणासौ म्लेच्छसैन्यमुपानयत् ॥६॥ भग्ना पूर्वलभी तेन सञ्जातमसमक्षसम् । शिलादित्यः क्षय नीतो वणिजा स्फीतऋद्धिना ॥ ६४ ॥20 ततोऽयाकृप्य वणिजा प्रक्षिप्ताश्च रणे शकाः । तृष्णया ते स्वयं महतो व्याधिर्महानयम्॥६५॥ विक्रमादित्यभूपालात्पश्चर्पित्रिक(५७३)वत्सरे । जातोऽयं वलभीभगो ज्ञानिनः प्रथम ययुः॥६६॥ खवर्मना गतान्यहद्विम्बानि विषयान्तरम् । देवताधिष्ठितानां हि चेष्टा सम्भविनी तथा॥६७॥ एतच प्रथम ज्ञात्वा मल्लवादी महामुनिः । सहितः परिवारेण पञ्चासरपुरीमगात् ॥ ६८ ॥ नागेन्द्रगच्छसत्केपु धर्मस्थानेष्वभूत्मभुः। श्रीस्तम्भनकतीर्थऽपि सङ्घस्तस्येशतामधात् ॥ ६९ ॥25 श्रीमल्लवादिचरितं जिनशासनीयतेजासमुन्नतिपवित्रमिद निशम्य । भव्याः ! कवित्ववचनादिविचित्रलब्धिनातैः" प्रभावयत शासनमाईतं भोः । ॥७॥ ॥ इति श्रीमल्लयादिचरित्रम् ॥ ७॥ 15 1B अमवादी, D मप्रमादो। 2P चवर। 3P नयतकः। * एप श्लोक B आदर्श नोपलभ्यते। 4 B मः। 5P हमाकानीका० । GA ततो. प्याय। 7 ACD रिणे, P भरिणे । 8Cनिका । 9P मृगा। 10ACD सम्मारिनी। 11 B माया। Page 45**************************************************************************************** २४ प्रन्वधकोशे .. ८. अथ श्रीहरिभद्रसूरिप्रबन्धः । ३२) श्रीचित्रकूटे हरिभद्रो दिप्रश्चतुर्दशविद्यास्थानज्ञः' । 'दृश्यां पादुकाः; पञ्चमदूरीकृत- दर्शनाऽन्यानि पञ्चममाध इति कृत्वा; उदरे पट्टा, उदरं विद्यया स्फुटतीति कृत्वा; जालं कुद्दालो निःश्रेणी सह चलन्ति । यत्पठितमहं न जानामि तस्य शिष्यो भवामीति प्रतिज्ञा । एकदा 5 चतुष्पथासन्नभूमिमव्रजत् । याकिनी नाम साध्वी तया' । ५३. चक्किदुगं हरिपणगं पणगं चक्कीण केसवो चक्की । केसवचक्की केसवदुचक्किकेसी य चक्की य ॥१॥ इति गाथा पेठे। न च तेन वुद्धा । अग्रे गत्वोक्तम्-मातः! खरं चिकचिकापितम् । साध्व्योक्तम्-नवं लिप्तम् । अहो! अनयाऽहमुत्तरेणापि जितः-इति तां ववन्दे । त्वच्छि- प्योऽस्मि । गाथार्थ ब्रूहि सातः!। सा प्राह स्म-मम गुरवः सन्ति । हरिभद्रः प्राह क ते? 10 [*अत्र सन्ति । ततः केनापि श्रावकेण स ] चैत्यं नीतः । जिनदर्शनं तत्प्रथमम् । हर्पः। ५४. वपुरेव तवाचष्टे भगवन् ! वीतरागताम् । नहि कोटरसंस्थेऽग्नौ तरुर्भवति शाड्वलः ॥ २॥ ५५. जं दिछी करुणातरङ्गियफुडा एयस्स सोमं मुहं, आयारो पसमायरो परियरो संतो पसन्ना तणू । तं नृणं जरजम्ममचुहरणो देवाहिदेवो इमो, देवाणं अवराण दीसइ जओ नेयं सरूवं जए ॥ ३॥ इत्यादिनवीननमस्काराः। ततो जिन भटाचार्यदर्शनम् । प्रतिपत्तिः। चारित्रम् । सूरिपदवी । 15 आवश्यके 'चक्की'त्यादि तेनैव विवृतम्। 'कलिकालसर्वज्ञः' इति विरुदम् । रहस्यपुस्तका देवताभ्यो लव्धाः । ते चादरेण जितदिपटाचार्याच्छिन्न ८४ मठप्रतिवद्धचउरासीनामकप्रासादस्तम्भे विविधौषधनिष्पन्ने जलज्वलनाद्यसाध्ये क्षिप्ताः। ___६३३) एकदा भागिनेयौ हंस-परमहंसौ पाठयति प्रभुः। निष्पन्नौ परं वौद्धतास्तन्मुखेन पिप- ठिषतः । गुरुणा ज्ञानिना वार्यमाणावपि तत्पावं गतौ । जरतीगृहे उत्तारकः। बौद्धाचार्यान्तिके 20 तद्वेषस्थौ पठतः। कपलिकायां रहस्यानि लिखतः । प्रतिलेखनादिसंस्कारवशाद्दयालू इव ज्ञात्वा गुरुणाऽचिन्ति-ध्रुवं श्वेताम्बरावेतौ । द्वितीयाहे सोपानश्रेणौ खट्याऽहद्विम्बमालिलिखे । तदा- सन्नायातौ तौ पादौ न दत्तः।।*यतः, नरकफलमिदं न कुर्वहे श्रीजिनपतिमूर्द्धनि पादयोर्निवे- शम् । ] रेखात्रयाङ्कस्तत्कण्ठश्चके । वुद्धोऽयं जात इति कृत्वा उपरि पादो दत्तः । उपरि चटितौ । गुरुणा दृष्टौ । गुरोः समक्षं निषण्णौ तौ। गुर्वास्यच्छायापरावर्त्त दृष्ट्वा तत्कैतवं तत्कृतमेव मत्वा 25 जठरपीडामिषेण ततो निरक्रामताम् । कपलिकां लात्वा गतौ। तो चिरान्नायातौ । विलोकापितौ न स्तः। राजाग्रे कथितम्-सितपटावुत्कटकपटौ तत्त्वं लात्वा यातः। कपलिकामानायय । पृष्ठे सैन्यमल्पं गतम् । दृष्टिदृष्टिः। द्वावपि सहस्रयोधौ तौ । ताभ्यां निहतं राजसैन्यम् । उवृत्त"- नष्टैरुपराजं गत्वा कथितं तत्तेजः । पुनर्बहुसैन्यप्रैषः । दृष्टिमेलापकः । युद्धमेकः करोति । 1 B ०ज्ञानज्ञः। 2 BD दृश्यं पादुकामदूरी। एतदन्तर्गतपाठस्थाने G आदर्श 'स्वविद्यया तिरस्कृतपंचदर्शनानि वदति च जनेपु विद्ययोदरं स्फाटयति, अतो मयोदरे पट्टवन्धः क्रियते।' एतादृशः पाठः। 3 ADP चलति । 4 A भूमिमाव्रजन'; B भूमि व्रजन् । P भूमिं व्रजता गाथामेकां पठ्यमाना याकिनी नाम साध्वी श्रुता। 5 BD नास्ति 'तया'। * P पुस्तक एवैष कोष्टक- गतः पाठो दृश्यते, प्रक्षिप्तप्रायोऽयम् । 6P चकीत्यादि दुष्करत्वादावश्यकं तेनैव। 7 P नास्ति। 8 BD पादं; P पादौ तत्र । * कोष्टकगतः पाठः A.D आदर्श लभ्यते; D आदर्श पुनः एतदने 'परसटिततरौ वरे विभतो निजचरणौ न तु जैनदेहलग्नौ' एषा अधिका पंक्तिर्विद्यते। 9 B नास्ति 'गुरोः समक्षं। 10 P नास्ति पदमेतत् । 11 P उद्धृत । 12 P सैन्यसप्रैपि । Page 46**************************************************************************************** हरिभद्रसूरिप्रबन्ध । २५ अपरः कपलिकापाणिनष्टः । हंसस्य शिरश्छित्त्वा राजे दर्शितं तैः । तेनापि गुरवे दत्तम् । गुरु- राह-किमनेन कपलिकामानायय । गता भटाः। रात्रौ चित्रकूटे प्राकारकपाटयोदेत्तयोस्तदा- सन्ने सुप्तस्य परमहंसस्य शिररिछत्त्वा तैस्तत्रार्पितम् । तेषां बौद्धानां तत्सूरेश्व सन्तोपः । प्रातः श्रीहरिभद्रसूरिभिः शिप्यकवन्धो दृष्टः । कोपः । तैलकटाहाः कारिताः । अग्निना तापितं तैलम् । १४४० यौद्धा होतु खे आकृष्टाः [*शकुनिझारूपेण पतन्ति ] । गुरुभिर्वृत्तान्तो ज्ञातः' । [*मतियोधाय] साचू प्रहितौ । ताभ्यां गाथा दत्ताः- ५६ गुणसेण-अग्गिमम्मा सीहा-णदा य तह पिया-पुत्ता । सिहि जालिणि माइ-सुया, धण-वणसिरिमो य पइ-भजा ॥४॥ ५७ जय-विजया य सहोयर धरणो लच्छी य तह पई मजा । सेण-विसेणा पित्तिय-उत्ता जम्ममि सत्तमए ॥ ५ ॥ ५८ गुणचन्द-वाणवतर-समराइच-गिरिसेण पाणो उ । एगस्स तओ मुस्खोऽणतो चीयस्स ससारो ॥ ६ ॥ ५९ जह जल्इ जलउ लोए कुमत्यपवणाहओ कमायग्गी । त चुन ज जिणवयणअमियमित्तो वि पजलड ॥ ७॥ 10 योधः । शान्तिः। १४४० ग्रन्थाः प्रायश्चित्तपदे कृताः । चित्रकृटतलहिकास्येन तैलवणिजा प्रतयः कारिताः। तत्मयम याकिनीधर्मसूनुरिति हारिभद्रग्रन्थेप्वन्तेऽभूत् । १४४० पुनर्भवविर- हान्तता। 'गुणसेणअग्गिसम्मा' इत्यादिगाथात्रयप्रतियद्धं समरादित्यचरित्रं नव्यं शास्त्रं क्षमा- वहीविज कृतम् । १०० शतक-पञ्चाशत्-पोडशक-अष्टक-पञ्चलिड्नी-अनेकान्तजयपताकान्याया- वतारवृत्ति-पञ्चवस्तुक-पञ्चसूत्रक-श्रावकमज्ञप्ति-नाणायत्तकमभृतीनि हारिभद्राणि। 15 ४) अत्रान्तरे श्रीमालपुरे कोऽपि धनी श्रेष्ठी जैनश्चतुर्मासके सपरिकरो देवतायतनं व्रजन् सिद्धारयं राजपुत्र द्यूतकारयुवान देयकनकपदे निर्दय तकारैर्गर्तायां निक्षिप्तं कृपया तद्देयं दत्त्या अमोचयत् । गृहमानीयाभोजयत् । अपाठयत् । सर्वकार्याध्यक्षमकरोत् । पर्यणाययत् । माता प्रागप्यासीत् । पृथम् गृहमण्डनिका । श्रेष्टिप्रसादाद्धनम् । सिद्धो रात्रावतिकाले एति, लेख्यक- लेग्यलेखनपरवशत्वात् । श्वश्रू लपे अतिनिर्विण्णे अतिजागरणात् । यध्या श्वश्रूरता-मातः 120 पुत्र तथा योषय, यया निशि सकाले एति । मात्रा उक्तः सः वत्स! निशि शीघ्रमेहि । 'य: सर्वज्ञः'। सिद्धः प्राह-मात'! येन स्वामिनाऽहं सर्वखदानेन जीवितव्यदानेन च समुद्भुतस्तदादेश कथ न कुर्वे । तौपणीक्येन स्थिता माता। अन्यदाऽऽलोचितं श्वश्रू-स्नुपाभ्याम्- अस्य चिरादागतस्य निशि द्वार नोद्घाटयिप्याव' । द्वितीयरात्रायतिचिराद् द्वारमागतः स कटक ग्वटग्वटापयति । ते तु न चूतः । तेन बुद्धेन गटितम्-किमिति द्वार नोद्घाटयेथे 125 ताभ्यां मत्रितपूर्विणीभ्यामुक्तम्-यत्रैदानी द्वाराणि उद्घाटितानि भवन्ति, तत्र व्रज। तच्छृत्या दक्षतुप्पयं गतः । तत्रोद्घाटे रहे उपविष्टान् सरिमन्त्रस्मरणपरान् श्रीहरिभद्रान्दृष्टवान् । सान्दचन्द्रिके नभसि देशना । योघः । ब्रतम् । सर्वविद्यता। दिव्य कवित्वम् । इसपरमहसवद् विशेपताम्' जिक्षुर्याद्धान्तिकं जिगमिपुर्णकमयादीत्-प्रेपयत यौदपा । गुमभिर्गदितम्- तत्र मागाः । मनःपरायत्ती भाी। स गचे-युगान्तेऽपि नव स्यात् । पुनर्गुरवः मोयुः-तन गतः 30 परावय॑से चेत् तदा अम्मदत्तं वेपमत्रागत्यास्मभ्य ददीथाः। जरीचके । स गतस्तत्र पठितु *P पुमा रेवर धारय एम्ने। 1Cापित2A शित। P पग गृपार मात्रा पिपपा प सम म Pामानित। P.पन पम्य। 5A पारपात्। GCरिण। 7 B गयापनि । 8PH अगदे। 9B रामनानिए। ४ प्र. . Page 47**************************************************************************************** २६ प्रवन्धकोशे लग्नः । सुघटितैस्तत्कुतकैः परावर्तितं मनः । तद्दीक्षा ललौ । वेपं दातुमुपश्रीहरिभद्रं ययौ । तैरप्यागच्छन् जटितः। [P तैरप्यागच्छन्नावर्जितः वादं कुर्वन्वादेन जितः । बौद्धाचार्यस्य बौद्धवेषं दातुं गतः । तेनापि बोधितः। पुनरागत उपश्रीहरिभद्रं श्वेताम्बरवेषं दातुम् । पुनर्वादेन जितः*।] एवं वेषद्वयप्रदानेन एहिरेयाहिराः २१ कृताः। द्वाविंशवेलायां गुरुभिश्चिन्तितम्- 5 माऽस्य वराकस्य आयुःक्षयेण मिथ्यादृष्टित्वे मृतस्य दीर्घभवभ्रमणं भृया]त् । पुराऽपि २१ वारं वादर्जितोऽसौ । अधुना वादेनालम् । 'ललितविस्तराख्या' चैत्यवन्दनावृत्तिः सतर्का कृता । तदा- गमे पुस्तिकां पादपीठे मुक्त्वा गुरवो बहिरगुः । तत्पुस्तिकापरामर्शाबोधः सम्यक् । ततस्तुष्टो निश्चलमनाः प्राह- ६०. नमोऽस्तु हरिभद्राय तस्मै प्रवरसूरये । मदर्थं निर्मिता येन वृत्तिर्ललितविस्तरा ॥ ८ ॥ 10 ततो मिथ्यात्वनिर्विण्णेन सिद्धर्पिणा १६ सहस्रा 'उपमितिभवप्रपञ्चा' कथाऽरचि श्रीमाले सिद्धिमण्डपे । सा च सरस्वत्या साध्याऽशोधि । समये श्रीहरिभद्रसूरयोऽपि सोऽपि अनशनेन सुरलोकमवापन् । ॥ इति श्रीहरिभद्रसूरिप्रवन्धः ॥ ८॥ ९. अथ श्रीवप्पभट्टिसूरिप्रवन्धः । 15६३५) गूजरदेशे पाडलापुरनगरे जितशत्रू राजा राज्यं करोति स्म । तत्र श्रीसिद्धसेननामा सूरीश्वरोऽस्ति स्म । स मोढेरपुरे महास्थाने श्रीमहावीरनमस्करणाय गतः।श्रीमहावीरं नत्वा तीर्थों- पवासं कृत्वा रात्रावात्मारामरतो योगनिद्रया स्थितः सन् स्वप्नं ददर्श । यथा-केसरिकिशोरको देवगृहोपरि क्रीडति । स्वप्नं लब्ध्वाऽजागरीत् । माङ्गल्यस्तवनान्यपाठीत् । प्रातश्चैत्यं गतः । तत्र षड्वार्पिको वाल एको बालांशुमालिसमद्युतिराजगाम । सूरिणा पृष्टः-भो अर्भक! कस्त्वम् ? 20 कुत आगतः । तेनोक्तम्-पश्चालदेशे डूंबाउधीग्रामे बप्पाख्यःक्षत्रियः। तस्य भद्दिन म सधर्म- चारिणी । तयोः 'सूरपालो नाम पुत्रोऽहम् । मत्तातस्य बहवो भुजवलगर्विताः प्रचुरपरिच्छदाः शत्रवः सन्ति । तान्सर्वान्हन्तुमहं सन्नह्य चलन्नासम् । पित्रा निषिद्धः-वत्स ! बालस्त्वम्, नास्मै कर्मणे प्रगल्भसे । अलमुद्योगेन । ततोऽहं क्रुद्धः । किमनेन निरभिमानेन पित्रापि, यः खयमरीन्न हन्ति मामपि घ्नन्तं निवारयति । अपमानेन मातापितरावनापृच्छयात्र समागतः। 25 मूरिणा चिन्तितम्-अहो दिव्यं रत्नम् ! । न मानवमात्रोऽ इति विमृश्य बाल आलेपे-वत्सक! अस्माकं पार्श्वे तिष्ठ, निजगृहाधिकसुखेन । बालेनोक्तम्- महान्प्रसादः । स्वस्थानमानीतः । सङ्घो हृष्टस्तद्रूपविलोकनेन । दृष्टयस्तृप्तिं न मन्वते । पाठ- यित्वा विलोकितः। एकाहेन श्लोकसहस्रमध्यगीष्ट । गुरवस्तुतुषुः । 'रत्नानि पुण्यप्रचयप्राप्यानि।' धन्या वयम् । तेन वालेनाप्यल्पदिनैर्लक्षण-तर्क-साहित्यादीनि भूयांसि शास्त्राणि पर्यशीलिषत। * एषा कोष्टकगता पंक्तिः केवलं P पुस्तके दृश्यतेऽतः प्रक्षिप्तप्राया चेयम् । 1 P वारान् । 2 P वादे जितो। 3 P समजनि ।, 4 B सिद्धिऋपिणा। 5 P पाटला० । 6 B अन 1.7 B सुर० । 8 B मन्यन्ते; P तन्वते। 9 C तुतुष्ट; D तुष्टाः; P तुष्टुवुः। Page 48**************************************************************************************** बप्पमट्टिसूरिप्रवन्धः । २७ ततो गुरवो डूंबाउधीग्राम जग्मुः । बालस्य पितरौ वन्दितुमागतौ । गुरुभिराललपिता-पुत्रा भवन्ति भूयांसोऽपि । कि तैः संसारावकरकृमिभिः । अयं तु युवयोः पुत्रो व्रतमीहते । दीयतां नः । गृह्यतां धर्मः। 'नष्टं मृत सहन्ते हि पितरो निजतनयम् ।' श्लाघ्योऽय भवं निस्तितीपुः । पितृभ्यामुक्तम्-भगवन् ! अयमेक एव नः कुलतन्तुः। कथं दातुं शक्यते?। तावता सविधस्थेन सूरपालेन गदितम्-अहं चारित्रं गृह्णाम्येव । ६१. यत-सा बुद्धिर्विलय प्रयातु कुलिश तन श्रुते पात्यताम् , वल्गन्त प्रविशन्तु ते हुतभुजि ज्वालाकराले गुणा. । __यै सर्वं शरदेन्दुकुन्दविशदै प्राप्तैरपि प्राप्यते, भूयोऽप्यन पुरन्धिरन्ध्रनरककोडाधिवासव्यथा ॥ १॥ ततो ज्ञाततन्निश्चयाभ्यां तन्मातरपितृभ्यां जल्पितम्-भगवन् ! गृहाण पात्रमेतत् । परं 'चप्प- भहिः' इति नामास्य कर्तव्यम् । गुरुभिर्भणितम्-एवमस्तु । कोऽत्र दोपः। पुण्यवन्तौ युवाम् । ययोरयं लाभः सम्पन्नः । वप्प-भट्टी आपृच्छय सूरपाल गृहीत्वा सिद्धसेनाचार्या मोढेरकं गताः । 10 ६२ शताप्टके वत्सराणा गते विक्रमकालत । सप्ताधिके राघशुक्लतृतीयादिवसे गुरौ ॥२॥ दीक्षा दत्ता। 'यप्पभहिः' इति नाम विश्ववल्लभ जुधुपे । सङ्घप्रार्थनया तत्र चतुर्मासकं कृतम् । sa) अन्यदा यहिभूमिगतस्य बप्पभमहतीं घृष्टिमतनिष्ट घनः । कापि देवकुले स्थितः सः। तत्र देवकुले महायुधः कोऽपि पुमान् समागतः। तत्र देवकुले प्रशस्तिकाव्यानि रसाढ्यानि ग- म्भीरार्धानि तेन वप्पभदिपावाद्व्याख्यापितानि । ततः स यप्पभहिना सम वसतिमायातः। गुरु-15 भिराशीभिरभिनन्दितः। आम्नाय स पृष्टः। ततोऽसौ जगाद-भगवन् ! कन्यकुञ्जदेशे गोपाल- गिरिदुर्गनगरे यशोवर्मनृपतेः सुयशादेवीकुर्तिजन्मा नन्दनोऽहम् ।यौवने च निरर्गल धन लीलया व्ययन् पित्रा कुपितेन शिक्षितः-वत्स! धनार्जकस्य कृच्छ्रमस्थानव्ययी पुत्रो न वेत्ति तातस्य । मितव्ययो भव । ततोऽह कोपादिहागमम् । गुरुवोऽप्यूचुः-कि ते नाम। तेनापि खटिकया भुवि लिखित्वा दर्शितम्-'आम' इति । महाजनाचारपरपरेदशी 'स्वनाम नामाददते न साधवः । 20 तस्योन्नत्येन गुरवो हृष्टाः । चिन्तित च तैः-पूर्व श्रीरामसैन्ये दृष्टोऽसौ पाण्मासिकः शिशुः। ६३ पीलवृक्षमहाजाल्या वस्नान्दोलकैमास्थित । अचल[या]ठायया च पुण्यपुरुषो निर्णीत ॥३॥ ततस्तजननी वन्यफलानि विचिन्वानाऽस्माभिर्भणिता-वत्से ! का त्वम् ?। किं च" ते कुलम् ? । [*साऽयादीत् निज कुलम्] अह राजपुत्री कन्यकुब्जेशयशोवर्मपत्नी सुयशा नाम । अहमस्मिन्सुते गर्भस्ये सति दृढकार्मणवशीकृतघवया कृतप्रमाणयाऽकृत्ययेव क्रूरया सपन्या 25 मिथ्या परपुम्पदोपमारोप्य गृहान्निष्कासिता। अभिमानेन श्वशुरकुल-पितृकुले हित्वा भ्रमन्तीर समागता धन्यवृत्त्या जीवामि। यालंच पालयामि । इद श्रुत्वाऽस्माभिः सा उक्ता-वत्से! अस्मचैत्य समागच्छ। म्यं वत्सं प्रवर्द्धय" । तया तथा कृतम् । सपश्यपि यहुसपत्नीकृतमारणप्रयोगै". मंमार । ततो विशिष्टपुरुपः कन्यकुब्जेशो यशोवर्मा विज्ञप्त:-देव! सुयगा राजी निर्दीपाऽपि तदा देवेन सपतीवचसा निष्कासिता सा प्रत्यानीयते । राजा सा म्बसौधमानायिता सपुत्रा 30 गौरविता च। 1A तिमि । P नासि। 3A. भूव। 4 B महायोध। 5C योधर्म। GPमुपतो.। 7 'कुक्षि' मामि। 8CP यौवनेन। 9 PC सन्ये प्रामे। 10P महागल्यो। 11 P यनदोएक। 12 BC या सय । • PC भारतेष पाठ । 13 PC पर 1ACपर्धप। 15 PC प्रयोगेण । Page 49**************************************************************************************** २८ प्रवन्धकोशे ___ अन्यदा विहरन्तो वयं तस्या देशं गताः। तया पूर्वप्रतिपन्नं स्मरन्त्या वयं वन्दिताः पूजिताः । अनेन आमनाम्ना तत्सुतेन भाव्यम् । एवं चिरं विभाव्य सूरयस्तमूचुः-वत्स! वस निश्चिन्तो निजेन सुहृदा वप्पभटिनाना सममस्मत्सन्निधौ । त्वं गृहाण कलाः । कास्ताः ?-लिखितम् १. गणितम् २. गीतम् ३. नृत्यम् ४. पठितम् ५. वाद्यम् ६. व्याकरणम् ७. छन्दो ८. ज्योतिपम् ९. 5 शिक्षा १०. निरुक्तम् ११. कात्यायनम् १२. निघण्टुः १३. पत्रच्छेद्यम् १४. नखच्छेद्यम् १५. रत्न- परीक्षा १६. आयुधाभ्यासः १७. गजारोहणम् १८. तुरगारोहणम् १९. तयोः शिक्षा २०. मन्त्रवादः २१. यन्त्रवादः २२. रसवादः २३. खन्यवादः २४. रसायनम् २५. विज्ञानम् २६. तर्कवादः २७. सिद्धान्तः २८. विषवादः २९. गारुडम् ३०. शाकुनम् ३१. वैद्यकम् ३२. आचार्यविद्या ३३. आगमः ३४. प्रासादलक्षणम् ३५. सामुद्रिकम् ३६. स्मृतिः ३७. पुराणम् ३८. इतिहासः ३९. वेदः ४०. 10 विधिः ४१. विद्यानुवादः ४२. दर्शनसंस्कारः ४३. खेचरीकला ४४. अमरीकला ४५. इन्द्रजालम् ४६. पातालसिद्धिः ४७. धूत्तशम्वलम् ४८. गन्धवादः ४९. वृक्षचिकित्सा ५०. कृत्रिममणिकमें ५१. सर्वकरणी ५२. वश्यकर्म ५३. पणकर्म ५४. चित्रकर्म ५५. काष्ठघटनम् ५६. पाषाणकर्म ५७. लेपकर्म ५८. चर्मकर्म ५९. यन्त्रकरसवती ६०. काव्यम् ६१. अलङ्कारः ६२. हसितम् ६३. संस्कृतम् ६४. प्राकृतम् ६५. पैशाचिकम् ६६. अपभ्रंशम् ६७. कपटम् ६८. देशभाषा ६९. धातुकर्म ___ 15७०. प्रयोगोपायः ७१. केवलीविधिः ७२. एताः सकलाः कला शिक्षितवान् । लक्षण-तर्कादि- ग्रन्थान् परिचितवान् । वप्पभट्टिना साकमस्थिमजन्यायेन प्रीतिं बद्धवान् । ६४. यतः-आरंभगुर्वी क्षयिणी क्रमेण ह्रखा पुरा वृद्धिमती च पश्चात् । दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना छायेव मैत्री खलसज्जनानाम् ॥ ४ ॥ कियत्यपि गते काले यशोवर्मनृपेणासाध्यव्याधितेन पट्टाभिपेकार्थमामकुमाराकारणाय 20 प्रधानपुरुषाः प्रेषिताः । अनिच्छन्नपि तैस्तत्र नीतः। पितुर्मेलितः । पित्राऽऽलिङ्गितः सवाष्पगद्- गदमुपालब्धश्च- ६५. धिग् वृत्तनृत्तमुचितां शुचितां धिगेतां धिक् कुन्दसुन्दरगुणग्रहणाग्रहित्वम् । चक्रेकसीनि तव मौक्तिक ! येन वृद्धिर्वाद्धेर्न तस्य कथमप्युपयुज्यसे यत् ॥ ५॥ अभिषिक्तः स्वराज्ये । शिक्षितश्च प्रजापालनादौ । एतत्कृत्वा यशोवर्मा अर्हन्तं त्रिधा शुद्ध्या 25 शरणं श्रयन् द्यां गतः। आमराजा पितुरौद्धदेहिकं कृतवान् । द्विजाद्दिीनलोकाय वित्तं दत्तवान् । लक्षद्वितयमश्वानाम्, हस्तिनां रथानांच प्रत्येकं चतुर्दशशती, एका कोटी पदातीनाम्। एवं राज्यश्री श्रीआमस्य न्यायरामस्य । तथापि वप्पभद्विमित्रं विना पलालपूलप्रायं मन्यते स्म । ततो मित्रा- नयनाय प्रधानपुरुषानप्रैषीत् । तैस्तत्र गत्वा विज्ञप्तम्-हे श्रीवप्पभट्टे ! आमराजः समुत्कण्ठ- याऽऽह्वयति । आगम्यताम् । बप्पभट्टिना गुरूणां वदनकमलमवलोकितम् । तैः सङ्घानुमत्या 30 गीतार्थयतिभिः समं बप्पभट्टिमुनिःप्रहितः। आमस्य पुरं गोपालगिार संमुखमगात् । प्रवेशमहमकार्षीत् । सौधमानैषीत् । अवोचत च-भगवन् ! अर्द्धराज्यं गृहाण । तेनोक्तम्-अस्माकं निर्ग्रन्थानां सावद्येन राज्येन किं कार्यम् ? । यतः- ___1C आपातगुर्वी । 2 P नास्ति । 3 C मिलितः। 4 P त्रिविधः । Page 50**************************************************************************************** चप्पभट्टिसूरिप्रवन्धः । २९ ६६ अनेकयोनिसम्पाताऽनन्तनाधाविधायिनी । अभिमानफलैवेय राज्यश्री सा विनश्वरी ॥ ६ ॥ ६३७) ततो राजाऽसौ तुङ्गे धवलगृहे स्थापितः । प्रातः सभामागताय थप्पभये नृपेण सिंहासनं मण्डापितम् । तेन गदितम्-अर्वीपते ! आचार्यपदं विना सिंहासन न युक्तम् । गुर्वा- शातना भवेत् । ततो राज्ञा वप्पभट्टिः प्रधानसचिवैः सह गुर्वन्तिके प्रहितः । विज्ञप्तिका चे' दत्ता-यदि मम प्राणैः कार्य तदा प्रसद्य सद्योऽय महर्पिः सूरिपदे स्थाप्यः। योग्य सुत च शिष्य च नयन्ति गुरव श्रियम् । स्थापितमात्रश्वान शिघ्रं प्रेपणीयः । अन्यथाएं न भवामि । मा विलम्व्यतामिति । अखण्ड- प्रयाणकैर्मोढेरक प्राप्तः । सचिवैः सूरयो विज्ञप्ताः-प्रभो! राजविज्ञप्त्यर्थोऽनुसार्यः । उचितज्ञा हि भवादृशाः। ___ अथ श्रीसिद्धसेनाचार्यप्पभहिः सूरिपदे स्थापितः। तदने श्रीः साक्षादिव सङ्कामन्ती दृष्टा 110 रहश्च शिक्षा दत्ता-वत्स! तब राजसत्कारो भृशं भावी। ततश्च लक्ष्मीः प्रवर्त्यति । तत इन्द्रियजयो दुष्करः। त्वं महाब्रह्मचारी भवः । विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतासि त एव धीरी । __ अनेन महाव्रतेन महत्तरः स्फुरिष्यसि । ६७ एकादशाधिके तत्र जाते वर्षशताष्टके । निक्रमात्सोऽभवत्सृरि कृष्णचैत्राष्टमीदिने ॥ ७ ॥ गुरुणा आमराजसमीपे प्रेपितः । तत्र प्राप्तः । गोपगिरेः प्रासुकवनोद्देशे स्थितः। राजा अभ्यागत्य महामहेन त' पुरीं प्राचीविशत् । श्रीवप्पभटिसूरिणा तत्र देशना क्लेशनाशिनी दत्ता- ६८ श्रीरिय प्रायश पुसामुपस्कारैककारणम् । तामुपस्कुर्वते ये तु रत्नसूस्तैरसौ रसा ॥ ८॥ आमेन गुरूपदेशादेकोत्तरशंतहस्तप्रमाणः प्रासादः कारयामासे गोपगिरौ । अष्टादशभार- प्रमाण श्रीवर्द्धमानविम्य तत्र निवेशयायभूवे । प्रतिष्ठा विधापयांचक्रे । तत्र चैत्ये मूलमण्डप: 20 सपादलक्षेण सौवर्णटङ्ककनिष्पन्न इति वृद्धाः प्राहुः। आमः कुञ्जरारूढः सर्वद्धर्या चैत्यवन्दनाय याति । मिथ्यादृशां दृशौ सैन्धवेनेव पूर्यते सम्यग्दृशां त्वमृतेनेव । ण्व प्रभावना । प्रातपो मौलमनयँ ख सिंहासनं सूरये निवेशापयति । तद् दृष्ट्वा विगैः कुधा ज्वलितै पो विज्ञप्त:- देव ! श्वेताम्बरा अमी शुद्राः। एभ्यः सिंहासनं किम् । अथास्तां तत् । पर इसीयो भवतु। मुर्मुहस्तैरित्थं विज्ञस्या कदर्यमानः पार्थिवो मौलसिंहासन कोशग कारयित्वाऽन्यल्लध्यार-25 रुपत । प्रत्यूपे सूरीन्द्रेण तद् दृष्ट्वा रुप्टेनेव राजोऽने पठितम्- ६९ मर्दय मानमतगजदर्प विनयशरीरविनाशनसर्पम् । क्षीणो दादशवदनोऽपि यस्य न तुल्यो भुनने कोऽपि ॥९॥ इद श्रुत्वा राज्ञा हीणेन तदा" भूयो मूलसिंहासनमनुज्ञातम् । अपराधः क्षमितः ।। एकदा सपादकोटी हेम्नां दत्ता गुरुभ्यः। तैर्निरीहैः सा जीर्णोद्धारे ऋद्धियुक्तश्रावकपाद् व्ययिता। 15 30 1P' नास्ति। 2 PC प्राप्तो बप्पमहिः। 3भव। 4 P चीरा । 5CD ता। 6 Bहसरात। 7 P सुधा । 8P सैन्धोन। 9A (मायो (काप्टमय इति टिप्पनी), CP हवीयो। 10 P भानु न महत् । 11 CP सदा । Page 51**************************************************************************************** प्रवन्धकोशे अन्यदा शुद्धान्ते प्रम्लानवदनां वल्लभां दृष्ट्वा प्रभोः पुरो गाथाई राजाऽऽह- ___७०. अजवि सा परितप्पइ कमलमुही अत्तणो पमाएण । समस्येयम् । प्रभुः स्माह- पढमविवुद्धेण तए जीसे पच्छाइयं अंगं ॥ १० ॥ __राजा आत्मसंवादाचमत्कृतः । अन्यदा प्रियां पदे पदे मन्दं मन्दं सञ्चरन्तीं दृष्ट्वा गाथाई राजा जगाद ७१. वाला चंकंमंती पए पए कीस कुणइ मुहभंग । सूरिराह- नूणं रमणपएसे मेहलिया छिदई नहपंतिं ॥ ११ ॥ 10 इदं श्रुत्वा राजा मुखं निःश्वासहतदर्पणसमं दधे-अमी मदन्तःपुरे कृतविप्लवा इति धिया । तचाचार्यैः क्षणार्द्धनावगतम् । चिन्तितं च-अहो विद्यागुणोऽपि दोषतां गतः!। ७२. जलधेरपि कल्लोलाश्चापलानि कपेरपि । शक्यन्ते यत्नतो रोढुं न पुनः प्रभुचेतसः ॥ १२ ॥ रात्रौ सूरिः संघमप्यनाच्छय राजद्वारकपाटसम्पुटतटे काव्यमेकं लिखित्वा पुरावहिर्ययौ । तद्यथा- 15 ७३. यामः स्वस्ति तवास्तु रोहणगिरे ! मत्तः स्थितिप्रच्युता, वर्तिष्यन्त इमे कथं कथमिति स्वप्नेऽपि मैवं कृथाः। श्रीमंस्ते मणयो वयं यदि भवल्लब्धप्रतिष्ठास्तदा, ते शृङ्गारपरायणाः क्षितिभुजो मौलौ करिष्यन्ति नः ॥१३॥ ७४. [*अस्मान् विचित्रवपुषश्चिरपृष्ठलग्नान् किं वा विमुञ्चसि विभो ! यदि वा विमुञ्च । _ हा हन्त ! केकिवर ! हानिरियं तवैव भूपालमूर्द्धनि पुनर्भविता स्थितिनः ॥ १४ ॥ . ७५. *हंस जिहिं गय तिहिं गया महिमण्डणा हवंति । छेहु तांह सरोवरह जं हंसे मुचंति ॥ १५॥] 20 ६३८) दिनैः कतिपयैर्गोंडदेशान्तर्विहरन् लक्षणावतीनाम्याः पुरों वहिरारामे समवात्सीत् । तत्र पुरि धर्मो नाम राजा । स च गुणज्ञः । तस्य सभायां वाक्पतिनामा कविराजोऽस्ति । तेन सूरीणामागमनं लोकादवगतम् । ज्ञापितश्च राजा । राज्ञा प्रवेशमहः कारितः। पूर्मध्येऽसौं सौधोपान्ते गुरुस्तुङ्गगृहे स्थितः । राजा नित्यं वन्दते । कवयो जिता रञ्जिताश्च । प्रभावनाः प्रैधते स्म । यशश्च कुन्दशुभ्रम् । [राजा प्रोचे- 25 ७६. अदृष्टे दर्शनोत्कण्ठा दृष्टे विरहभीरुता । दृष्टेन वाप्यदृष्टेन भवता नाप्यते सुखम् ॥ १६ ॥ निर्बन्धे सूरिराह-आमश्चेत्स्वयमायास्यति तदा वयं यास्यामो नान्यथा-इति प्रतिज्ञाय स्था- पिताः पुण्यलाभं कुर्वन्ति ।] ___इंतश्च यदा वप्पभट्टिः कृतविहारः प्रातः श्रीआमपाच नायातस्तदा तेन सर्वत्रावलोकितो न लब्धः । राजा जातो विलक्षः। 'यामः खस्ति तवास्तु' इत्यादि काव्यं दृष्टम् । अक्षराण्युपल- 30 क्षितानि । ध्रुवं स मां मुक्त्वा कापि गत एवेति निर्णीतम् । अन्यदा बहिर्गतेन राज्ञा "महा- भुजङ्गमो दृष्टः । तं मुखे धृत्वा वाससाऽऽच्छाद्य सौधं गतः। कविवृन्दाय समस्यामर्पितवान्- ___ 1 BG छिन्नइ - PC छिवइ। 2 P .मनापृ०। * एतत्पद्यद्वयं P पुस्तके एवोपलभ्यते, नान्यत्र । . 3 P नगर्याः । 4 BDP समवासापीत् । 5 BP नास्ति 'असौ'। 6 P स्थापितः। 7 AC नास्ति 'जिताः'। + P पुस्तक एवैष कोष्टकगतः पाठः प्राप्यते। 8 CP नास्ति । 9P काव्यानि दृष्टानि । 10 P 'महा' नास्ति । Page 52**************************************************************************************** 10 15 वप्पभट्टिसूरिप्रवन्ध । ७७ शख्न शास्त्र कृषिविद्या अन्यो यो येन जीवति । इति । पूरिता सर्वैरपि । न तु नृपश्चमचकार, हृदयाभिमायाकथनात् । तदा चप्पभहिं वाढ स्मृतवान् । सा हृदयसंवादिनी गीस्तत्रैव । अथ स पटहमवीवदत् । तत्रेदमजूघुपत्-यो मम हृदुगतां समस्यां पूरयति तस्मै हैमटङ्ककलक्षं ददामि । तदा गोपगिरीयो द्यूतकारः कश्चिद् गौडदेशं गतः। स यप्पभट्टिसूरीणामने तत्समस्यापदद्वयं कथितवान् । सूरिणा पश्चाद्ध पेठे- 5 सुगृहीत च कर्तव्य कृष्णसर्पमुख यथा ॥ १७ ॥ इति । स हि भगवान् पद्विकृतित्यागी सिद्धसारस्वतो गगनगमनशक्त्या विविधतीर्धवन्दन- शक्तियुक्तस्तस्य कियदेतत् । स द्यूतकारस्तत्पादद्वयं गोपगिरी श्रीआमाय' निवेदितवान् । राजा दध्वान-अहो सुघटितत्वमर्थस्य ! । त पप्रच्छ केन केयं पूरिता समस्या? । द्यूतकृदाह- लक्षणावत्यां यप्पभदिसूरिणा ज्ञानभूरिणा' इति । तस्योचितं दानं चके। अन्यदा राजा नगर्या पहिर्ययो । न्यग्रोधट्ठमाधः पान्धं मृतं ददर्श । शाखायां लम्बमानं करपत्रकमेक विग्रुपां व्यूह सवन्तं गाथाद्धं च विशिष्टे ग्राष्णि लिखितं खटिकया' तदपश्यत्। ७८ तइया मह निग्गमणे पियाइ घोरसुएहिं ज रुग्ण । तदपि समस्यापादढयं राज्ञा कविभ्यः कथितम् । न केनापि सुटु पूरितम् । राजा चिन्त. __ यति स्म- ७९. वेश्यानामिव विद्याना मुख के कैर्न चुम्बितम् । हृदयग्राहिणस्तासा' द्विना सन्ति न सन्ति वा ॥ १८॥ दृदयग्राही स एव मम मित्र सरिवरः । स एव दौरोदरिको नृपेणोपसरि प्रैपि । सरिणाऽक्षि- निमेपमात्रेण पूरिता समस्या- करवत्तयनिंदुअनिवडणेण त मज्य समरिय ॥ १९ ॥ तत्पुनतकारान्मृत्वा राजा हृष्टेनोत्कण्ठितेन सूरेराद्वानाय वारिग्मनः सचिवाः प्रस्थापिताः। उपालम्भसहिता विज्ञप्तिश्च ददे । प्राप्तास्ते तत्र । दृष्टास्तैस्तत्र सूरयः। उपलक्ष्य चन्दिताः। राजविज्ञसिईत्ता । तत्र लिपितं वाचित गुरुभिः- ८०. न गहा गाझेय मुयुवनिकपोलस्थलगत न वा शुक्ति मुक्तामणिमिजस्पर्शरसिक । न कोटीरारुद स्मरति च मनित्री मणिचयस्ततो मन्ये विश्व स्वसुखनिरत हरिरतम् ।। २० ॥ 25 ८१ छायाकारगि मिरि' परिय पचर्षि भूमि पडति । पत्तह इहु पत्ततगड तरुअर काइ कति ॥ २१ ॥ सचिया अप्यूचुः-गामिन् ! आमराजो निर्व्याजप्रीतिर्विज्ञापयति-शीघमागम्याऽयं देशो घसन्तारनंसिनोवानीलां लम्भनीयः । भवद्वागरसंलुब्धानामम्माकमिनरकरियाग न रोचते । ८२. कथा ये लपरमा' कीना ते नानुरज्यन्ति कयान्तरेषु । न ग्रथिपर्गप्रणयापरन्ति कस्तूरिकागन्धमृगास्तृणेषु ॥२२॥ तढाकार्य रोग त्या सूरिभिः सचिराः मोचिर-पीआमो गोप्पतिमममम गवं मापाय:-30 ICP मामा। परमपदम्।3BCP फरिया परपात्। Pो। 5P गिर। CBCG परिचित 7C.PNGHI BABापरण। CAR PR गमि। 20 -- ----- -- Page 53**************************************************************************************** ३२ प्रवन्धकोशे अस्माकमिति हि प्रतिज्ञाऽऽस्ते धर्मेण राज्ञा सह-स्वयमामः समेत्य त्वत्समक्षं यदाऽस्माना- कारयते किल, तदा तत्र यामो नान्यथा इति । प्रतिज्ञालोपश्व नोचितः सत्यवादिनां प्रतिष्ठा- वताम् । ततो मन्त्रिण उपकन्यकुब्जेशंमाजग्मुः । सूरीणां तदुक्तमुक्तं लेखश्चादर्शि । तत्र लिखितं यथा- 5 ८३. अस्माभिर्यदि वः कार्यं तदा धर्मस्य भूपतेः । सभायां छन्नमागम्य स्वयमापृच्छयतां द्रुतम् ॥ २३ ॥ ८४. विंझेण विणावि गया नरिंदभवणेसु हुंति गारविया । विंझो न होइ वंझो गएहिँ बहुएहिँ वि गएहिँ ॥२४॥ ८५. माणसरहिएहिं सुहाई जह न लभंति रायहंसेहिं । तह तस्स वि तेहिं विणा तीरुच्छंगा न सोहंति ॥ २५ ॥ ८६. परिसैसियहंसउलं पि माणसं माणसं न संदेहो । अन्नत्थ वि जत्थ गया हंसा वि वया न भण्णंति ॥ २६ ॥ ८७. हंसा जहिँ गय तहिँ जि गया महिमंडणा हवंति । छेहउ तांह महासरहं जे हंसेहिं मुञ्चति ॥ २७ ॥ ___10 ८८. मलओं सचंदणु चिय नइमुहहीरंतचंदणदुमोहो । पन्भह पि हु मलयाओं चंदणं जायइ महग्धं ॥ २८ ॥ ८९. अग्घायंति महुअरा विमुक्ककमलायरा वि मयरंदं । कमलायरो वि दिट्ठो सुओ वि किं महुअरविहीणो ॥ २९ ॥ ९०. इक्केण कुत्युहेणं विणावि रयणायरु चिय समुद्दो । कुत्थुहरयणं पि उरे जस्स ठिऑ सोवि हु महग्यो ॥ ३० ॥. ९१. पई मुक्काण वि तरुवर फिट्टइ पत्तत्तणं न पत्ताणं । तुह पुणु च्छाया जइ होइ कह वि ता तेहिं पत्तेहिं ॥ ३१॥ ९२. जे के वि पहू महिमंडलंमि ते उच्छुदंडसारिच्छा । सरसा जडाण मझे विरसा पत्तेसु दीसंति ॥ ३२॥ _15 ९३. संपइ पहुणो पहुणो पहुत्तणं किं चिरंतणपहूणं । दोसगुणा गुणदोसा एहिं कया नहु कया तेहिं ॥ ३३॥ एतद्वाचयित्वा सोत्कण्ठं नृपः सारकतिपयपुरुषवृतोऽचालीत् । गोदावरीतीरग्राममेकमगमत् । तत्र खण्डदेवकुले वासमकार्षीत् । देवकुलाधिष्ठात्री व्यन्तरी सौभाग्यमोहिता गङ्गेव भरतं तं भेजे । प्रभाते करभमारुह्य तां देवीमापृच्छ्य प्रभुपादान्तं प्राप । गाथाई पपाठ- . ९४. अजवि सा सुमरिजइ को नेहो होइ एगराईए । सूरीन्द्रः प्राह- गोलानईय. तीरे सुन्नउले जंसि वीसमिओ ॥ ३४ ॥ इति । अन्योऽन्यं गाढमालिलिङ्गतुरुभौ । तत आम आह स्म- ९५. अद्य मे सफला प्रीतिरद्य मे सफला रतिः । अद्य मे सफलं जन्म अद्य मे सफलं कुलम् ॥ ३५ ॥ रात्रौ इष्टगोष्टी ववृते मधुमधुरा । ततः प्रभाते सूरिधर्मनृपास्थानमगमत् । आमनृपोऽपि 25 प्रधानैः खैः पुरुषैः सह स्थगीधरो भूत्वाऽऽगच्छत् । [आम आवउ' इति ब्रुवाणैः] सूरिभिर्ध- यि आमस्य विशिष्टपुरुषा दर्शिताः । एते आमनृपनराः किलास्मानाह्वातमायात धर्मेण राज्ञा पृष्टं विशिष्टजनपार्श्व-भो आमप्रधाननराः ! स भवतां स्वामी कीदृशरूपः । तैर्निगदितम्-यागयं स्थगीधरस्ताहगस्ति । प्रथमं मातुलिङ्ग करे धारयित्वा आम आनी- तोऽस्ति । सूरिभिः पृष्टम्-भोः स्थगीधर ! तवकरे किमेतत् ? । स्थगीधरीभूतेन श्रीआमेनोक्तम्- 30 'वीजउरा' इति । क्षणाईन वार्तामध्ये सूरिभिः सूक्तमवतारितम्- __1 P नास्ति । 2 A कन्यकुब्जेशसमीपे। 3 P नास्ति । 4 A गोदानईइ। 5 AC फलम् । + P पुस्तक एवैतद्वाक्यं लभ्यते। 6 A वातार्द्धमध्ये । 20 Page 54**************************************************************************************** पप्पभहिरिप्रवन्धः। ९६ तची सीयली मेलावा' केहा धण' उत्चाक्ली पिउ' मदसणेहा ।' _ विरहिं माणुसु जो मरई' तसु कवणु निहोरा' कण्णि' पवित्तडी जणु जाणइ दोरा ॥ ३६॥ [गुरुणा कथित्तम्-आम आवउ, आम आवउ । धर्मेण राज्ञा तृअरिछोडं दृष्ट्वा पृष्टम्- अहो स्थगीवर! किमिदम् ? । तेनोक्तम्-'तूअर' तवारीत्यर्थः ।] इत्यादिगोष्ठ्यां वर्तमानायां शनैः शनैः श्रीआमराजश्चिद्रूपो मेलापकानिःसृत्य पुरावाहिः स्थाने स्थाने स्थापितैर्वाहनः । कियतीमपि भूमिमत्यकाम्यत् । तावता सूरीश्वरो विलम्बाय प्रहरद्वयं कामपि कथामचीकथत् । रसावतारः स कोऽपि जातो यो रम्भा-तिलोत्तमाप्रेक्षणीयकेऽपि दुर्लभः । आमो राजाऽमूल्यं कङ्कणं ग्रहणके मुक्त्वा वेश्यागृहे उपित आसीत् । सा तु लक्षणावतीपतेर्वारस्नी । एक कङ्कण- मामो राजद्वारे मुञ्चन्नगात् । अपराह्न राज्ञः पार्थ्याद थप्पभहिसूरिभिर्मुत्कलापितम्-देव! गोप- गिरावामपाच यामः, अनुज्ञां दीयताम् । धर्मेण भणितम्-भवतामपि वाणी विघटते १। भवद्भि-10 भणितमभूत्-यदा तव दृष्टौ आमः समेत्यास्मानाहयिष्यति तदा यामो नार्वाक । तत्कि विस्मृ- तम् ? । जिह्वे किं वो दे स्तः । आचार्या जगदुः-श्रीधर्मदेव ! मम प्रतिज्ञा पूर्णा । राजाऽऽह- कथम् ? । सूरिर्वदति-आमो राजाऽत्र स्वयमागतस्तव दृष्टौ । राजाऽऽह-कथं ज्ञायते । सूरिः- यदा भवद्भिः पृष्टं भवतां खामी कीदृशः । विशिष्टैस्तदा भणितम्-स्थगिकाधररूपः। तथा 'बीजउरा' शब्दोऽपि विमृश्यताम् । 'दोरा शब्दोऽपि यो मयोक्तोऽभूत् । तस्मात्प्रतिज्ञा मे 15 पूर्णा । अत्रान्तरे केनापि राजद्वाराद् आमकङ्कणं धर्मनृपहस्ते दत्तं आमनामाङ्कितम् । द्वितीयं घेश्यया दत्तम् । तद् दृष्ट्वा नष्टसर्वस्वस्तदन' इव धर्मः शुशोच-धिग्माम् ! यन्मया शत्रुः स्वगृह- मायातो नार्चितः, न च साधितः । धर्मेण मुत्कलिताः सूरयः पुरः कापि स्थितेनामेन सह जग्मुः । मार्गे गच्छता आमेन पुलिन्द" एको जलाशयमध्ये जल छगलवन्मुखेन पिवन्दृष्टः। आमराजेन सूरीणामग्रे एत्योक्तम्- ९७ पसु जेम पुलिंदउ पउ पियइ पथिउ" कवणिण कारणिण । सूरिभिरमाणि- कर चे वि करनिभ कालिण मुद्धह असु निवारणिण ॥ ३७॥ राजा प्रत्ययायं स समाकार्य पृष्टः । तेनोक्तम्-सत्य सूरिवचः । हस्तौ दर्शिता । राजा तेन याक्सवादेन प्रीतः । 'अजवि सा परितप्पई' इत्यादि तदुक्त सर्व सारस्वतविलसितमिति निर-25 वैपीत् । शीघशीघं गोपालगिरिं गतः । पताकातोरणमञ्चमतिमश्चादिमहास्तत्रासुः । दिवसाः कत्यप्यतिक्रान्ताः। ६३९) ततः श्रीसिद्धसेनसूरयो चाईक्येन पीटिता अनशन गृहीतुकामाः श्रीरप्पभटिसूरी- णामाकारणाय गीतार्थमुनियुगलं प्रैपिपुः" । तद् गुरोर्लेसमदीदृशत् । तत्र लिखितं यथा- ९८ अध्यापितोऽसि पदवीमधिरोपितोऽसि तत्कियनापि कुरु वत्मक यप्पभट्टे ।। 30 प्रायोपवेशनरये पिनिवेश्य येन सम्प्रेषयस्यमरधाम नितान्तमस्मान् ॥ ३८॥ 1 BD मगया। PC धगि दवावठी। 3C पिप। 4 BD मिहा। 5P सिहि जो म मुमर D पिरहि गह माणु.1 GBD महोरा। 7Cकित +P पुनसम्म मक्षित पाटोऽयम् । 8 BDP मादपनि। 9 BP Uना Care! 10CP भादों पदस्पद प्राप्यते नान्यत्र। 11 Dपुटीन्द्र । 12 A पपिम । 13 पिष्ट । ५ . को. Page 55**************************************************************************************** %3D प्रबन्धकोशे तद् दृष्ट्वा आमभूपतिमापुच्छय मोढेरकपुरं ब्रह्मशान्तिस्थापितवीरजिनमहोत्सवाढ्यं प्रापुस्ते । गुरून ववन्दिरे । गुरवोऽपि तान् वाढमालिङ्गयालापिपुः-वत्स! गाढमुत्कण्ठितमस्माकं हृदयम् । मुखकमलकमपि ते विस्मृतम् । राजानुगमनं तेऽस्माकं दुःखायासीत् । कारय साधनाम् । अनृणो भव । ततोऽन्त्याराधना चतु:शरणगमन-दुष्कृतगह -सुकृतानुमोदना-तीर्थमालावन्दनादिका 5 विधिना विधापिता । गुरवो देवलोकललनानयनविभागपात्रत्वमान ः। शोक उच्छलितः। ततो बप्पभट्टिः श्रीमद्गोविन्दसूरये श्रीनन्नसूरये च गच्छ भारं समयं श्रीआमपाश्वमगमत् । पूर्ववत्समस्यादिगोष्ठ्यः स्फरन्ति । . ६४०) एकदा सूरिनुपसभायां चिरं पुस्तकाक्षरदत्तदृक् तस्थौ । तत्रैका नर्तकी नृत्यन्ती आसीत् रूपदासीकृताप्सराः । सूरिझुग्नीलिं निवारणाय तस्याः शुकपिच्छनीलवर्णायां नील- 10 कञ्चलिकायां दृशं निवेशयामास । आमस्तद् दृष्ट्वा मनसि पपाठ- ९९. सिद्धंततत्तपारंगयाण जोगीण जोगजुत्ताणं । जइ ताणं पि मयच्छी मणमि ता तचिय पमाणं ॥ ३९ ॥ __ आमो रात्रौ पुंवेषां तां नर्तकीं सूरिवसती प्रैपीत् । तया सूरीणां विश्रामणाऽऽरब्धा । कर- स्पर्शेन ज्ञाता युवतिः सूरिणा । अभिहिता सा-का त्वम् ?, कस्मादिहागता ?। अस्मासु ब्रह्मत्र- तनिविडेषु वराकि ! भवत्याः कोऽवकाशः'वाल्याभिर्न चलति काञ्चनाचलः।' तयोक्तम्-भवद्भय 15 उपदेष्टमागता। १००. राज्ये सारं वसुधा वसुधायामपि पुरं पुरे सौधम् । सौधे तल्पं तल्पे वराङ्गनाऽनङ्गसर्वखम् ॥ ४० ॥ इति । किञ्च- १०१. प्रियादर्शनमेवास्तु किमन्यैर्दर्शनान्तरैः । प्राप्यते येन निर्वाणं सरागेणापि चेतसा ॥४१॥ श्रीआमेन प्रेपिताऽहं प्राणवल्लभा भवतां शुश्रूपार्थम् । ततः सूरिशको वदति स्म-अस्माकं 20 ज्ञानदृक्प्रपातदृष्टद्रष्टव्यानां नैव व्यामोहाय प्रगल्भसे। १०२. मलमूत्रादिपात्रेपु गात्रेषु मृगचक्षुपाम् । रतिं करोति को नाम सुधीवोंगृहेष्विव ॥ ४२ ॥ सापि निर्विकारं सूरिवरं निश्चित्य ध्वनचेताः प्रातर्नृपतिसमीपं गता । पृच्छते राज्ञे रात्रीयः सूरिवृत्तान्तः सम्यक् कथितस्तया-पापाणघटित इव तव गुरुः । नवनीतपिण्डमयः शेषो वराको लोकः । यावन्तः कूटप्रपश्चा हावभाव-कटाक्ष-भुजाक्षेप-चुम्बन-नखरदनक्षतादिविलासास्ते सर्वे 25 आजन्मशिक्षितास्तत्र प्रयुक्ताः । पुनस्तिलतुषत्रिभागमानमपि मनोऽस्य नाचालीत् । अनुराग- बलात्कार-पूत्कार-भीदर्शन-हत्यादानादिविभीषिकाभिरपि नाक्षुभत् । तदेप मन्ये महावज्रमयो न देवकन्याभिर्न विद्याधरीभिर्न नागाङ्गनाभिश्चाल्यते; मानुपीणां तु का कथा?। अस्मिन्सूरे र्मस्थैर्ये श्रुते नृपो विस्मयानन्दाभ्यां कदम्बमुकुलस्थूलरोमाञ्चकञ्चकितगात्रः संवृत्तः । दध्यौ च गुरुं ध्यानप्रत्यक्षं कृत्वा- १०३. न्युञ्छने यामि वाक्यानां दृशोर्याम्यवतारणे । बलिः क्रियेऽहं सौहार्दहृयाय हृदयाय ते ॥४३॥ प्रातरवः समागुः। राजा हीणो न वदति किञ्चित् । सूरिभिर्भणितम्-राजन् ! मा लजिष्ठाः। महर्षीणां दूषण-भूषणान्वेषणं राज्ञा कार्य न दोषः। राज्ञोक्तम्-अलमतीतवृत्तान्तचर्चया । एत- दहमुत्तम्भितभुजो ब्रुवे युष्मान्ब्रह्मधनानवलोक्य- 1 A आगतः। .2 A. दृग्मीलि.। 3 CP तथा। 4 P नास्ति 'वराको'। 5 D नखदन्ताक्षता० । 30 Page 56**************************************************************************************** बप्पभट्टिसूरिप्रबन्धः । - १०४ धन्यास्त एव 'धवलायतलोचनाना तारुण्यदर्पघनपीनपयोधराणाम् । क्षामोदरोपरिलसत्रिवलीलतानां दृष्ट्वाऽऽकृति निकृतिमेति मनो न येपाम् ॥ ४४ ॥ इत्युक्त्वा दण्डप्रणामेन प्रणनाम श्रीआमः। अन्येयू राजा राजपथेन सञ्चरमाणो हालिकप्रियां एरण्डवृहत्पत्रसंवृतस्तनविस्तरां एरण्डप- त्राणि विचिन्वानां गृहपाश्चात्यभागे दृष्ट्वा गाथाई योजितवान्- १०५ वइविवरनिग्गयदलो एरडो 'साहइ ब्व तरुणाण । तत्तु सूरीणां पुरः समस्यात्वेन समर्पितवान् । सूरय ऊचुः- इत्य घरे हलियवहू 'इद्दहमित्तत्थणी अत्यि ॥ ४५ ॥ राजा विस्मित:-अहो सारं सारखतम् ।। अन्यदा साय प्रोपितभर्तृकां वासभवनं यान्ती वक्रग्रीवां दीपकरां ददर्श । गाथाई चोचे- 10 १०६ दिजइ वकग्गीवाइ दीवओ पहियजायाए । सूर्यग्रे पपाठ । सूरिगाथापूर्वार्द्धमुवाच- पियसभरणपलुट्टतअसुधारानिवायभीयाए ॥ ४६॥ इति सूरिभूपौ सुखेन कालं गमयतो धर्मपरौ।। ६४१) अन्यदा धर्मनृपेण आमनृपस्य पार्श्वे दूतः प्रहित एत्यावोचत्-राजन् ! तव विच-15 क्षणतया धर्मनृपः सन्तुष्टः। पुनः स आह-भवद्भिर्वयं छलिताः। यतो भवदुभ्यो गृहमागतेभ्यो नास्माभिमानल्पोऽपि कोऽपि सत्कारः कृतः । अधुना शृणु-अस्मद्राज्ये वर्द्धनकुन्नरो नाम महावादी बौद्धदर्शनी विदेशादागतोऽस्ति । स वादं जिघृक्षुः। यः कोऽपि वो राज्ये वादी भवति स आनीयताम् । अस्माक भवद्भिः सह चिरन्तनवैरम् । यः कोऽपि वादी विजयी भविष्यति तत्मभुरपरस्य राज्यं ग्रहीष्यति । मम वादिना यदा जितं तदा त्वदीयं राज्यं मया ग्राह्यम् 120 यदा तय वादिना जित तदा मदीय राज्य त्वया ग्राह्यम् । अयं पणः । वाग्युद्धमेवास्तु । किं मानवरुदनेन । आमेनोक्तम्-दूत । त्वया यदुक्तं तद्धर्मेण कथापितमथवा त्वया स्वतुण्ड- कण्डूतिमात्रेणोक्तम् ? । यदि तव प्रभुः सप्ताङ्गं राज्य वादे जिते समर्पयिष्यति मे इति सत्यम्, तदा वय वादिनमाढायागच्छाम इति । दूतेनोक्तम्-कारणवशाद युधिष्टिरेणापि द्रोणपर्वण्य- सत्य भापितम्, मत्प्रभुस्तु कारणेऽपि न मिथ्या भापते । आमेन दूतः प्रपि । उक्तदिनोपरि 25 यप्पभाहिं गृहीत्वा पथे उक्तस्थाने आमोऽगमत् । धर्मभूपतिरपि वर्द्धनकुञ्जर वादीन्द्र- मादाय तनाजगाम । परमारवश्यं नरेन्द्र महाकविं वाक्पतिनामान स्वसेवक सहाढाय समा. ययों । उचितपटेठो आवासान् दापयामास । तौ वादि-प्रतिवादिनी पक्ष-प्रतिपक्षपरिग्रहेण वाद- मारेभेते । सभ्याः कौतुकाक्षिप्ताः पश्यन्ति । द्वावप्यसामान्यप्रतिभी ज्ञा' । वादे पण्मासा गताः। द्वयोः कोऽपि न हारयति न जयति च । आमेन सूरयः प्रोक्ताः सायम्-राजकार्याणां 30 प्रत्यूहः स्यात्, निर्जीयतामसी शीघ्रम । मृरिणा भणितम-भातर्निग्रहीप्यामि। मा स्म वो भ्रान्तिर्भूयात् । रात्रौ सूरी-वरेण मन्त्रशत्तया मण्टले हाराहारमणिकुण्डलमण्डितानी दिव्याऽ- इरागवसना दिव्यकुसुमपरिमल वासितभुयनोदरा भगवती भारती साक्षादानीता। चतुर्दशभिः 1 1A नराय। 2D साहाइ प; B तमीण। 3 A. इदीह । 4 CP चिरसः। 5 P पदयनेन । 6 P विना सर्वत्र 'समानिन्। 7P'हो' नाति। 8AB प्रभाते। Doमदिवमुप० । Page 57**************************************************************************************** प्रवन्धकोशे काव्यः सद्यस्कैर्दिव्यैः स्तुता। देव्योक्तम्-वत्स ! केन कारणेन स्मृता ? । सूरिवीरेण भणितम्- षण्मासा वादे लग्नाः। तथा कुरु यथा वादे निरुत्तरीभवति सः । देव्या गदितम्-वत्स! अह- मनेन प्राक् सप्तभवानाऽऽराधिता। सयाऽत्र भवेऽस्मै अक्षयवचना गुटिका दत्ताऽस्ति । तत्प- भावाचक्रिनिधिधनमिव नास्य वचो हीयते । सूरिणोक्तम्-त्वं देवि! किं जैनशासनविरोधिनी, 5 येन मे जयश्रियं न दत्से ? । भारत्यूचे-वत्स! जयोपायं त्रुवे । त्वया वादारम्भे प्रातः सर्वे वद- नशौचं काराप्याः पार्षद्याः। गण्डूपं कुर्वतस्तस्य वदनाद गुटिका ममेच्छया पतिप्यति तदा त्वया जेष्यते । एकं तु याचे-मत्स्तुतेश्चतुर्दशकाव्यं कस्याप्यग्रेन प्रकाश्यम् । तत्पठनेन हि मया ध्रुवं ध्रुवं प्रत्यक्षया भाव्यम् । कियतां प्रत्यक्षा भवामि ? । क्लेशेनालम् । एवमुक्त्वा देवी विद्यु- ज्झात्कारलीलयाऽन्तर्दधे । सूरिभिर्निशि परमाप्तशिष्य एको वाक्पतिराजसमीपं प्रहित्याख्या- 10 पितं यथा-सूरयो वदन्ति-राजन् ! त्वं विद्यानिधिरस्माकं लक्षणावतीपुरीपरिचितचरः । तदाऽ- वादीः-भगवन् ! निरीहा भवन्तः, कां भवद्भ्यो भक्तिं दर्शयामि । तदा वयमवोचाम-अवसरे कामपि भक्तिं कारयिष्यामः। भवद्भिर्भणितम्-तथास्तु । इदानीं सोऽवसरोऽत्र समायातः । वाक्पतिना शिष्यः पृष्टः-सूरयः किं मे समादिशन्ति ? । आदिष्टं कुर्वे ध्रुवम् । शिष्यो न्यवेद- यत्-राजन् ! गुरवः आदिशन्ति-प्रातर्धामयोः सदास्थयोः सतोस्त्वया वाच्यं यथा-वदन- 15 शौचं विना भारती न प्रसीदति । तस्माद्वादि-प्रतिवादि-सभ्य-सभेशाः सर्वे शौचं कुर्वन्तु । एता. वति कृते भवता नः सर्वः लेहः कृत एव । वाक्पतिना तदङ्गीकृतम् । शिष्येणोपगुरु गत्वा तत्तत्प्रतिज्ञातं कथितम् । तुष्टाः गुरवः । प्रत्यूषे उदयति भगवति गभस्तिमालिनि लाक्षालिप्त इव प्राचीसुखे राजानौ सभायामगाताम् । वाक्पतिना वदनशौचं सर्वे कारिताः, बौद्धवादी- न्द्रोऽपि । तस्य वदनकमलाद्विगलिता गुटिका अपतत् पतग्रहे । बप्पभट्टिशिष्यैः पतद्ग्रहो 20 जनैर्दूरे कारापितः । गुटिका सूरीन्द्रसाजाता । बौद्धो गुटिकाहीनः सूरिणा पार्थेन कर्ण इव दिव्य- शक्तिमुक्तो निःशङ्कं वाक्पृषत्कैर्हतः । निरुत्तरीकृतः। राहुग्रस्तश्चन्द्र इव हिमानीविलुप्तस्तरखण्ड इव निस्तेजता भेजे । तदा श्रीवप्पभनिर्विवाद वादिकुञ्जरकेसरीति विरुदं खेः परैश्च दत्तम् । धर्मेण सप्ताङ्गं राज्यं आमाय दत्तम् । लाहीदम् । धर्माद्धि राज्यं लभ्यते । काऽत्र चर्चा ? । आमेन गृहीतम् । तदा सूरिणा आमः प्रोक्तः-राजन् ! पुना राज्यं धर्माय देहि । महादानमिदम् । शोभते 25 च ते । राजस्थापनाचार्याश्च पारंपर्येण । पूर्व श्रीरामेण वनस्येनापि सुग्रीव-विभीषणौ राजीकृतौ। त्वमप्यैदयुगीननृपेषु तत्तुल्यः। एतद्वचनसमकालमेव आमेन गाम्भीयौदार्यधाना धर्माय तद्राज्यं प्रत्यप्येस परिधापितः । स्खे मत्ताः करिणः शतं. सहस्रं तनास्तरङ्गाः, सहस्रं सवरूथा रथा शतं वादिनाणि प्रादायिषत । खं खं स्थानं गताः सर्वे । सूरि-भूपौ यशोधवलितसप्तभुवनौ गोपगिरौ श्रीमहावीरभवन्दिषाताम् । तदा सूरिकृतं श्रीवीरस्य स्तवनम्-'शान्तो वेषः शससु- 30 खफला' इत्यादि काव्यैकादशकमयमद्यापि सङ्घ पठ्यते । सङ्घन प्रभुर्ववन्दे, तुष्टुवे च । १०७. रवेरेवोदयः श्लाघ्यः कोऽन्येषामुदयग्रहः । न तमांसि न तेजांसि यस्मिन्नभ्युदिते' सति ॥ ४७॥ अन्यदा स्व-परसमयसूक्तैः प्रबोध्य राजा प्रभुभिर्मद्यमांसादिसप्तव्यसननियमं ग्राहितः । 1 नास्ति P1 2 P नास्ति । 3 P यूयं । 4 P ०प्येवं युगीन०। 5 D प्रत्यार्पि। 6 B स धर्मः। 7 D भ्युदये। 8 P कारितः। Page 58**************************************************************************************** वप्पमहिरिप्रवन्धः। सम्यक्त्वमूलैकादशवतनिरतश्च श्रावका कृतः। द्वादशं व्रतं त्वतिथिसंविभागाख्यं प्रथमचर- मजिननृपाणां निपिद्धं सिद्धान्ते। ६४२) एकदा लक्षणावत्यां बौद्धो वर्द्धनकुञ्जरो धर्मनृपमाह सगद्गदम्-अहं बप्पमहिना जित- स्तन्मे न दूपणम् । यप्पभहिर्हि भारती नररूपा,प्रज्ञामयः पिण्डः, गीप्पुत्रः, न च दुनोति। एतत्तु दुनोति यत्तव भृत्यनापि वारुपतिराजेन सूरिकृतभेदान्मम मुग्वशीचोपायेन गुटी हारयामाहे। 5 एतावदभिधाय स तारं तारं रुरोद । स निवारितः क्षमापेन रोदनात् । उक्तश्व-कि क्रियते?, अयं नश्चिरसेवकोऽनेकसमराङ्गणलब्धजयप्रतिष्ठः प्रयन्धकविः पराभवितु न रोचते । क्षमखेद- मस्यागः । ततो बौद्धो जोप स्थितः। ६४३) अपरेधुर्यशोधर्मनाम्ना समीपदेशस्थेन बलवता भूपेन लक्षणावतीमेत्य रणे धर्मन्पो व्यापादितः। राज्य जगृहे । वाक्पतिरपि बन्दीकृतः । तेन कारास्थेन 'गौडवध' सज्ञकं प्राकृत 10 महाकाव्यं रचयित्वा यशोधर्माय राज्ञे दर्शितम् । तेन गुणविशेषविदा ससत्कारं चन्देर्मुक्ता, क्षमितश्च । 'विद्वान् सर्वत्र पूज्यते। ततो वाक्पतिर्यप्पभहिंसमीप गतः। योस्तयोमैत्री पूर्व- मप्यासीत् । तदानीं विशेपतोऽवृधत् । तेन वाझपतिना महामविजयाख्यं प्राकृतं महाकाव्यं यद्धम् । आमाय दर्शितम् । आमो हैमटङ्ककलक्षमस्मै व्यशिश्रणत् । १०८ फियती पञ्चसहस्री कियती लक्षा च कोटिरपि कीयती । औदार्योन्नतमनसा रत्नवती वसुमती कियती ॥४८॥15 ६४४) अपरेयुः प्रभुःश्रीआमेन पृष्टः-भगवन् ! यूयं तावत्तपसा विद्यया चलोके लब्धपरमरेग्वाः। किमन्योऽपि फोऽपि फाप्यास्ते यो भवतुलालेशमवामोति । यप्पभटिरमाणीत्-अवनिपते ! मम गुरुयान्धवौ गोविन्दाचार्य-ननसूरी सधैर्गुणैर्मदधिको गूर्जरघरायां मोढेरकपुरे स्तः । गुणोत्कण्ठया. मितसैन्य आमस्तत्र गतः। तदा नन्नमरियारयानेऽवसरायातान वात्स्यायनोक्ता वान् पल्ययनासीत्।राजाश्रुत तत्सर्वम् । अरुचिरुन्पन्ना-अहो! वय कामिनोऽपि नैतान भावान् 20 विद्मः । अय तु वेत्ति सम्यक । तस्मादयमवश्य नित्य योपित्सही। किमस्य प्रणामेन?-इत्यकृतन- तिरेवोत्थायाशु गोपगिरिमागात् । चिराद् दृष्टःक्ष्माप इति रणरणकाक्रान्तस्वान्ताःप्रभवो वन्दा. पयितुमयमः । राजा निरादरो न वन्दते तथा । एवं दिनानि कतिपयानि गतानि । एकदा गुरुभिः पमच्छे-राजन् ! यथा पुरा भक्तोऽभूस्तथेदानी भक्तो नासि । फिममाफ टोपः कोऽपि ? । राजा माह-सरिवर! मवादृशा अपि कुपात्रश्लाघां कुर्वते । किमुच्यते ।सरिभिरूचे' कथम् ? माह-यो भवद्भिः खो गुम्बान्धयी स्तुती । तत्र गत्वा को नन्नसूरिनामा दृष्टः शृङ्गारकथाव्या. स्यानलम्पटस्तपोहीनो लोतरण्डतुल्यो मजति मजयति च भवाम्बुधा' । तम्मान्न किञ्चिदेतत् । सरयो मसीमलिनवदना खवसतिमगुः । तत्रोपविश्य द्वौ साधू मोढेरकपुरं प्रहितौ । तत्पार्धा- तत्र फयापितम्-आमोकृतप्रणामो भवत्पादागतः । एवमेव युवां निन्दति । तत्कर्तव्यं पेनासी भयत्स्यन्येप्पपि श्रमणेपु अवज्ञावान्न भवति । सर्व तत्रत्य ज्ञात्वा तो टावपि गुटिकया 30 वर्ण-वरपरावर्त कृत्वा नटवेपधरी गोपगिरिमीयतुः। श्रीपमध्वजचरित्र नाटकत्वेन ययन्धतुः। नटान् शिक्षयामासतुः । आमराजमयसर ययाचतुः । राज्ञाऽयसरी दत्तः। मिलिताः सामा. IAWयाप। 2 D.मो। एवरगाव कपन ABD भादों मामि, CLP मादसे च सम्यते। 3 पनित मि PTIBD .मन्य पोलि। 5Dपाडयानायसः। 6P नानि TAB सरिरूपे। 8A भवानी। 9Awः। 10 BD भवेर। Page 59**************************************************************************************** प्रवन्धकोशे ज़िकाः तत्तद्रसभावज्ञाः । ताभ्यां नाटकं दर्शयितुमारेभे। भरत-बाहुबलिसमरावसरोऽभिनीयते । यदा व्यूहरचना-शस्त्रझलत्कार-वीरवर्णना-भट्टकोलाहलाश्चोत्थापनघरिका-झणझणत्कारादि ताभ्यां वर्णयितुमारब्धम् , धारारुढश्च रसोऽवातारीत्; तदा श्रीआमस्तद्भटाश्च कालिन्दीप्रवाह- श्यामदीर्घानसीनाकृष्योत्थिता 'हत हत' इति भापन्ते स्म । अत्रान्तरे नन्नसूरि-गोविन्दाचार्यों 5 स्वरूपमुद्रे प्रकाश्याहतुः-राजान् ! भटाः! शृणुत २कथायुद्धमिदम् , न तु साक्षात्। अलं सम्भ्रमेण। इत्युक्ता लज्जिता विस्मिताश्च ते राजाद्याः संवृत्याकारमस्थुः। तदा गोविन्दाचार्य-नन्ननरिभ्यां भूपोऽभाणि-किल शृङ्गाराननुभविनो वयमिति सम्यगव्याख्यातुं विद्मः । किन्तु समरा जिर- मपि भवद्वत्पविष्टाः स्मः । कुरङ्गा इव शस्त्रे दृष्टेऽपि विभिमः । आवाल्याद् गृहीतव्रताः पाप- भीरवः, परं भारतीप्रभावप्रभववचनशक्त्या रसान् सान् जीवद्रपानिव दर्शयामः । राजन् ! 10 मोढेरके यैस्ते वात्स्यायनभावा व्याख्याताः, ते वयं नन्नसूरय इमे च गोविन्दाचार्याः । भवतां तदा मृपा विकल्पः समजनि । राजा सद्यो ललज्जे । तो सूरी क्षमयामास, आनर्च बप्पभडिं च । तौ कतिचिद्दिनानि उपराजं स्थित्वा वप्पभटेरनुज्ञया पुनर्मोढेरपुरमगाताम् । गतः समयः कियानपि। ६४५) अन्यदा गाथकवृन्दमागतम् । तन्मध्ये बालिकैका सनालंनीलोत्पललोचना मृगाङ्कमुखी 15 किन्नरवरा विदुपी गायति । तां दृष्ट्वा मदनशरज्वरजर्जरः गलितविवेको गतप्रायशौचधर्मा- भिनिवेशः कन्यकुब्जेशः पद्यद्वयं प्रभुप्रत्यक्षमपाठीत- १०९. वक्त्रं पूर्णशशी सुधाधरलता दन्ता मणिश्रेणयः, कान्तिः श्रीगमनं गजः परिमलस्ते पारिजातद्रुमाः । वाणी कामदुधा कटाक्षलहरी सा कालकूटच्छटा, तत्किं चन्द्रमुखि ! त्वदर्थममरैरामन्थि दुग्धोदधिः ॥४९॥ ११०, जन्मस्थानं न खलु विमलं वर्णनीयो न वर्गों, दूरे शोभा वपुपि निहिता पक्कशङ्कां तनोति । ____20 विश्वप्रार्थ्यः सकलसुरभिद्रव्यदपिहारी, नो जानीमः परिमलगुणः कस्तु कस्तूरिकायाः ॥ ५० ॥ · सूरिभिश्चिन्तितम्-अहो ! महतामपि किग् मतिविपर्यासः ।। - १११. भस्त्रा काचन भूरिरन्ध्रविगलत्तत्तन्मलक्लेदिनी, सा संस्कारशतैः क्षणार्द्धमधुरां वाह्यामुपैति द्युतिम् । ___ अन्तस्तत्त्वरसोर्मिधौतमतयोऽप्येतां तु कान्ताधिया, श्लिष्यन्ति स्तुवते नमन्ति च पुरः कस्यात्र पूकुर्महे ॥५१॥ उत्थिता सभा । त्रिभिर्दिनैर्भूपेन पूर्वहिः सौधं कारितम्', मातङ्गीसहितोऽत्र वत्स्यामीति 25 धिया । तदवगतं श्रीवप्पभदिसूरिभिः । ध्यानप्रत्यक्षं हि तेषां जगवृत्तम् । ततो माऽसौ कुकर्मणा नरकं" यासीदिति कृपया तैर्निष्पाद्यमानसौधभारपट्टे निशि खटिकया बोधदानि पद्यानि लिखितानि । यथा- ११२. शैत्यं नाम गुणस्तवैव तदनु स्वाभाविकी स्वच्छता, किं ब्रूमः शुचितां भवन्त्यशुचयस्त्वत्सङ्गतोऽन्ये यतः । किंवाऽतः परमस्ति ते स्तुतिपदं त्वं जीवितं देहिनां, त्वं चेन्नीचपथेन गच्छसि पयः कस्त्वां निरोद्धं क्षमः ॥५२॥ 30. ११३. *सवृत्त सद्गुण महार्य महार्हकान्त कान्ताधनस्तनतटोचितचारुमूर्ते ! । - आः पामरीकठिनकण्ठविलग्नभन्न हा हार ! हारितमहो भवता गुणित्वम् ॥ ५३॥ 1 E शस्त्ररणरणत्कार। 2 B हन हन ।. 3 ABD निदा। 4 P तमाल। 5:P तद् । 6 CP मदनज्वर० । 7 B कस्तूरिकायाम् । .8 PC नु। 9 B कारापितम्। 10 BP नास्ति ।, 11 P नरकमयासी०। 12 BD किञ्चातः। * BD आदर्शो नास्ति पद्यमिदम् । Page 60**************************************************************************************** वप्पभट्टिसूरिप्रवन्धः । ११४ जीय जलबिन्दुसम सपत्तीओं तरगलोलाओ । सुमिणयसम व पिम्म ज जाणसि त करिजासि ॥ ५४॥ ११५ लजिजइ जेण जणे मइलिजइ निअकुलकमो जेण । कठहिए वि जीए त न कुलीणेहिं कायव्व ॥ ५५ ॥' प्रातरमूनि पद्यानि स्वयमामो ददर्श । वर्णान् कवित्वगति च उपलक्षयामास । अहो गुरूणां मयि कृपा! अहोतमां मम पापाभिमुखता!-इति ललज्जे । दध्यो च-साङ्कल्पिकमिदं जनगमीस- इमपाप मयाऽऽचरितम् । भारितोऽहं क यामि, कि करोमि ?, कथ गुरोर्मुख दर्शयामि?, किं 5 तपः समाचरामि', किं तीर्थ सेवे। अचं मुख गृहीत्वा गच्छामि?, कूपे पतामि?, शस्त्रेणात्मानं घातयामि अथवा ज्ञातम्-सर्वजनसमक्षं पापमुद्गीर्य काष्ठानि भक्षयामि । एव टलवलायमा- नोऽनुचरानादिदेश-अग्नि प्रगुणयत । प्रगुणितस्तैरग्निः । समागताः श्रीयप्पभटिसूरयः। मेलितं चातुर्वर्ण्यम् । उक्त तदधम् । यावत्सहसा कृशानुं प्रवेक्ष्यति आमस्तावत्सूरिभिर्याही धृत्वोक्त:- राजन् ! शुद्धोऽसि । मा म खिद्येथाः । त्वया हि सङ्कल्पमात्रेण तत्पाप कृत न साक्षात् । सङ्क-10 ल्पेनाग्निमपि प्रविष्टोऽसि । चिर धर्म कुरु।। ११६ मनसा मानस कर्म वचसा वाचिक तथा । कायेन कायिक कर्म निस्तरन्ति मनीषिणः ॥ ५६ ॥ इति वचनाद्विसृष्टोऽग्निः । जीवितो राजा । तुष्टो लोकः । प्रीतः सूरिः । ६४६) समयान्तरे वाक्पतिराजो मधुरां ययौ।तत्र श्रीपादस्त्रिदण्डी जज्ञे सः। तल्लोकादवगम्य आमः सूरीन् यभापे-भवद्भिरहमपि श्रावकः कृतः। दिव्या वाणी वः प्रसन्नैव । जानामि 4:15 शक्तिपरमरेखा यदि चारुपतिमप्याईतदीक्षां ग्राहयथ । आचार्य प्रतिज्ञा चक्रो-तदा विद्या में प्रमाण यदि वाक्पति सशिप्य श्वेताम्बरं कुर्वे । वाक्पतिस्तु कास्ति, इति उच्यताम् । राज्ञोक्तम्- मथुरायां विद्यते । सूरयो मथुरायां गता बहुभिः श्रीआमाप्तनरैः सह । वराहमन्दिराख्ये प्रासादे ध्यानस्थ पास्पतिं गत्वाऽद्राक्षुः । तत्पृष्टस्यैः सूरिभिस्तारखरेण आशिर्वादाः पठितुमारब्धाः- ११७ सन्ध्यां यत्प्रणिपत्य लोकपुरतो वद्धाञ्जलिाचसे, धत्से यच्च परा' विलग ! शिरसा तच्चापि सोढ मया। 20 श्रीर्जाताऽमृतमन्थनायदि हरे कस्माद्विप भक्षित, मा स्त्रीलम्पट' मा स्पृशेत्यभिहितो गौर्या हर पातु व ॥५७॥ ११८ एक ध्याननिमीलनान्मुकुलित चक्षुर्द्वितीय पुन , पार्वत्या विपुले नितम्बफलके शृङ्गारमारालसम् । अन्यदूरविकृष्टचापमदनकोधानलोद्दीपित, शम्भोभिन्नरस समाधिसमये नेत्रनय पातु च ॥ ५८ ॥ ११९ रामो नाम भूर हु तदवला सीतेति हु ता पितु, चा पञ्चवटीवने विचरतस्तस्याहरद्रावण । निद्राथं जननीकयामिति हरेहकारिण शृण्वत , पूर्वस्मर्तुरखन्तु कोपकुटिला भ्रूभगुरा दृष्टय ॥ ५९॥ 25 १२० उत्तिष्ठन्त्या रतान्ते भरमुरगपतौ पाणिनैकेन कृत्वा धृत्वा चान्येन वासो विगलितकतरीमारमसे वहन्या । सद्यस्तत्कायकान्तिद्विगुणितसुरतप्रीतिना सौरिणा व शय्यामालिगच नीत वपुरलसलमबाहु लक्ष्म्या पुनातु ॥ ६ ॥ एव घटु पेठे । अथ वास्पतियानं विसृज्य सम्मुनीभूय सूरीनाह-हे पप्पभटिमिश्राः! यूय 30 फिमस्मत्पुरतः शृङ्गाररौद्रा पद्यपाठं कुमध्ये ? । पप्पभयः प्राहु:-भवन्तः सारयाः। __१२१. साल्या निरीक्षरा केचित् केचिदीश्वरदेवताः । सपामपि तेपा स्यात् तत्त्वाना पचविंशति ॥ ६१ ॥ 1 PC अनि। AB आचाटें। 3P नदीं। 4 BD मन्यने पदि। 5 P मानि 'स्यात् । Page 61**************************************************************************************** ४० . प्रवन्धकोशे ___ इति ज्ञात्वा भवदभिमतदेवताशिषः पठन्तः स्म । यथारुचि हि श्रोतुः पुरः पठनीयं सम- यज्ञैः। वाक्पतिराह-यद्यप्येवं तथापि मुमुक्षवो वयमासन्ननिधनं ज्ञात्वा इह परमब्रह्म ध्यातुमा- याताः स्म । वप्पभयो जगदुः-किं तर्हि रुद्रादयो मुक्तिदातारो न भवन्तीति मनुध्वे ? । वाक्- पतिः प्राह-एवं सम्भाव्यते । वप्पभयो यभापिरे-तर्हि यो मुक्तिदानक्षमस्तं शृणु । पठामि । 5स जिन एव। १२२. मदेन मानेन मनोभवेन क्रोधेन लोभेन ससम्मदेन । ___ पराजितानां प्रसभं सुराणां वृथैव साम्राज्यरुजा परेपाम् ॥ ६२॥ १२३. जं दिट्ठी करुणातरंगियपुडा एयस्स सोमं मुहं, आयारो पसमायरो परियरो संतो पसन्ना' तणू । तं मन्ने जरजम्ममचुहरणो देवाहिदेवो जिणों', देवाणं अवराण दीसइ जओ नेयं सरूवं जए ॥ ६३ ॥ 10 इत्यादि बहु पेठे । वाक्पतिः प्राह-स जिनः कास्ते ? । सूरिः-स्वरूपतो मुक्तौ मुर्तितस्तु जिना- यतने । वाक्पतिर्भूते-प्रभो ! दर्शय तम् । प्रभुरपि आमनरेन्द्रकारिते प्रासादे तं निनाय । स्वयं प्रतिष्ठितवरं श्रीपार्श्वनाथमदीहशत् । शान्तं कान्तं निरञ्जनं रूपं दृष्ट्वा प्रबुद्धो यभा-अयं निर- खनो देव आकारेणैव लक्ष्यते । तदा चप्पभहिस्मृरिभिर्देव-गुरु-धर्मतत्त्वान्युक्तानि । रञ्जितः सः। मिथ्यात्ववेषमुत्सृज्य जैन ऋषिः श्वेताम्बरोऽभूत् । जिनमवन्दिष्ट, अपाटीच- __15 १२४. मयनाहिंसुरहिएणं इमिणा किं किर फलं णलाडेणं । इच्छामि अहं जिणवर ! पणामकिणकलुसियं काउं ॥६॥ १२५. दोवि गिहत्था धडहड वचई को किर कस्स वि पत्त भणिजई । सारंभो सारंभं पुजइ कद्दमु कद्दमेण किमु सुज्झइ ॥ ६५ ॥ प्रत्यासन्ने आयुषि मथुराचातुर्वर्ण्यस्य आमभूपसचिवलोकस्य च प्रत्यक्षं अष्टादशपापस्था- नानि त्याजितः । नमस्कारं पञ्चपरमेष्ठिमयं श्रावितः । जीवेषु क्षामणां कारितो वाक्पतिः सुखेन 20 त्यक्ततनुर्दिवमगमत् । तत्सर्व प्रधानैरन्यैरपि प्रथमं ज्ञापितो नृपः। पश्चाद्वप्पभहिर्गोपगिरिंगतः। राजाभितुष्टवे" सूरिशकम्- १२६. आलोकवन्तः सन्त्येव भूयांसो भास्करादयः । कलावानेव तु ग्रावद्रावकर्मणि कर्मठः ॥ ६६ ॥ ६४७) एकदा राज्ञा सूरिः पृष्टः-किं कारणं येनाहं ज्ञातजैनतत्त्वोऽपि अन्तराऽन्तरा तापसधर्मे रति बध्नामि ? । सूरिराह-प्रातर्वक्ष्यामः। प्रातरायाताःप्रोचुः-राजन् ! अस्माभिर्भारतीवचसा तव 25 प्रारभवो ज्ञातः। त्वं कालिञ्चरगिरेस्तीरे शालनामा तपखी शालट्ठमाधोभागे झुपवासान्तरित- भोजनस्तपो बहूनि वर्षाण्यतपथाः । स मृत्वा त्वमुत्पन्नः। तस्यातिदीर्घा जटास्तत्रैव लतान्त- रिता अद्यापि सन्ति । तदाकर्ण्य आप्तनरास्तत्र राज्ञा प्रहिताः। तैर्जटा आनीताः। सूरिवार- संवादो दृष्टः । भूपतिः सूरीणां पदोविलग्य तस्थौ । परमार्हतो बभूव । __६४८) अन्यदा सौधोपरितलस्थेन आमेन कापि गृहे भिक्षार्थ प्रविष्टो मुनिष्टः । तत्र युवति- 30 रेका कामार्ता गृहागतं मुनि परब्रह्मैकचित्तं रिरमयिषुः कपाटसम्पुटं ददौ । मुनिनेच्छति ताम् । तया मुनये पादतलप्रहारे दीयमाने नूपुरं मुनिवरचरणे प्रविष्टं काकतालीयन्यायादैन्धवर्तकीन्या- याच । राजा तद् दृष्टा सूरये समस्यां ददौ- 1 A पसंता। 2 P इमो। 3 P यभाण। 4 AB तथा। 5 P मयनाए। 6P कर। 7 PC किम । 8 ABD अस्यासन्ने; P अत्यासन्ने। 9 A 'मथुरा' नास्ति । 10 P राजा तुष्टस्तुष्टुवे। 11 AB तत्वा। 12 P.प्यस्ति । 13 P न्यायेन । Page 62**************************************************************************************** वप्पमाहिरिप्रवन्ध । १२७ कवाडमासज्ज वरगणाए अन्मत्यिओ' जुव्वणगचियाए । सूरिः पुरः प्राह- न मन्निय तेण जिइदिएण सनेउरो पच्वइअस्स पाओ ॥ ६७ ॥ अन्यदा प्रोपितभर्तृकाया गृहे भिक्षुः कश्चिद् भिक्षार्थी प्रविष्टः। राज्ञा सौधाग्रस्थेन दृष्टः। तया भिक्षोः पारणायान्नमानीतम् । उपरि काकैर्भक्षितम् । मुनिकस्य दृष्टिस्तस्या नाभौ स्थिता' 5 तस्थास्तु दृष्टिस्तन्मुग्वकमले । आमः सूरये समस्यामार्पिपत् । यथा- १२८ मिक्खयरो पिच्छइ नामिमडल सावि तस्स मुहकमल । सूरिराह- दुण्ह पि कवाल चट्ठय पि काया विलुपन्ति ॥ ६८॥ __ इति आमः श्रुत्वा चमत्कृतः । अहो सर्वजपुत्रका एते । 10 ६४९) अन्यदा कोऽपि चित्रकृद् भूपरूपं लिखित्वा उपभूपं गतः। वप्पहिना श्लाषिता तत्कला । नृपात्तेन टङ्ककलक्ष लेभे। लेप्यमयविम्बचतुष्टयं च कारितम् । एक मथुरायाम् । एक मोढेरवसहिकायामणहिल्लपुरे। एकं गोपगिरी। एकं सतारकास्यपुरे। तत्र तत्र प्रतिष्ठाः प्रभावनाश्च कारिताः । अन्यदपि बहकारि। ६५०) अथ आमगृहे पुत्रो जातः सुलक्षणः।सोत्सवं तस्य दुन्दुकः इति नाम प्रतिष्ठितम्।सोऽपि 15 युवत्वे तैस्तैर्गुणैः पितृवत्पप्रथे । एकदा समुद्रसेनभूपाधिष्ठितं राजगिरिनामदुर्गे आमो रुरोध । अमित सैन्यं कुद्दालादिसामग्री भैरवादयो यन्त्रभेदाः कृप्ताः । प्राकारोऽतिवलेन प्रपातयितुमा- रेभे। नापतत्। आमः खिन्नः। तेन सूरयः पृष्टाः-अयमभ्रलिहामाकारः कदाऽस्माभिग्राहिष्यते।। सूरिभिर्यभापे-तव पुत्रपुत्रो भोजनामाऽमु प्राकारं दृकपातमात्रेण पातयिष्यति, अन्यो नैव। . आमस्त्यक्तारम्भः प्राकारावाहिादशाब्दीमस्थात् शत्रुदेशमात्मसाच । दुन्दुकगृहे पुत्रो जातः120 तस्य भोज नाम ददे । स जातमात्रः पर्यकिकान्यस्तो' दुर्गद्वाराग्रमानीतः प्रधानः । तद्द्दकम- पातमात्रेण प्राकारः ग्वण्डशो विशीर्णः। समुद्रसेनभूपो धर्मद्वारेण निःमृतः । आमो राजगिरि- मविक्षत् । प्रजामारो न कृतः। अक्रूरा हि जैना राजर्पयः । दयापरास्ते । रात्रौ आमाय राजगि- धष्ठात्रा भणितम्-राजन्! यदि त्वमत्र स्थास्यसि तदा तव लोक हनिष्यामि । आमः प्रत्यूचे -लोकेन हतेन किं ते फलम् ? । यदि हनिष्यसि तदा मामेव घातय। एतनिर्भयमामवचः श्रुत्वा 25 तुष्टो व्यन्तर उवाच-प्रीतोऽसि ते सत्त्वेन। याचस्व किश्चित् । राजोचे-न फिमपि न्यूनं मे, केवल कदा मे मृत्युः, हीदम् । व्यन्तर उवाच-पपमासावशेपे आयुपि स्वयमेत्य वक्ष्यामि । पण्मासा- वशेपे आयुपि पुनरागतः सः। राजोक्तम्-कियन्मे आयुः । व्यन्तरो वदति-देव ! १२९ गङ्गान्तर्मागधे तीर्थे नावाश्वतरत सत । मकाराधक्षरग्रामोपकण्ठे मृत्युरस्ति ते ॥ ६९ ॥ पण्मासान्ते इति विद्या' । पानीयान्निर्गच्छन्तं धूम यदा द्रक्ष्यसि तदा मृत्युर्जातव्यः । साधना 30 घकार्या पारलौकिकी। इति गदित्वा गतो देवजातीयः। राजाप्रातः सूरिपाच गतः। सूरिरुवाच- 1A भस्मद्विभो, P भन्मुरियो । 2 P 'पुर' नास्ति। 3 A. भयदिने। 4P पतिता। 5A भर्पितवान् । 6P पिता । 7 P-कान्याम्ने। 8P महर्षय राजपयश । 9A भविष्ठाभ्या। प्र. को. Page 63**************************************************************************************** ४२ प्रबन्धकोशे राजन् ! यद्यन्तरेण 'तवाऽग्रे कथितं आयुःप्रमाणं तत्तथैव । धर्मपाथेयं गृह्णीयाः। तदाकर्ण्य भूपस्तुतोष विसिष्मिये च, अहो ज्ञानम् ! । अथवा विस्मय एव कः ?-सूरस्तेजस्वी, इन्दुरा- ह्लादकः, गङ्गाम्भः पावनम् , जैना ज्ञानिन इति । दिनद्वये गते सूरिः श्रीआमस्य पुरः प्रसङ्गेन श्रीनेमिनाथस्याशीर्वाद पपाठ । यथा- 5१३०. लावण्यामृतसारसारणिसमा सा भोजसूः स्नेहला, सा लक्ष्मीः स नवोद्भमस्तरुणिमा सा द्वारिका तद्वलम् । ते गोविन्दशिवासमुद्रविजयप्रायाः प्रियाप्रेरकाः, यो जीवेषु कृपानिधियंधित नोद्वाहं स नेमिः श्रिये ॥ ७० ॥ भूयोऽपि- १३१. मग्नैः कुटुम्बजम्बाले यैमिथ्याकार्यजर्जरैः । नोजयन्ते नतो नेमिस्ते चेजीवन्ति के मृताः ॥ ७१ ॥ ६५१) तथा रैवतकतीर्थमहिमा सूरिभिर्व्याख्याय पल्लवितः यथा, भूमिमाहत्योत्थाय परिकर 10 बद्धा सरभसं भूपः प्रतिशुश्राव-रैवतके नेमिमवन्दित्वा मया न भोक्तव्यमिति । लोकैनि- षिद्धः-राजन् ! मा मा, दूरे रैवतको गिरिः, मृदवो भवादृशाः। राजाऽह-प्रतिज्ञातं मे न चलति। ततः सह सूरिणा आमः [*लक्षमेकं पृष्टवाहा वृषभाः, करभसहस्र २०, हस्तिशत ७, अश्वलक्ष- मेकं, पदातिलक्षत्रयं, श्राद्धकुटुम्बसहस्र २०] सारसैन्यों रैवतकायाचालीत् । स्तम्भतीर्थ याव- गतः, तावत् क्षुत्तापेन व्याकुलितोऽपि प्राणसन्देहं प्राप्तोऽपि नाहारमग्रहीत् । भीतो लोकः । ___ 15 खिन्नः सूरिः। मन्त्रशक्त्या कूष्माण्डी देवीं साक्षादानिनाय । तदने कथयामास-तत्कुरु येन राजा जेमति जीवति च । तद्वचनात्कूष्माण्डी विम्बमेकं महच्छिरसा विभ्रती गगनेन आमसविधं गता, ऊचे च-वत्स ! साऽहमम्बिका । तव सत्त्वेन तुष्टा । गगने आगच्छन्तीं मां त्वं साक्षाद- द्राक्षीः । मयेदं रैवतैकदेशभूतादवलोकनाशिखरान्नेमिनाथविम्बमानीतम् । इदं वन्दख । अस्मि- न्वन्दिते मूलनेमिर्वन्दित एव । कुरु पारणकम् । सूरिभिरपि तत्समर्थितम् । लोकेनापि स्थापि- 20 तम् । तद्विम्यं वन्दित्वा राज्ञा ग्रासग्रहणं चक्रे । अद्यापि तद्विम्यं स्तम्भतीर्थे पूज्यते । उज्जयन्त इति प्रसिद्धं तत्तीर्थम् । हृद्यातोद्यानि ध्वानयन्नामो विमलगिरौ वृषभध्वजं सोत्सवं वन्दित्वा यावदैवताद्रिं गतः, तावता तत्तीर्थ दिगम्बरै रुद्धं श्वेताम्बरसंघः प्रवेष्टुं न लभते। आमेन तज्ज्ञा- तम् । ज्ञात्वोचे-युद्धं कृत्वा निषेद्धृन्हत्वा श्रीनेमिं नस्यामि । तावत्तत्र दिगम्बरभक्ता एकादश राजानो मिलिताः। सर्वे युद्धकतानास्तदा वप्पभहिना भणितम्-आमराजेन्द्र! धर्मकार्ये पापा- 25 रम्भः कथं क्रियते ? । लीलयैव तीर्थमिदमात्मसात्करिष्ये । भवद्भिः स्थिरैः स्थेयम् । एवं भूपं प्रबोध्य बप्पभहिरुपदिगम्बरं उपतद्भक्तं भूपं च नरं प्रहित्यावभाणत्-इदं तीर्थ यस्याम्बिका दत्ते तस्य पक्षस्य सत्कमिति मन्यध्वे । तैरुक्तम्-युक्तमेतत् । ततो बप्पभहिना सुराष्ट्रावास्तव्यानां श्वेताम्बरीयाणां दिगम्बरीयाणां च श्रावकाणां शतशः कन्यकाः पञ्चसप्तवार्षिक्यो मेलिताः । मिलिताः सभ्याः।बप्पभट्टिना अम्बादेवीपाश्वोत्कथा। ताम्बरश्रावककन्यका: 80 १३२. उजिंतसेलसिहरे दिक्खा नाणं निसीहिया जस्स । तं धम्मचक्कवहि अरिट्टनेमि नमसामि ॥ ७२ ॥ इति गाथां पठिष्यन्ति तदा श्वेताम्बरीयं तीर्थ, पक्षान्तरे तु दिगम्बरीयमिति । तत आनीता 1 P वोऽग्रे। 2 P गृहीथाः। 3 A विसिमः। 4 P भोजभूः। * P पुस्तक एवेयं पंक्तिदृश्यतेऽतः प्रक्षिप्तप्राया मन्तव्या। 5 BD सैन्यैः; P सैन्यैत्रिंशदुपवासैः। 6P तत्र । । एतचिह्नान्तर्गतः पाठः ABD आदर्श न दृश्यते, परं CEP भादर्श उपलभ्यते । Page 64**************************************************************************************** ४३ बप्पटिसूरिप्रवन्धः। मुग्धयालिका सर्वाभिः श्वेताम्बरपक्षयालिकाभिः पठिता सा गाया । अपरासु तु नैकयापि । ततो जात श्वेताम्बरसादैवततीर्थम् । अम्बिकया खस्थया पुष्पवृष्टिः श्वेताम्यरेषु कृता । ततो नष्टा' दिकपटा महाराष्ट्राविक्षिणदेशानगमन्।राज्ञाऽन्यैरपि सर्वसङ्घश्चिरात्तत्र मिलितै मिर्नेमे । वित्तं ददे । प्रभासे चन्द्रप्रभः प्रणेमे । वन्दिमोक्षः सर्वत्रापि कारितः। आमस्य भुक्तो गूलरा. दिदेशास्तदा तीर्थानां चिरं पूजोपयोगिनो हटाद्यायाः प्रकृप्ताः । एव कार्याणि कृत्वा ससूरिन्पो 5 गोपगिरि प्राविशत् । सधपूजादिमहास्तत्र नवनवाः। प्राप्तप्राये काले दुन्दुको राज्ये प्रतिष्ठितः। आपृष्टः सः । लोकोऽपि क्षमितः । अनृणो देशः कृतः। सह सरिणा नावाऽऽरुढो गगासरित्तीरे तीर्थ मागधं गतः। तत्र जले धूमं दृष्टवान् । तदा सूरीन्द्रमक्षमयत् । ससारमसारं विदन् अनश- नमगृह्णात् । समाधिस्थः श्रीविक्रमकालात् अष्टशतवपु नवत्यधिकेपु व्यतीतेपु भाद्रपदे शुक्लप- म्यां पञ्च परमेष्ठिनः स्मरन् राजा दिवमध्यष्टात् । सूरयस्तत्त्वज्ञा अपि रुरुतुः । चिरप्रीतिमोहो10 दुर्जय एव । सेवकास्तु चक्रन्दुः-हा शरणागतरक्षावज्रकुमार! हा राजस्थापनादाशरथे! हा अ-बदमननल! हा सत्यवार युधिष्ठिर! हा हेमदानकर्ण! हा मज्जाजैनश्रेणिक ! हा सूरिसेवास- म्मते! हा अनृणीकरणविक्रमादित्य! हा वीरविद्याशातवाहन! अस्मान् विहाय क गतोऽसि। वर्शयैकदाऽस्मभ्यमात्मानम् । मैकाकिनो मुश्च । एवं विलपन्तस्ते सूरिभिा प्रतियोधिता:-भो भो! सत्य देवेन पापेन- 15 १३३ आलब्धा कामधेनु सरसकिशलयश्चन्दन धर्णितो हा __ छिन्नो मन्दारशाखी फलकुसुमभृत. खण्डित कल्पवृक्ष । दग्ध. कर्पूरखण्डो धनहतिदलिता मेघमाणिक्यमाला __भम• कुम्भ सुघायाः कमलकुवलयै केलिहोम कृतोऽयम् ॥ ७३ ॥ तथापि मा शोचत शोचत । यत:- १३४ पूर्वाद्धे प्रतियोध्य पङ्कजवनान्युत्सार्य नैश तम , कृत्वा चन्द्रमम प्रकाशरहित निस्तेजस तेजसा । ____ मध्याहे सरिता जल प्रविस्तै रापीय दीसे करै , सायाढे रविरस्तमेति विवश किं नाम शोच्य भवेत् ॥४॥ इति लोक निःशोकं कृत्वा लोकेन सह सूरिर्गोपगिरिमागात् । रिभिर्दुन्दुको राजा आमेन आमशोकेन जात्यमुक्ताफलस्थूलानि अश्रूण्युद्विरन् हिमम्लानपद्मदीनवदनश्चिन्ताचान्तस्वान्तो यभापे-राजन् ! कोऽय मरतस्तव पितृशोकः । स हि चतुर्वर्ग ससाध्य कृतकृत्यो यभूव । यशो-25 मपेन देहेन चाचन्द्र' जीवन्नेवास्ते' । पुण्यलक्ष्मीः कीर्तिलक्ष्मीश्चेति द्वे नरस्योपकारिण्यौ वल्लभे । १३५ पुण्यलक्ष्म्याथ कीर्तेश्य विचारयत चाल्लाम् । स्वामिना सह यात्येकाऽपरा तिष्ठति पृष्ठत ।। ७५ ॥ अन्योऽप्येयंविधः कोऽपि भवतु । इत्येवंविधाभिर्वाग्भिर्दुन्दुकराज सूरिराजो निःशोकमका. पोत् । दुन्दुकः शनैः शनैः परमाईतोऽभूत् । राजकार्याणि अकापीत् । त्रिवर्ग स समसेविष्ट । ६५०) व वर्तमाने काले, एकदा दुन्दुकश्चतुप्पथे गच्छन् कण्टिका नाम गणिकामुदाररूपां चि-50 दूपा युवजनमृगवागुरां मदनमायामयीमालोकिष्ट । तां शुद्धान्तस्नीमकार्षीत् । तया दुन्दुकस्तथा पनीकृतो यथा यदेव सा वदति तत्सत्यम्; यदेव सा करोति तदेव हित मनुते । सा तु कार्म- 12 मा RA सी । 3 BP मैनापः। A मा मुष । 5AB मर्ग। GP प्रविशते । 7 P नाशि। 8A पास। 20 Page 65**************************************************************************************** प्रवन्धकोशे णकारिणी वाक्पटुः सर्व राज्यं ग्रसते हिमानीव चित्रम् । भोजमातरं पद्मा नाम अन्या अपि राज्ञीरन्वयवतीविनयवतीर्लावण्यवतीस्तृणाय मनुते । एकदा कलाकेलिनामा ज्योतिषिको निशि विसृष्टे सेवकलोके दुन्दुकराजं विजनं दृष्ट्वाऽवादीत्-देव ! वयं भवत्सेवकत्वेन सुखिनः ख्याताः श्रीशाश्च । यथातथं ब्रूमः-अयं ते भोजनामा तनयो भाग्याधिकस्त्वां हत्वा तव राज्ये निवे- 5क्ष्यते । यथार्ह खयं कुर्वीथाः । राजा तवधायें वज्राहत इव क्षणं मौनी तस्थौ । ज्योतिषिकं विससर्ज । सा वार्ता भोजजननीसहचर्या दास्यैकया विपुलस्तम्भान्तरितया श्रुता । भोजमात्रे चोक्ता । सा पुत्रमरणाद्विभाय । राजापि कण्टिकागृहमगात् । सापि राजानं सचिन्तमालोक्या- लापीत्-देव ! अद्य कथं म्लानवदनः ? । राजाऽऽह स्म-किं क्रियते ?, विधिः कुपितः। पुत्रान्मे मृत्युर्ज्ञानिना दृष्टप्रत्ययशतेन कथितः । कण्टिका वदति स्म-का चिन्ता, मारय पुत्रम् । सुत- 10 मपि निर्दलयन्ति राज्यलुब्धाः । सुतो न सुतः । सुतरूपेण शत्रुरेव सः। तद्वचनादुन्दुकः सुतं जिघांसामास । यावता घातयिष्यति तावता भोजमात्रा पाडलीपुर स्वभ्रातृणां सुराणां राज्य- श्रीस्वयंवरमण्डपानां लेहलानां धर्मज्ञानामग्रे प्रच्छन्ननैरैलेखेन ज्ञापितम् , यथा-एवमेवं भवतां भागिनेयो विनंक्ष्यति । रुष्टो राजा । आगत्य एनं गृहीत्वा गच्छत । रक्षता जीववत् । मा स्माई भवत्सु सत्सु निष्पुत्राऽभूवम्-इति । तेऽप्यागच्छन् , दुन्दुकमनमन् । उत्सवमिषेण भागिनेयं 15 भोजं गृहीत्वा पाटलीपुत्रमगमन् । तत्र तमपीपठन् , अलीललन् । शस्त्राभ्यासमचीकरत् । जीववदमंसत । तत्र तस्य पश्चान्दी दिनैः कतिभिरप्यूनाऽतिक्रामति स्म । कण्टिका दुन्दुकाने कथयति स्म-देव ! पुनरूपस्ते शत्रुर्मातृशाले वर्द्धते । नखच्छेद्यं पर्युच्छेद्यं मा कुरु । अत्रानीय च्छन्नं यमसदनं नय । राजाऽऽह-सत्यमेतत् । ततो दूतमुखेन दुन्दुको भोजं तन्मातुलेभ्योऽया- चीत्। ते भोजनार्पयन्ति। पुनः पुनः खान् दूतान् दुन्दुकः प्रहिणोति । भोजमातुलाः प्राहु:-राजन्! 20 वयं तव भावं विद्मः, नार्पयाम एवैनम्।धर्मपात्रमसौ। अन्योऽपि शरणागतो रक्ष्यःक्षत्रियैः, किं पुनरीदृग् भगिनीपुत्रः ? । बलात्कारं ब्रूषे चेत्, युद्धाय प्रगुणीभूयागच्छेः। भगिनीपतये चम- कारं दर्शयिष्यामः । ततैरागत्योक्तम् । दुन्दुकः कुपितोऽपि तान् हन्तुं न क्षमः । भोजोऽपि तैः पितुर्दुष्टत्वं ज्ञापितः केवचहर उपपितृ नैति । ततो दुन्दुकेन वप्पभहिसूरयः प्रार्थिताः-यूयं गत्वा भोज सुतमनुनीयानयत मानयत माम् । अनिच्छन्तोऽपि तत्सैनिकैः सह पाटलीपुत्रं चेलुः। 25 अर्द्धमार्ग सम्प्राप्तैः स्थित्वा विमृष्टं ज्ञानदृष्ट्या-भोजस्तावन्मम वचसा नृपसमीपं नैष्यति । आनीयते वा यथा तथा; तदानीतोऽपि पित्रा हन्यते । वाग्लङ्घने राजाऽपि क्रुद्धो मां हन्ति । तस्मादितो व्याघ्र इतो दुस्तटी इति न्यायः प्राप्तः । समाप्तं च ममायुः, दिवसद्वयमवशिष्यते, तस्मादनशनं शरणम्-इति विमृश्यासन्नस्थयतयो भाषिता:-नन्नसूरि-गोविन्दाचार्यों प्रति हिता मवेत । श्रावकेभ्यो मिथ्यादुष्कृतं ब्रूयात् । परस्परममत्सरतामाद्रियेध्वम् । क्रियां पालयेत । 80 आबालवृद्धान् लालयेत । नो वयं युष्मदीयाः, न यूयमस्मदीयाः । सम्बन्धाः कृत्रिमाः सर्वे । इति शिक्षयित्वाऽनशनस्थाः समतां प्रपन्नाः । १३६. अर्हतस्त्रिजगद्वन्यान् सिद्धान् विध्वस्तवन्धनान् । साधूंश्च जैनधर्म च प्रपद्ये शरणं त्रिधा ॥ ७६ ॥ _1 ABD तथातथं। 2 A पुत्रे। 3 P 'नरैः' नास्ति। 4 B राजा रु। 5 P अगच्छत् । 6P रक्षति । 7 P निप्पुत्रो। 8 AB अलीलपन् । 9 A दुन्दकः। 10 AB मातुलपार्श्वे । एतचिह्नान्तर्गतः पाठः पतितः P पुस्तके । Page 66**************************************************************************************** पप्पभट्टिसूरिप्रबन्ध ४५ १३७ महानतानि पञ्चैव पष्ठक रानिमोजनम् । विराधितानि यत्तत्र मिथ्यादुष्कृतमस्तु मे ॥ ७७ ॥ इति ब्रुवाणा आसीना अदीनाः कालमकार्पः । श्रीवप्पभद्विसूरीणां श्रीविक्रमादित्यादष्टशत- वर्षेषु गतेपु भाद्रपदे शुक्लतृतीयायां रविदिने हस्तः जन्म, पञ्चनवत्यधिकेपु तेपु गतेपु वर्गा- रोहणम् । तदैव मोढेरे नन्नसूरीणामने भारत्योक्तम्-भवद्गुरव ईशानदेवलोकं गताः। तत्र वाढ __ शोकः प्रससार । १३८ शास्त्रज्ञा. सुवचखिनो बहुजनस्साधारतामागता. __सद्वृत्ता. स्वपरोपकारनिरता दाक्षिण्यरत्नाकरा. । सर्वस्याभिमता गुणैः परिवृता भूमण्डना. सजना धातः । किं न कृतास्त्वया गतधिया कल्पान्तदीर्घायुप. ॥ ७८ ॥ वृद्धस्तु प्रबोधो दत्त:- 10 १३९ हित्वा जीर्णमय देह लमते भो पुनर्नवम् । कृतपुण्यस्य मर्त्यस्य मृत्युरेव रसायनम् ॥ ७९ ॥ इति । दुन्दुकेन सूरिभिः सह प्रहिता ये सैनिकास्ते निवृत्य दुन्दुकपार्श्व गताः । सोऽपि पश्चात्ता- पानलेन दन्दह्यते स्म । भोजेनापि समातुलेन सुरिशिष्याणामन्येपामपि लोकानां मुखादवगत यथा-सूरय एव मनुः। तव पाच नाजग्मुः। मा स्मायमस्मदुपरोधसङ्कटे पतितः पितुः पार्श्व गतः सन् 'मृत इति कृपां दधुः । तदेतदाकर्ण्य भोजस्तथा पीडितो यथा वज्रपातेनापि न पीड्यते 115 पितुरन्तिकं नागादसौ। ६५३) एकदा मालिकः कोऽपि पूर्वमामराजभृत्यो विदेश भ्रमित्वा' भोजान्तिकमागतः पाटलीपुरे । तेनोक्तम्-देव ! त्वं मत्स्वामिकुलप्रदीपः । मया विदेशे सद्गुरोर्मुखाद्विद्यैका लब्धा मातुलिङ्गी नाम, ययाऽभिमनितेन मातुलिङ्गेन हताः करि-हरिप्राया अपि पलिनो नियन्ते. मानवानां तु का कथा । देव ! गृहाण ताम् । भोजेन सा तस्मादात्ता । प्रमाणिता, सत्या । 20 मालिको दानमानाभ्या भोजेन रञ्जितः। मातुलाः सर्वे भोजेन विद्याशक्तिं प्रकाश्य तोपिताः। त ऊचुः-यदि इय ते शक्तिस्तदा प्राभृतमिषेण मातुलिगानि गृहीत्वाऽस्माभिः सह पितुः समीप बज । पितर निपात्य राज्य गृहाण । तदु रुरुचे भोजाय । चलितो बहुमातुलिङ्गशाली सन् । गतः पितुरम् , कथापित च-तात! त्वं पूज्योऽह शिशुः । त्वत्तो मरणं वा राज्यं वा सर्व रम्य मे । राजा सन्तुष्टः । अहो विनीतः सुतः, आयातु-इति विमृश्य आहतो भोजः । शोधितो 25 मध्यमागतः । एकासनस्यौ कण्टिका राजानौ पृथक्पृथग मातुलिनेन जघान । सम्यगविद्या हि नान्यथा । उपविष्टो दुन्दुकराज्ये भोजः । तन्मातुला अतुल तोपं दधुः । माता पद्मा प्रससाद । दुन्दुकेन धनहरणेन ग्रासोद्दालनादिना दूनचरा राजन्यकाः पुनर्जातमात्मान मेनिरे । महाजनो जिजीव । वर्णाः सर्वे उन्मेदुः । संसारसरोऽम्भोज भोजं कमला भेजे । टोबलात्परिच्छदबलाच जगजिगाय। 30 ६५४) अथ कृतज्ञतया मोढेरपुरे नन्नसूरये विज्ञप्ति दत्त्वा उत्तमनरान् प्रैपीत् । ते गतास्तत्र । विज्ञप्तिर्दर्शिता तैस्तत्र । वाचिता नन्नसूरि-गोविन्दाचार्ययथा-वस्ति श्रीमोढेरे परमगुरुश्रीनन्न- सूरि-श्रीगोविन्दसूरिपादान् सगच्छान् गोपगिरिदुर्गात् श्रीभोजः परमजैनो विज्ञपयति, यथा-दह 1 Pहना। 2 P नियत। 3P मानवा। 4 P शोमी। Page 67**************************************************************************************** ४६ प्रवन्धकोशे तावत्प्रज्ञागङ्गाहिमाद्रयः सर्वसमाचारीनारीसौभाग्यवर्द्धनमकरध्वजाः क्षितिपतिसदाकुमुदिनी- श्वेतदीधितयो भारतीधर्मपुत्राः श्रीवप्पभटिसूरयस्त्रिदिवलोकलोचनलेह्यललितपुण्यलावण्यता- मादधिरे । तत्स्थाने सम्प्रति दीर्घायुपो यूयं स्थ । दृष्टविज्ञप्तिप्रमाणेनाच' पादोऽवधार्यः । तद् दृष्ट्वा भक्तिरहस्यं सूरयः ससंघाः सुतरां जहषुः। संघानुमत्या गोविन्दाचार्य मोढेरके मुक्त्वा श्रीनन्नसू- 5 रयो गोपगिरिं समसरन् । भोजः पादचारेण ससैन्यः सम्मुखमायातः । गुरोः पादोदकं पपौ । उल्लसत्तष्णो गिरं शुश्राव । स्थानस्थानमिलितजनहृदयसंघचूरितहारमोक्तिकधवलि धवलितराजपथ पुरं निनाय । सिंहासने निवेशयामास तान् । मङ्गलं चकार । तदाऽऽज्ञामयो बभूव । तद्भक्ताना- त्मवद्ददर्श । तदभक्तान् विपवदीक्षांचक्रे । तदुपदेशाजिनमण्डितां मेदिनीं विदधौ । दुन्दुकस्य तादृगू मरणं स्मृत्वा कुपथेषु न रेमे । मथुरा-शत्रुञ्जयादिपु यात्राश्चकार । एकादश व्रतानुञ्चचार । _10 पूर्वराजर्षियशांसि उद्दधार । चिरं राज्यं भेजे । इत्येवं गोपगिरी भोजो धर्म लालयामास उदि- ___ याय च । अन्यैरपि पुण्यपुरुषैरेवं भाव्यम् । ॥ इति श्रीवप्पभहिचरित्रम् ॥ ९॥ ॥ग्रन्धानं ६००॥ १०. अथ श्रीहेमसूरिप्रवन्धः । _15_(५५) पूर्णतल्लगच्छे श्रीदत्तसूरिः प्राज्ञः वागडदेशे वटपद्रं पुरंगतः। तत्र स्वामी यशोभद्रनामा राणकः ऋद्धिमान् । तत्सौधान्तिके उपाश्रयः श्राद्वैर्दत्तः । रात्री उन्मुद्रचन्द्रातपायर्या राणकेन ऋषयो दृष्टा उपाश्रये निषण्णाः । श्रावकामात्यपार्श्वे पृष्टम्-के एते?। अमात्यः प्रोचे-देव! महा- मुनयोऽमी विषमव्रतधारिणः । राणकस्य श्रद्धा । प्रातर वन्दितुं गतः । देशना । श्रावकत्वं सुष्टु- सम्पन्नम् । मासकल्पमेकं स्थिताः । परदेशं गता गुरवः । तावता वर्षाकालः । देवपूजादिधर्म- 20 व्यापारसाराण्यहानि गमयति राणः । प्राप्ता शरद् । चरिक्षेत्राणि द्रष्टुं गतो राणः। तावता वुण्टानि ज्वालयन्ति भृत्याः। तेषु सर्पिण्येका गर्भभारालसा ज्वालादिभिर्दह्यमाना तडफडायमाना सिमिसिमायमाना राणेन दृष्टा । दयोत्पन्ना, विरक्तश्च । हा! हा! संसारं, धिग् गृहवासं, कस्य कृते पापमिदमाचर्यते? । राज्यमपि दुष्पालं मायाजालं नरकफलम् । तस्मात्सर्वसङ्गपरित्यागः कार्य:- इति ध्यायन सौधमयासीत् । निशि श्रावकमन्त्रिणमाकार्य रहोऽप्राक्षीत्-मम धर्मगुरवः श्रीदत्त- 25 सूरयः क विहरन्ति ? । मन्च्याह-डिण्डुआणके । विसृष्टो मन्त्री शेषपरिच्छदश्च । राणको मिता- श्वपरिवारः सारं हारमेकं सह गृहीत्वा शीघ्रं डिण्डआणकं प्राप्तः । गुरवो दृष्टा वन्दिताः । भव- वैराग्याद्बुदितः । पदोलगित्वा कथितं स्वपापम् । गुरुभिर्भणितम्-राणक ! चारित्रं विना न छुटन्ति पापेभ्यो जीवः । राणकेन न्यगादि-सद्यो दीयतां तर्हि तत् । सूरय ओमित्याहुः । राण- केन डिण्डुआणकीयश्रावकाः समाकारिताः । हारोऽर्पितः । दिव्यः प्रासादः कार्यतामिति । 30 तथाऽऽचरितं तैः। अद्यापि दृश्यते स तत्र । राणकैर्ऋतमात्तम् । नन्द्यामेव षड्विकृतिनियमः, एका- न्तरोपवासा यावज्जीवम् । तस्य राणयशोभद्रस्य गीतार्थत्वात्सरिपदं जातम । श्रीयशोभद्रसारिः __.. 1 E 'सर्व' नास्ति । 2 A विज्ञप्तिमात्रेणान्न । - 3 P गिरिमसरन्। B गिरिमरन्। 4 A. हरितः। 5 A श्रुत्वा । 6 P श्रद्धा बभूव। 7 P नास्ति । Page 68**************************************************************************************** हेमसूरिप्रवन्ध । इति नाम । तदीयपट्टे प्रद्युम्नसूरिन्थकारः । तत्पदे श्रीगुणसेनसूरिः । श्रीयशोभद्रसूरिपादास्त्र- योदशोपवासा रैवते नेमिनाथदृष्टौ कृतानशनाः स्वर्लोकमैयरुः । गुणसेनसूरिपट्टे श्रीदेवचन्द्रसू- रयः 'ठाणावृत्ति-शान्तिनाथचरितादिमहाशास्त्रकरणनियूंढमज्ञामागभाराः। ते विहरन्तो धन्धु- कपुरं गूर्जरधरा-सुराष्ट्रासन्धिस्थं गताः। तत्र देशनाविस्तरः। ६५६) एकदा नेमिनागनामा श्रावकः समुत्थाय श्रीदेवचन्द्रसूरीन् जगौ-भगवन् ! अयं 5 मोढज्ञातीयो मर्भगिनीपाहिणिक्रुक्षिभूः टकरचाचिगनन्दनश्चाङ्गदेवनामा भवतां देशनां श्रुत्वा प्रबुद्धो दीक्षां याचते । अस्मिश्च गर्भस्थे मम भगिन्या सहकारतरुः स्वमे दृष्टः । स च स्थानान्तरे उप्तस्तत्र महतीं फलस्फातिमायाति स्म । गुरव आहुः-स्थानान्तरगतस्यास्य 'बालस्य महिमा प्रैधिष्यते । महत्पात्रमसौ योग्य, सुलक्षणो दीक्षणीयः । केवलं पित्रोरनुजा ग्राह्या । गती मातुल भागिनेयो पाहिणि चाचिगान्तिकम् । उक्ता व्रतवासना । कृतस्ताभ्यां प्रतिषेधः करुण-10 वचनशतैः । चागदेवो दीक्षां ललौ । स श्रीहेमसुरिः प्रभुः । ६५७) तेन यथा श्रीसिद्धराजो रजितः, व्याकरणं कृतम्, वादिनो जिताः। यथा च कुमार- पालेन सह प्रतिपन्नम् । कुमारपालोऽपि यथा पञ्चाशद्वपदेशीयो राज्ये निषषणः। यथा श्रीहेम- सूरयो गुरुत्वेन प्रतिपन्नाः। तैरपि यथा देवबोधिः प्रतिपक्षः पराकृतः, राजा सम्यक्त्व ग्राहितः श्रावकः कृतः, निर्वीराधन च मुमोच सः। तत्प्रवन्धचिन्तामणितो ज्ञेयम् । किं चर्वितचर्वणेन?115 नवीनास्तु केचन प्रवन्धाः प्रकाश्यन्ते। ___६५८) कुमारपालेन अमारी प्रारब्धायां आश्विन शुदिपक्षः समागात् । देवताना कण्टे वरी- प्रमुखाणां अयोटिकैपो विज्ञप्सः-देव! सप्तम्या सप्तशतानि पशवः, सस महिपाः, अष्टम्या अष्ट महिषाः, अष्टौ शतानि पशवः, नवम्यां तु नवशतानि पशवः, नव महिपा, देवीभ्यो राज्ञा देया भवन्ति पूर्वपुरुपक्रमात् । राजा तदाकर्ण्य श्रीहेमान्तिकमगमत् । कथिता सा वार्ता । श्रीप्रभुमिः 20 कर्ण एवमेवमित्युक्तम् । राजोत्थितः। भाषितास्ते-देय दास्यामः । इत्युक्त्वा वहिकाक्रमेण रात्री देवीसदने क्षिप्ताः पशवः । तालकानि दृढीकृतानि । उपवेशितास्तेषु प्रभूता आप्तराजपुत्राः। प्रातरायातो नृपेन्द्रः । उद्घाटितानि देवीसदनद्वाराणि । मध्ये दृष्टाः पशवो रोमन्थायमाना निर्वातशय्यासुस्थाः । भूपालो जगाद-भो अयोटिकाः! एते पशवो मयाऽमूभ्यो दत्ताः । यदि अमृभ्यो रोचिप्यन्ते, ते तदाऽग्रसिष्यन्त, पर न ग्रस्ताः। तस्मानामूभ्योऽदः पल रुचितम् । भव-25 भ्य एव रुचितम् । तस्मात्तूष्णीमाध्वम् । नाह जीवान् घातयामि । स्थितास्ते विलक्षाः । मुक्ता- इटागाः । छागमूल्यसमेन तु धनेन देवेभ्यो नैवेद्यानि दापितानि । अथाश्विनशुलदशम्यां कृतो. पवासः मापो निशि चन्द्रशालाया ध्याने उपविष्टो जपति । बहिःस्थाः सन्ति । गता यही निशा । रुयेका दिव्या प्रत्यक्षाऽऽसीत् । उक्तस्तया स:-राजन् ! अह तव कुलदेवी कण्टेश्वरी। ऐपमः फिमिति त्वया नामद्देयं दत्तम् ? राजोक्तम्-जैनोऽह दयालः पिपीलिकामपि न इन्मि,80 का कथा पश्चेन्द्रियाणाम् ? । तच्छ्रुत्वा कण्टेश्वरी कुद्धा राजेन्द्र त्रिशूलेन शिरसि रत्वा जग्मुपी। राला कुष्टी जातः। दृष्टं स्व चपुर्विनष्टम् । विपण्णः । भृत्येन मन्त्रिणमुदयनमाकार्य तत्स्वरूप निगद्य पप्रच्छ-मनिन् ! देवी पशून् याचति । दीयन्ते न या । मन्त्री दाक्षिण्यादाह-देव ! राजा 1B पहे। 2 PD टाणाग। 32 नाम्नि। 4 P नास्ति । Page 69**************************************************************************************** ४८ प्रवन्धकोशे यत्नेन रक्ष्य एव । भूपो न्यगादीत्-निःसत्त्वो वणिगसि, यदेवं ब्रूपे । मम किं कार्य जीवितेन ? । कृतं राज्यम् । लब्धो धर्मः । हताः शत्रवः । केवलं काष्टानि देहि रहः, येन प्रातर्मामीदृशं दृष्ट्वा लोको धर्मे नोड्डाहं करोति । उदयनेन चिन्तितम्-अहो! महत्कृच्छ्रमापतितम् । पारवश्यमृलं नियोगं धिक् । मन्त्रिणोक्तं सद्यो बुद्धिवशात्-श्रीहेमसूरयो विज्ञप्यन्ते । राज्ञोक्तम्-तथाऽस्तु । 5गतो मन्त्री उपसूरि । सूरिभिर्जलमभिमन्यार्पितम्-अनेन राजाऽऽच्छोट्य इति । सचिवेन तथा चक्रे राज्ञः। राजा दोगुन्दुकदेव इव दिव्यरूपः सम्पन्नो भक्तश्च समधिकम् । श्रीगुरुं वन्दितुं ययौ । गुरुर्देशनां दत्ते- १४०. शूराः सन्ति सहस्रशः प्रतिपदं विद्याविदोऽनेकशः, सन्ति श्रीपतयो निरस्तधनदास्तेऽपि क्षिती भूरिशः । किन्त्वाकर्ण्य निरीक्ष्य वाऽन्यमनुजं दुःखार्दितं यन्मन,-स्तद्रूपं प्रतिपद्यते जगति ते सत्पूरुपाः पञ्चपाः ॥१॥ ___ 10 राजा खावासं गतः । राज्यं समृद्धं भुनक्ति । ६५९) एकदा प्रभुभिर्भरतस्य चक्रिणः साधर्मिकवात्सल्यकथाऽकथि । तां श्रुत्वा भृपः साधर्मिकवात्सल्यं दिव्यभोजनवसनकनकदानैः प्रतिगामं प्रतिपुरं प्रारेभे। तद् दृष्ट्वा कवि- श्रीपालपुत्रः सिद्धपालः सूक्तमपाठीत्- १४१. क्षिप्त्वा वारिनिधिस्तले मणिगणं रत्नोत्करं रोहणो, रेण्वावृत्य सुवर्णमात्मनि दृढं वद्ध्वा सुवर्णाचलः । 15 मामध्ये च धनं निधाय धनदो विभ्यत्परेभ्यः स्थितः, किं स्यात्तैः कृपणैः समोऽयमखिलार्थिभ्यः स्वमर्थं ददत् ॥२॥ द्रम्मलक्षदत्तिरत्र । पुनः कदाचित्पठितम्- १४२. श्रीवीरे परमेश्वरेऽपि भगवत्याख्याति धर्म स्वयं, प्रज्ञावत्यभयेऽपि मत्रिणि न यां कर्तुं क्षमः श्रेणिकः । अक्लेशेन कुमारपालनृपतिस्तां जीवरक्षा व्यधात् , यस्यास्वाद्य वचःसुधां स परमः श्रीहेमचन्द्रो गुरुः ॥३॥ अनापि लक्षदत्तिः। 20६६०) अन्येचुः कथाप्रसङ्गे प्रभवः प्राहुः स्म-पूर्व श्रीभरतो राजा श्रीमालपुरे नगरे शत्रुञ्जये सोपारकेऽष्टापदे च जीवन्तस्वामीश्रीऋषभप्रतिमावन्दनार्थ चतुरङ्गचमूचक्रोच्छलितरजापुञ्जध्याम- लितदिक्चक्रवालः संघपतिर्भूत्वा ववन्दे । तदाकर्ण्य श्रीचौलुक्यः स्वयं कारितरथेऽहंद्विम्बमारोप्य ससैन्यः शत्रुञ्जयोजयन्तादियात्रायै चचाल। संघे उदयनसुतो वाग्भटश्चतुर्विशतिमहाप्रासादका- रापकः, नृपनागाख्यश्रेष्ठिभूः श्रीमान् आभडः, षड्भापाकविचक्रवर्ती श्रीपालः, तद्भः सिद्धपालः, 25 कवीनां दातॄणांचधुर्यो भाण्डागारिक कपर्दी, परमारवंश्यः कूर्चालसरस्वती प्रह्लादनपुरनिवेशको राणः प्रह्लादना, राजेन्द्रदौहित्रः प्रतापमल्लः, नवतिलक्षहेमस्वामी श्रेष्टिछाडाकः, राज्ञी भोपलदेवी, चौलुक्यपुत्री लीलूः, राणअम्बडमाता माजा, आभडपुत्री चाम्पलदें -इत्यादि कोटीश्वरो लोक, श्रीहेमचन्द्रसूरिपादाः, श्रीदेवसूरयः, श्रीधर्मसूरयः, लक्षसंख्या मानवाः। स्थाने स्थाने प्रभावना। जिने जिने छत्रचामरादिदानम् । पात्राणां इच्छासिद्धिः। प्रथमं रैवताद्रितले सांकलीयालीपद्या- 30 दिशि गत्वा स्थितः क्षितिपतिः। नान्दीनिर्घोषः । रात्रौ भारत्या श्रीहेमसूरिभ्य आदिष्टम्-राज्ञा 'नाद्रावारोढव्यं विघ्नसम्भवात् । अत्रैव देवो मदनसूदनो नेमिर्वन्द्यः। तथैव कृतम्। संघस्तु रैव- तकगिरौ श्रीनेमिलानविलेपनपुष्पफलवस्त्रपूजानैवेद्यनादमालादिग्रहणैर्भावमपूरि । राजाप्यक्षवा- 1 A नगरे पुरे, P नगरपुरे। 2 B राणा०। 3 A चाम्पल। 4 B नैवादा० । Page 70**************************************************************************************** हेमसूरिप्रवन्धः। ४९ टकवस्त्रापथराजिमत्यादिगुहामायस्थानयात्रया महादानश्च धन-जीवितव्ययो भमग्रहीत् । देव- पत्तने चन्द्रप्रभयात्रा ससङ्घस्यासीत् । ततो व्याघुट्य शत्रुञ्जयाद्रिं गतः। आरूढः। मरुदेवादशे- न-पूजे । तत्राशी:- १४३ वालो मे वृपभो भर सुमनसामप्येष किं सासहि-मन्द धेहि किरीटमस्य करयोर्मा काङ्गणी भूयथा । ___ गाङ्गेय कटिसूनमन तनुक युक्त बलिष्ठेऽप्यमूर्नाथे मातृदयागिरः सुरजने हास्यावहाः पान्तु वः ॥४॥ पुरः कपर्दी तत्र कायोत्सर्गः । आशीस्तु- १४४ रूढि किलैव वृपमः कपर्दिन निषेवतेऽस्मिन्विमलाचले पुनः । अय कपर्दी वृषम शुभाशयस्तनोतु वः शान्तिकपौष्टिकश्रियम् ॥५॥ पुरो वृषभप्रभुप्रासादः । देवदर्शनं पूजा । आशीर्वाद:- १४५ नव्योद्वाहविधौ वधूययुत पुत्र सवित्रीरति-प्रीत्यासन्नमिव स्मर' किल ददौ य वीक्ष्य सत्याशिपम् । 10 कल्पगुर्भुवि जगम किमधुना पनद्वयनोद्गत-स्तत्त्व स्या. शतशाख इत्यनुदिन स श्रेयसे नाभिमूः ॥ ६ ॥ चैत्यपरिपाट्यां कपर्याह- १४६ श्रीचौलुक्य ' स दक्षिणस्तव कर पूर्व समानित , प्राणिप्राणविघातपातकसख.' शुद्धो जिनेन्द्रार्चनात् । वामोऽप्येप तथैव पातकसख. शुद्धि कथ प्राप्नुयात् , न स्पृश्येत करण चेद्यतिपते. श्रीहेमचन्द्रप्रभो ॥ ७ ॥ ६६१) मेरुमहाध्वजावारितान्नदानयाचकसत्काराः प्रवर्तन्ते।मालोधनमस्तावे तादृशि सङ्के 15 राजि च निपण्णे महं वाग्भटः प्रथमं लक्षचतुप्फमवदत् । प्रच्छन्नधार्मिकः कश्चित्कथापयति- लक्षाप्टी। एवमन्यान्येष्वीश्वरेषु वयत्सु कश्चित्सपादकोटीं चकार। राजाऽपि चमच्चकार, उवाच च-उत्थाप्यतां स यो गृह्णाति । उत्थितः सः। यावद् दृश्यते तावद्वादरमलिनवसनो वणिगरूपः। राजा वागभटो भापितः-द्रम्मसुस्थं कृत्वा देहि । वाग्भटो वणिजा सहोत्थाय पादुकान्तिकं गत्वा द्रम्मसुस्थं पप्रच्छ । तं वणिजा सपादकोटिमूल्यं माणिक्यं दर्शितम् । मन्त्रिणा पृष्टम्-20 कुत इदं ते? । वणिगाह-महअकवास्तव्यो मत्पिता हंसाख्यः सौराष्ट्रिका प्राग्वाटः । अहं त - जंगडः। माता मे घारू। मम पित्रा निधनसमयेऽहं भापितः वत्स! चिर कृता:प्रवणयात्रा, फलिताश्च । मेलितं धनम् । तेन च क्रीत प्रत्येक सपादकोटिमूल्यं माणिक्यपञ्चकम् । अधुना प्रमु- वृषभचरणौ शरणं मे । अनशनं प्रतिपन्नम्। 'क्षामिताः सर्वे जीवाः । एक माणिक्यं श्रीकप- भाय, एकं श्रीनेमिनाथाय, एकं श्रीचन्द्रप्रभाय दद्याः। माणिक्यद्वयमात्मनोऽन्तर्घनं दध्याः, 25 थायधनमपि प्रचुरतरमास्ते । इदानी माता मया सहानीता कपर्दिभवने मुक्ताऽस्ति । तां जरती मातरं सर्वतीर्थाधिकतया 'पुराणपुरुपैर्निवेदितामेतां मालां परिघापयिष्यामि । श्रुत्वा हृष्टो मन्त्री राजा सङ्घश्च । मातृसम्मुखगमनं सर्वश्रावकाणाम् ; मालापरिधापनम् । तन्माणिक्यं हेना ग्वचित्वा श्रीऋषभाय कण्टाभरणमनकिरणभरितचैत्यगर्भमासूत्रयामहे । 'चलितः सङ्घः । प्राप्तः पत्तनम् । प्रवर्तन्ते सङ्घभोज्यानि प्रतिलाभनाश्च । अमारिस्तु नित्यैव । 80 1 Dमर'! 2E मुन्न । 3 ADE 'यो' मालि। 4 A. कृत। 5 AB क्षमिता । 6 A पुराणे। 7 P अनुष्ण । 8B बालित । • प्र. को. Page 71**************************************************************************************** ' '५० डा ' प्रबन्धकोशे, ६६२) तस्य च कुमारपालदेवस्य भग्नी शाकम्भरीश्वरेण चाहमानवंश्येन राज्ञा आनाकेन परि- णीताऽस्ति । एकदा तो सारिभिः क्रीडतः। क्रीडता राज्ञा'सारिं गृहे मुञ्चतोक्तम्-मारय मुण्डि- कान्, पुनमारय मुण्डिकान्। एवं द्विस्त्रिः। टोपिकारहितशीपंकत्वान्मुण्डिका गुर्जरलोका विवक्षिताः; अथवा श्वेताम्बरा गूजरेन्द्रगुरवो मुण्डिका इति हासगभोक्तिः। राजी कुपिता वदति-रे जन- 5 डक! जिह्वामालोच्य नोच्यते ?, किं बक्षि?। न पश्यसि माम् ? । न जानासि मम भ्रातरं राज- राक्षसम्?। क्रुद्धो राजा तां पदा जघान । साप्याह-यदि ते जिहां अवटुपथेन नाकर्षयामि तदा राजपुत्री मां मा मंस्थाः। इति वदन्येव सा ससैन्या निर्विलम्ब श्रीपत्तनमेत्य चौलुक्याय तं परिभवं प्रतिज्ञांच खोपज्ञामजिज्ञपत् । चौलुक्योऽभापत-इत्यमेव करिष्यामः । कौतुकं पश्यः । ततश्चानाकस्तस्यां तत्र गतायां गूर्जरनृपतेजो दुर्द्धरं विदंरक्षोभ । चालुक्योऽपि यताप्तपरिच्छदं 10 मन्त्रिणमेकं तत्रत्यवृत्तान्तज्ञानाय पीत् । गतः स तत्र । जग्राह गृहम् । राजासन्नदासीमेकां धनेन रञ्जयित्वा आत्मीयं भोगपात्रमकरोत् । नित्यं सा याममात्र्यां रान्यामायाति रचयति तम्। एकदा निशीथे साऽऽगात्। मन्त्री कुपिन:-आः पाप! परापरगामिनि ! किमिति विलम्वेन समागतासि ?। सापि सप्रश्रयं मत्रिणमभापत-स्वामिन् ! मा कुपः । कारणेन स्थिताऽस्मि । 'मन्त्रिणोचे-किं कारणम् ? । सा जगाद-प्रभो! 'अहं अन्नस्य राज्ञस्ताम्बूलदासी । रात्रेर्याम एक- 15 स्मिन् राज्ञा परिच्छदः सर्वो विस्तृष्टः। अहमपि विसृष्टा। विमुजता चाप्तनर एकोऽभापि-व्याघ्रराज हकारय । अहं स्तम्भान्तरिता कौतुकेन स्थिता । को व्याघ्रराजः ?, कथं 'चायते? इति । नतो राज्ञाऽऽकारितः स आगतः। कृतप्रणामः सन् राज्ञाऽऽलापि-भो! विजनमस्ति इति भाष्यसे । त्वमस्माकं कुलक्रमागतः सेवकः। सद्यो व्रज । गूर्जरेश्वरघातको भूत्वा व्यापादय तम् । लक्षत्रयं हेम्नां दास्ये । अथ स व्याघ्रराजाख्यो वभापे-देव ! हनिष्याम्येव तं राजानम् । मा स्म संशयं 20 कृथाः स्वामिन् ! । ततस्तद्वचः श्रुत्वा तुष्टः शाकम्भरीश्वरः। सद्यो हेमलक्षत्रयवदरकांस्तद्गृहाया- चीचलत् । व्याघ्रराजं चापाक्षीत्-कदा केनोपायेन तं हनिष्यसि ? । व्याघ्रराजोऽवादीत्-नाथ ! अद्य रविवारो वर्तते । आगन्तुकामे सोमवारे कचनावसरं लब्ध्वा हनिप्यामि । उपायस्तु भर- टकरूपं करिष्यामि । राजा तु कर्णमेरुमासादे आयाति सोमवारे ध्रुवम् । देवं नत्वा व्यावर्त्तमा- नायास्मै बाह्याङ्गणे शेषादानमिषेण पुष्पकलम्बकमुत्पाटयिष्यामि । तत्र धृतया कर्तिकया कङ्क- 25 मय्या घातयिष्यामि। 'अङ्गीकृतसाहसानां न किञ्चिदपि दुष्करम् ।' अहं हतश्चेत्तत्र तदा मन्मा- नुषाणामुपरि कृपा करणीया । उद्धृतश्चेदहं तदा जितं जितम् । एवं व्याघ्रराजेन निगदिते आनाकेन वीटकं दत्तम् । विसृष्टोऽसौ । तत्सर्व सावधानतया" स्तम्भान्तरितया मया श्रुतम् । राज्ञि शुद्धान्ते गतेऽहं त्वदशिसेवार्थमायाता। तस्मान्मा मनो मयि क्रोधकश्मलितं कापीः । एत- दासीवचः श्रुत्वा चौलुक्यनियोगी चिन्तयति-लब्धं शत्रुगृहमर्म । यतिष्येऽतः कार्यकरणाय । 30 इति परामृशन् दासीमभाषत-याहि मृषाभापिणि!, कः स्त्रीवचसि विश्वासः ? । १४७. श्रूयते यन्न शास्त्रेषु यलोकेऽपि न दृश्यते । तत्कल्पयन्ति लोलाक्ष्यो जल्पन्ति स्थापयन्ति च ॥ ८॥ इत्यादि भाषित्वा तां व्यस्राक्षीत् । स्वयं तु चतुरांश्चतुरो यामलिकानुपचौलुक्यं प्रास्थाप- : - 1 P सारिगृहे । - 2 B पश्य। 3 BDP..परनृ०। 4 A.. मंत्र्योचे; D मंत्री ऊचे। 5 BC. 'अहं' नास्ति । 6 ABP - 'अन्नस्य' नास्त्रि। 7 P कथमा०। 8 DP 'तम्' नास्ति । एतदन्तर्गता पंक्तिर्नास्ति A आदर्श। 9 उद्धृतः। 10 A 'तदा' नास्ति। 11 AD सावधानया। Page 72**************************************************************************************** हेमसूरिप्रवन्धः। यत् । विज्ञप्त्या चाज्ञापयत्-सावधानः स्थेयम् । इत्थमित्थं स्वामिपादानामुपरि शत्रुकृतं कपट वर्तते । भरटकश्चिन्तनीयः। चौलुक्यः सावधानस्तस्थौ । सोमवारे गतो राजा कर्णमेरुम् । प्रक- टीभूतः पूर्वोक्तचेष्टया भरटकः । दृष्टमात्रमेव तं नृपो मल्लैरदीधरत् । कर्तिका च लब्धा । पद्धो व्याघ्रराजः, जल्पितश्व-रे वराक! जगडकेन प्रेपितोसि' । सेवकस्त्वम् । 'सेवकस्य च हिता- हितविचारो नास्ति।' खाम्यादेशवशंवदस्त्वं मा भैः। मुक्तोऽसि । तमेव हनिष्यामि य एवं द्रोह- 5 माचरति दुर्दुरूढः । इत्युक्त्वा परिवाप्य व्यसृजत् । स्वयं तु सौधं गत्वा सामग्री यौद्धीं व्यररचत् । पाणिरक्षां विधिवद्विधाय चलितः। सपादलक्षान् प्रविष्टः। भट्टेन आनाकनरेन्द्रमा लीलपत् । यथा- १४८ अये मेक | च्छेको भव भवतु ते कूपकुहर, शरण्य दुर्मत्त किमु रटसि वाचाट ! कटुकम् १ । पुरः सर्पो दी पिमविपफूत्कारवदनो, ललजिह्वो धावत्यहह भवतो जिग्रसिपया ॥९॥ 10 आनाकोऽपि तदुद्दामशौण्डीर्यरिपुदूतवचः श्रुत्वा लक्षत्रयाश्वेन' नरलक्षदशकेन पञ्चाशता च मदान्धैर्गन्धगजैरचलत् । शाकम्भरीतः पञ्चक्रोश्यार्वागागतः । दिनत्रयेण युद्धं भविष्यतीति निर्णीतमुभाभ्यां राजेन्द्राभ्याम् । अन्योऽन्यमक्षान् दीव्यन्ति राजपुत्राः । योधयन्ति मल्लयोध- च्छुरीकार-मेष-वृपभ-महिप-गजान् । स्फोटयन्ति नालिकेराणि । तावन्तमवकाशं लब्ध्वा सपाद- लक्षक्ष्मापालेन निशि द्रव्यवलेन नडुलीयकेल्हणादयो राजकीयाश्चौलुक्यभक्ता भेदिताः स्वपक्षे 15 कृताः । सर्वेपामेको मन्त्रः-युद्धाय सन्नद्धव्यमेव न तु योद्धव्यम् । राजा चौलुक्य एकाकी मोच- नीयः। शत्रुभिहन्यताम् । 'अर्थो हि परावर्त्तयति त्रिभुवनम् ।' १४९ दधाति लोम एवैको रङ्गाचार्येषु धुर्यताम् । आरकशक यन्नाट्यपानाणि भुवनत्रयी ॥ १० ॥ एवं' च तेपां मन्त्रं चौलुक्योऽद्यापि न वेत्ति । अतः प्राता राजा कुमारपालः कलहपञ्चाननं पहस्तिनं महामात्रश्यामलपार्धात्पुरः प्रेरयामास । तटस्थांस्तु चेष्टितैर्दुष्टानिरणैपीत् । नृपेण 20 गदितः श्यामला-श्यामल' ! किमर्थममी उदासीना इव दृश्यन्ते ? । श्यामलेन विजप्तम्-देव! अरिकृतार्थदानादमी त्वयि द्रोहपराः सम्पन्नाः । राजाऽऽह-तर्हि तव का चेष्टा । श्यामलोड- प्याललाप-देव! एको देवः १, अपरोऽहम् २, अन्यस्तु कलहपश्चाननो हस्ती ३, एते त्रयः कदापि न परावर्यन्ते । नृपो वदति-तर्हि सम्मुखीने दृश्यमाने शत्रुनृपमुद्रघट्टे गज मेरय । १५० साहसजुत्तइ हलु वहइ दैवह तणइ कपालि । सूटा विणु खींखइ नही खेडि म खूटा टालि* ॥११॥ 25 तदैव चारण एको न्यगादीत्- १५१ कुमारपाल। मन चिंत करि चिंतिइ किंपि न होइ । जिणि तुहु" रज्जु सम्मप्पिउ" चिंत करेसइ सोइ ॥१२॥ तत्तदीय वचः श्रुत्वा सुशन्दं मन्यमानः पुरःस्थे महाघऽविशत् । नरसहस्रेण सह भन्नन् मन् गतो" गजारूढः कुमारपाल आनाकगजान्तिके। आस्फालितो गजो गजेन । लग्नः करः करेण । आस्फालितो दन्तौ दन्ताभ्याम् । एकदेहत्वमिव द्वयोरिभयोरभूत् । प्रवृत्तं युद्धं नाराचैः। 30 1 BP मारयति । 2P सोधे। 3 A पूकारि०, P पूकार। 4 AD प्रयायो। 5A मोशावांगागत , D वागत । GA याय। 7 P पन, D छत। 8 P 'पुर' नास्ति। 9 P नास्ति। * P पुनके एतस्पयमीश श्यते । खेटि म सूटय टालि सूटा विण सींवह नही। देवह घणा कपाडि साहसतह पल पल 10 Dदिति। 11 BDTह रत। 12 D समप्पियउ। 13A 'गो' नास्ति । Page 73**************************************************************************************** ५२ प्रयन्धकोशे द्रावपि वलिष्ठौ महोत्साही राजेभो । तथापि कलहपञ्चाननश्चीत्कारान्मुञ्चन् पुनः पुनः पश्चान्नि- वर्त्तते । तदा चौलुक्येन श्यामल ऊचे-श्यामलं ! कथमयं निवर्तते? । श्यामलो गदति स्म- स्वामिन् ! श्रीजयसिंहदेवे विपन्ने ३० दिनानि पादुकाभ्यां राज्यं कृतम् । मालवीयराजपुत्रेण चाह- डकुमारेण राज्यं प्रधानपार्श्वे याचितम् । प्रधानस्तु परवंध्यत्वान्न दत्तम् । नतो रुष्ट्वा चाहड 5 आनाकसेवकः सञ्जातः । स भगदत्तनृपवन्महामात्रधुर्यः, अतुलबलः । तस्य सिंहनादेन कलह- पञ्चाननः क्षुभ्यन् पश्चान्निवर्तते । किमत्र क्रियते, न विद्मः। चौलुक्यस्तदाकर्ण्य द्विपटी विदार्य "फालिकद्धयेन द्वौ गजकर्णी पूरयामास । ततश्चाहडसिंहनामशृण्वन् कलहपञ्चाननः स्थिरतरः स्थितो गिरिवत् । वर्तते पत्रिंशदायुधैर्युद्धम् । चमत्कृते द्वे अपि सैन्ये । उदासीनतया प्रथम स्थिताश्चौलुक्यायाश्चकम्पिरे भयेन । अहो! एकाझमात्रस्यापि कुमारदेवस्यासमसमरसम्पल्ल- 10म्पटत्वम् । सैन्ययोयुद्धमपि निवृत्तम् । तावेव युध्येते । अत्रान्तरे चौलुक्यो विद्युदुत्क्षिप्तकरणं दत्त्वा आनाकगजपतिस्कन्धमारूढः । क्षिप्तौ भुजी राजोपरि । कसणकानि च्छुरिकया छित्त्वा आनाकं सढंचकं च भूमौ पातयित्वा योक्त्रवन्धं क्षिस्वा हृदि पादं दत्त्वा छुरी कराग्रे ग्रहीत्वा अवादीत्-रे वाचाट! मूढ ! निर्धर्मन् ! पिशाच! स्मरसि मद्भगिन्यग्रे 'मारय मुण्डिकान्' इति वदिष्यसि ?। पूरयामि निजभगिनीप्रतिज्ञाम् । छिनद्मि ते दुर्वाक्पङ्कदूषितां जिहाम् । इत्येवं 15 वदति कृतान्तदुष्प्रेक्ष्ये चौलुक्ये सपादलक्षीयः किञ्चिन्नाचख्यत्'; केवलं तरलतारकाभ्यां चक्षु- भ्या॑मद्राक्षीत् । चौलक्योऽप्युत्पन्नलोकोत्तरकरुणापरिणामः प्राभाणीत्-रे जाल्म ! मुक्तोऽसि न भगिनीपतित्वेन, किन्तु कृपापात्रत्वेन । पूर्व तव देशे टोपीवन्धे"ऽग्रभागे जिहिके आसाताम् । कसाया जिह्वेति सञ्ज्ञा । अतः परं जिह्वावन्धः पश्चात्करणीयः । अवटोर्जिह्वाकर्षणप्रतिज्ञासिद्धि- सूचकत्वात् । एवं श्रुते तथेति प्रतिपेदे आनाकः । वलवद्भिः सह का विरोधिता' इति न्यायात् । 20 काष्ठपञ्जरे क्षिप्तः । त्रिरात्रं स्वसैन्ये स्थापितः। जयातोद्यानि घोषितानि । पश्चात् शाकम्भरी- तिर्विहितः । उत्खातप्रतिरोपितव्रताचार्यों हि तिहुअणपालदेवनन्दनः । गम्भीरतया स्वभटा नोपालब्धाः । त्यक्तजीवाशास्ते तं सेवन्ते । मेडंतकं सप्तवारं भग्नम् । पल्लीकोहस्थाने आर्द्रकमु- सम् । ततः पठितं चारणेन- १५२. कुमरपाल रणहट्टि वलिउ कु करिसइ ववहरणु" । इक्कह पल्लीमट्टि वीसलक्खउ" झगडउ कियउ ॥ १३॥ 25 इति चिरं तस्थौ स तत्र। श्रीहेमचन्द्रसूरयः सहैव सन्ति । पृष्टास्ते तेन-भगवन् ! मालवीया __ राजानो गूजरानागताः प्रासादान् पातयन्ति आत्मख्यातये। तदस्माकमकृत्यम् । केनोपायेनात्म- ___ ख्यातिं कुर्मः । श्रीहेमसूरिपादैः प्रत्यपादि-राजेन्द्र! पाषाणमयानि तिलपेषणयत्राणि भञ्जय पुण्य-कीर्तिलाभात् । भलितास्ते तेन घाणकाः। अद्यापि भग्नाः पतिताः स्थाने स्थाने दृश्यन्ते । ततो ववले परराष्ट्रमर्दनचौलुक्यः । आयातः पत्तनम् । भगिनीं भर्तृकुले प्रगन्तुमतत्वरत् । 30 न तु सा गता अभिमानात् । तपस्तु तेपे । राजा स्तम्भनपुरे यात्रां सूत्रयामास । तत्पुरं पार्श्वदे- 1A निववृते। 2 P नास्ति पदमिदम् । 3 A.P वंशत्वात् । 4 A निववृते। 5 B फालक०। 6P "स्थितो' नास्त्रि। 7 P प्रथमः। 8 P सदं चक्र। 9 P नाचख्यौ। 10 AB नास्ति केवलं'। 11 AB ०बन्धो। 12 AD शाकंभरीशो। 13 रोपिताचार्यों। 14 P मेडतं। एदतन्तर्गतः पाठो नास्ति P पुस्खके। 15 A °हरणु ण। 16 D पट्टि । 17 A वीसलक्ख; B वीसकल। 18 एतद्वाक्यस्थाने P पुस्तके 'गुरुभिरकम् ईशं वाक्यम् । 19 A नाति 'ततो'। Page 74**************************************************************************************** हेमसूरिप्रवन्धः। वाय ददौ । पुनः पत्तनमैत् । गृहीतसपादलक्षाधिपतिलञ्चाद्रव्यान् कुसेवकान् निगृह्य निश्चिन्ती- भूतः श्रीकुमारपालः श्रीहेमसूरिपादान् पर्युपास्ते । सामायिकपौपधादीन्याचरति ।। ६६३) एकदा पृष्टं राजा-भगवन् ! इदमपि ज्ञायते यदह पूर्वभवे कीदृशोऽभूवम् ? । गुरुराह- राजन्! निरतिशयः कालोऽयम् । यतः श्रीवीरमोक्षगमनाद्वर्षाणां चतुःपष्ट्या चरमकेवली जम्बु- स्वामी सिद्धिं गतः। तेन सम मनःपर्यवज्ञानम् , परमावधिः, पुलाकलब्धिः, आहारकशरीरम् ,क्षप- कणिः, उपशमश्रेणिा, जिनकल्पः, परिहारविशुद्धि-सूक्ष्मसम्पराय-यथाख्यातानि' चारित्राणि, केवलज्ञानम् , सिद्धिगमनं च इति द्वादशस्थानानि भरतक्षेत्रे व्युच्छिन्नानि । सप्तत्यधिके वर्प- शते गते स्थूलभद्रे स्वर्गस्थे चरमाणि चत्वारि पूर्वाणि समचतुरस्रसंस्थानं वज्रम्पभनाराचसंह- ननं महाप्राणध्यानं व्युच्छिन्नम् । आर्यवनस्वामिनि दशमं पूर्वम् , आद्यसंहननचतुप्फ च व्यपग- तम् । ततः परं शनैः शनैः सर्वाणि पूर्वाणि प्रलय गतानि । [सम्पति*] अल्पश्रुतं वर्तते। तथापि देवतादेशाकिमपि ज्ञायते । राज्ञा विज्ञसम्-यथा तथा पूर्वभवं ज्ञापयत माम् । गुरुभिः प्रतिपन्नम् । ततः सिद्धपुरे निजैराप्ततपोधनैः सह सरखतीतीर गत्वा विजने ध्याने निपण्णाः । डौ मुनी दिग्रक्षायां मुक्तौ । दिनत्रयान्ते विद्यादेव्य आजग्मुः। प्रभूणामग्रे ताभिरुक्तम्-यङ्ग- वतां सत्त्वेन तुष्टाः सः । याच्यतां किञ्चित् । सूरिभिरमाणि-कुमारपालस्य प्राग्भवं वद्त । ता ऊचुः-मेदपाटपरिसरे पर्वतश्रेण्यां परमारः पल्लीशो जयताको राज्यमकरोत् । अन्यायी एकदा धनकनकसमृद्धा चलीवईश्रेणी तेन गृहीता । पलीवाधिपतिनष्टः । जयताकेन सर्व लुण्टि- तम् । पलीवाधिपतिस्तु मालपदेशं गत्वा राज्ञा सह मिलित्वा सेनां गृहीत्वा तस्यां पल्लयां वेष्टमकृत । कीटमारिः कृता । जयताको नष्टः। तस्य भार्या चटिता । तस्या उदरं विदार्य पुत्रं गर्भमुपले आस्फाल्य विणिज्यारकोऽवधीत् । पल्लीग्रामादि प्रज्वाल्य पुनर्मालवदेश गतः। राज्ञा हृष्टेन पृष्टम्'-कथं कथं विग्रहः कृतः । वणिज्यारकेणोक्तम्-स्वामिन् ! तत्पुरं प्रज्वालितम्,-- जयताको नष्टः, तत्पनी चटिता सगर्भा हता। राज्ञोक्तम्-त्वया न सुटु कृतम् । हत्यादयं गृही. तम् । अद्रष्टव्यमुखस्त्वम् । ममान्तिक त्यज । निष्कासितः । लोकनिन्दोच्छलिता । तपोवनं गत्वा तपखिदीक्षा जगृहे । गाढं तपस्तस्या मृत्वा स वणिज्यारको जयसिंहदेवो जातः । जय- ताकस्तु स्थानभ्रशं दृष्ट्वा देशान्तरं गतः । अटवीं गच्छतस्तस्य संडेरगच्छखामिनः श्रीयशो- भद्रसूरयो मिलिताः । सूरिभिरभिहितम्-यद् भवतोऽधुना सर्व गतम्, किमर्थमन्यायं करोपि। जयताकेनोक्तम्-'वुमुक्षितः किं न करोति पापम् । ततः सर्वमकृत्यं करोमि । सूरिभिरुक्तम्- अधुना शम्यलादि भोजनादि कारयिष्यते । अनयं मा कृथाः । भोजनवस्त्रादिकं कस्यापि पार्धा- हापितम् । साथै हि तदादेशकारिणो यह्वः । चौर्यनियमं यावजीवं ग्राहितः । स तिलने' उर- गलपुरे ओढरवणिज्यारकगृहे भोजनादिवृत्त्या भृत्योऽस्यात् । तत्र विहारे यशोभद्रसूरयः प्राप्ताः। चतुप्पथे मिलिता जयताकस्य । श्रावकैरुपायो दत्तः। जयताफेन तत्र गत्वा हृदयशुद्ध्या पुनश्चौर्यनियमो 'गृहीतः, अन्येऽपि यो नियमा” गृहीताः । उत्तुरे ओढरगृहं गतः । ओढरेण पृष्टम्-तव क वेला लग्नात्वां विना कार्याणि सीदन्ति । तेनोक्तम्-मम गुरवः समागताः सन्ति। 1P .पाराचा.1 2A म्यगत। *P पुस्तक ण्व एप पदोस्पते। 3A लुण्टिठ। एतदन्तर्गत पाठ पतिता 2 उसके। 4 Pष्ट । 5Dबरादिक DIबलमोजः। 6A पसादि। 7 AD तिरिंगेपु। 8P विहन् । 9A प्राहिया10A गृहीता नियमा। Page 75**************************************************************************************** . प्रवन्धकोशे तत्क्रमकमलवन्दनानन्दमन्वभूवम् । नियमानग्रहीपम् । ओढरेणापि समुत्पन्नश्रद्धेन व्याक़तम- वयमपि गुरून् वन्दिष्यामहे । जयताकेनोक्तम्-पुण्यात्पुण्यमिदम् । ओढरस्तत्र गतः। गुरुन् वन्दित्वा न्यषदत् । देशना श्रुता। तत्त्वज्ञानमुन्मीलितम् । श्रावकत्वं गृहीतम् । पश्चाद्-गुरु- दक्षिणा गृह्यताम्-इति ओढरेणोक्ते सूरिभिरुक्तम्-वयं निर्ममा निष्परिग्रहाः । धनादि न 5 गृह्णीमः । अथ तवात्याग्रह एव तर्हि श्रीमहावीरप्रासादकारापणं दक्षिणाऽस्तु । कारितः प्रासादः। ओढरस्य जयताकेन सह सोदरत्वमिवासीत् । एकदा पर्युपणे ओढरः सपरिवारश्चलितो जय- ताकेन समं देवगृहं प्रति । पुष्पाणि गृहीत्वा ओढरेण देवस्य पूजा कृता । जयताको जजल्पे- इमानि मे पुष्पाणि गृहीत्वा पूजां कुरु । जयताको जगाद-पुष्पाणि भवदीयानि; एभिः पूजायां कृतायां किं मे फलम् ?। वेष्टिरेव केवला । केवलं ममापि पञ्च वराटकाः सन्ति । नत्पुष्पैः पूजयि- __10 ष्यामि जिनेन्द्रम् । तथैव पूजितः । जयताकः पुण्यमगण्यमुपार्जयत् । तत ओढर-जयताको गुरून् वन्दितुं जग्मतुः। उपवासः कृतो जयताकेन । द्वितीयदिने मुनिभ्यो दत्त्वा पारणं कृतम् । एवं पुण्याढ्यः सन् मृत्वा श्रीमूलराजवंशे तिहुअणपालदेवगृहे श्रीकुमारपालोऽभूत् । एवमुक्त्वा विरतासु देवीषु प्रभुभिः प्रोक्तम्-कोऽत्र प्रत्ययः । पुनर्देव्यः प्राहुः-उपराजं वदेः-नवलक्षति- लङ्गशृङ्गारे नगरे उरङ्गले मानवान् प्रेपय । अद्यापि ओढरस्य वंशीयाः सन्ति । तेषां दासी स्थिर- 15 देवी जीर्णवृत्तान्तान् जानाति वक्ष्यति च । 'इदं श्रुत्वा विसृज्य गच्छन्तीभिर्देवीभिस्तत्रत्ये ओढरगृहे लप्स्यमानानि निधानानि कथितानि । विज्ञाय पत्तने राजान्तिकं गताः प्रभवः । पृष्टं तत्र राज्ञा । तथैव राज्ञोऽने न्यगादि । नरपणात्सर्व ज्ञातम् । जिनधर्म स्थैर्य जातम् । सह सिद्धेशेनापि वैरकारणमुपलब्धम् । पूर्वभवे गर्भघातान्न न सिद्धराजस्य पुत्रः । इति कुमा- रपालपूर्वभवः। ॥ इति श्रीहेमसूरिप्रवन्धः ॥१०॥ 20 ११. अथ हर्षकविप्रबन्धः। ६४) पूर्वस्यां वाराणस्यां पुरि गोविन्दचन्द्रो नाम राजा । ७५० अन्तःपुरीयौवनरसपरिमल- ग्राही । तत्पुत्रो जयन्तचन्द्रः। तस्मै राज्यं दत्त्वा पिता योगं प्रपद्य परलोकमसाधयत् । जयन्त- चन्द्रः सप्सयोजनशतमानां पृथ्वीं जिगाय । मेघचन्द्रः कुमारस्तस्य, यः सिंहनादेन सिंहानपि 25 भङ्गुमलम् , किं पुनर्मदान्धगन्धेभघटाः ? । तस्य राज्ञश्चलतः सैन्यं गङ्गा-यमुने विना नाम्भसा 'तृप्यतीति नदीद्वययष्टिग्रहणात्पङ्गुलो राजेति लोके श्रूयते । यस्य गोमतीदासी षष्टिसहस्रेषु वाहेषु प्रक्षरां निवेश्याभिषेणयन्ती परचक्रं त्रासयति । राज्ञः श्रम एव का?। तस्य राज्ञो बहवो विद्वांसः। तत्रैको हीरनामा विप्रः । तस्य नन्दनः प्राज्ञचक्रवर्ती श्रीहर्षः। सोऽद्यापि बालावस्थः। सभायां राजकीयेनकेन पण्डितेन वादिना हीरो राजसमक्षं जित्वा मुद्रितवदनः कृतः। लज्जा- 30 पङ्के मग्नः । वैरं बभार धारालम् । मृत्युकाले हर्ष स वभाषे-वत्स! अमुकेन पण्डितेनाहमाहत्य .. 1 P विहाय सर्वत्र 'मिवास।' 2 D विशिष्टिरेव। 3 P शृङ्गारन० । । एतदन्तर्गतपाठस्थाने P पुस्तके 'इत्युक्त्वा देन्यो गताः स्वस्थानम् ।' एष पाठः। 4 P विना नास्त्यन्यत्र 'सह'। 5 P सन्तानम्। 6P पूर्वस्यां दिशि। 7P तृप्यति। : Page 76**************************************************************************************** हकविप्रवन्धः । राजदृष्टौ जितः । तन्मे दुःखम् । यदि सत्पुत्रोऽसि तदा तं जयेः क्षमापसदसि । श्रीहर्षेणोक्तम्- ओमिति । हीरो यां गतः । श्रीहर्पस्तु कुटुम्यभारमाप्तदायादेष्वारोप्य विदेशं गत्वा विविधा- चार्यपार्थेऽचिरात्तर्का-लङ्कार-गीत-गणित ज्योतिप चूडामणि-मन्त्र-व्याकरणादीः सर्वा विद्याः सस्फुराः प्रजग्राह । गगातीरे सुगुरुदत्तं चिन्तामणिमत्रं वर्षमप्रमत्तः साधयामांस । प्रत्यक्षा त्रिपुराऽभूत् । अमोघादेशत्वादिवराप्तिः । तदादि राजगोष्ठीपु भ्रमति । अलौकिकोल्लेखशिखरितं । जल्प करोति, यं कोऽपि न बुध्यते। ततोऽतिविद्ययाऽपि लोकागोचरभूतया खिन्नः पुनर्भारती प्रत्यक्षीकृत्याभणत्-मात:! अतिप्रज्ञाऽपि दोपाय मे जाता । वुध्यमानवचनं मां कुरु । ततो देव्योक्तम्-तर्हि मध्यरात्रेऽम्भाक्लिन्ने शिरसि दधि पिव । पश्चात्स्वपिहि । कफांशावताराज्जड- तालेशमामुहि । तथैव कृतम् । योध्यवागासीत् । खण्डनादिग्रन्यान् पर शताञ्जग्रन्थ । कृतकृत्यी- भूय कासीमायासीत्। नगरतटे स्थितः । जयन्तचन्द्रमजिज्ञपत्-अहमधीत्यागतोऽस्मि । राजाऽपि 10 गुणलेहलो हीरजेतृपण्डितेन सह सचातुर्वर्ण्यः पुरीपरिसरमसरत । श्रीहर्षों नमस्कृतः। तेनापि यथाईमुचितं लोकाय कृतम्, राजानं त्वेवं तुष्टाव- १५३ गोविन्दनन्दनतया च वपु श्रिया च, माऽस्मिन् नृपे कुरुत कामधिय तरुण्यः । अस्त्रीकरोति जगतां विजये स्मरः स्त्री, रस्त्रीजन पुनरनेन विधीयते स्त्री ॥१॥ व्याचस्यौ च तारस्वरं सरसविस्तरम् । तुष्टा सभा राजा च । पितृवैरिणं तु वादिनं दृष्ट्वा 15 सकटाक्षमाचक्षे- १५४ साहित्ये सुकुमारवस्तुनि दृढन्यायग्रहगन्थिले, तर्के वा मयि सविधातरि सम लीलायते भारती। शय्या वास्तु मृदूत्तरच्छदवती दर्माकरैरास्तृता, मिर्वा हृदयगमो यदि पतिस्तुल्या रतियोषिताम् ॥ २ ॥ एतच्छुत्वा स वादी प्रार-देव ! चादीन्द्र ! भारतीसिद्ध !, तव समोऽपि न, न वाधिका। १५५ हिंसा सन्ति सहस्रशोऽपि विपिने शौण्डीर्यवीर्योद्धता, स्तस्यैकस्य पुनः स्तवीमहि मह. सिंहस्य विश्वोत्तरम् । 20 केलि कोलकुलैर्मदो मदकले. कोलाहल नाहले., सहर्षो महिपैश्च यस्स मुमुचे साहहते कृतेः ॥३॥ हद श्रुत्वा श्रीरो निष्क्रोध इवासीत् । भूपेनोक्तम्-+ अत्र श्रीह इदमेव वक्तुमर्हम् । प्रतिवादिनां कोऽर्थः । सम्यगवसरमजासीः। श्रीहीरवैरिनित्यर्थः । अन्योऽन्यं गाढालिद्गनमची- करद् द्वयोरपि वसुन्धरासुधाशुः। विस्तरेण सौधमानीय मागलिकानि कारयित्वा गृहं प्रति प्रहितः । लक्षसस्यानि हेमानि ददिरे। निश्चिन्तीकृत्यैकदा मुढा नृपेणोक्तः कवीश! वादीन्द्र !25 किश्चित्प्रयन्धरलं कुरु । ततो नैपचं महाकाव्य पद दिव्यरसं महागूढव्ययभारसारम् । राजे' दर्शितम् । राज्ञोचे-सुष्ठुतममिदम् । 'पर काश्मीर व्रज । तत्रत्यपण्डितेभ्यो दर्शय । भारतीहस्ते च मुश्च । भारती च तत्र पीठे स्वय साक्षाद्वसति । असत्य प्रयन्धं रस्ते न्यस्तमवकरनिकरमिव दूरे क्षिपति । सत्य तु मूर्दघूननपूर्व मुटु इत्यूरीकरोति । उपरितः पुष्पाणि पतन्ति । श्रीहर्षी राजदत्तार्थनिष्पन्नविपुलसामग्रीकः काश्मीरानगमत् । सरखतीहस्ते पुस्तकं न्यास्थत् । सरस्वत्या 30 दूरे क्षिप्त तत् । श्रीहर्पण कथितम्-किं जरतीति विकलासि, यन्मदुक्तमपि प्रयन्यमितरमपन्ध. . -- IP माटे। 22 समो कोऽपि न किं पुनाधिक। परन्तर्गत: पाट पनिता P पुसके। 3 B यमुपांग। 4 B रा। 5Dar. Page 77**************************************************************************************** प्रवन्धकोशे मिव मन्यसे ?। भारत्याह-भोः परमर्मभापक ! न स्मरसि, यत्रोक्तं त्वया एकादशे सर्गे चतुःषष्टितमे काव्ये- १५६. देवी पवित्रितचतुर्भुजवामभागा वागालपत्पुनरिमां गरिमाभिरामाम् । ___एतस्य निष्कृपकृपाणसनाथपाणेः पाणिग्रहादनुगृहाण गणं गुणानाम् ॥ ४॥ 5 एवं मां विष्णुपत्नीत्वेन प्रकाश्य लोके रूढं कन्यात्वं लुप्तवानसि? । ततो मया पुस्तकं क्षिप्तम् । १५७. याचको वञ्चको व्याधिः पञ्चत्वं मर्मभाषकः । योगिनामप्यमी पञ्च प्रायणोद्वेगहेतवः ॥ ५॥ इति वाग्देवीवाचं श्रुत्वा श्रीहर्षों वदति-किमर्थमेकस्मिन्नवतारे नारायणं पतिं चक्रुपी। त्वं पुराणेष्वपि विष्णुपत्नीति पट्यसे । ततः सत्ये किमिति कुप्यसि ?। कुपितैः किं छुट्यते कल. कात्।। इति श्रुत्वा स्वयं गृहीत्वा पुस्तकं हस्ते धारितम् । ग्रन्थश्च श्लाघितः सभासमक्षम् । श्रीहर्षेण 10 पण्डिता उक्तास्तत्रत्याः-ग्रन्थमनत्याय राज्ञे माधवदेवनाम्ने दर्शयत । श्रीजयन्तचन्द्राय च शुद्धोऽयं ग्रन्थ इति लेखं प्रदत्त । इति श्रुतेऽपि ग्रन्थे भारत्यभिमते ज्ञातेऽपि ते न लेखं ददते, न भूपं दर्शयन्ति । स्थितः श्रीहों यहून् मासान् । जर, पाथेयम् । विक्रीतं वृपभादि । मिती- भूतः परिच्छदः । एकदा नद्यासन्नदेशे कूपतटासन्नतमे देवकुले रुद्रजपं रहः करोति । तत्रागते कयोश्चिद्गृहिणोरल्लण्ठे चेट्यौ जलप्रथमपश्चाद्ग्रहणघटभरणविपये वादे लग्ने । तयोश्चिरमु- 15 क्तिमत्युक्तिरभूत् । शीर्षाणि स्फुटितानि घातप्रतिघातैः । गते राजकुलम् । राजा साक्षिणं गवे. षयति । उक्ते ते-अन कलहे कोऽपि साक्षी विद्यते न वा? । ताभ्यां जगदे-विप्र एकस्तत्रास्ते जपतत्परः। गता राजकीयाः। आनीतः श्रीहर्पः पृष्टस्तयोर्नयानयो । श्रीहर्षेण गीर्वाणवाण्यो- क्तम्-देव! वैदेशिकोऽहम् । न वेद्मि किमप्येते प्राकृतवादिन्यौ ब्रूतः । केवलं तान् शब्दान् वेद्मि। राज्ञोक्तम्-त्रूहि । तत्क्रमस्थमेव तदुभाषित-प्रतिभाषितशतमभिहितमनेन । राजा चमत्कृतः- 20 अहो प्रज्ञा !, अहो अवधारणा!। दास्योर्वादं निर्णीय यथासम्भवं निग्रहानुग्रही कृत्वा प्रहित्य श्रीहर्षमपृच्छद् राजा-कस्त्वमेवं मेधिरशिरोमणिः। श्रीहर्षेणोक्तं सर्व कथानकं स्वम् । राजन् ! पण्डितकृतदीजन्यात्तव पुरे दुःखी तिष्ठामि । सम्यक्पारम्पयज्ञो राजा पण्डितानाहूयावादीत्- धिमूढाः! ईदृशेऽपि रत्ने न लिह्यथ ?। १५८. वरं प्रज्वलिते वह्नावहाय निहितं वपुः । न पुनर्गुणसम्पन्ने कृतः खल्पोऽपि मत्सरः ॥ ६॥ ____ 25 १५९. वरं सा निर्गुणाऽवस्था यस्यां कोऽपि न मत्सरी । गुणयोगे तु वैमुख्यं प्रायः सुमनसामपि ॥ ७ ॥ __ तस्मात्खला यूयम् । गच्छत एतं महात्मानं प्रत्येकं खस्त्रगृहेषु सत्कुरुत । तदा श्रीहर्षः प्रागदत् - १६०. यथा यूनस्तद्वत्परमरमणीयापि रमणी कुमाराणामन्तःकरणहरणं केव कुरुते । मदुक्तिश्वेतश्चेन्मदयति सुधीभूय सुधियः किमस्या नाम स्यादरसपुरुषाराधनरसैः ? ॥ ८॥ ____ 80 इति ललजिरे पण्डिताः सर्वे । गृहं नीत्वा सत्कृत्यानुनीय राज्ञा च सत्कार्य ज्ञैः प्रहितः ___ श्रीहर्षः कासीम् । मिलितो जयन्तचन्द्राय । उक्तं सर्वम् । तुष्टः सः । प्रसृतं नैषधं लोके। 1 P अस्यारिनिष्कृ०। 2 P सत्यं । 3P खगृ। 4 P प्रागदी। 5 BDP लजिरे। 6 BDE सत्कार्याः। Page 78**************************************************************************************** मन्थ हर्पकविप्रवन्ध । ५७ ६६५) अत्रान्तरे जयन्तचन्द्रस्य पद्माकरनामा प्रधाननरः श्रीअणहिलपत्तनं गतः । तत्र सरस्तटे रजकक्षालितायां शाटिकायां केतक्यामिव मधुकरकुलं निलीयमानं दृष्ट्वा विस्मितोऽप्राक्षीद्रजकम्- यस्या युवतेरियं शाटी तां मे दर्शय । तस्य हि मन्त्रिणस्तत्पद्मिनीत्वे निर्णयस्थं मनः। रजकेन सायं तस्मै तद्गृहं नीत्वा, तामर्पयित्वा, तत्स्वामिनी सूहबदेविनानी शालापतिपत्नी विधवा यौवनस्था सुरूपा दर्शिता । तां कुमारपालराजपा_दुपरोध्य तद्गृहान्नीत्वा सोमनाथयात्रां 5 कृत्वा कासी गतः। ता पद्मिनी जयन्तचन्द्रभोगिनीमकरोत् । सूहबदेविरिति ख्यातिमगात्। सा च सगर्वा विदुपीति कृत्वा 'कलाभारती ति पाठयति लोके । श्रीहर्पोऽपि 'नरभारती'ति पठ्यते । तस्य तन्न सहते सा मत्सरिणी । ६६६) एकदा ससत्कारमाकारितः श्रीदर्पः। भणितश्च-त्वं का?। श्रीदर्पः-'कलासर्वज्ञोऽहम् । राज्याऽभाणि-तर्हि मामुपानही परिधापय । को भावः-यद्ययं न वेद्मि इति भणति द्विजत्वा-10 त्तर्हि अजः । श्रीहर्पणाङ्गीकृतम् । गतो निलयम् । 'तरुवल्कलैस्तथा तथा परिकर्मितैः सायं लोलाक्षः सन् दूरस्थः स्वामिनीमाजूवत् । चर्मकारविधिनोपानही पर्यदीधपत्, अभ्युक्षण निक्षिपध्वं चर्मकारोऽहमिति वदन् । राजानमपि तत्कृतां कुचेष्टां ज्ञापयित्वा खिन्नो गद्गातीरे संन्यासमग्रहीत् । सा च सूहबदेविः साम्राज्येशा पुत्रमजनयत् । सोऽपि यौवनमाससाद । धीरः परं दुर्नयमयः । तस्य च राज्ञो विद्याधरमन्त्री । स च चिन्तामणिविनायकप्रसादात्सर्वधातुहै-15 मत्वकरणप्रख्यातमाहात्म्यस्पर्शपापाणलाभात् ८८०० विप्राणां भोजनदाता इति लघुयुधि- ठिरतया ख्यातः । कुशाग्रीयप्रज्ञः । राजा तं जगदे-राज्यं कस्मै कुमाराय ददामि । मन्त्र्या- मेघचन्द्राय सुवंशाय देहि, न पुनधृतापुत्राय । राजा तु तया कामणितस्तत्पुत्रायैव दित्सति । एवं विरोध उत्पन्नो मन्त्रि-राजोः । कथकथञ्चिन्मन्त्रिणा राजीवाचमप्रमाणीकार्य भूपो मेघचन्द्र- कुमाराय राज्यदानमगीकारितः । राज्ञी क्रुद्धा। धनाढयतया स्वच्छन्दतया निजप्रधाननरान् 20 प्रेप्य तक्षशिलाधिपतिः सुरत्राणः कासीभञ्जनाय प्रयाणे प्रयाणे सपादलक्षहेमदानेन चालितः। आयाति । तच विद्याधरेण चरदृशा विदितम् । राजे कथितम् । राजा तत्कार्मणदृढमूढः प्राह- ममेयं वल्लभेश्वरी नैवं पतिद्रोह समाचरति । मन्त्री तु वदति-राजन् ! अमुकमयाणे तिष्ठति शाग्वीन्द्रः । राजा हकिनो गतो गृहम् । चिन्तितं च तेन-नृपस्तावन्मूढः, राज्ञी बलवती, लब्धप्रसरा, अविवेकिनी । मम मरण यदि" स्वामिमरणादर्वाम् भवेत्तदा धन्यता प्रातश्चलितो25 मन्त्री स्वसदनात् । पथि गच्छन्त पिण्याकं दृष्ट्वा तमजिग्रसिपत् । पुनः पुरो गतः स्फुटित- चनकपिटकमालोक्य तददने मनोऽदधत् । तेन कुचेष्टाद्वयेनात्मनो विधिवपरीत्य निर्णीयोपराज गत्वा व्यज्ञपयत्'-देव! अहं गङ्गाजले मङ्गत्वा म्रिये, यद्यादिशसि । राजाऽऽख्यातम्-" यदि नियसे तदा सुखेन जीवामः । कर्णज्वरो निवर्त्तते । मन्त्री दूनः । हुँ!- १६१ हितपचनानाकर्णनमनये वृत्ति प्रियेष्वपि द्वेप । निजगुरुजनेऽप्यवज्ञा मृत्यो किल पूर्वरूपाणि ॥ ९॥ 30 आगत राजो मरणम् । राजानमापृच्छय गृह" गत्वा सर्वख" द्विजातिलोकाय प्रदाय भववि- 1 P ऽप्राक्षद् । 2 P साय गया। 3 Pat' नास्ति। 4 P पाटने। 5 ABD वरवरकै । 6P भोजन। 7A प्रान् । 8 P पिना सर्वत्र 'मेषचन्द्रराग्य०', 9 A कार्मणमूढ, P कामणदिङ्मूढ । 10 A सापीन्द्र । 11 P 'यदि' नाति। 12P प्यज्ञपत् । 13P रानाऽऽरयन् , B राजारयात् । 14 A गृहे। 15 P सर्व। 16 P द्विजादि० । ८ प्र• को. Page 79**************************************************************************************** • प्रवन्धकोशे रक्तो जाह्नवीजलमध्यं प्रविश्य कुलपुरोहितमाह-दानं गृहाण । विप्रेणापि कर प्रसारितः । दत्तः स्पर्शपाषाणः । तेनोक्तम्-धिक ते दानम् !, यद्रावाणं दत्से । इति क्रुद्धेनान्तरुदकं चिक्षिपे । सोऽश्मा गङ्गादेव्या लले । मन्त्री जले मङ्क्त्वा मृतः । राजा अनाथो जातः। सुरत्राण आयातः। नगरे भाण्डं भाण्डेन स्फुटितम् । राजा युद्धायाभिमुखमागात् । ८४०० [*एतावन्ति निखा- 5 नानि निजदले परं एकस्यापि ] निस्वानस्वनं राजा न शृणोति । आपृच्छच्च तटस्थान् । तैर्वभणे- म्लेच्छधनुर्धानेषु मनानि ध्वानान्तराणि । राजा हृदयेऽहारयत् । ततो न ज्ञायते-किं हतो गतो मृतो वा । [गङ्गाजलेऽपतत् ] यवनाता पूः। ॥ इति श्रीहर्ष-विद्याधर-जयन्तचन्द्रप्रवन्धः ॥ ११ ॥ १ १२. अथ हरिहरप्रवन्धः । ___10_६६७) श्रीहर्षवंशे हरिहरः। गौडदेश्यः सिद्धसारस्वतः। स गूर्जरधरां प्रत्यचालीत् । अश्वशतद्ध- यम्, मानवानां शतपञ्चकम् , करभाः पञ्चाशत् , अनिवारमन्नदानम्। धवलककतटग्राममागात् । राणश्रीवीरधवल-श्रीवस्तपाल-श्रीसोमेश्वरदेवेभ्यः पृथक पृथक आशीर्वाद प्रगल्भवदहस्तेन प्राहैषीत् । श्रीवस्तुपालो जहर्ष । उत्थाय वटुं सह नीत्वा श्रीवीरधवलाय पण्डितस्याशीर्वादमदी- शत्, तद्गुणांश्वावर्णयत् । राणकेनोक्तम्-किमन युक्तम् ? । मन्याह-देव ! विस्तरेण प्रातः पण्डि- 15 तस्य प्रवेशमहोत्सवः क्रियते । विपुलं देयं दीयते । राणकेनोक्तम्-न्याय्यम्। ततो निवृत्तो मन्त्रिराजश्च बहुश्च । बटुना तृतीयाशीर्वादः पण्डितसोमेश्वरदेवायादर्शि' । तत्कवितया तस्य मात्सर्यमदीपिष्ट । सनिःश्वासमधोद्राक्षीत् । वटुं चालापीदपि न । आगत" उत्थाय बटुहरि- हरान्तिकम् । उक्तं राणक-मन्त्रिणोः सौमनस्यम् , सोमेश्वरस्य तु दौर्मनस्यम् । कुपितः सोमे- श्वरदेवे हरिहरः। जातं प्रातः। राणकः समन्त्रिकः सचातुर्वर्ण्यः सर्वां सम्मुखो गतः। मिलितो 20 हरिहरः। तत्र वीरधवलं प्रति- १६२. शम्भुर्मानससन्निधौ सुरधुनी मूर्ती दधानः स्थितः, श्रीकान्तश्चरणस्थितामपि वहन्नेतां निलीनोऽम्बुधौ । मग्नः पङ्करहे कमण्डलुगतामेनां दधन्नाभिभू , मन्ये वीर ! तव प्रतापदहनं ज्ञात्वोल्वणं भाविनम् ॥ १॥ १६३. दृष्टस्तेन शरान्किरन्नभिमुखः क्षत्रक्षये भागवो, दृष्टस्तेन निशाचरेश्वरवधव्यग्रो रघुग्रामणीः । दृष्टस्तेन जयद्रथप्रमथनोन्निद्रः सुभद्रापति, दृष्टो येन रणाङ्गणे सरभसश्चौलुक्यचूडामणिः ॥२॥ 25 बटुः पृष्टः पण्डितेन-अत्र सदसि सोमेश्वरोऽस्ति न वा?। वटुराह-स क्रोधान्नागतः। पण्डितो ज्ञात्वाऽस्थात् । जातः प्रवेशः । राणकेन दत्तं सौधं" धन-कुप्य-वसन-परिजन-तुरगादिचम- त्कारकम् । ६६८) अथ मन्त्रिगृहं गतोऽसौ । गुर्वी सभा । मत्र्यभ्युत्थानं चक्रे । ऊचे च- . . १६४. सुधा मधु मुधा सीधु मुधा सोऽपि सुधारसः । आस्वादितं मनोहारि यदि हारिहरं वचः ॥३॥ ___. 1 A विप्रेण । - 2 P जले। 3 AC नगरं । * P पुस्तक एवायं कोष्ठकगतः पाठः प्राप्यते। 4 P हारयामास । 5. A. अदीदिशत् ; DE अदिशत्। 6 AC प्रवेशोत्सवः। 7 A दर्शितः। 8 AP कवि०। 9 AC बटुश्वा० 10 A. आयातः। 11 DP सौधः। 12 B चमत्कारम् । . Page 80**************************************************************************************** 10 हरिहरप्रवन्ध । पण्डिस्तूचे-देव! लघुभोजराज! विचारचतुर्मुख! सरस्वतीकण्ठाभरण ! अवधारय । वयं पण्डिताः । अस्माकं माता भारती । सा च त्रिभुवनचारिणी । एकदा भारत्या सह महेन्द्रस्य सभामगमाम । सा च सुधर्मा नाम । इन्द्रः श्रीमान् । ३ कोटयः सुरागनाः । ८४ 'सहस्राणि सामानिकाः । तथा- १६५ द्वादशार्का वसवोऽष्टौ विश्वेदेवास्त्रयोदश । पत्रिंशत् तुपिताश्चैव षष्टिरामास्वरा अपि ॥४॥ १६६ पनिशदधिक माहाराजिकाश्च शते उभे । रुद्रा एकादशैकोनपञ्चाशद्वायवोऽपि च ॥५॥ १६७ चतुर्दश तु वैकुण्ठा. सुशर्माण पुनर्देश । साध्याश्च द्वादशेत्याद्या प्रसिद्धा गणदेवताः ॥ ६॥ [*एतत्समृद्धिस्वरूपं विलोक्य] वयं विस्मिताः स्थिताः-अहो! तपाफलभोगः। [-*इत्यादि चिन्तयन्तो यावता सः] अत्रान्तरे आगतस्तत्र कश्चन वुम्बावक्त्रः। १६८ देव। वर्नाथ ! कष्ट ननु क इह भवानन्दनोद्यानपाल खेदस्तकोऽध केनाप्यहह हृत इत काननात्कल्पवृक्ष. हु मा वादीस्वदेतत्किमपि करुणया मानवाना मयैव ___प्रीत्यादिष्टोऽयमुास्तिलकयति तल वस्तुपालच्छलेन ॥ ७॥ एवं तत्रालापं श्रुत्वा विस्मितोऽहं भारत्या सह पञ्चमं कल्पद्रुम त्वां द्रष्टुमागाम् । एवं सविस्तरं काव्यं व्याख्याय स्थितः पण्डितः । मन्त्री यावत्कि ददामि-इति चिन्तयति तावद् 15 डोडीयवंश्यराणभीमदेवेन जात्या वाहनोत्तीर्णाश्चतुर्विशतिरश्वा एकं च दिव्यं पदकं प्राभृतमा. नीतम् । तदेव पण्डिताय सर्व दत्तम् । तुष्टोऽसौ पञ्चमः कल्पतरुर्भवसि इत्युक्त्वा खोत्तारक- मगात् । गतेपु कतिपयेष्वहःसु मिलितायां सभायां पुरःस्थे सोमेश्वरे राणकेन पण्डितहरिहर उक्त:-पण्डित! अन पुरेऽस्माभिरिनारायणाख्यः प्रासादः कारितोस्ति । तत्पशस्तिकाव्यान्य- टोत्तरं शतं सोमेश्वरदेवपार्धात्कारितम् । तत्र भवन्तोऽवदधतु । यथा शुद्धत्वे निश्चयो भवति 20 ज्ञानाम् । महालक्ष्मीदृष्टौ नाणकपरीक्षा यतः।हरिहरेणोक्तम्-कथाप्यन्तां तानि । उक्तानि सोमे- श्वरेण । तानि श्रुत्वा हरिहर ऊचे-देव! सुष्टु काव्यानि परिचितानि च नः। यतो मालवीयेपूज्जयनी गतैरस्माभिः सरस्वतीकण्ठाभरणप्रासादगर्भगृहे पट्टिकायां श्रीभोजदेववर्णनाकाव्यान्यमून्य- दक्षत' । यदि तु प्रत्ययो नास्ति तदा परिपाट्या श्रूयन्ताम् । इत्युक्त्वा क्रमेणास्खलितान्यपा. ठीत् । खिन्नो राणकः। प्रीताः खलाः । व्यथिताः श्रीवस्तुपालादयः सज्जनाः। उत्थिता सभा 125 हत इव मृत इव स्तभित इव जडित इव जातः सोमेश्वरः । गतः स्वगृहम् । हिया वदन न दर्श यति गृहेऽपि, का कथा राजादिसदनगमनस्य । ६६९) अथ सोमेश्वरः श्रीवस्तुपालमन्दिरं गत्वोवाच-मन्निन् ! ममैव तानि काव्यानि, नान्यथा । मम च" शक्ति जानासि त्वम्" । हरिहरस्त्वेव मां व्यजूगुपत् । किमहं करोमि। मध्याह-तमेव शरणं श्रय । यतः- 30 1A अगमम् । 2A ३० कोट्य । 3 A८४०. सप्तसहः। 4 A •धिक। * P पुस्तक एवैप कोष्टकगत पाटो दिघवे । 5P को.पि मुम्या पासयमाह। 6P परल्प। 7 P वितर। 8 P वानि धुरा वानि हरिः। 9 A माश्यत । 10P यूपता। 11 '' नाठि P। 12 AC R' नाम्नि। Page 81**************************************************************************************** प्रवन्धकोशे १६९. भजते विदेशमधिकेन जितस्तदनु प्रवेशमथवा कुशलैः । [*मुखमिन्दुरुज्वलकपोलमितः प्रतिमाच्छलेन सुतनोरविशत् ॥] इति न्यायात् । पण्डितः तर्हि तत्र' मां नय । तथाकृतं मन्त्रिणा । पण्डितसोमेश्वरं वहिरा- सयित्वा मन्त्री स्वयं हरिहरान्तिकमगात् । बभाण च-पण्डितसोमेश्वरदेवस्तवान्तिकमागतोऽस्ति 5 विज्ञीप्सुः । हसितो हरिहरः । आनीनयत्वसमीपम् । चकाराभ्युत्थानालिङ्गनमहासनादिस- त्कारम् । सोमेश्वरेणोक्तम्-पण्डित! निस्तारय मामस्मात्परकाव्यहरणकलङ्कपङ्कात् । यतः- १७०. आगतस्य निजगेहमप्यरेगौरवं विदधते महाधियः ।। मीनमात्मसदनं समेयुपो गीप्पतिळधित तुङ्गतां कवेः ॥ ८॥ तुष्टो हरिहरो भणति स्म-मा स्म चिन्तां विधाः । पुनगौरवमारोपयिताऽस्मि त्वाम् । गतः ___10 स्वस्थानं मन्त्री सोमेश्वरश्च । प्रत्यूपे राणकसभाभरे सोमेश्वर आह्वायितः । प्रस्तावना चारब्धा । __ यथा-जयति परमेश्वरी भारती, यत्प्रसादादेवं मम शक्तिः। श्रीवस्तुपालेनोक्तम्-किं किम् ? । हरिहरः-देव! मया कावेरीनदीतटे सारस्वतो मन्त्रः साधितः । होमकाले गीर्देवी प्रत्यक्षाऽऽसीत् । वरं वृणीष्वेत्याह स्म माम् । मया जगदे-जगदेकमातर! यदि तुष्टाऽसि तदा एकदा भणितानां १०८ सङ्ख्यानां ऋचां षट्पदानां काव्यानां वस्तुकानां घत्तानां दण्डकानां वाऽवधारणे समों 15 भूयासम् । देव्याचष्ट-तथाऽस्तु । ततः प्रभृति यो यदाह १०८ तत्तु ब्रुवे । यथेदं सोमेश्वरदेवो- पज्ञं काव्याष्टोत्तरशतम् । राणकेनोक्तम्-प्रत्ययः कार्यताम् । भाणितान्यष्टोत्तरशतानि तत्त- च्छन्दसाम् ; प्रतिभाणितानि च हरिहरेण तानि ।जातो निश्चयः। पण्डितहरिहरवचने क्षुत्तृष्णात- पप्रभृतिचिन्तानपेक्षः स्थितो लोकः । राणकेश्वरेण वभणे-तहि पण्डित! कथमेवं दपितः सोमे- श्वरः? । हरिहरः प्राभाषत-देव! राणेन्द्र ! पिण्डितेन मय्यवज्ञा दभ्रे । तत्फलमिदं ददे । यतः- 20 १७१. प्रियं वा विप्रियं वापि सविशेषं पराप्तिात् । प्रत्यर्पयन्ति ये नैव तेभ्यः साप्युर्वरा वरा ॥ ९॥ राणः प्राह-तास्त्वेवम् । परं मिथः सरस्वतीपुत्रयोः लेहो युक्तः। इत्युक्त्वा कण्ठग्रहणमका- रयत् । स्थितो निष्कलङ्कः सोमेश्वरः। वर्तते नित्यमिष्टगोष्टी। हरिहरो नैषधकाव्यान्यवसरोचि- तानि पठति । श्रीवस्तुपालः प्रीयते-अहो ! अश्रुतपूर्वाणि काव्यान्यमूनि । एकदाऽऽलापितः हरिहर-पण्डित! कोऽयं ग्रन्थः? । पण्डितो वदति-नैषधं महाकाव्यम् । कः कविः । श्रीहर्षः। 25 वस्तुपालेन गदितम्-तदादर्श दर्शय तर्हि । पण्डितो ब्रूते-नान्यत्रायं ग्रन्थः । चतुरो यामानर्प- यिष्यामि पुस्तिकाम् । अर्पिता पुस्तिका । रात्रौ सद्यो लेखकनियोगिभिलेखिता नवीना पुस्तिका। जीर्णरज्वावृता, वासन्यासेन धूसरीकृत्य मुक्ता । प्रातः पण्डिताय पुस्तिका दत्ता । गृह्यतां तदिदं खं नैषधम् । गृहिता पण्डितेन पुस्तिका। मन्त्रिणा न्यगादि-अस्माकमपि कोशे किलास्तीवेदं शास्त्रमिति स्मरामः । विलोक्यतां कोशः। यावद्विलम्वेनैवं कृष्टा नवीना प्रतिः। यावच्छोट्यते' 30 तावत् 'निपीय यस्य क्षितिरक्षिणः कथा इत्यादि नैषधमुदघटिष्ट । दृष्ट्वा पण्डितहरिहरेणो क्तम्-मन्निन् ! तवैव मायेयम् । * एतदुत्तरार्द्धपद्यभागः A आदर्श एव लभ्यते, नान्यत्र । 1 P 'तन' नास्ति । 2 A विज्ञाप्सुः। 3 A व्यधुः । 4 A सरस्वती०। 5 P 'माम् नास्ति। 6P राण। । एतद्दण्डान्तर्गतः पाठः पतितः P पुस्तके। 7P पण्डितहरिहरः कोऽयं । 8 P स्वनै०। 9 P च्छोध्यते। + A आदर्श 'निपीय यस्य क्षितिरक्षिणः कथास्तथानियन्ते न बुधाः सुधामपि । नलः सितच्छ- त्रितकीर्तिमण्डलः स राशिरासीन्महसां महोज्वलः ॥' इदं सम्पूर्ण पद्यं लिखितं लभ्यते । Page 82**************************************************************************************** अमरप्रवन्धः । 'यदीदृशेषु कार्येषु नान्यस्य क्रमते मति ।' युक्तं त्वया दण्डिताः प्रतिपक्षाः । स्थापितानि जैन-वैष्णव-शैवशासनानि च । उदञ्चितः स्वामिवंशः । यस्यैवं प्रज्ञा प्रकाशते । ७०) अत्रान्तरे वीरधवलाहितसैन्यचम्पितेन महाराष्ट्रप्रभुणा सपादकोटिहेमप्रमितो दण्डः प्रहितः। श्रीवस्तुपालेन तु तद्धेम चतुर्दिग्यात्रिकेभ्यो याचकेभ्योऽदापि विवेकात् । तद् दृष्ट्वा हरिहरो वर्णयति- १७२ आ. साम्य न महेऽहमस्स किमपि क्रोडीकृतैकश्रिया', याचोत्तानकरण खतिनिजाकारोप्मणा शाङ्गिणा । येनैता पुरुषोत्तमाधिकगुणोद्गारेण युद्धार्णवादा,-कृप्यैव तथा श्रियः शकलश. कृत्वाऽर्थिनामर्पिता ॥१०॥ तदा वीरधवलस्य 'सपादकोटीकाश्चनवर्पः' इति भट्टादिपु विरुदं स्यातिमायातम् । ६७१) अथ हरिहरः सोमे-वरं नन्तु गतो देवपत्तनम् । पण्डितसोमेश्वरदेवस्य तत्र तदौर्जन्यं । स्मृत्वा विपण्णेन काव्यं भणितम्- १७३ क यातु कायातु क वदतु सम केन पठतु, क काव्यान्यव्याज रचयतु सद कस्स विशतु । __खलयालग्रस्ते जगति न गति वापि कृतिना,-मिति ज्ञात्वा तत्त्व हर ! हर'विमूढो हरिहर ॥ ११ ॥ १७४ आरक्षाम नृपप्रमाढकणिकामद्राम लक्ष्मील्वान्, किञ्चिद्वाभयमध्यगीष्महि गुणे काश्चित्पराजेष्महि । इत्य मोहमयीमकार्म कियती नानर्यकन्या' मन , स्वाधीनीकृतशुद्धोधमधुना वाञ्छत्यमापगाम् ।। १२ । 15 इत्युक्त्या धनाई दत्त्वा शेपाई गृहीत्वा धवलककमध्ये भूत्वा राणक-मन्त्रिणी आपृच्छय कासी प्राप्य स्वार्थमसाधयदिति ॥ ॥ इति हरिहरप्रवन्धः समाप्तः ॥ १२॥ १३. अथ अमरचन्द्रकविप्रवन्धः। ६७२) श्रीअणहिल्लपत्तनासन्नं वायदं नाम महास्थानमास्ते।चतुरशीतिमहास्थानानामन्यतमत्।20 तत्र परपुरभवेशविद्यासम्पन्नश्रीजीवदेवसरिसन्ताने श्रीजिनदत्तसुरयो जगर्जुः। तेपां शिष्यो- ऽमरो नाम 'प्रज्ञालचूडामणिः । स श्रीजिनदत्तसरिभक्तात कविराजात अरसिंहात सिन्द्रसार- खतं मन्त्रमग्रहीत् । तद्गच्छमहाभक्तस्य विवेकनिधेः कोष्टागारिकस्य पद्मस्य विशालतमे "सद- नैकदेशे विजने एकविगत्याचाम्लैनिद्राजयासनजयपायजयादिदत्तावधानस्तं मन्त्रमजपत् । विस्तरेण होम च" चके । एकविंशतितम्यां रात्री मध्यप्रासाया नभस्यभ्युदिताचन्द्रनिम्बानिर्गत्य 25 सम्पेणागत्यामर भारती करकमण्टलुजलममलमपीप्यत् । वरं च प्रादात्"-सिद्धकविर्मक, नरपतिपूजागीरविर्तश्चैधि । इति वर दत्त्वा गता भगवती । जातः कविपतिरमरः। रचिता 'काव्यकल्पलता' नाम कविशिक्षा, 'इन्दोरनावली', 'सूक्तावली च । 'कलाकलापारयं' च गाम्नं नियह, 'यालभारतं' च । यालभारते प्रभातवर्णने- IP भगदपते। 22 सैन्पकमितेन । 3 P.शियो। :P परहरिमूहो। 5 P . पी। GP पररायम, A परपु. 7P:पा। 8P विराज परिमिः। 9P पिना नाम्पत्यप्रेद पदम् । 10A पिसार नार । HA •दमे मद। 12P' नानि । 13 Pाक्षीए। 11 P.गारवाषि। Page 83**************************************************************************************** 15 प्रबन्धकोशे. १७५. दधिमथनविलोलल्लोलग्वेणिदम्भादयमदयमनङ्गो विश्वविश्वकजेता । " भवपरिभवकोपत्यक्तवाणः कृपाणश्रममिव दिवसादौ व्यक्तशक्तिय॑नक्ति ॥१॥ इत्यत्र वेण्याः कृपाणत्वेन वर्णनाद् 'वेणीकृपाणोऽमर' इति बिरुदं कविवृन्दाल्लब्धम् । दीपि- काकालिदासवत्, घण्टामाघवच । कवित्वप्रसिद्धेश्च महाराष्ट्रादिराजेन्द्राणां पूजा उपतस्थिरे । ___5७३) तदा वीसलदेवो राजा गूजराधिपतिर्धवलकके राज्यं शास्ति । तेनामरकवेर्गुणग्रामः श्रुतः । ठक्कुरं वइजलं प्रधानं प्रेष्य प्रातराहूतः कवीन्द्रः । आसनादिप्रतिपत्तिः कृता । सभा महती । अमरेण पठितम्- १७६. वीक्ष्यैतद्भुजविक्रमक्रमचमत्कारं नकारं मयि, प्रेम्णो नूनमियं करिष्यति गुणग्रामैकगृह्याशया। श्रीमद्वीसलदेव ! देवरमणीवृन्दे त्वदायोधनप्रेक्षाप्रक्षुभिते विमुञ्चति परीरम्भान्न रम्भां हरिः॥२॥ 10 १७७. त्वत्प्रारब्धप्रचण्डप्रधननिधनितारातिवीरातिरेकक्रीडत्कीलालकुल्यावलिभिरलभत स्पन्दमाकन्दमुवी। दम्भोलिस्तम्भभावद्भुज! भुजगंजगद्भर्तुराभर्तुरेनां तेनायं मूर्ध्नि रत्नातिततिमिषतः शोभते शोणभावः ॥ ३ ॥ रञ्जिता सभा, प्रीणितः पृथ्वीपालः । ततो राज्ञा प्रोक्तम्-यूयं कवीन्द्राः श्रूयध्वे । अमरोऽभि- धत्ते-सत्यमेव, यदि गवेषयति देवः । ततो नृपेण सोमेश्वरदेवे दृष्टिः सञ्चारिता । ततः सोमेश्व- रेण समस्याऽर्पिता । यथा- 'शीर्षाणां सैव वन्ध्या मम नवतिरभूल्लोचनानामशीतिः' । अमरेण सद्यः पूरिता- १७८. कैषा भूषा शिरोऽक्ष्णां तव भुजगपते ! रेखयामास भूत्या द्यूते मन्मूर्ध्नि शम्भुः सदशनवशतान(९१०)क्षपातान् विजित्य । गौरी त्वानञ्ज दृष्टीर्जितनखनवभू(१९२०)स्तद्विशेषात्तदित्थं . 20 शीर्षाणां सैव वन्ध्या मम नवतिरभूल्लोचनानामशीतिः ॥४॥ __ अत्र शिरोऽक्षणामिति शिरसा युक्तानामक्षणामिति मध्यमपदलोपी समासः कार्यः। द्वन्द्वे तु प्राण्यङ्गत्वादेकत्वं प्राप्नोति। ६७४) ततो वामनस्थलीयकविसोमादित्येन समस्या दत्ता- 'धनुष्कोटौ भृङ्गस्तदुपरि गिरिस्तत्र जलधिः' । 25 अमरेणोक्तम्- १७९. भवस्याभूद् भाले हिमकरकला ऽग्रे गिरिसुताललाटस्याश्लेषे हरिणमदपुण्ड्रप्रतिकृतिः।। कपईस्तत्प्रान्ते यदमरसरित्तत्र तदहो! धनुष्कोटौ भृङ्गस्तदुपरि गिरिस्तत्र जलधिः ॥५॥ ६७५) ततः कृष्णनगरवास्तव्येन कमलादित्येन समस्या वितीर्णा- 'मशकगलकरन्ध्रे हस्तियूथं प्रविष्टम् । 30 अमरेण पुपूरे- १८०. तटविपिनविहारोच्छृङ्खलं यत्र यांदोमशकगलकरन्ध्रे हस्तियूथं प्रविष्टम् । ___वत वक! न कदाचित्किं श्रुतोऽप्येष वार्द्धिः प्रतनुतिमिनि तल्ले कापि गच्छ क्षणेन ॥६॥ .६७६) अथ वीसलनगरीयेण नानाकेन समस्या विश्राणिता- 'गीतं न गायतितरां युवतिनिशासु' । - - -1 कृपाणः। 2 P लब्धममरेण। 3A प्रसिद्धिश्च । 4 AC विश्वल०। 5 P योधने प्रेक्ष्य । -6 A भुजयुगलजा गद्; P भुजगभुजजगद् । 25 Page 84**************************************************************************************** अमरन्द्रकविप्रवन्धः। अमरेणोक्तम्- -१८१ श्रुत्वा ध्वनेर्मधुरता सहसाऽवतीर्णे भूमौ मृगे विगतलाञ्छन एप चन्द्रः । मा गान्मदीयवदनस्य तुलामितीव गीत न गायतितरां युवतिर्निशासु ॥७॥ एवमष्टोत्तरं शतं यहुकविदत्ताः पूरिताः समस्याः श्रीअमरेण । ततो राजाभिहितम्-सत्यं कविसार्वभू(भौ)मः श्रीअमरः । तत्र दिने सन्ध्यावधि सभा निपण्णा स्थिता । राजा लडितः 5 सभ्यलोकोऽपि । रसावेशे हि कालो जैगच्छन्नपि न लक्ष्यते । द्वितीयदिने सद्यः काव्यमयैः प्रमाणोपन्यासैः प्रामाणिका'जिताः । तृतीयदिने राज्ञा पृष्टम्- अस्माकं सम्मति का चिन्ताऽस्तीति कथ्यताम् । अमरेण भणितम्-देव! कथं दूरं गताः । स्वर्गे ऐरावणस्य दक्षिणकर्णे लकिताः ? । भूपतिः स्वसवादेऽमोदत, शिरोऽधुनोत् । नित्यं गमनागमने 10 जिनधर्मासन्नः कृतो राजा । चैत्येषु पूजाः कारयति । ६७७) एकदा नृपेण पृष्टम्-भवतां का कलागुरुः ? । अमरेण गदितम्-'अरसिंहः कविराज इति । तर्हि प्रातरत्रानेयः । अमरचन्द्रेणानीतः प्रातः कविराज उपराजम् । तदा राजा खड्न अमयन्नास्ते । राजा पृष्टम्-अयं कविराजः ? । कविराजेन व्याजहे-ओमिति । राजाह-तर्हि वद कालोचितं किश्चित् । अरसिंहः कवयति- १८२ वत्कृपाणविनिर्माणशेपद्रव्येण वेघसा । कृत कृतान्त , 'सर्पस्तु करोद्वर्तनवर्तिमि ॥ ८॥ १८३ "अर्थीच्छाभ्यधिकार्पण किमपि य पाणे. कृपाणे गुण , सञ्चक्राम स यद्ददौ धुपदवी प्रत्यर्थिषु क्ष्मार्थिषु । 'तत्सङ्गान्न स बद्धमुष्टिरमवयेनारिपृथ्वीभुजा, पृष्ठेपु स्वमपि प्रकाममर्दितपोद्दामरोमोद्गम ॥९॥ १८४ कलयसि किमिह कृपाण वीसल ! बलान्ति शत्रुषु तृणानि । यानि मुसगानि तेपा तवैप लद्दयितुमसमर्थ ॥१०॥ १८५ देव । ल मलयाचलोऽसि भनत श्रीसण्डशाखीभुज, स्तन क्रीडति कजलाकृतिरसिर्धाराद्विजिह्व फणी। 20 एप खागमनर्गल रिपुतरुस्कन्धेपु सवेष्टयन, दीप व्योमरिसारि निर्मलयशो निम्माकमुन्मुञ्चति ॥ ११ ॥ __ अद्भुतकवितादर्शनात्कविराजो राजेन्द्रेण नित्यसेवकः कृतः । ग्रासो महान् प्रत्यष्ठापि । एकदा श्रीवीसलदेवेन भोजनान्ते तृणं करे धृत्वाऽरसिंहोऽभिदधे-इद तृणं सद्यो वर्णय। यदि रचितमगया वर्णयसि, तदा "ग्रासद्वैगुण्यम् , अन्यथा सर्वग्रासल्याजनम् । इत्युक्तिसमकालमेवा- हतप्रतिभतया स ऊचे- 25 १८६ क्षारोऽन्धि शिसिनो मसा विपमय वन क्षयीन्दुसंधा, प्राहुस्तन सुधामिय तु दनुजनस्तेव लीना तृणे । पीयूपप्रसनो गना यदशनादत्त्वा यदास्से निजे, देव । त्वत्करवालकालमुखतो निर्याति जातिर्द्विपाम् ॥ १२ ॥ ध्वनितो" भूपालः । ग्रासद्वैगुण्य कृतम् । ६७८) कालान्तरेऽमरेण कोष्ठागारिकपद्मगिरा पद्मानन्दास्यं शास्त्र रचितम् । एव कविता- कहोलसाम्राज्य प्रतिदिनम् ॥ ॥ इति अमरचन्द्रकविप्रवन्धः ॥ १३ ॥ 15 30 A 1A नाम्नि पदमेरा। 2 जाया । 3 P भरािमहः। A. कथी। 5A लालम। GP अन्यया पषिः। 7 PR18P अदित। P1। 10 P .नम्म कीडनि। 11P मयष्टपद। 12A नित्य । 13 Aगुण्प मापस। 1ADE याया। 15P पमरतो । Page 85**************************************************************************************** प्रवन्धकोशे १४. अथ मदनकीर्तिप्रवन्धः। ६७९) उज्जयिन्यां विशालकीर्तिदिगम्बरः । तच्छिष्यो मदनकीर्तिः। स पूर्वपश्चिमोत्तरासु तिसृषु दिक्षु वादिनः सर्वान् विजित्य 'महाप्रामाणिकचूडामणिः' इति विरुदमुपायं स्वगुर्वलता- मुज्जयिनीमागात् । गुरूनवन्दिष्ट । पूर्वमपि जनपरम्पराश्रुतंतत्कीर्तिः स मदनकीर्तिः भूयिष्ठम- 5 श्लाविष्ट । सोऽपि प्रामोदिष्ट । दिनकतिपयानन्तरं च गुरुं न्यगदीत्-भगवन् ! दाक्षिणात्यान् वादिनो विजेतुमीहे । तत्र गच्छामि । अनुज्ञा दीयताम् । गुरुणोक्तम्-वत्स ! दक्षिणां मा गाः। स हि भोगनिधिर्देशः। को नाम तत्र गतो दर्शन्यपि न तपसो भ्रश्येत् । एतद्गुरुवचनं विलय विद्यामदाध्मातो जालकुद्दालनिःश्रेण्यादिभिः प्रभूतैश्च शिष्यैः परिकरितो महाराष्ट्रादिवादिनो मृद्गन् कर्णाटदेशमाप । 10 ६८०) तत्र विजयपुरै कुन्तिभोज नाम राजानं स्वयं त्रैविद्यविदं विद्वत्प्रियं सदसि निषण्णं स द्वास्थनिवेदितो ददर्श । तमुपश्लोकयामास- १८७. देव! त्वद्भुजदण्डदर्पगरिमोद्गारप्रतापानल,-ज्वालापक्रिमकीर्तिपारदघटीविस्फोटिनो विन्दवः । शेषाहिः कति तारकाः कति कति क्षीराम्बुधिः कत्यपि, पालेयाचलशङ्खशुक्तिकरकाकर्पूरकुन्देन्दवः ॥ १३ ॥ १८८. कीर्तिः कैकत ! कुन्तिभोज ! भवतः स्वर्वाहिनीगाहिनी, दिक्पालान् परितः परीत्य दधती भास्वन्मयं गोलकम् । 15 लचित्वाऽम्बुधिसप्तमण्डलभुवस्त्वय्येकपत्नीव्रत,-ख्यात्यै विष्णुपदं स्पृशत्यविरतं शेषाहिशीर्षाण्यपि ॥ १४ ॥ चमत्कृतो राजा । स्थापितो दिगम्बरः सौधासन्नदेशे। राज्ञादिष्टम्-ग्रन्थमेकं कुरु, अस्मत्पूर्वज- वर्णनप्रतिबद्धम् । तेनोक्तम्-देव ! अहं श्लोकपञ्चशती एकस्मिन् दिने कत्तुं क्षमा, तावत्तु लेखितुं न क्षमोऽस्मि । कश्चिल्लेखकः समय॑ताम् । राज्ञोक्तम्-अस्मत्पुत्री मदनमञ्जरी नाम 'लिखिष्यति जवनिकान्तरिता सती । दिगम्बरेण ग्रन्थः कर्तुमारेभे । राजपुत्री पञ्चशतीं लिखति । एवं कत्य- 20 प्यहानि ययुः। ६८१) एकदा राजस्ता तस्य खरं कोकिलरवजित्वरं शृण्वती सती चिन्तयति-अस्य रूपमपि सुन्दरं भविष्यति । जवनिकान्तरितया कथं दृश्यते ? । करोमि तावदुपायम् । रसवत्यां लवण- बाहुल्यं कारयामि । सोऽपि राजपुत्री तादृग्विदुषीं सुखरां दिदृक्षते । लवणातिशये दिक्पट ऊचे-अहो लवणिमा !। राजपुत्र्याभिदधे-अहो निष्ठुरता!। एवमालाप-प्रत्यालापे दूरे कृते' 25 उभाभ्यां मर्यादामयी वस्त्रमयी च जवनिके। परस्परं दिव्यरूपदर्शनम्। तावता दिग्वस्त्रेणोक्तम्- १८९. निरर्थकं जन्म गतं नलिन्याः , यया न दृष्टं तुहिनांशुविम्वम् । राजसुतयाऽपि भणितम्- उत्पत्तिरिन्दोरपि निष्फलैव, दृष्टा प्रबुद्धा नलिनी न येन ॥ १५॥ ततश्चक्षुःप्रीतिमुद्भवन्तीवा"ऽपराणि कुसुमचापचापलानीति वचनान्निरर्गले मदने भग्नं कौमा- 30 रनतं तयोः। "वर्तते विकथा । अल्पो निष्पद्यते ग्रन्थः । सायं राजा विलोकयति शास्त्रम् । को हतुरद्य स्ताक निष्पन्नम् ? । दिगम्वरस्तेषु त्रिचतुराणि विषमाणि पद्यानि निक्षिपते । ततो राजाने 1 A अगात् । 2 A. परम्परया; DE परम्पराच्छ्रुतः। 3 AD 'वत्स' नास्ति । 4 A परिवारितो। 5 A लेखिष्यति । 6 P ग्रन्थं । 7 Pसोऽपि दिग्वस्त्रः। 8 P कृता। 9 P जवनिका । 10 A अभाणि । 11 A. चा० । 12 A. वर्द्धतेतिकथा । 13 A तेपु पर्छ। Page 86**************************************************************************************** मदनकीर्तिप्रवन्धः। भणति-देव! ममेयं प्रतिज्ञा-अहमवुध्यमानस्य लेखितुः पार्थान्न लेग्वयामि । तव तु पुत्र्या इदं स्थान कृच्छ्रेण वुद्धम् । इति कालविलम्बाद ग्रन्थाल्पत्वं जायते । राजेन्द्रो विमृशति-शठोत्तर- मेवेदं दृश्यते। एकटा हेरयामि, किमिमौ समाचरतः। निशायां विभातायां एकढा राजा छन्नरूप एकाकी तयोन्धिनिष्पत्तिप्रदेशकुड्यान्तरेऽस्थात् । तदैव दिक्पटो राजपुत्री प्रति प्रणयकलहा- नुनयगर्भमाह- १९० सुदृ । त्व कुपितेत्यपास्तमशन त्यक्त्वा कथा योपिता, दूरादेव निराकृता सुरभ्य स्वर्गन्धधूपादयः । राग रागिणि ! मुञ्च मय्यवनते दृष्टे प्रसीदाधुना, सत्य त्वद्विरहे भवन्ति दयिते ' सर्वा ममान्धा दिश ॥ १६ ॥ एतत्काव्यश्रवणाद् द्वयोःशील्यं निर्णीय मन्दपदं निर्ययो । स्थान गतो वसुधाधिपतिः । क्रुद्धेन तेन तत्कालमाहृतो दिक्पटः आगतः। भापितो यथा-पण्डित ! किमिदं नवीनं पद्यम्-'सु! त्वं कुपितेत्यपास्तमशनम्' इत्यादि । दिग्वसनेन विमृष्टम्-राज्ञा हेरितोऽहम् । अपराधी लब्धः 110 तथाप्युत्तरं ददामि । यथातथेति चिन्तरित्वाऽवनिपतिमभ्यधात्-देव' दिनद्वयात्मभृति दृग् मे पीडार्ता वर्तते । तदुपश्लोकेनानुनयपर' पद्यमिदमपाठिपम् । इति प्रस्तावनां कृत्वा निक्षोभस्तयैव भङ्गया सद्यो व्याचचक्षे । तया सूक्त्या तुष्टोऽन्तः क्षितिपः, अकृत्यकरणदर्शनात्तु रुष्टः । ततः सभ्रूभङ्गं भृत्यानूचे-यनीत रे! अमुं कुकर्मकारिणम् , घातयत च । वद्धस्तैः । तटाकर्ण्य राजपुत्री द्वात्रिंशता सखीभिः शस्त्रिकापाणिभिः सम 'शस्त्रिकापाणिरागात् । राजदृष्टिमेत्य स्वयमकय 15 यत्-यद्यमुं मे मनोरुच्य मुञ्चसे तदा चारु । अथ न मुञ्चसे तदा चतुस्त्रिशद्वत्यास्तव भवितारः। एका दिगम्बरहत्या त्रयस्त्रिशयुवतिहत्या इति । ततो राजा मन्त्रिभिर्विज्ञप्तः-देव ! त्वयैवे- यमस्यासन्नीकृता । यूनां स्त्रीसन्निधानं च मन्मथद्रुमदोहदः । कस्य दोपो दीयते । १९१ चित्रस्था अपि चेतासि हरन्ति हरिणीदृश । किं पुनस्ता स्मरस्मेरविभ्रमभ्रमितेक्षणा ॥ १७ ॥ मुच्यतां प्रसद्य दिग्वस्त्रः । इय चास्यैव भवतु । इति श्रुत्वा तं मुक्त्वा तां तस्यैव पत्नीमकरोत् 120 स च राज्यांशभाजन कृतः। दिग्जयधनानि श्वशुरसाचकार । व्रतं त्यक्त्वा भोगी जातः। तं तादृश वृत्तान्तं विशालकीर्तिर्गुरुरुज्जयिन्यामोपीत् । अध्यासीच-अहो ! यौवनधनकुसद्गानां महिमा । येनायमेवविधोऽपि व्रती विद्वान् वादी योगजो भृत्या एवंविधं उग्रदुर्गतिपतनमूलं कुपथ प्रपन्नः।हा! हा! धिम् । १९२ परिच्छेदातीत सकलवचनानामनिपय , पुनर्जन्मन्यस्मिन्ननुभवपथ यो न गतवान् । 25 विप्रध्वमादुपचितमहामोहगहनो, विकार कोऽप्यन्तर्जडयति च ताप च तनुते" ॥ १८ ॥ एवं विमृश्य चतुराश्चतुरः शिप्यास्तहोवनाय प्राहैपीत् । तैस्तत्र गत्वोक्तोऽसौ- १९३ पिरमत बुधा योपित्सगात्सुखात् क्षणभङ्गुरात् , कुरुत" करुणाप्रज्ञामैनीवधूजनसङ्गमम् । न खलु नरके हाराकान्त घनस्तनमण्डल, भवति शरण श्रोणीनिम्ब "कणन्मणिदाम वा".॥ १९ ॥ इत्यादि-गुरुभियाध्यमानोऽसि", बुध्यम्ब, मा मुहः । सोऽय नित्रपतया तेषां हस्ते गुरुभ्य: 30 पद्यानि पत्रे लिखित्वा प्रजिघाय । गतास्ते तत्र । वाचितानि पद्यानि गुरुणा- ... 1P लोकायानुनय० । 2 P प्रया। 3A कृत्यकः। 4 P नास्ति 'तत'! 5 'शखिकापाणि' ति P पुस्तरे । ७नास्ति 'सव'। 7 A एक०। 8A हत्याया। 9ADE नास्ति 'राना। 10P .धनानि च। 11A कुस्ते । 12A भजन। 13 P रणन। 14 Aघ। 15 PE ऽपि । प्र. फो. Page 87**************************************************************************************** . प्रबन्धकोशे. १९४. तोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नासौ गुरुर्यस्य वचः प्रमाणम् । धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥ २० ॥ . १९५. प्रियादर्शनमेवास्तु किमन्यैर्दर्शनान्तरैः । प्राप्यते येन निर्वाणं सरागेणापि चेतसा ॥ २१ ॥ १९६. सन्दष्टाधरपल्लवा सचकितं हस्ताग्रमाधुन्वती, मा मा मुञ्च शठेति कोपवचनैरानतितभूलता । 5 सीत्काराञ्चितलोचना सरभसं यैश्चुम्बिता मानिनी, प्राप्तं तैरमृतं श्रमाय मथितो मूढैः सुरैः सागरः ॥ २२ ॥ इत्यादि श्रुत्वा' तस्थौ तूष्णीं गुरुः । मदनकीर्तिस्तु व्यलासीद्विविधम् । ॥ इति मदनकीर्तिप्रवन्धः ॥ १४ ॥ १५. अथ सातवाहनप्रवन्धः। ६८२) इह भारत वर्षे दक्षिणखण्डे महाराष्ट्रदेशावतंसं श्रीमत्प्रतिष्ठानं नाम पत्तनं विद्यते । 10 तच निजभूत्याभिभूतपुरन्दरपुरमपि कालान्तरेण क्षुल्लकग्रामप्रायमजनिष्ट । तत्र चैकदा द्वौ वैदेशिकद्विजौ समागत्य विधवया स्वस्रा साकं कस्यचित् कुम्भकारस्य शालायां तस्थिवांसौ। कणवृत्तिं विधाय कणान् स्वसुरुपनीय तत्कृताहारपाकेन समया कुरुतः स्म । ___८३) अन्येशुः सा तयोर्विप्रयोः वसा जलाहरणाय गोदावरी गता। तस्याश्च रूपमप्रतिरूपं निरूप्य स्मरपरवशोऽन्तर्हदवासी शेषो नाम नागराजो हृदान्निर्गत्य विहितमनुष्यवपुस्तया सह 15 बलादपि सम्भोगकेलिमकलयत्। भवितव्यताविलसितेन तस्याः सप्तधातुरहितस्यापि तस्य दिव्य- शक्त्या शुक्रपुद्गलसञ्चाराद् गर्भाधानमभवत् । खनामधेयं प्रकाश्य व्यसनसङ्कटे मां स्मरे- रित्यभिधाय च नागराजः पाताललोकमगमत् । सा च गृहं प्रत्यगच्छत् । व्रीडापीडिततया च खभ्रानोस्तं वृत्तान्तं न खलु न्यवेदयत् । कालक्रमेण सहोदराभ्यां गर्भलिङ्गानि वीक्ष्य सा जात- गर्भा इत्यलक्ष्यत । ज्यायसस्तु मनसि शङ्का जाता-यदियं खलु कनीयसोपभुक्ता इति । शङ्कनी- 20 यान्तराभावात् यवीयसोऽपि चेतसि समजनि विकल्पः-नूनमेपा ज्यायसा सह विनष्टशीला इति । एवं मिथ:कलुपिताशयौ विहाय तामेकाकिनी पृथक् पृथग् देशान्तरमयासिष्टाम् । साऽपि प्रवर्द्धमानगर्भा परमन्दिरेषु कर्माणि निर्मिमाणा प्राणवृत्तिमकरोत् । क्रमेण पूर्णेऽनेहसि . सर्वलक्षणलक्षिताङ्गं प्रासूत सूनुम् । स च क्रमाद्वपुषा गुणैश्च वर्द्धमानः सवयोभिः सह रममाणो वालक्रीडया स्वयं भूपतीभूय तेभ्यो वाहनानि करितुरगरथादीनि कृत्रिमाणि दत्तवान् 25 इति । सनोतेदानार्थत्वाल्लोकः 'सातवाहनः' इति व्यपदेशं लम्भितः । खजनन्या पाल्यमानः सुखमवस्थितः। ६८४) इतश्चोज्जयिन्यां श्रीविक्रमादित्यस्यावन्तिनरेशितुः सदसि कश्चिन्नैमित्तिकः सातवाहनं , प्रतिष्ठानपुरे भाविनं नरेन्द्रमादिशत् । ६८५) अर्थतस्यामेव पुर्यामेकः स्थविरविप्रः खायुरवसानमवसाय चतुरः स्वतनयानाहूय प्रोक्त- ___30 वान् यथा-वत्सा! मयि पुरेयुषि मदीयंशय्योच्छीर्षकदक्षिणपादादारभ्य चतुर्णामपि पादानामधो- 5 P नास्ति 'चेतसि । 1 BE 'दृष्ट्वा'। 2 P तस्याः स्वरूप० । 3 BD स्वं नामः। 4 AE सौदर्याभ्यां। GP सुतम् । '7A नैमित्तिकनिमित्तकः। 8 P ज्ञात्वा। 9 P मृते। : 10 A. शिज्योच्छीर्पक० । Page 88**************************************************************************************** सातवाहनप्रवन्धः। ६७ वर्तमानं निधिकलशचतुष्टयं युष्माभिर्यथाज्येष्ठं विभज्य ग्राह्यम् , येन भवतां निर्वाहः सम्पनीप- द्यते । पुत्रैस्तु तथेत्यादेशः स्त्रीचक्रे पितुः । तस्मिन्नुपरते तस्यौदेहिकं कृत्वा त्रयोदशेदनि भुवं खात्वा यथायथं चतुरोऽपि निधिकलगास्ते जगहिरे।यावबुद्धाट्य विलोकयन्ति तावत्प्रथमस्य कुम्भ कनकम् , द्वैतीयीकस्य कृष्णमृत्ला, तृतीयस्य बुशम् , तुरीयस्य त्वस्थीनि ददृशिरे। तदनु ज्यायसा साकमितरे त्रयो विवदन्ते स्म-तदस्मभ्यमपि विभज्य कनकं वितरेति । तस्मिश्चावितरति सति तेऽवन्तिपतेर्द्धर्माधिकरणमुपास्थिपत । तत्रापि न तेपा बादनिर्णयः समपादि । ततश्चत्वारोऽपि ते महाराष्ट्रजनपदमुपानंसिपुः । सातवाहनकुमारस्तु कुलालमृदा हस्तिरथसुभटानन्वर नव- नवान् विदधानः कुलालशालायां बालक्रीडादुर्ललितः कलितस्थितिरनयत् समयम् । ते च द्विज- तनुजाः प्रतिष्ठानपत्तनमुपेत्य परतो भ्रमन्तस्तस्यामेव चक्रजीविनः शालायां तस्थिवांसः। सात- वाहनस्तु तानवेध्येगिताकारकुशल प्रोवाच-भो विप्राः ! किं भवन्तो वीक्षापन्ना इव वीक्ष्यन्ते 11 तैस्तु जगदे-जगदेकसुभग! कथमिव वयं चिन्ताचान्तचेतसस्त्वयाज्ञासिप्महि । कुमारेण बभणे-इट्तैिः किमिव नावगम्यते । तैरुक्तम्-युक्तमेतत् । परं भवतः पुरो निवेदितेन चिन्ता- हेतुना कि स्यात् ।। बालः खलु भवान् । बाल आलपत्-यदि परं जातु मत्तोऽपि साध्यं वः सिध्यति, तन्निवेद्यतां स चिन्ताहेतुः । ततस्ते तद्वचनवैचित्रीहतहृदयाः सकलमपि खस्वरूपं निधिनिरयणादि मालवेशपरिपद्यपि विवादानिर्णयान्तं तस्मै निवेदितवन्तः । कुमारस्तु स्मित-15 विच्छुरिताघरोऽवादीद्-भो विप्राः ! अहं यौष्माक झगटकं निर्णयामि, श्रूयतामवहितैः । यस्मै चप्ता कनककलशं प्रददै, स तेनैव निवृत्तोऽस्तु । यस्य कलशे कृष्णमृत्ला निरगात् स क्षेत्रके दारादीन् गृह्णातु । यस्य तु वुशं स कोष्ठागारगतधान्यानि सर्वाण्यपि स्वीकुरुताम् । यस्य चास्थीनि निरगुः सोऽश्वमहिपीदासीदासादिकमुपादत्ताम् इति युष्मजनकस्याशयः। इति क्षीरकण्ठोक्तं श्रुत्वा सूत्रकण्ठाः छिन्नविवादाः तद्वचनं प्रतिश्रुत्य तमनुज्ञाप्य प्रत्याययुः स्वां नगरीम् । प्रयिता 20 सा तद्विवादनिर्णयकथा पुर्याम् । राजाप्याकार्य ते पर्यनुयुक्ताः-कि नु भो! भवतां वादनिर्णयो जातः । तैरुक्तम्-आम स्वामिन् ! । केन निर्णीतः ?-इति नृपेणोदिते ते सातवाहनस्वरूपं सर्वमवितयमकथयन् । ६८६) तदाकर्ण्य तस्य शिशोरपि बुद्धिवैभव विभाव्य, प्रागुक्त दैवजेन तस्य प्रतिष्ठाने राज्यं च भविष्यतीत्यनुस्मृत्य त स्वप्रतिपन्थिनमाकलय्य क्षुभितमनास्तन्मारणापयिकमचिन्तयत् चिरं 25 नरेश्वरः । "अभिमरादिप्रयोगैारिते चास्मिन्नयशाक्षात्रवृत्तिक्षती जायेतामिति विचार्य सन्नद्धचतुरड्गचमूसमूहोऽवन्तिपतिः प्रस्थाय प्रतिष्ठानपत्तनं यथेष्टमवेष्टयत् । तदवलोक्य ते ग्राम्यानस्ताश्चिन्तयन्ति स-कस्योपरि अयमेतावानाटोप. सकोपस्य मालवेशस्य ? । न तावदत्र राजा राजन्यो वा वीरस्ता दुर्गादि वा!-इति चिन्तयत्सु तेषु मालवेशमहितो दूतः समेत्य सातवाहनमयोचत्-भो कुमारक! तुभ्य नृपः क्रुद्धः। प्रातस्त्वां मारयिष्यति । अतो युद्धाय 30 चिन्तनावहितेन भवता भाव्यमिति । स च श्रुत्वाऽपि "दूतोक्तं निर्भयं निरन्तरं क्रीडन्नेवास्ते । 1P सनित्या। 2A द्वतीयस्य । 3 P धमाधिकारिणः। 4 'ते' नाम्ति P1 5 P दुरालितलित.1 6P स्वथा ज्ञाता । 7 P चिन्यः। 8 P निर्गमनादि। 9A निणय ते। 10 P हिसवादा । 11 P ओम् । 12 A भवि- प्पदनुस्मृन्य, भविष्यत्यनु। 13 मारणोपायः। 14 BE अभिघातकनरादि०, P अभिपातरादि०। 11 P युद्धापाय० । 15भुरवापि न दूनो, P धुपापि दूतोही । Page 89**************************************************************************************** प्रबन्धकोशे __ अत्रान्तरे विदितपरमार्थों तौ तन्मातुलावितरेतरं प्रति विगतदुर्विकल्पो पुनः प्रतिष्ठानमागतो। परचक्रं दृष्ट्वा तां स्वभगिनीं प्रोचतु:-हे स्वसः! येन दिवौकसा तवायं तनयो दत्तस्तमेव स्मर । यथा स एवास्य साहाय्यकं विधत्ते । साऽपि तवचसा प्राचीनं नागपतेर्वचः स्मृत्वा शिरसि निवे- शितघटा गोदावयाँ नागहृदं गत्वा लात्वा च तमेव नागनायकमाराधयत् । तत्क्षणान्नागराजः 5 प्रत्यक्षीभूय वाचमुवाच ब्राह्मणीम्-को हेतुरहमनुस्मृतस्त्वया? । तया च प्रणम्य यथावस्थितम- भिहिते वभापे शेपराजः-मयि प्रतपति कस्तव तनयमभिभवितुं क्षमः ? । इत्युदीर्य घटमादाय हदान्तर्निमज्य पीयूषकुण्डात्सुधया घटं प्रपूर्य च तस्यै दत्तः। ऊचे च-त्वमनेनामृतेन सात- वाहनकृतमृन्मयाश्वरथगजपदातिजातमभिपिञ्चेस्तथा तत्सजीवं भूत्वा परवलं भनक्ति; त्वत्पुत्रं च प्रतिष्ठानपत्तनराज्ये अयमेव पीयूषघटोऽभिपेक्ष्यति । प्रस्तावे पुनः स्मरणीयोऽहमित्युक्त्वा 10 स्वास्पदनगमद् भुजङ्गपुङ्गवः । साऽपि सुधाघटमादाय स्वसद्मोपेत्य तेन तन्मृन्मयं सैन्यमदैन्य- मभ्युक्षामास । प्रातर्दिव्यानुभावतः सचेतनीभूय तत्सैन्यं संमुखं गत्वा युयुधे परानीकिन्या ___ सार्द्धम् । तया सातवाहनपृतनया भग्नमवन्तीशितुर्वलम् । विक्रमनरपतिरपि एलाय्य ययावव- न्तीम् । तदनु सातवाहनो राज्येऽभिषिक्तः । प्रतिष्ठानं च निजनिजविभूतिपरिभूतर्वखोकसारा- भिधानं धवलगृह-देवगृह-हट्टपति-राजपथ-प्राकार-परिखादिभिः सुनिविष्टमजनिष्ट पत्तनम् । 15 सातवाहनोऽपि क्रमेण दक्षिणापथमनृणं विधाय तापीतीरपर्यन्तं चोत्तरापथं साधयित्वा खकीय- संवत्सरं प्रावीकृतत् । जेनश्च समजनि । अचीकरच जनितजननयनशेत्यानि चैत्यानि । पञ्चाश- द्वीरा अपि प्रत्येकं स्वस्वनामाङ्कितानि अन्तर्नगरं कारयांवभूवुर्जिनभवनानि । ६८७) परसमयलोकप्रसिद्धं सातवाहनचरित्रं शेषमपि किश्चिदुच्यते ।-श्रीसातवाहने क्षिति रक्षति सति पञ्चाशद्वीराःप्रतिष्ठाननगरान्तस्तदा वसन्ति स्म, पञ्चाशन्नगराद्वहिः। इतश्च तत्रैव पुरे 20 एकस्य द्विजस्य सूनुर्दपोंडुरः शूद्रकाख्यः समजनि । स च युद्धश्रमं दप्पात् कुर्वाणः पित्रा खकु- लानुचितमिदमिति प्रतिषिद्धोऽपि नास्थात् । अन्येशुः सातवाहननृपतिापला-खूदलादिपुरान्त- वर्तिवीरपञ्चाशदन्वितो द्विपञ्चाशद्धस्तप्रमाणां शिलां श्रमार्थमुत्पाटयन् दृष्टः पित्रा समं गच्छता द्वादशाब्देशीयेन शूद्रकेण । केनापि वीरेणाङ्गुलीचतुष्टयं केनचित्षडङ्गुलान्यपरेण त्वङ्गुलान्यष्टौ शिला भूमित उत्पाटिता।महीजानिना त्वाजानु नीता। इत्यवलोक्य शूद्रकः स्फूर्जदूर्जितमवादीत्- 25 भो! भो! भवत्सु मध्ये किं शिलामिमां मस्तकं यावन्न कश्चिदुद्धर्जुमीप्टें । तेऽपि "सेय॑मवादिषु- ___यथा-त्वमेवोत्पाटय यदि समर्थमन्योऽसि । शन्द्रकस्तदाकण्ये तां शिला" वियति तथोच्छालया- चकार यथा दूरमूर्ध्वमगमत् । पुनरवादि शुद्रण-यो भवत्सु अलम्भूष्णुः स खलु इमां निप- तन्तीं स्तनातु । सातवाहनादिवीरैर्भयोद्धान्तलोचनैरूचे स एव सानुनयम् , यथा-भो महावल! रक्ष रक्ष, आस्माकीनान् प्राणान् इति । स पुनस्तां पतयालु तथा मुष्टिप्रहारेण प्रहतवान् , यथा 30सा त्रिखण्डतामन्वभूत् । तत्रैकं शकलं योजनत्रयोपरि न्यपतत् ।द्वैतीयिकं च खण्डं नागहृदे । तृतीयं तु प्रतोलीद्वारे चतुष्पथमध्ये निपतितमद्यापि तथैव "वीक्ष्यमाणमास्ते जनैः। तद्वलविल- ____1A प्राचीन०। 2 P पत्यौ। 3 BP नास्ति पदमेतत् । 4 P त्वं चानेन; BE वं वानेन । 5 P यथा। 6P ०पेकयिप्यति । 7 A विस्वीक०; P वस्त्वौक०। 8 A. महीपतिना। 9 P समर्थः। 10 AB तदर्थमः। 11 A नास्ति । 12 ABचके। 13 AE अलंकरिष्णुः। 14 P भयाद्० । 15 A अस्माकीयान् । 16 P त्रिखण्डमः। 17 ABE वक्ष्यमाण। Page 90**************************************************************************************** सातवाहनप्रबन्ध । ६९ सितचमत्कृतचेताः क्षोणिनेता शूद्रक सुतरां सत्कृत्य पुरारक्षकमकरोत् । शस्त्रान्तराणि प्रतिपिध्य दण्डधारस्तस्य दण्डमेवायुधमन्वज्ञासीत् । शूद्रको पहिश्वरान् वीरान पुरमध्ये प्रवे- टुमपि न दत्तवान्, अननिवारणार्थम् ।। ६८८) अन्यदा खसौधस्योपरितले शयानः सातवानक्षितिपतिमध्यराने शरीरचिन्तार्थ- मुत्थितः । पुरावाहिःपरिसरे करण रुदितमाकर्ण्य तत्प्रवृत्तिमुपलब्धुं कृपाणपाणिः परदुःख- दुःखितहृदयतया गृहान्निरगात् । अन्तराले शुद्केणावलोक्य समभयं प्रणतः, पृष्टश्च महा- निशायां 'निर्गमनकारणम् । धरणीपतिरवदत्-यदयं बहिःपुरपरिसरे करुणकन्दितध्वनिः श्रवणाध्वनि पथिकीभावमनुभवन्नस्ति । तत्कारणप्रवृति ज्ञातुं व्रजन्नस्मि-इति राजोक्त शूद्रको व्यजिज्ञपत्-देव! प्रतीक्ष्यपादैः स्वसौधालङ्करणाय पाढोऽवधार्यताम् । अहमेव 'तत्मवृत्ति- मानेष्यामि । इत्यभिधाय वसुधानायकं व्यावर्त्य स्वयं रुदितध्वन्यनुसारेण पुरावहिर्गन्तु 10 प्रवृत्तः। पुरस्ताद व्रजन उत्तकों गोदावर्याः स्रोतसि कञ्चन रुदन्तमप्रौपीत् । ततः परि- करवन्ध विधाय शूद्रकस्तीत्वा यावत्सरितो मध्यं प्रयाति, तावत्पयःपूरप्लाव्यमान नरमेकं रुदन्तं वीन्य वभापे-भोः! कस्त्वम् ?, किमर्थं च रोदिपि?। इत्यभिहितः स नितरामरुदत् । अति निर्यन्धेन पुनः पृष्टः स्पष्टमाचष्ट-भो साहसिकशिरोमणे! मामितो निष्कास्य भूपतेः समीप प्रापय, येन तत्र स्ववृत्तमाचक्षे। इत्युक्तः शूद्रकस्तमुत्पाटयितु यावदयतिष्ट तावन्नो-15 त्पटति म सः। ततोऽधस्तात्केनापि यादसा मा विधृतोऽय भवेद-इत्याशय सद्यः कृपाणि- कामधो वायामास शुद्रकः । तदनु शिरोमानमेव शूद्रकस्योद्धर्तुः करतलमारोहत् लघुतया । 'तच्छिर प्रक्षरगुधिरधारमवलोक्य शद्रको विपादमाप । 'ततश्चिन्तयति स्म-धिर ! माममहरि प्रहार" शरणागतातफ च" । इत्यात्मानं निन्दन् वज्राहत इव क्षणं मूच्छितस्तस्थौ । तदनु समधिगतचैतन्यश्विरमचिन्तयत्-कथमिवैतत्सुदुश्चेष्टितमवनिपतये निवेदयिष्यामि । इति लजि-20 तमनास्तत्रैव काष्ठश्चितां विरचय्य तत्र ज्वलनं प्रज्याल्य तच्छिरः सह गृहीत्वा यावदुदर्चिपि प्रवेष्टुं प्रववृते तावत्तेन मस्तकेन निजगदे-भो महापुरुप ! किमर्थमित्यं व्यवसीयते" भवता । "यावदहं शिरोमानमेवासि सैहिकेयवत् सदा । तद् वृथा मा विपीद । प्रसीद, मां राजः समी- पमुपनय । इति तद्वचनं निशम्य चमत्कृतचित्तःप्राणित्ययमिति प्रसृष्टः शूद्रकस्तच्छिरः पहा- शुकवेष्टित विधाय प्रातः सातवाहनमुपागमत् । अपृच्छदथ" पृथिवीनाथ:-शुदक! फिमिदम् ?125 सोऽप्यवोचत्-देव! सोऽयं यस्य ऋन्दितध्वनिर्देवेन रात्री शुश्रुवे । इत्युक्त्वा तस्य प्रागुक्तं वृत्तं सकलमावेदयत् । पुना राजा तमेव मस्तफममाक्षीत्-कस्त्वं भो!, किमर्थ चात्र भवदागम- नमिति?। तेनाभिदधे-महाराज! भवतः कीर्तिमुभाकर्णि समाफN" करुणरदितव्याजेनात्मान ज्ञापयित्वा "त्वामहमुपागमम् । दृष्टश्च भवान् । कृतार्थे मेऽद्य चक्षुपी जाते इति । कां कलां सम्यगवगच्छसि ?-इति राज आजया निरवधि" गीत गातुं प्रचक्रमे। क्रमेण तदानकलया 30 मोहिता सकलापि नृपतिप्रमुग्वा परिपत् । स च मायासुरनामकोऽसुरस्तां माया निर्माय महीप- IA दु स्थित। 2AB निरगमन्। 5A निर्गमा । 4 P भामपि प्र०। 5 Pइनि०। 6P नानि 'पृष्ट । 7P 'म' नानि। Poतया गिर । P .मापनियनि। 10 P विहाय नास्यन्यग्रेद पदम् । 11 A घातकमये सामान। 18 'प्यवसीयते' स्थाने 'करोपि' P पुनके। 13 'मरवा यापद' नानि P पुमके। 14 P राहुयत् । 15 P नास्ति'भय', 16P पीर्विमायय। 17 'या' नाति P. 18 BEP निरवगीत गीत। Page 91**************************************************************************************** ७० १ : प्रवन्धकोशे तेर्महिषी महनीयरूपधेयामपजिहीर्घरुपागतो बभूव । न च विदितचरमेतत्कस्यापि । लोकैस्तु शीर्षमात्रदर्शनात् तस्य प्राकृतभाषया 'सीसुला' इति व्यपदेशः कृतः। तदनु प्रतिदिनं तस्मि- न्नतितुम्बरौ मधुरतरं गायति सति श्रुतं तत्स्वरूपं महादेव्या दासीमुखेन । भूपं विज्ञाप्य तच्छीर्ष स्वान्तिकमानायितम् । प्रत्यहं तमजीगपत् राज्ञी । दिनान्तरे रात्रौ प्रस्तावमासाद्य सद्य 5 एवापहरति स्म तां मायासुरः। आरोपयामास च तां घण्टावलम्विनामनि खविमाने । राज्ञी च करुणं ऋन्दितुमारेभे-हा ! अहं केनाप्यपहिये । अस्ति कोऽपि वीरः पृथिव्यां यो मां मोचयति। 'तत्स्वरं खून्दलाभिख्येन वीरेण श्रुत्वा व्योमन्युत्पत्य च तद्विमानस्य घण्टा पाणिना गाढमधा- यंत । ततस्तत्पाणिनाऽवष्टब्धं विमानं पुरस्तान्न प्राचालीत् । तदनु चिन्तितं मायासुरेण-किमर्थ विमानमेतन्न सपति । यावदद्राक्षीत्तं वीरं हस्तावलम्बितघण्टम् । ततः खङ्गेन तद्धस्तमच्छिदत् । 10 पतितः पृथिव्यां वीरः। स चासुरः पुरः प्राचलत् । ततो विदितव्यपहारवृत्तान्तः क्षितिकान्तः पञ्चाशतमेकोनां वीरानादिशत्-यत्पट्टदेव्याः शुद्धिः क्रियतां केनेयमपहृतेति । ते प्रागपि शूद्रकं प्रत्यसूयापराः प्रोचुः-महाराज ! शूद्रुक एव जानीते । तेनैव तच्छीर्षकमानीतम् । तेनैव च देवी जहे । ततो नृपतिस्तस्मै कुपितः शूलारोपणमाज्ञापयत् । तदनु देशरीतिवशात्तं रक्तचन्दनानुलि- प्ताङ्गं शकटे शाथयित्वा, तेन सह गाढं बद्ध्वा, शूलाय यावद्राजपुरुषाश्चेलुः, तावत्पञ्चाशदपि 15 वीराः संभूय शूद्रकमवोचन्-भोः महावीर! किमर्थ रण्डेव नियते भवान् । 'अशुभस्य काल- हरण मिति न्यायात् मार्गय नरेन्द्राकतिपयदिनावधिम् , शोधय सर्वत्र देव्यपहारिणम् । किमकाण्डे एव स्वकीयां वीरत्वकीर्तिमपनयसि ?। तेनोक्तम्-गम्यतां तर्हि उपराजम् । विज्ञा- प्यतामेनमर्थ राजा । तैरपि तथा कृते प्रत्यानायितः शूद्रका क्षितीन्द्रेण । तेनापि स्वमुखेन विज्ञप्तिः कृता-महाराज ! दीयतामवधिः । येन विचिनोमि प्रतिदिशं देवीं तदपहारिणं च । राज्ञा दिनद- 20 शकमवधिर्दत्तः । शूद्रकगृहे च सारमेयद्यमासीत् तत्सहचारि । नृपतिरवदत्-एतद्भषणयुगलं प्रतिभूप्रायमस्मत्पार्श्वे मुञ्च । स्वयं पुनर्भवान् देव्युदन्तोपलब्धये हिण्डतां महीमण्डलम् । सोऽ- प्यादेशः प्रमाणमित्युदीये प्रवीर्यवान् प्रतस्थे । भूचक्रशक्रस्तत्कौलेयकद्वन्द्वं शङ्खलाबद्धं शय्या- पादयोरवन्नात् । शूद्रकस्तु परितः पर्यटाट्यमानोऽपि यावत्प्रस्तुतार्थस्य वार्तामात्रमपि कापि नोपलेभे, तावदचिन्तयत्-अहो! ममेदमयशः प्रादुरभूत्। यदयं स्वामिद्रोही मध्ये भूत्वा देवीम- 25 सपाजीहरदिति । न च क्वापि शुद्धिलब्धा तस्याः। तस्मान्मरणमेव मम शरणम् । इति विमृश्य दारुभिश्चितामरचयत्" । ज्वलनं चाज्वालयत् । यावन्मध्यं प्रविशेत् तावत्ताभ्यां शुनकाभ्यां देवताधिष्ठिताभ्यां ज्ञातम्-यदस्मदधिपतिनिधनं ध्यायन्नस्तीति।ततो दैवतशक्त्यां शृङ्खलानि भक्त्वा निर्विलम्बौ गतौ तौ तत्र यत्रासीच्छूद्रकरचिता चिता। दशनैः केशानाकृष्य शूद्रक बहिनिष्कासयामासतुः । तेनापि अकस्मात्तौ विलोक्य विस्मितमनसा निजगदे-रे पापीयांसौ! 30 किमेतत्कृतं भवद्भ्यामशुभवद्भ्याम् ?। राज्ञो मनसि विश्वासनिरासो भविष्यति, यत्प्रतिभुवावपि तेनात्मना सह नीतौ । अथ" भषणाभ्यां वभाषे-धीरो भव अस्मद्दर्शितां दिशमनुसर । सरभसं का चिता तव !। इत्यभिधाय पुरोभूय प्रस्थितौ तेन साईम् । क्रमात्प्राप्तौ कोल्लापुरम् । __1 P मधुरस्वरं। 2 P तञ्च । 3 ABE पूंदलाभिख्य-खूदला०। 4'A एकोनान् । 5 AE आदिक्षत् । 6 P 'च'. नास्ति। 7 A उपतस्थे। 8 P पादेऽवतीत् । 9 P पर्यटत् । अट्यमानो० । 10 P नास्ति 'मध्ये'। 11 A. ०मारचत् । 12 P प्राविशत् । 13 BE धनायन्नस्ति; P वान्छन्नस्ति । 14 A शृङ्खला। 15 P..भास । 16 P 'अथ'-नास्ति । . . Page 92**************************************************************************************** सातवाहनप्रबन्ध । तत्रस्यं महालक्ष्मीदेव्या भवनं प्रविष्टौं । तत्र शूद्रकस्तां देवीमभ्यर्च्य कुशनस्तरासीनस्त्रिरात्र- सुपावसत् । तदनु प्रत्यक्षीभूय भगवती महालक्ष्मीस्तमवोचत्-वत्स! किं मृगयसे ?। शूद्रके- णोक्तम्-स्वामिनि ! सातवाहनमहीपालमहिष्याः शुद्धिं वद । *कास्ते केनेयमपहृता?। श्रीदेव्यो- दितम्-सर्वान् यक्षराक्षसभूतादिदेवगणान् सम्मील्य तत्प्रवृत्तिमहं निवेदयिष्यामि । पर तेषां कृते त्वया वल्युपहारादि प्रगुणीकृत्य धार्यम् । यावच ते कणेहत्य घल्यादि उपभुज्य प्रीता न भवेयुस्तावत्त्वया विना रक्षणीयाः। ततः शद्रको देवतानां तर्पणार्थं कुण्डं विरचय्य होममारेभे। मिलिताः सकलदैवतगणाः । स्वां खां भुक्तिमग्निमुखेन जगृहिरे । तावत्तद्धोमधूमः प्रसमरः प्राप तत्स्थानं यत्र मायासुरोऽभूत् । तेनापि ज्ञातलक्षम्यादिष्टशद्रकहोमस्वरूपेण प्रेपितः स्खभ्राता कोल्लासुरनामा होमप्रत्यूहकरणाय । समागतश्च वियति कोल्लासुरः खसेनया समम् । दृष्टस्त- वतगणैः । चकितं च तैः । ततो भपणौ दिव्यशक्त्या युयुधाते दैत्यैः सह । क्रमान्मारितौ च तौ1c दैत्यैः । ततः शूद्रका स्वय योद्धं मावृतत् । क्रमेण दण्डव्यतिरिक्तपहरणान्तराभावाद्दण्डेनैव बहू- निधन नीतवानसुरान् । ततो दक्षिणयाहु दैत्यास्तस्य चिच्छिदुः। पुनर्वामदोष्णव दण्डयुद्धमक- रोत् । तस्मिन्नपि छिन्ने दक्षिणांहिणोपात्तदण्डो योद्धं लग्नः । तत्रापि दैत्यैलने वामपादात्तयष्टि- रयुध्यत । तमपि क्रमादच्छिढन्नसुराः । ततो दन्तैर्दण्डमादाय युयुधे । ततस्तैर्मस्तकमच्छेदि। अथाकण्ठतृप्ता दैवतगणास्त शुद्रकं भूमिपतितशिरस्क दृष्ट्वा-अहो! अस्मद्भुक्तिदातुर्वराकस्यास्य कि 15 जातम् । इति परितप्य योदु प्रवृत्ताः। कोल्लासुरममारयत् । ततः श्रीदेव्याऽमृतेनाभिपिच्य पुनरनुसंहिताद्गश्चके शूद्रकः, प्रत्युज्जीवितश्च । तस्य सारमेयावपि पुनर्जीवितौ । देवी च प्रसन्ना सती तस्मै खगरत्न प्रादात् । अनेन त्वमजय्यो भविष्यसीति च घर व्यतरत् । ततो महाल- क्षम्यादिदैवतगणैः सह सातवाहनदेव्याः शुद्ध्यर्थं समग्रमपि भुवन परिभ्रम्य प्राप्तः शुद्रको महार्णवम् । तत्र चैक पटतरुमुच्चैस्तर निरीक्ष्य विश्रामार्थमारुरोह यावत. 'तावत्पश्यति तच्छा- खायां लम्बमानमधःशिरसं काष्ठकीलिकाप्रवेशितो पाद पुरुपमेकम् । स च प्रसारितजिह्वोs- तीरं विचरतो जलचरादीन् भक्षयन् वीक्षितस्तैः । पृष्टश्च शुद्केण-कस्त्वम् , किमर्थं चेत्थं लम्वितोऽसि ? । तेनोक्तम्-अहं मायासुरस्य कनिष्ठो भ्राता। स च मदनोन्मदिष्णुर्मदग्रजः प्रतिष्टानाधिपतेः सातवाहनस्य नृपतेर्महिषी रिरंसुरपाहरत् सीतामिव दशवदनः । सा च पति- व्रता तन्नेच्छति । तदनुप्रोक्तो अग्रजन्मा-न युज्यते परदाराऽपहरण तव । 25 १९७ विक्रमाकान्तपिश्वोऽपि परस्त्रीपु रिरमया । कृत्वा कुलक्षय पाप नरक दशकन्धर ॥ १ ॥ इत्यादिवाग्भिर्निपिद्धः ऋद्धो मह्यं मायासुरोऽस्यां वटशाखायां टवित्वा मामित्थं व्यटम्ब- यत् । अहं च प्रसारितवदनः समुद्रान्तः सञ्चरतो जलचरादीनभ्यवहरन् प्राणयानां करोमि । इति श्रुत्वा शुद्रकोऽप्यभाणीत्-अहं तस्यैव महीभृतो भृत्यः शुदकनामा तामेव देवीमन्वेष्टमाग- तोऽस्मि । तेनोक्तम्-एवं चेत्तर्हि मां मोचय, यथाऽह सह भूत्वा तं दर्शयामि, तां च देवीम् 130 तेन स्वस्थान परितो जातुपं दुर्ग कारितमस्ति । तच्च निरन्तर प्रज्वलदेवास्ति ततो 'दुर्लक्ष्यम् । तन्मध्ये प्रविश्य त निपात्य देवी प्रत्याहर्तव्या। इत्याफर्य शूद्रकस्तेन कृपाणेन तत्काप्टयन्धनानि च्छित्वा त पुरोधाय, दैवतगणपरिवृतः प्रस्थाय, प्राकारमुल्लक्ष्य तत्स्थानान्तः प्राविशत् । दैवत- *A भादों नाति पवद् पाश्यम् । 1 P tष्ट स्वदेयतः। 2 'वस्य' नास्ति P1 3A मदार। 1A नास्ति 'वायत्' । 5P पाउनपाहर। 6P प्रमारितरसन । 7P तस्तदुरुष्प । 8A सस्कष्ट । Page 93**************************************************************************************** ७२ प्रवन्धकोशे गणांचालोक्य मायासुरः स्वसैन्यं युद्धाय प्रजिघाय । तस्मिन्पञ्चतामञ्चिते स्वयं योद्धमुपतस्थे । ततः क्रमेण शूद्रकस्तेनासिना तमवधीत् । ततो घण्टावलम्बिविमानमारोप्य देवी देवतगणैः सह प्रस्थितः प्रतिष्ठानं प्रति । ___इतश्च दशमं दिनमवधीकृतमागतमवगत्य जगत्यधिपतिर्ध्यातवान्-अहो! मम न महादेवी,न 5च शुद्रकवीरो, न चापि तौ रसनालिहौ; सर्व मयैव कुबुद्धिना विनाशितम् । इति शोचनात्सपरि- च्छद एव प्राणत्यागचिकी' पुरावाहिश्चितामरचयचन्दनादिदारुभिः । यावत्क्षणादाशुशुक्षणिं क्षेप्स्यति परिजनश्चितायाम् , तावद्वर्धापक एको देवगणमध्यात्समायासीत् । व्यजिज्ञपच सप्र- श्रयम्-देव! दिष्ट्या वर्द्धसे महादेव्यागमनेन । तन्निशम्य श्रवणरम्यं नरेश्वरः स्फुरदानन्दकन्द- लितहृदय अर्ध्वमवलोकयन्नालुलोके नभसि दैवतगणं शुद्कं च । अयमपि विमानादवतीर्य राज्ञः 10 पदोरपतत् महादेवी च । अभिननन्द सानन्दं मेदिनीन्दुः शुद्रकम् । राज्याई तस्मै प्रादिशत् । सोत्सवसन्तनगरं प्रविश्य श्रुतशूद्रकचारुचरितः सह महिष्या राज्यश्रियमुपवुभुजे महाभुजः। ६८९) तस्य च सातवाहनस्य चन्द्रलेखाद्याः पञ्चशतानि पत्त्यः । सर्वा अपि पड़भाषाकवित्व- विदः। राजा पुनरनधीतव्याकरणः। आगत उष्णकालः। आरब्धा जलकेलिः। चन्द्रलेखा शीताल: शीतं न सहते । नृपस्तु प्रेम्णा शृङ्गकजलैस्तामनवरतं सिञ्चते । ततः सा संस्कृतेन प्राह-देव! मां 15 मोदकैः पूरय । हालस्तु तत्संस्कृततत्वमनवगच्छन् मोदकनाम श्रुत्वा दास्याः पार्थान्मोदकपट- लिकालानीनयत्। चन्द्रलेखा तांदृष्ट्वा पतिमतिभ्रमंदर्शनादहसीत्-अहो! महाराजस्य शास्त्रोत्तेजि- तमतिव्यापः । राज्ञाऽप्युपहासो ज्ञातः । पृष्टा राज्ञी-किमर्थ वयमुपहस्यामहे ? । राजी जगाद- अन्यार्थस्थानेऽन्यार्थावबोधावत्पासितोऽसि प्रिय ! लजितो राजा। सद्यो विद्यार्थ भारती त्रिरात्रोपवासेनाराध्य प्रत्यक्षीकृत्य तद्वरान्महाकविर्भूत्वा सारस्वतव्याकरणादिशास्त्रशतान्य- 20 चीकृपत् । तस्येश्वरस्य गुणकृत्वों भारती देवताऽवसरेऽवतीर्याह । एकदा भारतीमभ्यार्थयत- सकलमपि पुरं आद्ययामाईमहः कविरूपं भवतु । तथैव कृतं देव्या। एकस्मिन् दिने दशको- टयो गाथाः सम्पन्नाः। 'सातवाहनकशास्त्रं' तत्कृतम् । ६९०) तस्य चोवीपतेः खरमुखो नाम दण्डनाथः शूरो भक्तः प्राज्ञः पुण्याख्यः आरम्भसिद्धः। एकदा हालेनादिष्टं खरमुखाय-मथुरां लाहि । आदेशः प्रमाणमित्युक्त्वा बहिर्व्यापारिणां पार्श्वमेत्य 25 राजादेशमचकथत् । व्यापारिभिः प्रोक्तम्-खरमुख ! हे मथुरे स्तः। एका दक्षिणमथुरा पाण्ड- वकृता । अपरा पूर्वमथुरा यद्गोष्ठे कृष्णः समुत्पन्नः। यत्र वृन्दावनादीनि वनानि । द्वयोर्मध्यात्का मथुरा ग्राह्येति पृच्छ । खरमुखेनोक्तम्-प्रतापमार्तण्डं तं का प्रष्टुमीष्टे । वक्ष्यति हि-रे! मम चेतो न जानीथ ? । तस्य च प्रकोपः सद्यः प्राणहरः। द्वे अपि मथुरे ग्रहीष्यामः । सैन्यं द्विखण्डं कृत्वा द्वे मथुरे एकस्मिन्नेव मध्याह्ने खरमुखेन जगृहाते । तत्पुरीद्वयग्रहणव पनिकामुखौ द्वौ नरौ 30 आगमताम् । यावत्प्रमोदात्तौ नृपतिरालपति तावत्तृतीय एक आगात् । स उवाच-देव ! भव- त्काराप्यमाणजैनप्रासादभूमितलेऽक्षयो निधिः प्रादुर्वभूव दिष्ट्या । यावत्तदभिमुखमीक्षते, तावदेव दाली प्रेममञ्जूषा शुद्धान्तादायासीत् ।-खामिन् ! देव्या चन्द्रलेखया सर्वाङ्गलक्षणः सुतो 1 A. चिकीर्षुः । 2 A 'चितायाम्' नास्ति; BED परिजनश्च तौ। 3 P मतिश्रम। 4 P हसितोऽसि। 5-A विद्याभारती प्रति; BE विद्यावर्ष भारती प्रति। 6P चीकरत् । 7 A गुणाकृष्टा। 8 P oभ्यर्थयत् । 9 A आदिश० । 10 P आयाती। Page 94**************************************************************************************** सातवाहनप्रबन्धः। जातः। चतस्रोऽपि बर्दापनिका दत्ताः मापालेन । तेन प्रमोदेनास्य महोन्माद उत्पन्नः । ततो मेलयित्वा लोकं यारूढो गोदावरीतीरमुपेत्य, तां जगाद तारतरखरम्- १९८ सच भण गोदावरि । पुत्वसमुद्देण साहिया सती । सालाहणकुलसरिस जइ ते कूले कुल अत्थि ॥ २ ॥ १९९ उत्तरओ हिमवतो दाहिणओ सालवाणो राया । सममारभरकता तेण न पल्लत्यए पुहवी ॥ ३ ॥ तादृशं तस्य गर्वमीक्षमाणा महामत्रिणोऽन्योन्यं मन्त्रयामासुः-नृपः श्रिया तरलितः। ततो २००. जितश्चेत्पुरुपो लक्ष्म्या, हृत लोकद्वय ततः । जिता चेत्पुरुषेणैपा जित लोकद्वय ततः ॥४॥ तस्मादस्य दुःखोत्पादनेन मदगदोच्छेदः कर्तुमर्हः । इत्यालोच्य राजानं व्यजिज्ञपत्-देव ! ललाटंतपतपनः काला, भोजनावसरो वर्तते । पादोऽवधार्यतां सौधायेत्युदित्वा सौधमानपुः। तत्रापि मदात् स्तम्भादीनि कुट्टयति । ततो मन्त्रिभिः खरमुखं वीरोत्तंसं छन्नीकृत्य राज्ञे उक्तम्- देव ! खरमुखः सद्यो व्याधिना द्यामगमत् । अथ तच्छ्रवणे क्षमापो दुःखाच्छोकान्मदमहासीत् । 10 शोकात्तु वैकल्यमचकलत् । अथामात्यैर्विजप्तम्-मजेश्वर ! विदेशादायातैर्मृतजीवन विद्याविदुरैः खरमुग्यो जीवितः । यद्यादेशः स्यात् तदा पदकमलयुगलतले लोव्यते । इत्युक्त सुस्थो जातः । दृष्टः ग्वरमुखः । सुष्टु तुष्टो राजा । एवं तस्योदयः। ६९१) अन्यदासोऽसौ गोदावरीतीरे क्रीडति । 'तदैकेन मीनेन जलाहहिर्मुखं निष्कास्य हसि- तम् । भीतश्चमत्कृतश्च भूपः। रात्री ध्यानाकृष्टाऽऽयाता ब्राह्मी पृष्टा-देवि! मीनः किमर्थ 15 हसति । ब्राह्याह-वत्स! प्रारभवे त्वमन्त्रैव पुरे काष्ठभारहारक आसीः। स च मध्याहे काष्ठ- कष्टार्जितधनक्रीतान् सक्तून् उष्णोदकविलोडितान मासक्षपणिकक्रपये मुदा ददे । तेन पुण्येन त्वं सम्राडवातारी: । तदेकस्तत्रत्यो व्यन्तरो वेत्ति । तेन मीने सङ्कम्य हसित त्वया दृष्टम् । राजाह- हासस्य को भावः । ब्राह्मी वक्ति-अय भाव-अयं दानादाप्तर्द्धिः, पुनर्दाने मन्दादरः। धिगा- मकार्यमूढं जीवलोकमिति । सातवाहनो जल्पति-तस्य व्यन्तरस्य मचर्चया कि कार्यम् ? 120 ब्राध्या-प्रारभवेऽयं तवैव सखाऽभूत् । तेन तु कृपणत्वात्किमपि न दत्तम् । केवलं त्वद्दत्तमेव किश्चिदनुमोदितम् । तेन पुण्येन व्यन्तरत्वेनावतीर्णोऽयम् । ततस्त्वयि हितार्थित्वमस्य । मां च त्वन्मन्त्रशक्तिसमाकृष्टिप्रत्यक्षां त्वन्मातृकल्पां जानाति । ततस्तथाऽहसदिति विति। तवृत्ता- न्तजानादवनीशो वदान्यत्वं सुष्वाददे । ब्राह्मी-श्रीदत्तशब्दवेधरससिद्धेरिच्छादानी मानी जैनः । ६९२) इत्थंकार नानाविधान्यवदातानि हालक्षितिपालस्य कियन्ति नाम वर्णयितु पार्यन्ते ।25 स्थापितश्चानेन गोदावरीतीरे महालक्ष्मीमासादः । अन्यान्यपि च यथार्ह दैवतानि निवेशितानि तत्तत्स्थानेषु । राज्यं प्राज्यं चिरं भुजाने जगतीजानी, अन्यदा कश्चिद्दारभारहारकः कस्यचिद्वा- णिजस्य वीथौ प्रत्यहं चारूणि दारूण्याहृत्य विक्रीणीते म। दिनान्तरे च तस्मिन्ननुपेयुपि वणिजा तड़गिनी पृष्टा -किमर्थ भवनाताऽद्य नागतो मद्वीभ्याम् ? । तया यभणे-श्रेष्ठिश्रेष्ठ! मत्सोदयः सर्गिपु सम्प्रति प्रतिवसति । पणिगभणत्-कथमिव ? । सायदत्-कङ्कणसन्धादारभ्य विचार-30 प्रकरणे दिनचतुष्टय नरः स्वर्गिप्विव वसन्तमात्मान मन्यते । तत्तदुत्सवालोकनकौतृहलात् । तचाकपर्य राजाऽप्यचिन्तयत्-अहो ! अहं खर्गिपु किं न वसामि । चतुर्यु चतुर्यु दिनेषु अनवरतं 1 P नाति 'तो'। P जीवनविदुरै । 8 BE रोट्यते, Peोग्यते। 4 सदकः। 5 P हमितः। 6P भूपो- अमूर। 7P मासि। 8P स्थापिता। 9 P महालक्ष्मी प्रासादे। 10 P भगिन्याष्टा । प्र.को. १. Page 95**************************************************************************************** ७४ प्रबन्धकोशे विवाहोत्सवमय एव स्थास्यामि । इति विचार्य चातुर्वर्ण्य यां यां कन्यां युवति रूपशालिनी पश्यति शृणोति स्म 'च, तां तां सोत्सवं पर्यणेपीत् । एवं च भूयस्यनेहसि गच्छति लोकश्चि- न्तितम्-अहो! कथं भाव्यमनपत्यैरेव सर्ववर्णैः स्थेयम् । सर्वाः कन्यास्तावद्राजैव विवोढा । योषिदभावे च कुतः सन्ततिरिति । एवं विषण्णेषु लोकेषु विवाहवाटिकानानि ग्रामे वास्तव्य 5एको द्विजः पीठजां देवीमाराध्य व्यजिज्ञपत्-भगवति ! कथं विवाहकर्माऽस्मदपत्यानां भावीति । देव्योक्तम्-भो वाडव ! त्वद्भवनेऽहमात्मानं कन्यारूपं कृत्वाऽवतरिष्यामि । यदा मां राजा प्रार्थयते तदाऽहं तस्मै देया। शेपमहं भलिष्ये । तथैव राजा तां रूपवतीं श्रुत्वा विप्रमयाचत । सोऽपि जगाद-दत्ता मया । परं महाराज! स्वयमत्रागत्य मत्कन्योद्वोढव्या । प्रतिपन्नं राज्ञा । गणकदत्ते लग्ने क्रमाद्विवाहाय प्रचलितः। प्राप्तश्च तं ग्रामं श्वशुरकुलमवनिपतिः । देशानुरोधा- 10 द्वधूवरयोरन्तराले जवनिका दत्ता । अञ्जलियुगन्धरीलाजैर्भूतः। लग्नवेलायां तिरस्करिणीमपनीय यावदन्योऽन्यस्य शिरसि लाजान्वितरीतुं प्रवृत्तौ, तदनु किल हस्तमेलापो भविष्यतीति, ताव- द्राजा तां रौद्ररूपां राक्षसीमिवैक्षिष्ट । ते च लाजाः कठिनकर्करपापाणरूपा राज्ञः शिरसि लगितुं लग्नाः । क्षितिपतिरपि किमपि वैकृतमिमिति विभावयन् पलायितः। तावत्सा पृष्ठ- लग्नाऽश्मशकलानि वर्षन्ती प्राप्ता। ततो नरपतिनागदं प्राविशन्निजजन्मभूमिम् । तत्रैव च 15 निधनमानशे। अद्यापि सा पीठजा देवी प्रतोल्या वहिरास्ते निजप्रासादस्था । शुद्रकोऽपि क्रमेण कालिकादेव्याऽऽजारूपं विकृत्य वापी प्रविष्टया करुणरसितेन विपलब्धस्तनिष्कासनार्थ प्रावि- शत् । पतितस्य तस्य कृपाणस्य कूपद्वारे तिर्यपतनाच्छिन्नाङ्गः पञ्चतामानश्च । महालक्ष्म्या हि वरवितरणावसरे-अस्मादेव कौक्षेयकात्तवादिष्टान्तावाप्तिर्भवित्री त्यादिष्टमासीत् । ६९३) ततः शक्तिकुमारो राज्येऽभिषिक्तः सातवाहनायनिः। तदनन्तरमद्यापि राजा न 20 कश्चित्प्रतिष्ठाने प्रविशति वीरक्षेत्र इति। अत्र च यदसम्भाव्य कचिट गर्भ. तत्र परस मन्तव्यो हेतुः* । यन्नासङ्गतवागजनो जैनः। श्रीवीरे शिवं गते ४७० विक्रमार्को राजा' तत्का- लीनोऽयं सातवाहनस्तत्प्रतिपक्षत्वात् । यस्तु कालिकाचार्यपात् पर्युषणामेकेनाहा अर्वागा- नाययत्, सोऽन्यः सातवाहन इति सम्भाव्यते । अन्यथा- ___२०१. नवसयतेणउएहिं समइकतेहिं वीरमुक्खाओ । पजोसवणचउत्थी कालयसूरीहिं तो ठविआ ॥ ५॥ ___ 25 इति चिरत्नगाथाविरोधप्रसङ्गात् । न च सातवाहनक्रमिकः सातवाहन इति विरुद्धम् । भोज- पदे बहूनां भोजत्वेन, जनकपदे बहूनां जनकत्वेन रूढत्वात् । ॥ इति सातवाहनप्रबन्धः समाप्तः ॥ १५॥ 1 P नास्ति 'च'। 2 P करिष्ये। 3 एतत्पाठस्थाने P पुस्तके 'अस्माद्देवखशात्तव मरणं भावी०' एतादृशः पाठः प्राप्यते । 4 P पुस्तके 'सातवाहनस्य निसूदनान्तर०' एतादृशो भ्रष्टः पाठो विद्यते। 5 P वीरक्षेत्रत्वात् । 6 BP यदसद्भाव्यं । * A. आदर्श 'मन्तव्यो है वर्य नासंगत.' एपः पाठः। 7 P राजाऽभवत् । Page 96**************************************************************************************** वकचूलप्रवन्ध । १६. अथ वङ्कचूलप्रवन्धः । २०२ पारेतजनपदान्तश्चर्मण्वत्यास्तटे महानद्याः । नानाघनवनगहना जयत्यसौ ढीपुरीति पुरी ॥१॥ ६९४) अत्रैव भारते व विमलयशा नाम भूपतिरभूत्। तस्य सुमङ्गलदेव्या सह विपयसुखम- नुभवतः क्रमानातमपत्ययुगलम्। तत्र पुत्रः पुप्पचूला, पुत्री पुष्पचूला । अनर्थसार्थमुत्पादयतः पुष्पचूलस्य कृतं लोकैङ्कचूल' इति नाम । महाजनोपलब्धेन राजा रुपितेन निःसारितो नगरा- द्ववचूल । गच्छंश्च पथि पतितो भीपणायामटव्यां सह निजपरिजनेन स्वस्रा च लेहपरवशया। तत्र च क्षुत्पिपासार्दितो दृष्टो भिल्लैः। नीतः खपहयाम् , स्थापितश्च मृतपूर्वपल्लीपतिपदे । पर्य- पालयद्राज्यम् । अलुण्ठयदु ग्रामनगरसार्थादीन् । अन्यदा सुस्थिताचार्या अदाचलादष्टापद- यात्रायै प्रस्थितास्तामेव सिंहगुहां नाम पल्ली सगच्छाः प्रापुः । जातश्च वर्पाकालः । अजनि पथिवी जीवाकला। साधभिः सहालोच्य मार्गयित्वा वह चलाइसतिं स्थिता तन्त्रव सरयः। तेन च प्रथममेव व्यवस्था कृता-मम सीमान्तर्धर्मकथा न कथनीया । यतो युष्मत्कथायां अहिं- सादिको धर्मः । न चैवं मम लोको निर्वहति । एवमस्तु इति प्रतिपद्य तस्युरुपाश्रये गुरवः । *वकचूलेनाहय सर्वे प्रधानपुरुषा भणिता:-अहं राजपुत्रस्तन्मत्समीपे ब्राह्मणादय आगमि- प्यन्ति । भवद्भिर्जीववधो मांसमद्यादिप्रसङ्गश्च पल्ल्या मध्ये न कर्त्तव्यः । एवं कृते यतीनामपि भक्तपानमजुगुप्सितं कल्पत इति । तैस्तथैव कृतं यावचतुरो मासान् । प्राधो विहारसमयः ।। अनुज्ञापितो वकचूला सूरिभिः। २०३ समणाण सउणाण ममरकुलाण च गोकुलाण च । अनिआओं वसहीओं सारईआण च मेहाण ॥ २॥ इत्यादि वाक्यैः । ततस्तैः सह चलितो वकचूलः । खसीमां प्रापुपा तेन विज्ञप्तम्-चयं परकीय- सीमां न प्रविशाम इति । सूरिभिर्भणितः वयं सीमान्तरमुपेतास्तत् किमप्युपदिशामस्तुभ्यं [दाक्षिण्यात् ] तेनोक्तम्-यन्मयि निर्वहति तदुपदेशेनानुगृह्यतामयं जनः । ततः सूरिभि-. श्वत्वारो नियमा दत्ताः । तद्यथा-अज्ञातफलानि न भोक्तव्यानि १ । सप्ताष्टानि पदान्यपमृत्य घातो देयः २। पदेवी नाऽभिगन्तव्या ३। काकमांसं न भक्षणीयमिति ४ । प्रतिपन्नास्तेन ते। गुरुन् प्रणम्य 'खगृहमगमत् । अन्यदा गतः सार्थस्योपरि घाट्या । शकुनकारणान्नागतः साथैः। धुटितं च तस्य पथ्यदनम् । पीडिताः क्षुधा राजन्याः। दृष्टश्च तैः किम्पाकता फलितः। गृहीतानि फलानि । न जानन्ति ते नामधेयमिति तेन न भुक्तानि । इतरैः सर्वभुजिरे । मृताच 35 ते किम्पाकफलैः। ततश्चिन्तितं तेन-अहो! नियमानां फलम् । तत एकास्येवागतः पल्लीम् । रजन्यां प्रविष्टः स्वगृहम् । दृष्टा पुष्पचूला दीपावलोकेन पुरुपवेपा निजपन्या सह प्रसुप्ता । जातश्च कोपस्तयोस्परिद्वावप्येतो खड्गमहारेण छिनप्रीति यावदचिन्तयत्तावत्स्मृतो नियमः। ततः सप्ताप्ट पदान्यपक्रम्य' घातं दढतः खाटकृतमुपरि गड्गेन। व्याहृतं स्वस्रा-जीवतु वङ्कचूला। इति तद्वचः श्रुत्वा लन्नितोऽसावपृच्छत्-किमेतदिति ? । साऽपि नटवृत्तान्तमचीकथत् । कथं ?-30 भ्रातः ! अत्र प्रतिभूपतेनटवेपघराश्चरा आगच्छन् । यदि पहयां यकचूलोऽस्ति तदाऽस्माकं 1A Jह । A नास्ति 'वकलेन'। 3 AC सरसमीपे। 4 Pa5 P पुत्रक पवरपद श्यते। 6 CP सस्य गृ.। 7 BC पदाम्पपयस्य । 8P 'क्य' नाति । Page 97**************************************************************************************** ܕܐ | ܝܐ.: :ܐ. -»...܃ :ܐ : ܐ ܕܐ:!ܐ - '!!, 13 ܐ ܕܐܐ ! , ܐ ، ܃ ܃ ܃ : ;; -܀ ܐܼܐܼܼ ܖ܇ ܀܃ ܃ 144 | 3:ܝܐܐ * ܀ ܕ ܕ ܕ ܕ ܕܪ ܂ ܗܽܘ ܂ E44 ܙ ܙ ܀ ܀ | ܕ݁ܶܚܚܚܙ܀ * ** * ܕ݁ ܀ ܪ ܝ ܨܹ܇܇ ܇ !"܊ ܕܼ܃ ܃ ܃ ;: , ܃ ܊ ܕܼ ܕܼ ܃ ;: « - :: ;-: - ܪܽܝܺܝܺ ;. ܀ .; ܕ ;; ܕ ;i܃ ܊ ܃ ܃ ܊ ܃ ܃ ܃ ܃ ܃ ܃ ܃ ;':r;1 ;ܐܸܵ، ?= ܐ̄ܨܕ: ? ;::: ff : r - ; ; ' - - r ; - tri ܪܶ ܕ݁ܺ:܃ ܃ ܃ ܃ - ? ܪܽܕ݂ܐܺܝܪܽ܃ ܃ ܃ - ri - ff ' - r : fi ' R ' ܊ ܨܼܕ ܚܨ ܝܼܲ : tܓ݂ ;'- ، ܟܼ ܃ ܊܇ , : ; ܀܀ } * ܃ܪܺ،، ܃ ܃ ܊ ܕܼ ܃ ܃ ܃ : ; } ?::-. ? f ' f ; ; ; ; if ܐ.:! 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। साऽप्यूचे-अग्रमहिप्परमिति । चारोऽयादीत्-ययेवं तर्हि ममाम्या भयसि। अतो यामि।इति निश्चिते तयाखानं नगर्विदार्य पूत्कृतिपूर्वमाहता आरक्षकाः130 गृहीतस्तैः। राजा चानुनयार्यमागतेन तद् दृष्टम् । राजोक्तास्ते 'पुरुषा:-मैनं गाढ फुर्वाध्यमिति । ते रक्षितः। प्रातः पृष्टः क्षितिभूना। तेनाप्युक्तम्-देव ! चौर्यायाएं प्रविष्टः । पश्चाईयभाण्टा. गारे देव्या दृष्टोऽस्मि । यावदन्यस कथयति, तावन्तुष्टो रिदितवेद्यों नरेन्द्रः स्वीकृतः पुप्रतया। JAB | 2P प्राविशार। 3 Pमुन्ध। पदिय । 5 Pमा । G.P.वियो। Page 99**************************************************************************************** ७८ प्रवन्धकोशे स्थापितश्च सामन्तपदे । देवी विडम्ब्यमाना रक्षिता वङ्कचूलेन । अहो ! नियमानां शुभं फलमिति अनवरतमयमध्यासीत् । प्रेषितश्चान्यदा राज्ञा कामरूपभूपसाधनार्थ । गतो युद्ध घातैर्जजरितो विजित्य तमागमत्वस्थानम् । व्याहृताश्च राज्ञा वैद्याः। यावबद्धोऽपि घातव्रणो विकसति । तैरुक्तम्-देव! काकमांसेन शोभनो भवत्ययम् । तस्य च जिनदासश्रावकेण साई प्रागेव 5 मैत्र्यमासीत् । ततस्तदानयनाय प्रेषितः पुरुषः पुरुषाधिपतिना, येन तद्वाक्यात् काकमांसं भक्ष- यतीति । तदाऽऽहूतश्च जिनदासोऽवन्तीमागच्छन्नुभे दिव्ये सुदत्यौ रुदत्यावद्राक्षीत् । तेन पृष्टे- किं रुदिथः ? । ताभ्यामुक्तम्-अस्माकं भत्ता सौधर्माच्युतः। अतो राजपुत्रं वङ्कचूलं प्रार्थयावहे । परं त्वयि गते स मांसं भक्षयिता । ततो दुर्गतिं गन्ता । तेन रुदिवः। तेनोक्तम्-तथा करिष्ये यथा तन्न भक्षयिता। गतश्च तत्र राज्ञोपरोधान्चलमवोचत-गृहाण वलिभुकपिशितम्। पट- 10 भूतः सन् प्रायश्चित्तं चरेः । वङ्कचूलोऽवोचत्-जानासि त्वं यदाचर्याप्यकार्य प्रायश्चित्तं ग्राह्यम् , ततः प्रागेव तदनाचरणं श्रेय इति । 'प्रक्षालनाद्धि पकस्य दूरादस्पर्शनं वरम्' इति वाक्यान्निषिद्धो नृपतिः। विशेपप्रतिपन्नव्रतनिवहश्चाच्युतकल्पमगमत् । वलमानेन जिन- दासेन ते देव्यौ तथैव रुदत्यौ दृष्ट्वा प्रोक्तम्-किमिति रुदियः। न तावत्स मांसं ग्राहितः। ताभ्यां अभिदधे-स ह्याधिकाराधनावशादच्यतं प्राप्तः। ततो नाभवदस्मतति। एवं जिनधर्मप्रभाव __सुचिरं विभाव्य जिनदासः स्वावासमाससादेति । अस्य दिपुरीतीर्थस्य निर्मापयिता वकचूलः। ॥ इति वकचूलप्रवन्धः ॥ १६ ॥ . १७. अथ विक्रमादित्यप्रवन्धः। ___६९८) विक्रमादित्यपुत्रं विक्रमसेनराजानं प्रति पुरोधसाऽऽशीर्दत्ता-यत्त्वं पितुर्विक्रमादित्याद- 20धिको भूयाः। तदा देवताधिष्ठिताभिः सिंहासनस्थाभिश्चतसृभिः काष्ठपुत्रिकाभिर्हसितम्।। तदा विक्रमसेनेन पृष्टाः पुत्रिका:-किमिति हस्यते । ताः प्रोचुः-तेन सह समत्वमपि न घटते, कुतो नामाधिक्यम् । आद्याह-अवन्त्यां विक्रमो राजा अपूर्वसत्यवार्ताकथकाय दीनारपञ्चशी दत्ते । एवं श्रुत्वा *खर्परकचौरेण दीनारपञ्चशती याचिता । वार्ता चैका कथिता । यथा-गन्धवहश्मशानसमीपे 25 पातालविवरकूपे मया दीपो देवीहरसिद्धिप्रेषितः पतन् दृष्टः । मयापि तत्पृष्टे झम्पापितम् । पाताले तत्र दिव्यं सौधं दृष्टम् । तत्र तैलकटाहिका ज्वलन्ती दृष्टा । तत्पार्श्वे एको नरो दृष्टः । पृष्टश्च-किमर्थं त्वमिह ? । तेनोक्तम्-अत्र सौधे शापभ्रष्टा दिव्यकन्याऽस्ति । सा ब्रूते 'यस्तैल- कटाहिकायां झम्पां दाता स मे वर्षशतं पतिर्भविता ।' अतोऽहमेतत्पतित्वार्थमन तिष्ठामि । परं साहसं नास्ति । इति वार्तया पञ्चशती लब्धा । तेन खप्परेण समं राजापि तत्र गतो विवरेण । - - --- -- 12 रूढो। 2 A ततो। दण्डान्तर्गतपाठस्थाने ABE आदर्शपु 'चतसृभिर्वारांगनाभिर्हसितं देवताधिष्ठिताभिः सिंहास- नस्थिताभिः' एतादृशः पाठभेदः। 3 A. शतं । 4 AB कर्परक०। 5A तत्र । 6A कर्परचोरेण । Page 100**************************************************************************************** ७९ विक्रमादित्यप्रवन्धः। तैलकटाहिकायां शम्पा दत्ता । कन्यया सोऽमृतेन जीवितः। यावत्सा राजानं वृणुते । तावद्रा- झोक्तम्-अग्रेतनं नरं वरय । वृतः स तया। एवं यः परोपकारी तदधिकोऽयं कथं भावी ?॥१॥ द्वितीययोक्तम्-कासीतो द्वौ द्विजो आयातौ । विक्रमार्केण पृष्टौ राज्यस्वरूपम् । ताभ्यामूचे- अस्मद्देशे पातालविवरमस्ति । तत्रान्धो राक्षसो वर्तते । अस्मद्देशखामी तैलकटाहे झम्पां दत्त्वा स्वमांसेन राक्षसस्य पारणं कारयति स्म । राक्षसोऽपि तं पुनर्नवीकरोति । सप्त अपवरिका' स्वर्ण- 5 सम्पूर्णाश्च' कुरुते । प्रत्यहं प्रातः सप्ताप्यपवरिकास्त्यागेन रिक्तीकुरुते। श्रुत्वेदं विक्रमोऽपि तत्र गतः। कटाहे झम्पा दत्ता। रक्षसा भक्षितो जीवितश्च । पुनर्भक्षितोजीवितश्च । राक्षसस्य शापे- नान्ध्यमस्ति । तच्छापान्तोऽभूत् । हरभ्यां पश्यति । दृष्ट्वा चाह-कस्त्वं साहसी?। तेनोक्तम्- विक्रमोऽहम् । तुष्टोऽहं ते। याचस्त्र । राज्ञोक्तम्-तुष्टश्चेत्तदाऽस्य राज्ञो'] नित्यं सप्ताप्यपरिकाः वर्णपूर्णा भूयासुः। तथाऽस्य पुनरेव कटाइझम्पापातादियातना मा भूत् । रक्षसोक्तम्-एव-10 मस्तु । अतः कथ विक्रमार्कादधिको भावी ?, समोऽपि न । अतो हसितः॥२॥ तृतीययोक्तम्-एकदा विक्रमार्को निजपूर्वास्तव्यग्वल्वाटकुम्भकारयुक्तो देशान्तरं गतः। पर- वेशविद्यावेदी योगी मिलितः। स आवर्जितः तुष्टश्च विद्यां दातुमारेभे । राज्ञोक्तम्-प्रथमं मम मित्रस्य ददत । तेनोक्तम्-न योग्योऽसौ । निर्वन्धात्तस्यापि दत्ता [गुणरञ्जितेन योगिना नृपस्य पश्चाद् पलादत्ता।] अवन्तीं गतो राजा राज्यं करोति । एकटा पहाश्वो मृतः। विद्यापरीक्षार्थ 15 राज्ञा खजीवस्तत्र क्षिप्तः । कुम्भकारेण स्वजीवो नृपदेहे । कुम्भकारो राज्यं करोति । तेनाश्वो मारणाय चिन्तितः। नृपजीवस्तु पूर्वमृतशुकदेहे प्रविष्टः । शुकोऽपि सोमदत्तष्ठिभार्यामोपि- तभर्तृकाकामसेनागृह गतः। सा तचातुर्येण हृष्टा राजी समीपं न गच्छति । श्रेष्ठी समागतः। सा राजी समीपं गता। अनागमनकारणं पृष्टा । शुकचातुर्यकारणं प्रोक्तम् । तया आनायितः शुकः । सा रञ्जिता तेन, यथा राज्ञा पूर्वम् । एकदा शुकेन राजीलेहपरीक्षा गृहगोधिकादेहे 20 गतम् । राज्या तद्वियोगेन काष्ठभक्षणं कर्तुमारब्धम् । नृपजीवेन शुको जीवापितः । सा राजी व्यावृत्ता। शुकेन साजपि वृत्तान्तो राज्य कथितः । राज्या कुम्भकारस्यावर्जना कृता । तेन कुम्भकारजीवेन तुष्टेन विद्याप्रदर्शनाय मृतयोत्कटदेहे स्वजीव: क्षिप्तः । नृपो निजदेहं गतः। अजो भयात्कम्पते । राजा उक्तः-न भेत्तव्यम् । नाह त्वत्समो भावी । सकृपोऽस्मि । त्वं सुखं जीव । घर । पिय । ततः कथं तेन समो भविष्यति ॥ ३॥ चतुर्योक्तम्-एकदा 'विक्रमार्कणोत्तमं सौध कारितम् । राजा तत्र गतः विलोकनाय । तत्र चटकयुग्ममुपविष्टमस्ति । चटकेनोक्तम्-सुष्टु सौधमस्ति । चटिकयोक्तम्-यादृश स्त्रीराज्ये लीला- देव्या पारागृहमस्ति तादृशमेतत् । राज्ञा तच्छृतम् । तद्गमनौत्सुक्यं जातम्'। "परं स्थान तु न वेत्ति । तेन सचिन्तो "जातः। भहमानो नृपाशय ज्ञात्वा तत्स्थानकज्ञानाय चचाल । तन्मार्ग लवणसमुद्र ततो पूलीसमुद्रमुत्तीर्य तत्र रात्री मदनायतने स्थितः । निशीथे हयदेपारयसंसूचितं 30 दियालङ्कारभूपित दिव्यस्त्रीवृन्दमागमत् । तत्म्यामिन्या कामः पूजिता "व्यावृत्तमानानां तासां 1A मायरान् । Aml। 3A दया। *P पुनरीिय यारप नोपराम्पते। 1 A रक्षम । SAP नाति पदमेगा। IP पुमा र कोटरगत पापने। GA नाति। 7 A 'Y' मामि। 8A पिरमेण । 9-10 am पर नातिन भादों। 11 IT'नानि A माद। 12 A पापांमा। 25 Page 101**************************************************************************************** .८० : . प्रवन्धकोशे .. अश्वपुच्छे लगित्वा तत्र गतः। दासीभिदृष्टः । स्वामिनी पार्श्वे नीतः। तया स्नानादि कारितः । रात्रौ तद्गृह एव स्थितः । तया खपत्या उक्तम्-मम विक्रमादित्यो भा भूयात् , किं वा यो मां चतुर्भिः शब्दैर्जागरयति । इत्युक्त्वा सुप्ता । तेन चिन्तितम्-किं चतुर्भिरपि शब्दैन जागत्ति । तर्हि एनामहमेव जागरयिष्यामि । चत्वारः शब्दाः कृताः। यदा न जागर्ति तदा पादाङ्गुष्ठश्च- 5 स्पितः । तया पादेनाहतो यत्र विक्रमादित्यः सुप्तोऽस्ति तत्र पतितः। राज्ञा पृष्टम्-किमिदं ?। तेन सर्वोऽपि वृत्तान्तः प्रोक्तः। ___ ततो राजाऽग्निसझं वेतालमारुह्य तत्र गतः। वेतालः प्रच्छन्नो जातः । राजा दासीभिस्तत्र नीतः। तया भक्तिः कृता । तद्रूपदर्शनात्सरागा जाता। परंशयानया प्रतिज्ञा कृता । तथैवोक्तम् । __राज्ञा दीपस्थितो वेताल उक्तः-भोः प्रदीप ! कामपि कथां कथय । स वक्तुमारेभे-कश्चि- 10 द्विप्रः। तस्य पुत्री । सा चतुर्णा वराणां दत्ता पृथक् पृथर ग्रामे । चत्वारोऽप्यागताः। विवादो जातः। तिया महान्तमनथै दृष्ट्वा काष्ठभक्षणं कृतम् । लेहादेकेन वरेणापि चितामध्ये झम्पा- पितम् । एकोऽस्थीनि गृहीत्वा गङ्गां गतः । एकस्तत्रोटजं कृत्वा स्थितो भस्मरक्षार्थम् । एको देशान्तरं गतः। भ्रमता च तेन सञ्जीवनी विद्या शिक्षिता । पुनरपि तत्रागतः। अपरेऽप्यागताः। सा जीवापिता । पुनर्विवादो जातः । तर्हि चतुर्णा मध्ये कस्य सा पत्नी ? । राज्ञोक्तम्-अहं न 15 वेद्मि । त्वमेव ब्रूहि । स आह-यश्चितया सहोत्थितः* स भ्राता। योऽस्थिनेता स पुत्रः। येन जीवापिता स पिता, उत्पत्तिहेतुत्वात् । यो भस्मरक्षकः स भर्ता, पालकत्वात् ॥ ४-१॥ राज्ञा ताम्बूलस्थगिका "द्वितीयकथां पृष्टा । वेतालाऽधिष्टानात्साप्याह-कुत्रापि मृतभर्तृका ब्राह्मणी अभूत् । तस्या जारेण सह सुता जाता । तां रात्रौ बहिस्त्यक्तुं गता। इतश्च तत्र कोऽपि शूलाक्षिप्तो जीवन्नस्ति । तस्य पादे स्खलिता । तेनोक्तम्-कः पापी दुःखिनोऽपि दुःखमुत्पादयति । 20 किं दुःखम् । सोऽप्याह-देहपीडादिकं, विशेषतो निष्पुत्रत्वं कथितम् । पुनः शूलानरेणोक्तम्- त्वमपि कथय, का त्वम् ? । निजचरितं तयोक्तम् । तन्निशम्य तेनाप्युक्तम्-पुराहृतं भूनिक्षिसं अत्रस्थं द्रव्यं त्वं मदीयमादाय सुतां मया सह विवाहय । ब्राह्मणी प्राह-त्वमिदानीं मरिष्यसि । सुता च लध्वी । कथं पुत्रोत्पत्तिः ? । ऋतुकाले कस्यापि द्रव्यं दत्त्वा पुत्रमुत्पादयः। तया तथैव सर्व कृतम् । पुत्रो जातः । स रात्रौ राज्ञो द्वारे क्षिप्तः । राज्ञः केनाप्यर्पितः। कालेन' निष्पुत्रस्य 25 नृपस्य राज्ये स एवोपविष्टः। श्राद्धदिवसे गङ्गायां पिण्डदानं कर्तुं गतः। जलाद्धस्तत्रयं निर्ग- तम् । स राजा विस्मितः। कस्य करस्य पिण्डं ददामि । तर्हि भो राजन् ! वद कस्य देयः पिण्डः । राज्ञोक्तम्-चौरहस्तस्य ॥४-२॥ राज्ञा स्वर्णपालकं जल्पितम् । तदपि कथामाह-कस्मिन्नपि ग्रामे कश्चित्कुलपुत्रः। स परिणी- तोऽन्यग्रामे । परं तत्पत्नी श्वशुरगृहं नागच्छति । खजनैर्निर्गुण इति हस्यते । एकदा सर्वजन- 30 प्रेरितो मित्रयुतस्तत्र गतः। मार्गे-यक्षस्य शिरो नामितम् । तत्प्रभावात्सादरा जाता। आगन्तुं ___- 1 एतत्पदं नास्ति A.B आदर्शे। दण्डान्तर्गतपाठस्थाने ABE आदर्शेषु 'एकेन सह काष्ठभक्षणं कृतं' इत्येव पाठो लभ्यते । 2P वच्मि। 3 A त्वमिह । * अत्र A आदर्श, पत्रपार्श्वभागे टिप्पन्यां 'तीर्थे तु स्थापकः पुत्रः, पुनर्जन्मप्रदः पिता । सहोत्थश्च पुनीता स भर्ता यस्तु पोषकः ॥' एपः श्लोको लिखितो लभ्यते। 4 A. 'कथा' इत्येव । 5 A नास्ति 'भभूत्। 6 A नास्ति । SP पुस्तके 'पुत्रो जातमात्रो राजद्वारे क्षिप्तः। ईदृशं वाक्यम् । 7 A नास्ति। 8 P०पालनकं । 9 गृहे । पर वाला विचार का सामना किया जाता Page 102**************************************************************************************** विक्रमादित्यप्रवन्ध । ८१ प्रवृत्ता। यक्षभवने समीपमागते स एकाकी यक्षं नन्तुमगच्छत् । यक्षेण स्त्रीलोभेन तस्य शिर- उछेदितम् ।महत्यां वेलायां मित्रमागतम् । तदवस्थो जातो दृष्टः । चिन्तितं च तेन-जनप्रवादो भविष्यति, यथा-अनेन स्त्रीहेतोहतः। तर्हि ममापि मर्तुं युक्तम् । इति विचिन्त्य तेनापि स्वशिर- श्छिन्नम्। 'साप्यागता । द्वावपि तदवस्यौ प्रेक्ष्य चिन्तित तया-जनोऽग्रेऽपि मांपतिद्वेपिणी कथयन्नस्ति, सम्पति पतिनीमिति कथयिष्यति । तर्हि म्रियेऽहम् । इति ध्यात्वा गले शस्त्रिका 5 लगिता । तावता यक्षेण करे धृता-मा साहसं कुरु । तयोक्तम्-द्वावपि जीवापय । यक्षेणो- तम्"-शिरसी निजनिजकवन्धे योजय । तयोत्सुकयाऽन्यान्यकवन्धयोय॑स्ते । तयोर्भार्याविवादो जाता-एको वदति मदीया, द्वितीयोऽपि तथा । तर्हि कस्य सा । राज्ञोक्तम्-यस्य कबन्धे शिरः स भर्ता-'सर्वस्य गात्रस्य शिरः प्रधान मिति वचनात् ॥४-३॥ ___ क'रसमुद्गकोऽपि कथामाह-कुतोऽपि प्रामात्खखकलाविदश्चत्वारः सुहृदो देशान्तरं चेलु: ।10 एकः काष्ठसूत्रधारः, द्वितीयः स्वर्णकारः, तृतीयः शालापतिः, तुर्यों विप्रः । कापि बने रात्रावु- पिताः। प्रथमयामे सूत्रधारः प्राहरके स्थितः। तेन काष्ठपुत्रिका तरुणीसहशी कृता समग्राऽपि । द्वितीये प्रहरे स्वर्णकारो यामिकः । तेनाभरणैर्विभूषिता । तृतीये शालापतिः । तेन क्षौमाणि परिधापिता । चतुर्थे विप्रेण सजीवा कृता । प्रातः सजीवां दृष्ट्वा सर्वेऽपि तजिघृक्षया मियो विवदन्ते । तर्हि कस्य सा, भो विक्रमादित्यनरेन्द्र ! ? । सा नाम श्रुत्वा चुक्षोभ । राज्ञोक्तम्-15 तदह न वच्मि । तयोरकथयतोश्च तया जल्पितम्-भो राजन् । कस्य सा ? । राज्ञोक्तम्-वर्ण- कारस्य । [*अधुनापि यः स्वर्ण चटापयति स एव भत्तों भवति] ॥४-४॥ सा पप्रच्छ-के यूयम् ? । दीपस्थेन वेतालेनोक्तम्-असौ स विक्रमादित्यः । सा हृष्टा व्यूढा । तां गृहीत्वाऽवन्तीमागमत् । य ईदृग तत्समः कः, आधिक्ये तु का कथेति हसितम् । विक्रम- सेनेन गर्वस्त्यक्तः । इति श्रीविक्रमप्रवन्धः॥ ६९९) ततो विक्रमसेनः पुरोधसमप्राक्षीत्-यदि किल एताः काष्ठपुत्रिका मम पितरमद्भुतगुणं वर्णयन्ति, तर्हि स एव लोके तत्प्रथमतयोत्तमत्वेनावतीर्णो भविष्यति । ततः प्राक् तु न कोऽपि तागुत्तमोऽभूदिति ब्रूमः। पुरोधाः प्राह-राजन् ! अनादिरियं रतगी। अनादिश्चतुर्युगी । युगे युगे नररमानि जायन्ते । अहमेव प्रधानमिति गर्वो न हितकारी, न च निर्वहते। यतस्त्वत्पितुर्विक्र- मादित्यस्य मनस्येकदा एवमभूत्, यथा-रामेण व्यवहृत्य लोकः सुग्वीकृतः, तथाऽहमपि करिष्ये 125 ततो रामायणं व्याख्यापितम्। तत्र यथा रामस्य दानं, अगारस्थापनं, वर्णाश्रमव्यवस्था, गुरुभ- क्तिस्तथा सर्वमारब्धम् । ततोऽभिनवो राम इत्यात्मानं पाठयति । तद् दृष्ट्वा मन्त्रिभिश्चिन्त्यते स्म-अनुचितकारी अस्मत्प्रभुः, यो" गर्वादात्मान तद्वन्मन्यते। अयं गर्वोऽस्योपायेनोत्तारयितव्यः प्रस्तावे। इतश्च त्वपित्रा विक्रमादित्येन पृष्टम्-लोके स कोऽपि काप्यास्ते योऽश्रुतपूर्व रामस्याचरणं ज्ञापयति नः। तत एकेन ज्यायसा मन्त्रिणाऽपरमन्निप्रेरितेन कथितम्-राजेन्द्र ! कोशलायां 30 20 1A यक्षे। 2 P जातो धनिको एट ! 3 AB नास्ति 'तेन'। 4 B मिल्ने । 5P महति घेराया साऽप्यागता । GP sप्रे.पि द्वेष । 7 ऽहम्' नास्ति ABI 8 P लगापिता। 9P जीक्य । 10 AB तेनोच। 11 AB पेनि । * कोष्टकगता पणि प्रधिसमाया P पुलके। 12 P•समक । 13 A. भधिक कोऽय। 1P पुनके नास्ति समाप्तिापकमेतद् पारयम् । 14 A पराव ननु। 15 ABयदारमान । "प्र.को. Page 103**************************************************************************************** ८२ प्रबन्धकोशे विप्र एको वृद्धोऽस्ति । स काश्चित् श्रीरामस्य वार्ताः पारम्पर्यायाताः सम्यग् 'विवेद । आहृय पृच्छयते। राज्ञा आहूतः स सगौरवम् । आयातः। पूजितः पृष्टश्व-वृद्ध ! वद काश्चिद्रामकथां नव्याम् । विप्रो वभाण-पृथ्वीनाथ ! यदि कोशलायामागच्छसि, तदा रामस्य कमपि प्रवन्धं साक्षादर्शयामि । इह स्थितस्तु वक्तुं न पारयामि । तदा राज्ञा राज्यभारो मन्त्रिपु न्यस्तः । स्वयं महाचससहितो वृद्धद्विजयक्त अयोध्योपशल्यां ययौ । स्कन्धावारे नस्यौ। तदानी स एव सर्व- दिगीश इत्यभी। विप्रो भापितः क्षमापालेन-दर्शय रामदेवचरित्रम् । ततो विप्रः स्थानमेकं दर्शयित्वा भूपालमालपत्-इदं भूखण्डं खानयत । ततः खानयति क्षमापालः । खनत्सु खनकेषु उपरि हेमकलशः, ततो हैमी मण्डपिका प्रकटीवभूव । उपरितनं 'रजोऽपसारितम् । पश्चानुपूर्व्या प्रथमद्वितीयतृतीयक्षणा हैमा दृष्टा महीभुजा । चतुर्थे क्षणे नीरजी कृते विपुला उपानदेका 10 हैमसूत्रकृता ज्योतिर्जालजटालमाणिक्यखचिता दृष्टा । भूपेन' विस्मितेन गृहीत्वा हृदि शिरसि निहिता । अहो ! असामान्या रत्नजातिरियम् । ततो विप्रेण विज्ञप्तम्-देव! चर्मकारपन्या उपान- देषा; न स्पष्मीं तव विष्टपपतेः। विक्रमेणोक्तम्-सा चर्मकार्यपि धन्या, यस्या ईगुपानत् । वद केयं कथा ? । ततो विप्रो ब्रूते-विश्वेश्वर! श्रीरामे राज्यं कुर्वति सति, अत्र चर्मकारसदनानि आसन् । इदमेकस्य चर्मकारस्य सदनम् । तस्य पत्नी लाडवहुला । अतो गर्वमुद्वहति; विनयं न 15 करोति। ततः "सा तेन हक्किता हता च। याहि रे दुःखं गृहीत्वा इत्युक्ता च। ततो कष्टाऽस्यामेकस्यां उपानहि तटपतितायां अपरिहितायां द्वितीयस्यां तु परिहितायां निजतातस्य सदनं जगाम । गत्वा पत्युः कठोरं भापितं पिन्ने बभाण । पित्रा दिनद्वयमस्थापि," आवर्जिता च । अथोक्ता- वत्से ! कुलस्त्रियः पतिरेव शरणम् । तत्रैव याहि । सोचे-न यामि मानक्षयात् । द्विस्त्रिक्ति- प्रत्युक्तयो भणिताः । पितृभ्यां भाणितापि यदा पतिगृहं न याति तदा पिना भापितम्-वत्से ! 20 अहमेवं मन्ये यदा श्रीरामः सीता-लक्ष्मणसहितः स्वयमागत्यानुनीय त्वां श्वशुरकुले प्रहिता, तदा तत्र गनी त्वम् । साऽप्यलीकाभिमानिनी प्रवदति-इदमित्थमेव, राम एवागते यामि तत्र नापरथा । इमं वृत्तान्तं चरत्वनियुक्ताः प्रच्छन्नाः सुरा गत्वा रामं व्यजिज्ञपन्-देव ! अयं वृत्ता- न्तश्चर्मकारपुत्र्याः। ततो देवः श्रीरामः प्रजावत्सलः प्रातः ससीतः सलक्ष्मणः सामात्यस्तचर्म- कारभवनमगात् । तन्मध्यं प्रविष्टः । पूजितः कारुभिर्विसितैर्विज्ञप्तश्च-देव ! अयमस्मान् कीटान् 25 प्रति कियान् प्रसादः कृतः । खप्नेऽपि नेदं सम्भाव्यते-यदेवोऽस्मानुपतिष्ठते । किं कारणमागम- नस्य ? । श्रीरामः प्राह-त्वत्पुत्र्याः श्वगुरकुले प्रेषणायायाताः स्मः। तस्या हि वराक्यास्तथाविधा "प्रतिज्ञाऽऽस्ते । ततो हृष्टस्तजनकः । अपवरकं गत्वा दुहितरमाह स्म-मुग्धिके ! तव प्रतिज्ञा पूर्णा । श्रीरामदेव आयातः सदेवीकः । एहि, वन्दस्व तं जगत्पतिम् । ततस्तुष्टा रामान्तिकमा- गता । ववन्दे तम् । आलापिता प्रजातातेन"-वत्से ! गच्छ श्वशुरमन्दिरम् । तया भणितम्- 80 आदेशः प्रमाणम् । ततो गता पतिगृहम् । रामः स्वस्थानमायासीत् । श्रीविक्रम ! अत्या द्वितीया उपानत् तत्र" पितृगृहे खन्यमाने लप्स्यते । स्वामिन् ! आयाहि, तत्र" खान्यते । गतो राजा तत्र । खानितं तत् । लब्धा द्वितीयाऽप्युपानत् । दृष्टं हैमं गृहम् । एवमन्यान्यपि तेन विप्रेण 1 A सम्यग्वेद । 2 B विन । 3 Pप्रथम। 4 A. राज्ञाऽपसारितं । 5P नीरजे। 6 A.B विपुले। 7 A.B नास्ति 'भूपेन' । 8 AB विस्मितेन च। 19 P .महति । 10 P अतः कारणात सा। 11 P स्थापिता। 12 P सन्धा। 13 AB पुत्रिके। 14 A प्रजानाथेन। 15 'ततो नास्ति । 16 AB नास्ति 'तत्र'। 17 P तत् ।। Page 104**************************************************************************************** विक्रमादित्यप्रवन्ध । खानपितानि । लातं तद्धेम । राज्ञा विमः पृष्टः-विम'! कथमीदृशं सम्यग जानासि ?। विप्रेण गदितम्-पूर्वजपारम्पर्योपदेशात् ज्ञात तुभ्यमुक्तं च । पर गर्व मा घाः। स रामः स एव । तस्य चाजया' जल-ज्वलनौ स्तम्भेते स्म। पतन्त्यो भित्तयो दत्तायां तदाज्ञायां न पेतुः । लूता द्विचत्वारिंशत्, अन्धगडाः सप्तविंशतिः, स्फोटिका अष्टोत्तर शतम्, विड्वराणि दोपाश्च सर्वे व्यनेशन् । या तु तद्देवी सीता, ये त्रयस्तद्रातरः, ये तभृत्या हनूमत्सुग्रीवादयस्तेपां महिमानं 5 वर्षशतेनापि वाक्पतिरपि वक्तु न शक्तः। इति श्रुत्वा विक्रमेण गर्वो मुक्तः। विरुद निपिद्वं 'अभिनवरामः' इति । पुनरुज्जयिनीमागात् । यथाशक्ति लोकमुदधरत् । तस्य हि अग्निवेताल- पुरुपकसिद्विभ्यां सुवर्णसिद्ध्या चोपकारैश्वर्यं तदा निरुपममासीत्। ततो विक्रमो धन्य एव । ततोऽधिकास्तु परे 'कोटाकोटयोऽभूवन् । इत्याकर्ण्य विक्रमसेनो विवेकी अभूत् ॥ ६१००) *जैनतत्त्ववाघमुग्धजनचित्रमात्रफलं विक्रमादित्यप्रवन्धमेकं चूमः। 10 उज्जयिन्यां राज्य शासति विक्रमादित्ये, आसन्ने ग्रामे विप्रेणैकेन रलं खेड्यता दिव्यं ज्योति- प्मद्रनमेकं भूमौ पतित लेभे । जगृहे । तन्मौल्यमश्नार्थमुज्जयिन्यां रनपरीक्षिनेगमपार्श्वमागमत् । दर्शितं तद्रनम् । विस्मितास्ते ऊचुः न वयमस्य रत्नस्य मौल्यकरणे क्षमाः, ईदृशस्य पूर्वमदृष्ट- त्वात् अलीकमौल्यकरणे तीव्रदोपाच । केवलं देवः श्रीविक्रमादित्यो यदि वेत्ति मूल्यमस्य । स हि रेसाप्राप्तो रनमूल्यज्ञाने । विम उपविक्रम जगाम । रनमदीदृशत् । विक्रमेण पृष्टम्क 15 लब्धमिदम् ? । विप्रेणोक्तम्-देव ! हल खेटयता स्वक्षेत्रभूमौ लब्धम् । राज्ञा भणितम्-तर्हि टिनद्वयेन वक्ष्यामः । रनमस्मद्धस्त एवास्तु । विप्र! मा भैः, न वय परधनवद्धाभिलापाः। धीरां ढत्या वसौधमध्य एव स्थापितः सः। . अथ रात्री विक्रमेण विमृष्टम्-रनापरीक्षकाःससारे पलिमनु । स च पाताले।तत्रापि गन्तव्यम्। 'कृतहली घलसो न भवेत् । ततोऽग्निवेतालमारुह्याशु पाताल गतः। बलिभुवनद्वारेऽस्थात् 120 तत्र नारायणो द्वास्थः। प्रणतः। नारायणेन पृष्टम्-किं कार्य तेऽनागमने ? । विक्रमेणोक्तम्-उप- पलिगतो विज्ञपय, राजा कार्यगौरवादायातोऽस्ति । यद्यादेशः स्यात्तदा दर्शनं लभते । ततः कृष्णेनोक्त घलये-राजा समागतोऽस्ति द्वारे । घलिना निवेदितम्-राजा युधिष्ठिरः?, पृच्छेः 'कृष्ण! । गतः कृष्णः । पप्रच्छ-र्कि युधिष्ठिरोऽसि ?। विक्रमेणोक्तम्-राजान युधिष्ठिरं मन्यते सः, तस्मादन्यद्वक्तव्यम् । गच्छ कृपण'!, मण्डलीक आगतोऽस्तीति चद। गतः सः। विजसं तत् 125 यलिरूचे-मण्डलीकः किं रावणः ?। पुनरागतः कृष्णः । मण्डलीकथेत् किं रावण इति पृष्टोऽसि । विक्रमेणाभाणि-तर्हि गत्वा वद, कुमार आगतोऽस्ति । गत्या तथोक्तम् । यलिराह-कि कार्ति- केय', किंवा लक्ष्मणः, किंवा पातालवासी नागपुत्रो धवलचन्द्रः, किंवा यालिपुत्रोऽनदो रामदूत इति रयातः? | पुनरहिरेयाहिरा कृष्णस्य । पुनर्विक्रमेणाभाणि-चदेस्त्वम्, यण्ट आयातोऽस्ति । पुनर्गतः । पलिणति-वण्ठयत्किं हनूमान् ? । पुनः कृष्णो वागरितः । भणित पलिवचः 130 पुनर्यिक्रमः मोचनात्वा चढ, तलारक्ष आगतोऽस्ति । उक्त तेन तत्तथा । ततो पलिर्जगाद-फिं विक्रमका ? । कृष्णेनत्य पृष्टम्-किं विक्रमादित्यः । विक्रमादित्येन ओमित्युक्तम् । यल्यादेशा. 1AB भरनधिपत। 2P मास्ति'त्रि'। 3माया। ! Pपर फोटयो। P पुमके मोपरम्पतेप मास । 3मानिसमें GB TIT-TATI' मानि। Page 105**************************************************************************************** ८४ प्रबन्धकोशे . दुपबलि नीतः। पृष्टो बलिना-रे विक्रम ! रत्नमूल्यं प्रष्टुमागतोऽसि ? । विक्रमादिलो वदति इत्यमेवेदम् । दर्शितं रत्नम् । बलिभाण-ईदृशानि अष्टाशीतिं सहस्राणि रत्नानि नित्यं युधिष्ठिरो निर्मूल्यान्यदत्त पात्रेभ्यः। तेपा मध्यादिदमम्लत् २ विप्रेण लब्धम् । प्रायो भूमि गतानि सर्वाणि रत्नानि, कालस्य बहुलत्वात् । ततो रे ! राजा युधिष्ठिर एव, त्वं का? । 5 विक्रमेणोक्तम्-देव ! सत्यम् । एतत्प्रष्टुमिच्छामि- ईसंपत्तियुधिष्ठिरस्य कुतः ? । बलिराह- दिगजयधनानि तस्मै भ्रातृभिश्चतुर्भिराहृतानि । पूर्व 'चमत्कृतनामा कार्पटिको दारिद्यमग्नो रुद्रमारराध । तेन तुष्टेन तस्मै खवाञ्छया कैलासासन्ना आमूलचूलं हेमरत्नमयी पूर्निष्पाद्य दत्ता। सा सुखेन तेन भुक्ता । तस्मिन्मृते रुद्रेण पांशुवृष्ट्या सा पिदधे । यदा तु युधिष्ठिर- बान्धवः सहदेव उत्तर दिशं साधयितुमुपतस्थे, तदा रुद्रस्तां पुरं खैर्गणरुद्घाट्य सवा त?- 10 मादिविभूति युधिष्ठिरगृहप्रविष्टामचीकरत् । ततो युधिष्ठिरस्य दानेच्छासिद्धिः । ततः स राजा । मण्डलीकस्तु रावण इति व्यक्तम् । लोके तादृग्वलवत्त्वं विद्यादर्पयोगात् । कुमारस्तु कार्तिकेयो वक्तुं युक्तः । सप्ताहवयाः सन् , यस्तारकं जघान । लक्ष्मणोऽपि कुमारः, यो मेघनादं ममई । तथा धवलचन्द्रोऽपि पीहुलिपुत्रः कुमारः, यो विपेण जगद्धतुं क्षमः । विषममपि विषम- मृततां नेतुं समर्थः। अङ्गदोऽपि कुमारः सारः, य एवं वक्तुं समर्थः- 15 २०४. सन्धौ वा विग्रहे वापि मयि दूते दशाननी । अक्षता वा क्षता वापि क्षितिपीठे लुठिष्यति ॥ १॥ इत्यादि ख्यातिश्च । वण्ठश्च सत्यो हनूमान् , यः स्वामिनं रामं प्रियावियोगज्वरजर्जराङ्गं सन्धीरयामास मध्येसभम् । २०५. देवाज्ञापय किं करोमि किमहं लङ्कामिहैवानये, जम्बूद्वीपमितो नये किमथवा वारांनिधि शोपये । हेलोत्पाटितविन्ध्यपर्वतहिमस्वर्णत्रिकूटाचल,-क्षेपक्षोभविवर्द्धमानसलिलं बध्नामि वा वारिधिम् ॥ २॥ 20 इत्यादि चमत्कारिवामिकार्यसिद्धिसारतया वण्ठो हनूमान् एव । तलारक्षस्तु भवसि । गच्छ, मूल्यं नास्ति रत्नस्येति द्विजाय वदेः। तदाकर्ण्य विक्रमः स्वपुरीं ययौ । रत्नं दत्त्वा, चल्युक्तमुक्त्वा खग्रामाय विप्रं विसृष्टवान् । चिरं राज्यं चक्रे। ॥ इति विक्रमादित्यप्रवन्धः ॥ १७ ॥ १८. अथ नागार्जुनप्रवन्धः। 25_१०१) ढण्कपर्वते सुराष्ट्राभूषणशत्रुञ्जयगिरिशिखरैकदेशरूपे राजपुत्ररणसिंहस्य भोपलनानीं पुत्री रूपलावण्यसम्पूर्णां पश्यतो जातानुरागस्य तां सेवमानस्य वासुकिनागस्य पुत्रो नागार्जुन- नामा जातः। स च जनकेन पुनलेहमोहितेन सर्वासां महौषधीनां फलानि मूलानि दलानि च भोजितः। तत्प्रभावेन स महासिद्धिभिरलङ्कतः, सिद्धपुरुष इति विख्यातः । पृथ्वीं विचरन् पृथ्वी- स्थानपत्तने सातवाहनस्य राज्ञः कलागुरुर्जातः। स च गगनगामिनीविद्याध्ययनार्थ पालित्तानकपुरे 30श्रीपादलिप्ताचार्यान् सेवते । अन्यदा भोजनावसरे पादप्रलेपवलेन तान् गगने उत्पतितान् 1 A. पूर्व च मरुत्वन्तु० । 2 BE 'सुखेन' नास्ति। 8 P भोपाल। 4 'तो' नास्ति P। 5 A. गामिविद्या । Page 106**************************************************************************************** नागार्जुनप्रवन्ध । पश्यति । अष्टापदादितीर्थानि नमस्कृत्य स्वस्थानमुपागतानां तेषां पाढी प्रक्षाल्य, . . ।। हौषधीनामासादेन वर्णगन्धादिभिर्नामानि निश्चित्य,गुरूपदेशं विनापि पादलेपं कृत्वा इवोत्पतन्नवटतटे निपतितः। व्रणजज़रितागो गुरुभिः पृष्टः-किमेतदिति ?। तेन यथास्थिते में तस्य कौशल्येन चमत्कृतचित्ता आचार्यास्तस्य शिरसि पद्महस्तं दत्त्वा म पुल दकेन तान्यौपधानि वर्तयित्वा पादप्रलेपं कृत्वा गगने गरुड इव खैरं व्रजेः । ततस्तां सिद्धि प्राप्य परितुष्टोऽसौ ननर्त्त । पुनरपि कदाचिद् गुरुमुखादाकर्णयति, यथा-रससिद्धिं विना दाते च्छासिद्धिर्न भवति ।ततो रसं परिकर्मयितुं प्रवृत्तः । स्वेदन-मर्दन जारण-मारणानि चक्रे । सस्तु स्वैयं न पनाति । ततस्तु गुरुन् पप्रच्छ-कथं रसः स्थैर्यमावनाति? । गुरवः प्राहुर्यथा-दुध्द । निईलनसमर्थायां श्रीपार्श्वनाथस्य दृशि साध्यमानः, सर्वलक्षणोपलक्षितया महासत्या ता च मृद्यमानो रसः स्थिरीभूय कोटिवेधी भवति । तच्छ्रुत्वा स पार्श्वनाथप्रतिमां मिले यितुमारेभे । [ परं तादृशीं न कापि पश्यति।] ६१०२) इतश्च नागार्जुनेन खपिता वासुकिात्वा प्रत्यक्षीकृतः, पृष्टश्च-श्रीपार्श्वनाथस्य दि कलानुभावां प्रतिमां कथय। तेनावाचि-दारवत्यांसमुद्रविजयदशाण 10 शयसम्पन्ना ज्ञात्वा श्रीपार्श्वस्य प्रतिमा प्रासादे स्थापयित्वा पूजिता।द्वारवत्या दाहानन्तरं स . प्लाविता सा प्रतिमा तथैव समुद्रमध्ये स्थिता । कालेन कान्तीवासिनो धनपतिनामकस्य स त्रिकस्स यानपात्रं देवताऽतिशयात् स्खलितम् । अत्र जिनयिम् तिष्ठतीत्यदृष्टवाचा .. नाविकांस्तत्र निक्षिप्य सप्तभिरामसूत्रतन्तुभिर्वद्घोघृता प्रतिमा । निजनगयां नीत्वा । : स्थापिता । चिन्तितातिरिक्तलाभप्रहृष्टेन पूज्यते प्रतिदिनम् । ततः सर्वातिशायि तद्विम्बंज नागार्जुनेन रससिद्धिनिमित्तमपहृत्य सेडीनद्यास्तटे स्थापितम् । तस्य पुरतो रससाधनाथ । वाहनस्य राजी चन्द्रलेखाभिधां महासती देवी सिव्यन्तरसान्निध्येनानाय्य प्रतिनिश रस" ईनं कारयति । एवं तत्र भूयो भूयो गतागते तया यान्धव इति प्रतिपेदेऽसौ । सा. " मईनकारणं पृच्छति । स च कोटीवेधस्य रसस्य वृत्तान्तं सत्य कथयति । अन्यदा . .. योस्तया निवेदितं यथा-सेडीनदीतटे नागार्जुनस्य रससिद्धिर्भविष्यति । तो रसलुन्धी निरा. मुक्त्वा नागार्जुनान्तिकमागती। कैनवेन त रस जिघृक्षु प्रच्छन्नयेपो यत्र नागार्जुनो तस्य गृहस्य परिसरे भ्रमतः। रन्धनीमालपतः-त्व नागार्जुनाय रसवती लवणयहुलां कुर्याः । यदा तां रसवती क्षारां कथयति, तदाऽसभ्यं वदेः । साऽप्योमिति प्रतिशुश्राव । अथ । तज्ज्ञानाय तदर्थ सलवणां रसवती साधयति । पण्मास्यामतिकान्तायां रसवती तेन क्षारेति दूपिता । रन्धन्या च राजपुत्रयोरने गदितम् । अद्य क्षारत्वं जने नागार्जुनेन । ताभ्यामपि तस्य रससिदिनिश्चिक्ये । अथ तो तस्य वधोपाय ध्यायतः पृच्छतश्च लोक तज्जम् । पृच्चद्भ्यां जात यथा-वासुफिना पास्य दर्भाक्रान्मृत्युः कथितोऽस्ति । नागार्जुनेन सिद्धस्य शुद्धस्य रसस्य कुतपो हो भृनी दकपर्वतस्य गुहायां क्षिप्तौ । पृष्टचराभ्यां ताभ्यां ज्ञातौ । मुफ्त्या वलमानो नागार्जुनस्ताभ्यां समुपस्यो दर्भादरेण जो । मृतः सयः। 1P पादप। ABEnोमी। 3BP रम। IABE Tामि 'समहिमा'। *P पुमार एप प पोटर गल पाटो परे। 5ABापार। 6P पारिवाजा पियातिः। 8P नागाउंगो। भनिटिपत् । . 10 'मसाप' माHिABI Page 107**************************************************************************************** प्रवन्धकोशे २०६. आलेख्ये चित्रपतिते मृते च मधुसूदन ! । क्षत्रिये त्रिषु विश्वासश्चतुर्थी नोपलभ्यते ॥१॥ तौ कुतपो देवतया संगृहीतौ । राजपुत्रौ नरकपङ्कगोचरतां गतौ। देवतया क्रुद्धया हतौ । न रसलाभो न च धर्मस्तयोः। तावपि राजपुत्रौ मरणकाले पश्चात्तापेन दग्धौ-हा हा ! येन ___ खटिकासिद्धिवशाद्दशाहमण्डपादिकीर्तनानि रैवतोपत्यकायां कृतानि, येन रसो लोकोपका- 5 राय साधितः, तस्य प्राणद्रोहेणावाभ्यां किं साधितम् ? । 'एकस्तावत्कलापाबद्रोहः, 'अपरश्च मातुलद्रोहः। एवं दुःखात्तौ मृतौ । रसस्तम्भनात् स्तम्भनं नाम तीर्थ तत्पार्श्वदेवस्य । कालान्तरे तद्विम् ततः स्थानात्स्तम्भनपुरे पूज्यतेऽधुना ॥ ॥ इति नागार्जुनप्रवन्धः ॥ १८ ॥ -nooo- १९. अथ वत्सराजोदयनप्रवन्धः। 10 $१०३) पूर्वस्यां वत्सो जनपदः। तत्र कौशाम्बी पूः। श्रीऋपभवंश्यशान्तनु-विचित्रवीर्य-पाण्डु- ___ अर्जुन-अभिमन्यु-परीक्षित-जनमेजयकुले सहस्रानीको राजा । तत्पुनः शतानीकः । तस्य पत्नी __महासती चेटकराजनन्दिनी मृगाक्षी मृगावती नाम । तयोर्नन्दन उदयनः, यः किल नादसमुद्रो विख्यातः। यो गीतशक्त्या उज्जयिन्यां अनलगिरीभं विन्ध्याभिमुखं गच्छन्तं पुनरालाने निवेश्य चण्डप्रद्योतराज्यमद्योतयत् । स सुखेन राज्यं शास्ति । यौवनस्थो भोगी कलासक्तो धीरः 15 ललितो नायकः। ६१०४) इतश्च पाताले क्रौञ्चहरणं नाम पत्तनम् । तत्र वासुकिः सर्पराजः श्वेतो नीलसरोजला- छितफणः। तस्य नामलदेवी नाम दयिता। विपुलो देशः। तक्षको नाम तस्य प्रतीहारो विषमा. देवीप्रियः । यस्य फणामण्डपे त्रयोदशभारकोट्यो विषस्य वसन्तीति श्रुतिः । वासुकेः पुत्री दिव्यरूपा कनी वसुदत्तिर्नाम । तस्याः सख्यश्चतुर्दश। तद्यथा-धारू १, वारू २, चम्पकसेना ३, 20 वसन्तवल्ली ४, मोहमाया ५, मदनमूर्छा ६, रम्भा ७, विमलानना ८, तारा ९, सारा १०, चन्दनवल्ली ११, लक्ष्मी १२, लीलावती १३, कलावती १४ । सा ताभिः सह वीणामृदङ्गवंश- सूक्तादिभिः क्रीडति । एकदा तासां मध्यादेकया उक्तम्-वासिनि ! वसुदत्तिके ! अहं स्वपरि- च्छदा सध्रीची नरलोके कौशाव्यां दिव्यरूपं महोद्यानं क्रीडितुमगाम् । दृष्टा तत्र बकुलविच- किलमनकचस्पकविरहकाद्रुिमाणां सारणीनां द्रुमालवालानां वाटीकोट्टस्य श्रीः। यदि खामिनी 25 तत्केलिं काम्यति, तदा तत्र पादमवधारयतु । इदं श्रुत्वा सा वसुदत्तिका ताभिः सर्वाभिः सहे- च्छासिद्ध्या सहसा तद्वनं जग्मुषी । तत्र केलिं कुर्वन्ति ताः, कुसुमानि चिन्वन्ति, तैः करण्डान् पूरयन्ति, धमिल्लानुत्तगयन्ति, हारान् सारान् रचयन्ति । एवं खेलन्तीनां तासां वने कोकिलकुल- कलरवकलः कोलाहल उच्छलितः। तदाऽऽकर्णनादुद्यानपालक एत्य ता अद्राक्षीत् । अहोरूप- महाँ स्वरोऽहो प्रभेति विसिष्मिये। भक्त्या श्रीउदयनं ताः समालोकितुमाह्वातुमगमत् । 30 उदयनोऽपि कुतूहलादल्पपरिच्छदो वनमगात् । वसुदत्तिं ससखीकामालोकिष्ट । अध्यासीच- 1 P एकं । 2 P अपरं । 3 A योगी तत् शवत्या । 4 P प्राप्ता। 5A विसिसये। , Page 108**************************************************************************************** वत्सराजोदयनप्रवन्धः। [मनोजन्मनः महाव्याधेः परमरसायनमेतत् । अस्याः रूपसम्पत् जिह्वाभिः कोटिभिः ताभि- वर्णयितुमशक्या*।] __ २०७ अस्या. सर्गविधौ प्रजापतिरभूचन्द्रो नु' कान्तिप्रद , शृङ्गारैकरसः स्वय 'नु मदनो मासो नु पुष्पाकरः । वेदाभ्यासजड. कथ नु विषयव्यावृत्तकौतूहलो, निर्मातु प्रभवेन्मनोहरमिद रूप पुराणो मुनिः ॥ १॥ २०८ यत्पश्यन्ति झगित्यपाइसरणिद्रोणीजुपा चक्षुपा, गच्छन्ति क्रमलालितोभयभुज यन्नाम वामभुवः। भाषन्ते च यदुक्तिभिः सचकित वैदग्ध्यमुद्रात्मभि,-स्तद्देवस्य रसायन रसनिधेर्मन्ये मनोजन्मनः ॥२॥ त दृष्ट्वा सा पलायिष्ट । नृपोऽप्यन्वगाद् द्रुत द्रुतम् । क्षणार्द्धन सर्वाः सख्योऽदृश्याः समप- त्सत । सापि पातालविवरप्राये गर्त एकस्मिन् प्रविष्टा । राज्ञापि ज्ञातम्-कामरूपिणी गमिष्य- त्येवेति। तावत्करे धृत्वा तस्या वेणीदण्डो यमुनाजलप्रवाहप्रायः कृपाणिकया छिन्नः। गता सा मृगशावलोचना। वेणी करेऽस्थात । तां वेणी पश्यस्तां चमत्कृतचकोरचलाचलाक्षी समुह-10 मुहुरमार्षीत् । २०९ निन्दीवरिणी मुखाम्बुरुहिनी भूवल्लिकल्लोलिनी, बाहुद्वन्द्वमृणालिनी यदि पुनर्वापी भवेत् सा प्रिया । तल्लावण्यजलावगाहनजडैरङ्गैरनहानल,-ज्वालाज्वालमुचस्त्यजेयमसमाः प्राणच्छिदो वेदना ॥३॥ इत्यादि । ततो हतप्रारम्भ उदबाष्पः सखेदा प्रापरिसरमेत्य अमात्यानाहयावादीत-मया एवं एव बालिकायाः कस्याश्चिद्वेणी छिन्ना । सा तु श्वभ्रमूलमगात् । अतो मम राज्येन न कार्यम् । 15 इमामेव वेणी राज्यं कारयत । तेऽपि तथेति प्रतिपद्य पूर्वहिर्मण्डपे सोत्सवं वेणी राज्यं कार- यन्ति रामपादुकावत्। ___ इतश्च सा वसुदत्तिका खिन्ना गत्वा खसौधेऽखाप्सीत् । तस्याः सख्यस्तत्कवरी छिन्नामी- क्षित्वा नामलदेवीमाकार्यादीदृशत् । जागरितां पुत्री नाभलदेवी-वत्से ! 'किमेतत् तवापि परि- भवपदमित्यप्राक्षीत् । तनयापि यथास्थितं मात्रे आख्यत् । सापि नागपतये स्वपतये । क्रुद्धः 20 सद्योऽसौ तक्षकमाकार्य कथामुक्त्वा आदिक्षत्, यथा-गच्छ सराष्ट्रमुदयनं भस्मीकुरु । सोऽपि तदादेशादचालीत् । कौशाम्बी प्रापत् । तत्परिसरे उत्सवान् दृष्ट्वा नररूपः कश्चित्पप्रच्छ-किमे. तदुत्सवसाम्राज्यम् ? । तत्रत्येन जनेनोक्तम्-एवं एव राज्ञा दिव्यकन्यावेणी छिन्ना । उत्पन्नानुता- पेन राज्य तदायत्त कृतम् । अतो वेणी राज्ञीह । राज्ञाऽत्रैव, एकदेशे तपस्तप्यते। तक्षकेणोत्सवो दृष्टो। मध्ये भ्रमता राजाऽप्यालोकितः। कुशनस्तरगः पद्मासनी जपमालापाणिः तपाक्षाम:25. जितप्राणायामः मौनी। पृष्ठश्च तक्षकेण नृरूपेण-कस्त्वम् ?, किमर्थ तपश्चरसि ? तेनापि दीर्घमुष्ण च निःश्वस्य गदितम्-भो पुरुपविप्र ! किं पृच्छसि मां मन्दभाग्यम् ?। दृष्टा मयैका पुण्यवती मृगहक । तामनुसर्पता मया पातकिना यान्त्यास्तस्याः कवरी कृपाणिकया निजपुण्यदशया सह कृत्ता । सा मनीपित स्थान ससर्प । अहंत उदयनो राजा राज्यं तत्सात्कत्वा स्वय तपः को- णोऽस्मि । एव श्रुत्वा क्षण स्थित्वा, उपद्रवमकृत्वा, पातालं यात्वा नागेन्द्रमाललाप निष्पाप-30 प्रज्ञा-देव ! दृष्टो मया उदयना, वेणीपुरश्च तथा राज्योत्सवः। स पुण्यात्मा मृदुमना यादं परि- तप्यते । विनयी मानमर्हति । तच्छ्रचणाद् अतुपदाशीविपेन्द्रः। तर्हि कि युक्तमिति तक्षकमूचे। * कोटगतेय पक्कि P पुस्तक एन रम्यते। 1 P तु। 2 P स्वय नु तनो। 3 A समपश्यत, BE समपत्स्यत । + P पुस्तके नोपलम्यते पचमिदम् । Page 109**************************************************************************************** ८८ . . ' : प्रवन्धकोशे तक्षको वभाषे-देव ! स एव वसुदत्तिविवाहाहः । कुलेन शीलेन विद्यया वृत्तेन पराक्रमेण रूपेण च किं वय॑ते सः। २१०. *अमुमकृत यदङ्गनां न वेधाः, स खलु यशस्वितपस्विनां प्रभावः । त्रिजगति कथमन्यथा कथापि, क्षततपसां तपसा पदं लभेत ॥ ४ ॥ 5 विद्या-कन्या-लक्ष्म्यो हि कुस्थाने निवेशिता निवेशयितारं शपन्ति । नामलदेवीमतं 'कनीमतं च लात्वा तक्षकेणैव वत्सराजमाजूहवत् । प्रवेशमहमचीकरत् । विवाहः प्रारब्धः। प्रथमायां ___दक्षिणायां सवत्सा गौः कामधेनुर्लब्धा । द्वितीयस्यां विशिष्टा नागवल्ली। तृतीयस्यां सोपधाना खट्वा सतूलीका। चतुर्थ्या रत्नोद्योतो दीपः। एवं रत्नचतुष्केण सत्कृत्य सजायं जामातरं कौशाम्बी पुरीं प्रति प्रेपयत् । गतः स्वपुरं । तत्र ऋद्धं राज्यं भुनक्ति। 10 २११. सुधाधौतं धाम व्ययभरसहश्चार्थनिवहः, सकामा वामाक्षी सुहृदपि निवेद्यात्महृदयः । गुणानामन्वेष्टा प्रभुरपि च शास्त्रव्यसनिता, पुराऽऽचीर्णस्यैतत् फलमलघु तीव्रस्य तपसः ॥ ५॥ २१२. यदेतत्स्वच्छन्दं विहरणमकार्पण्यमशनं, सदायैः संवासः श्रुतमुपशमैकश्रमफलम् । मनो मन्दस्पन्दं वहिरिति चिरस्यापि विरसन् , न जाने कस्यैषा परिणतिरुदारस्य तपसः ॥ ६॥ क्रमेण स एव वासवदत्तां चण्डप्रद्योतपुत्री गुणक्रीतां पर्यणैपीत् । डाहलदेशाधिपपुत्री 15 पद्मावती च । पञ्चालदेशाधिपेनाक्रान्तं कौशाम्बीराज्यं मन्त्र-क्षात्राभ्यां पुनरग्रहीत् । ६१०५) इयं च कथा जैनानां न सम्मता, देवजातीय गैः सह मानवानां विवाहासम्भवतः। विनोदिसभाऽर्हति नागमतादुद्धृत्यात्रोक्ता। ॥ इति उदयनप्रबन्धः समाप्तः ॥ १९ ॥ ___२०. अथ लक्षणसेनस्य-मन्त्रिणः कुमारदेवस्य च प्रवन्धः। 20 ६१०६) पूर्वस्यां लक्षणावती पूः। तत्र लक्षणसेनो नाम प्रतापी न्यायी नृपः । तस्य द्वितीयमिव जीवितं प्रज्ञाविक्रमभक्तिसारो मन्त्री कुमारदेवः। विपुलं राज्यम्, अपारं सैन्यम् । ___ अत्रान्तरे वाराणस्यां गोविन्दचन्द्राख्यपपुत्रो जयन्तचन्द्रो राजा । तस्य विद्याधरो मन्त्री। महेच्छानां, अन्नदातॄणां, सत्यवादिनां च प्रथमः।। . एकदा जयन्तचन्द्रसभायां वार्ता इयमासीत्-यल्लक्षणावतीदुर्ग दुर्ग्रहम् , राजा महाचमूस- 25 सूहसम्पन्नः। तां वार्तामवधार्य काशीपतिः प्रतिज्ञां सभासमक्षमग्रहीत्-इतश्चलित्वाऽस्माभिले- क्षणावतीदुर्ग ग्रहीतव्यम् । अथ न गृह्णामि तदा यावन्ति दिनानि दुर्गतटे तिष्ठामि, तावन्ति हेमलक्षाणि दण्डे गृह्णामि । अन्यथा न निवर्ते । इति सन्धां निर्माय प्रयाणढक्कामदापयत् । मिलितः समकालं राजलोकः।जाता गजमयीव स्मृष्टिः, भूपालमालामयीव भूमिः, अश्वमयमिव जगत् । निर्गतं सैन्यं वहिः। अखण्डितैः प्रयाणैर्भचन् परवलानि, शोषयन् सरांसि, पङ्कयन् 30 नदीः, समीकुर्वन् विषमाणि, चूर्णयन् शिखराणि, लेखयन् शासनानि, जीवयन् साधुलोकान् , * एतच्चिह्नाङ्कितं पद्यद्वयं नोपलभ्यते P पुस्तके। 1 P नास्ति । 2 A. नास्ति 'पुरी प्रति'। 3 P गुणकीर्ति। । दण्डा- न्तर्गतः पाठः P पुस्तके नास्ति। 4 P वलान् । Page 110**************************************************************************************** लक्षणसेन-कुमारदेवप्रवन्धः । ८९ लक्षणावती प्राप्तः। दुर्गानातिदूरासन्ने भूभागे आवासान् दापयामास । लक्षणसेनस्तु द्वाराणि पिधाय पूर्मध्ये एव तस्थौ। 'क्षुभिता पुरी। सङ्कीर्णत्वमापन्नमनपाथोघृततैलवसनताम्बूलदलीद- लादिवस्तूनाम् । स्थाने स्थाने वार्ता आर्ताः प्रवर्त्तन्ते काशीपतिस्तु मुत्कलं परदेशं ग्रसते । सार्थी एहिरेयाहिरां कुर्वन्ति । सुभिक्षमक्षामम् । नव्यानि कूपादीनि खातानि । विचरन्ति स्वैरं सैनिकाः । वर्द्धन्ते व्यवसाययः । लुटयन्ते ग्रामाः। द्वयोर्नुपयोरूर्ध्वमुखैरधोमुखैः शरैयुद्धानि। 5 गतानि दिनान्यष्टादश । तस्मिन् दिने सायं लक्षणसेनेन कुमारदेवो मन्त्री न्यगादि-मन्निन् ! इदमस्माभिरनुचितमाचरितम् । यदयं रिपुर्देश प्रविशन्नेव न प्रतिस्खलितः । अधुना दुर्गरोधे लोको दुःखी, मानग्लानिनः तस्मात्मातर्योद्धव्यम् । दण्डं न ददामि । आह्वय सामन्तामात्या- दीन् । कुमारदेवः प्रार-देव ! युक्तमेवेदम् । २१३ मृगेन्द्र वा मृगारिं वा द्वय व्याहरतां जनः । तस्य द्वयमपि ब्रीडा क्रीडादलितदन्तिनः ॥ १॥ 10 ___ त्वयि धृतायुधे वज्रायुधोऽपि कातर एव । तत्कालं मिलिताः प्रधानयोद्धाः। उक्तो युद्धाभि- प्रायः। प्रीतास्ते पीतामृता इव । उक्त' च- २१४ *मिनस्लेहमरैर्दिग्धो रूपितो रणरेणुभिः । खड्गधाराजलै. स्नातो धन्यस्यात्मा विशुद्ध्यति ॥ २॥ उत्तम्भिता नेत्र वैजयन्त्यः। निष्पन्ना वीरकरम्बकाः । सम्पन्नानि पन्यादि मुत्कलापनानि । एवं सति कुमारदेवो राजान्तिकाद् गृहं गत्वा मन्त्रयते स- 15 २१५ अस्माक प्रमुयुद्धार्थी जयन्तचन्द्रस्तु बली । अस्थाने वलमारम्भो निदान क्षयसम्पद. ॥३॥ तस्मात् किं कर्त्तव्यम् ? । आः! ज्ञातम्-जयन्तचन्द्रमन्त्री विद्याधरोऽनुसरणीयः । स हि प्रति- पन्नशूरः सकृपो निष्पापो दानी। इति विमृश्य पत्रीमेकां स्खलिग्वितां सहादाय प्राकारानगरस्रो- तोहारेणैवैकाकी निर्गय मध्यरात्रे यहिःसैन्ये मन्त्रिगृहद्वारेऽस्थात् । तत्र द्वाास्थैर्मध्ये मन्त्रिणं विद्याधरमात्मानमायातमजिज्ञपत्। सद्य आहूतस्तेन। आसितः स्वसमीपे, पृष्टश्च-के भवन्तः? 120 मन्त्रिणोक्तम्-अह लक्षणसेनामात्यः कुमारदेवस्त्वां द्रष्टुमायासिपम् । किश्चिद्वक्तव्यमस्ति । तत्तु वक्तुं न शक्यते । पत्री तु लिखिता वक्ष्यति । इत्युत्तवा विद्याधरहस्ते तामार्पिपत् । तत्र लोको दृष्ट:- २१६ उपकारसमर्थस्य तिष्ठन् कार्यातुर पुर । मूर्त्या यामार्त्तिमाचष्टे न ता कृपणया गिरा ॥ ४॥ अस्य श्लोकस्यार्थं चिर परिभाव्य विद्याघरोऽचिन्तयत्-अयं महीयान् मदन्तिकमागतः 125 जयन्तचन्द्रापसारणमीहते । दण्ड च न दित्सते । मय्येव भारमारोपयति । तस्मानिस्तार्योऽसौ । व्यसनसागरात। २१७ स एव पुरुषो लोके म एव श्लाघ्यतामिह । निर्भय सर्वभूतानि यस्मिन् विश्रम्य शेरते ॥ ५॥ इति ध्यात्वा कुमारदेवं जगाद-मा भैः। दण्ड मा दाः। प्रातरत्रास्मत्सैन्यं न स्थास्यत्येव, गच्छ । इत्युक्त्वा कुमारदेवं सत्कृत्य व्यस्राक्षीत् । गत. वस्वामिलक्षणसेनसविधम् । 30 ___1 A सुभानि। 2P वाम्यूलादिः। 8 P याहिरे। 4P सनितानि। 5 P व्यवसायाद् द्धय । 6 ABD नानि 'मनी'। 7 P नास्ति,Cउघुश्च। * नोपलभ्यत इद पद्य P पुस्तके। 8 Pघर पेनयन्त्य । 9Pपल्या मुरकला। 10P 11A यक्ष्यते। 12P पुनके 'गत स स्वम्पाने' इत्येव । १२ प्र. फो. Page 111**************************************************************************************** प्रवन्धकोशे इतश्च विद्याधरो जयन्तचन्द्रान्तिकं गत्वा विज्ञप्तवान्-राजेन्द्र ! अद्य देवस्यात्रागतस्य दिना- प्टादशकं गतम् । कुमारदेवेन खयमेत्य ममाष्टादश हेमलक्षाणि प्रवेशितानि । अतोऽभयं देहि । प्रसीद, स्वस्थानं गच्छ। काश्यामपि मुक्तायां निर्वाहो नास्ति, दुर्ग्रहं च दुर्गम् । इति श्रुत्वा काशीन्द्रः सद्यो रानावेव चलितः। दशकोशी गत्वा स्थितः । वनगर्यभिमुखीभिः पटकु- 5टीभिः । लक्षणावतीलोको विस्मितो हृष्टश्च । लक्षणसेनेन कुमारदेवः पृष्टः-किमिति गतो जय- न्तचन्द्रः ? । मन्त्रिणोक्तम्-देव! त्वां युद्धोद्यतं श्रुत्वा काशीन्द्रः सुभीतः प्राणत्राणार्थ गतः। 'अन्यैव तव पिण्डशक्तिः । २१८. गतिरन्या गजेन्द्रस्य, गतिरन्या खरोष्ट्रयोः । गतिरन्यैव सिंहस्य लीलादलितदन्तिनः ॥ ६॥ २१९. कः सिंहस्य चपेटपाटितमहामातङ्गकुम्भस्थल,-स्थूलास्थिस्थपुटीभवत्परिसरां लीलागुहां गाहते । ___10 कः काकोदरभर्तुरुद्धतविषज्वालावलीढस्फुरत् ,-फूत्कारावलिघोरमास्यकुहरं साडम्बरथुम्वति ॥ ७॥ अथ चापल्याड्डौकते कश्चित् तयोः तथापि क्षेमः कुतः । अतः स्वकीयमन्तुक्षमणोपायोऽयं तस्य । काश्यधिपोऽपि काश्यासन्नं गतःसन् विद्याधरमादिशत्-लक्षणावतीशदण्डधनं चतुर्दिग्मि- लितेभ्योऽर्थभ्यो देहि । येन यशांसि प्रैधन्ते । विद्याधरोऽपि स्वामिनं निगदति स्म'-देव! कुमार- देवेन मह्यं रत्नमेकं दण्डपदे दत्तमस्ति । तेन सद्यः कथं हेम निष्पद्यते?। राजोचे-तर्हि रत्नं दर्शय। 15 अथ तेन पत्रीगतः श्लोकोऽदर्शि, कुमारदेवागमनवृत्तान्तश्च प्रोक्तः। विद्याधरमुखाच तदवधार्य जयन्तचन्द्रो जजल्प अनल्पधी:-मन्निन् ! तदैव किं नेयं पत्री दर्शिता, येन तेभ्यो विशिष्टां कृपां कुर्मस्तदैव । त्वया स्वधनार्पणाशीकारेणैव वयं तत उत्थापिताः। प्रापितो दण्डोऽस्मभ्यं किल, तेन हेमाष्टादशलक्षाणि कोशादाकृष्यार्थिभ्यो देहि । अष्टादशहेमलक्षास्तु कृपाप्रसादपदे लक्षणसेनाय, अष्टौ हेमलक्षाः कुमारदेवाय प्रेषय । तथैव कृतं विद्याधरेण । प्रविष्टौ काशी तौ। 20 स्फीतं राज्यं भुतः। षड्विंशतिहेमलक्षेषु तत्र गतेषु लक्षणसेनेन कुमारदेवः पृष्टः-किमिदम् ? । कमारः स्मितपूर्वकमाचष्ट-त्वां विरोध्य कः सुरखी तिष्ठेत । ततोऽरिणा दण्डस्तेऽर्पितः। पिप्रिये पृथ्वीपतिः, मुमुदे प्रजा, ववृते महोत्सवः। एवं मन्त्रिणः कालज्ञाः सुगूढाशयाः लोक-भूपयोः' कार्यं कुर्युरिति ॥ ॥ इति लक्षणसेन-कुमारदेवप्रवन्धः समाप्तः ॥ २० ॥ --cooor- 25 २१. अथ मदनवर्मप्रवन्धः। ६१०७) चौलुक्यवंश्यो मूलराज-चामुण्डराज-दुर्लभराज-भीमान्वये कर्णदेवजन्मा मयणल्ला- देविकुक्षिभूादशो रुद्र इति विदितविरुदः श्रीजयसिंहदेवनामा महीपतिरभूत् । स अणहिल्लपत्त- नान्निर्गत्यामितैः सैन्यैर्मालवदेशराजधानी धारां द्वादशभिर्वर्जग्राह । प्रतोलीत्रयं स्फोटयित्वा '.. यशःपटहकुञ्जरेण लौहीमर्गलामन्वभञ्जत्। साऽद्यापि देवपत्तने श्रीसोमनाथाग्रे दृश्यते। यशाप- 30 टहो मृत्वा व्यन्तरोऽभूत्। जयसिंहो मध्ये परपुरं प्रविष्टो नरवाणं मालवेन्द्रं जीवग्राहमग्रहीत् । । दण्डान्तर्गतः पाठो नास्ति P पुस्तके। 1 P स्माह। 2 A तेन । 3 A मुमुदुः प्रजाः। 4 A. नास्ति पदमेतत् । 5 A मध्ये पुरं। एतद्दण्डान्तर्गता पंक्तिः पतिता P पुस्तके । . . Page 112**************************************************************************************** ९१ मदनवर्मप्रवन्धः । द्वादशवर्षाणि जयसिंहस्य ग्वद्गो निष्पत्याकारोऽस्थात्, नरवर्मचर्मघटितमेव प्रत्याकारं करोमीति प्रतिज्ञावशात् । अत एव हस्त्याख्दं नरवर्माण भूमौ पातयामास । वितस्तिमात्रं चाहिसत्क- मुदतीतरत् । अत्रान्तरे प्रधानैर्विजप्तम्-राजन् ! राजाऽवध्य एवेति नीतिवचः । तस्मान्मोक्तुम- होऽयम् । ततो मुक्तः सः। मुक्त्वा' काष्ठपञ्जरे क्षिप्तः । नरवर्मचाऽन्यचर्मभ्यां सिद्धराजेन निजकृपाणे प्रत्याकारः कारितः। ततः कवीश्वरैर्विविधं स्तूयते सः- २२० एकधारापतिस्तेऽद्य द्विधारणासिना जित । किं चित्र यदसौ जेतु शतधारमपि क्षम ॥१॥ २२१ *क्षुण्णा क्षोणिभृतामनेन कटका भग्नाऽस्य धारा ततः, कुण्ठः सिद्धपते. कृपाण इति रे मा मसत क्षत्रिया । आरूढप्रनलप्रतापदहन सम्प्राप्तधारश्चिरात् , पीत्वा मालवयोपिदश्रुसलिल हन्तायमेधिष्यते ॥२॥ ६१०८) तनो दक्षिणापथे महाराष्ट्र-तिलङ्ग-कर्णाट-पाण्ड्यादिराष्ट्राण्यसाधयत् । अनन्तं धनं सङ्घटितम् । ततो गूर्जरधरां प्रति व्याघुटत् । यावद्देशसीमसन्धौ सैन्यनिवेशं कृत्वा स्थितस्तावत् 10 सायम् , एकदा महा सभायामुपविष्टोऽस्ति प्रत्यक्ष इव सुरपरिवृढः । तावत्कश्चिद्वैदेशिको भद्द एत्याशीर्वादं भणित्वा सभां दृष्ट्वाऽवदादि यथा-अहो । परमारवंशधूमकेतोः श्रीसिद्धराजस्य सभा मदनवर्मण इव मनोविस्मयजननी!। तदाकर्ण्य सिद्धेन्द्रस्तमेव भट्ट पुर उपवेश्य पप्रच्छ- भट्ट ! कोऽसौ मदनवर्मा, क नगरे राज्यं करोति ? । भट्टः प्राह-देव ! पूर्वस्यां महोवक नाम पत्तनं स्फारम् । तत्र मदनवर्मा नाम पृथ्वीपालः प्राजस्त्यागी भोगी धर्मी नयी नल इव, पुरू-15 रवा' इव, वत्सराज इव, पुनरवतीर्णः पृथिव्याम् । तं राजान तच पुरं यः खल्ल नित्यं पश्यति सोऽपि वर्णयितु न पारयति । केवल पश्यन्नन्तर्मनसं मूक इव खादं तद्गुणं जानाति । अस्माकं वचसि प्रायो लोकस्य विश्वासो नास्ति वावदूकत्वात् । पर प्रेपय कञ्चित्परमाप्तं निज मन्त्रिणं जम् , येन स तामृद्धि दृष्ट्वाऽत्रागत्य देवपादेभ्यो निवेदयति । एवं भाहीं वाचमवधार्य सिद्ध- राजो मन्त्रिणमेक कतिपयंजनयुतं द्रष्ट तत्र तेनैव भट्टेन सह प्राहैपीत् । गतौ तौ भट्ट-मत्रिणी 20 महोयकपत्तनम । दर्शित पत्तन भद्देन । मन्त्रिणा दृष्टा निर्विलम्बमपराजमेत्य यथास्थितमभा. णीत्-अवधारय स्वामिन् ! गतस्तत्राहम् , दर्शितं भट्टेन तत्पत्तनम् । तदा वसन्तमासोत्सवस्तत्र प्रवर्तते। गीयन्ते वसन्तान्दोलकादिरागैगीतानि । भ्रमन्ति दिव्यशृङ्गारा नार्यः । मकरध्वजलक्ष- भ्रान्तिमुत्पादयन्तो विलसन्ति युवानः । क्रियन्ते प्रतिरथ्य छण्टनानि यक्षकईमैः। प्रासादे प्रासादे सद्गीतकानि । देवे देवे महापूजा। भोजनवाराः सारा प्रतिसदनम् । राजकीयसत्राकारे 25 तु दालिकरावस्रावणानि मुत्कलानि न मुच्यन्ते किन्तु गायां नियन्त्र्यन्ते, तदा सघण्टो हस्ती निमजति। राजाश्ववाराः परितः पुरं भ्रमन्तो चीटकानि ददते लोकाय। कपूरचूंलिपर्वोदयः। रानी विपणीन् वणिजो न संवृणन्ति, उद्घाटान् विमुञ्चन्ति । प्रातरागत्योपविशन्ति । एवं नीतिः। व्यवसायोऽप्याचारमात्रेणैव [*तत्र देशे लोहखानिवत्सुवर्णरूप्यखानीर्वहन्ति तेन सर्वः कोऽपि] सिद्धार्थत्वात् । राजा तु कीदृगप्यास्ते, मया स न दृष्टः । इद 'तु श्रुतम्-स नारीकुञ्जरः सभायां 30 कदापि नोपविशति । केवल हसितललितानि तनोति । प्रत्यक्ष इन्द्रः। 1 नास्ति P 'मुस्'। 2 A तेन । * एतत्पद्य नास्ति P पुस्तके। 3 P पुमके सर्यन 'मह' शब्दस्याने 'मद्र' शब्दो सम्यते। P पुरुषोत्तम। 5 AB मासतदा! 6 A निमुशन्ते । * कोष्टकगत पाठ P पुस्तके प्रशितप्राय एवं । 7P '' नाति। 8 P नि। Page 113**************************************************************************************** प्रयन्धकोशे ___ एवं वचः श्रुत्वा सिद्धराजः सैन्यरक्षायां संन्यं नियुज्य महता' सैन्येन महोयकं प्रति प्रतस्थे। [क्रमेण गच्छन् ] तस्थौ तदासन्ने भूप्रदेशे क्रोशाष्टकेन । क्षुभितो देशः। स्थानाचलितं महो- बकम् । प्रधानर्मदनवर्मा दिव्योद्यानस्थः स्त्रीसहरसमावृत एत्योचे-खामिन् ! सिद्धराजो गोर्जर उपनगरमागतोऽस्ति, स कथं पश्चान्निवर्तनीयः? । मदनवर्मणा स्मित्वा भणितम्-सिद्धराजः?; 5 सोऽयं धारायां द्वादश वर्षाणि विग्रहाय अस्थात् । स कवाडी राजा वाच्यो भवद्भिः-यदि नः पुरं भुवं च जिघृक्षसि, तदा युद्धं करिष्यामः । अथार्थन तृप्यसि तदाऽर्थ गृहाणेति । ततो यद्याचते स वराकस्तद्देयं भवद्भिः। न वयं धने दत्ते त्रुट्यामः । सोऽपि जीवतु चिरम् , यो वित्तार्थ कृच्छ्राणि कर्माणि कुर्वाणोऽस्ति। राज्ञो वचोऽनुगृहीत्वा मन्त्रिणः पुरमगुः । तावता सिद्धे- शेन कथापितम्-दण्डं दत्त । मन्त्रिभी राजवाक्यं दतमुखेन भाणितम्-यदि अर्थमीहसे तदाऽर्थ 10 लाहि, भूमि चेत्तर्हि युध्यामहे वयम् । मदनवर्मदेवाय ज्ञापितमत्र भवदागमनम् । तेन अस्म- त्मभुणा उक्तम्-कवाडी राजाऽर्थेन तर्पणीयः सः। सिद्धराजस्तल्लीलया विस्मितः पण्णवति कोटीः कनकस्यायाचीत् । दत्तास्ताः प्रधानैः सद्यः । देशं सुखं तस्यौ । तथापि पश्चान्न याति । तदा प्रधानैर्भाणितम्-राजन् ! अर्थो लब्धस्त्वया; कथमथ न प्रतिगच्छसि। सिद्धेशेन भाणि- तम् -मन्त्रिपुरुहूता ! तं लीलानिधिं भवत्प्रभुं दिदृक्षे"। तेऽप्येत्य मदनवर्माणमभणन्-अर्थेन 15 तोषितः सकेशी राजाः परं भणति राजेन्द्रं द्रष्टमीहे। ततो मदनवर्मणा निगदि सः। ततः सैन्यं तथास्थमेव मुक्त्वा मितसैन्यस्तत्रोद्याने आगतः सिद्धराजः, यत्र महापाकारस्थे सौधे मदनवर्माऽस्ति । प्राकाराद्वहिर्योधलक्षास्तिष्ठन्ति । प्रतोली यावदागत्य मध्येऽचीकथदू द्वास्थैः-"आगम्यतामस्माभिः ? । महोवकप्रभुणा भाणितम्-जनचतुष्केण सहागच्छत । आगतो मध्ये सिद्धराजः । यावत्पश्यति काञ्चनतोरणानि सप्तप्रवेशद्वाराणि । अग्रे ददर्श 20 रजतमहारजतमयीर्वापीः। नानादेशवेश"भापाविचक्षणाः शशाङ्कमुखीविशालनितस्वस्थला- स्तारुण्यपुण्यावयवाः स्त्रीः। पणव-वेणु-वीणा-मृदङ्गादिकलासक्तं परिजनजनम् । स्फीतानि गीतानि शुश्राव । नन्दनोद्यानाधिकमुद्यानम् , हिमगृहाणि, हंससारसादीन् खगान् , उपकरणानि हैमानि, कदलीदलकोमलानि वसनानि, जनितानगरागान् उत्तुङ्गान् पुष्पकरण्डांश्चैक्षत । एवं पश्यन् पश्यन् , पुरः पुरो गच्छन् , साक्षादिव मदनं मधुरे वयसि वर्तमानं मितमुक्ताफलप्रायभूषणं 25 सर्वाङ्गलक्षणं काञ्चनप्रभं मधुरस्वरं तामरसाक्षं तुङ्गघोणं उपचितगात्रं मदनवर्माणमपश्यत् । मदनवर्माऽप्यभ्येत्याश्लिष्य हेमासनं दत्त्वा तमभाणीत्-सिद्धेन्द्र ! पुण्यमद्यास्माकं येन त्वम- तिथिः सम्पन्नोऽसि । सिद्धराजः प्राह-राजन् ! आवर्जनावचनमिदं मिथ्या । यत्तु त्वन्मत्रिणा- मग्रे कबाडी इत्युक्तं तत्सत्यम् । मदनवर्मा जहास । सिद्धेश ! केन वो विज्ञप्तमिदम् ? । सिद्धेशः प्राह-तैरेव मन्त्रिभिस्तावकैः । कोऽभिप्रायो मनिन्दाभणने देवस्य ?। मदनवर्मा आह -देव! 30 कलिरयम्, अल्पं जीवितम् , मिता राज्यश्रीः, तुच्छं बलम् , तत्रापि पुण्यैः स्फीतं राज्यं 1P सिद्धराजो महता सैन्येन। 2P पुस्तक एवेदं दृश्यते। 3 P यद्धारायां। 4 P तर्हि। 5 P तृप्यति । 6 P कृच्छ्रकर्माणि। 7 P परचक्रमगुः। । एषा पंक्तिः पतिता P पुस्तके। 8 A.BD आदर्श न दृश्यते वाक्यमिदम् । 9 A सिद्धसेनेन भणितं । 10 P मन्त्रिपुरः। 11 P दर्शयथ। 12 P नास्ति 'ततः'। 13 A नास्ति । 14 P आगतं । 15.A नास्ति 'अने। 16 P नास्ति 'महारजत'। 17 P 'वेश' नास्ति । 18 P तुगाघ्राणं। 19 P आश्विक्षे। 20 A भवदत् । Page 114**************************************************************************************** रत्नभावकप्रवन्धः। लभ्यते, तदपि चेन् न भुज्यते, रुल्यते विदेशेषु, तत्कथं न 'कवाडिकत्वम् । सिद्धेशेनोक्तम्- सत्यम्, एतादृशः कर्याटिक एवाहम्। 'त्वमेव सत्यं धन्यो यस्येत्यं शर्माणि । त्वयि दृष्टेऽस्माकं जीवितं सफलम् । चिरं राज्यं मुइक्ष्व । इत्युक्त्वा तस्यौ । मदनवर्मणोत्थाय निजं परिजन- कोश-देवतावसरादि सर्व दर्शितम् । प्रेमाऽवृधत् । विंशत्युत्तरं पात्रशतं स्वागसेवकं सिद्धराजाय व्यतरत् । तेन प्रीतो' जयसिंहदेवः सैन्यं गृहीत्वा घरां' जित्वा पत्तनं अणहिल्लपुरं प्रविष्टः। 5 तेपा १२० मध्यादई पथि मृतं माईवात्, शेष पत्तने प्रविष्टम् । पत्तनप्रवेशोत्सवे श्रीपालकवेः सिद्धराजोपश्लोकनकाव्यम् - २२२ हे विश्वत्रयसूत्रधार ! भगवन् । कोऽय प्रमादस्तव, न्यस्सैकन निवेश यस्य परतस्तान्येव वस्तूनि यत् ।। पाणि पश्य स एप य किल वलेाक सैव पार्थस्य या, चारित्र च तदत्र यद् रघुपतेश्चौलुक्यचन्द्रे नृपे ॥३॥ पुन:- २२३ मान मुञ्च सरस्वति । त्रिपथगे ' सौभाग्यमगीं त्यज, रे कालिन्दि । तवाऽफला कुटिलता रेवे । रयस्त्यज्यताम् । श्रीसिद्धेशकृपाणपाटितरिपुस्कन्धोच्छलच्छोणित,स्रोतोजातनदीनवीनवनितारक्तोऽम्बुधिर्वतते ॥ ४ ॥ एवमन्यैरपि 'कविभिर्भणितानि ॥ ॥ इति मदनवर्मप्रवन्धः ॥ २१ ॥ 10 15 २२. अथ रत्नश्रावकप्रवन्धः । ६१०९) उत्तरस्यां दिशि काश्मीरेषु नवदुल्लं नाम महर्दिमत्पत्तनम् । तत्र विक्रमाक्रान्तभूचक्रो नवहंसो नाम भूपालः । तस्य राजी रूपश्रीहसितरम्भा विजयाँदेवीनाम्नी । तत्रैव पत्तने पूर्णचन्द्रः श्रेष्ठिराजोऽभूत् । तन्नन्दनास्त्रया-रत्ना, मदनः, पूर्णसिंहश्च । त्रयोऽपि जैनाः श्रीमन्तः प्रियंवदाः सात्त्विकाः प्राज्ञाः राजपूज्याः प्रारम्भसिद्धाः । रत्नस्य पत्नी पउमिणिरिति ख्याता। पुत्रस्तु कोमल इति नाम बालो वर्तते । तदा श्रीनेमिनाथनिर्वाणादष्टसहस्री वर्षाणां व्यतीताs-20 स्ति। अस्मिन्नवसरेऽतिशयज्ञानी पट्टमहादेवनामा नवहुल्लपत्तनपरिसरे समवासापीत्। देवैर्भूमिः शोधिता। उदकैश्चण्टिता। कनकपनं मण्डितम् । तत्र पट्टमहादेव उपविष्टः । मध्ये नगरस्य तदागमनं ज्ञापितमुद्यानपालेन" लोकाय नृपाय च । प्रथममागतो नृपः सान्तःपुरपरिच्छदः, सरन-मदन-पूर्णसिंहः । अपरोऽपि लोकस्तथैव । श्रेष्ठिनी पउमिणिरपि सपुत्रा "तनागता । एवं सभायां देव-दानव-मानव-विद्याधरादिवृन्दसुन्दरायां" गुरुर्देशनां प्रारेमे- 25 २२४ यास्यामीति जिनालये स लमते घ्यायश्चतुर्थ फल, पष्ठ चोत्थितुमुद्यतोऽटममयो गन्तु प्रवृत्तोऽध्वनि । श्रद्धालुर्दशम पहिर्जिनगृहात् प्राप्तस्ततो" द्वादश, मध्ये पाक्षिकमीक्षिते जिनपतौ मासोपवास फलम् ॥१॥ 1A कयाटिकरव। 2 P त्वमेवाय । 3AD वितेनिरे। 4 A तो। 5 Pघरामध्ये भूखा, A घराचिया। 6P मीरारकविना सिदरानो पार्णत । 1P पुनके नातिपयमिदम् । 7P विहाय नास्न्यन्यत्र 'कविभि'। 8P काश्मीरेषु देशेषु । 92.रामाग, A रम्मागवारग्मा। 10 Bविजयदेवी। 11 BE .महादेविनामा। 12 AE पाले। 13 ABD व सत्रा। 14P -मानवमुन्दराया। 15 D वदा। Page 115**************************************************************************************** , प्रवन्धकोशे २२५. सयं पमजणे पुन्नं सहस्सं च विलेवणे । सयसाहस्सिया माला अणतं गीअवाइअं ॥२॥ २२६. पूजाकोटिसमं स्तोत्रं स्तोत्रकोटिसमो' जपः । जपकोटिसमं ध्यानं ध्यानकोटिसमो लयः ॥ ३॥ इदं सामान्यतः सर्वजिनसेवाफलम् । शत्रुञ्जये तु सविशेषं तदेव, असंख्यानां यतीनां सिद्ध- त्वेन सिद्धक्षेत्रत्वात्। 5 २२७. धूवे पक्खोवासो मासक्खवणं च कप्पूरधूवम्मि । कत्तिअमासक्खवणं साहपडिलाभिए लहइ ॥ ४ ॥ इति वचनात् । शत्रुञ्जयादपि रैवतसेवा महाफला। रैवतो हि शत्रुञ्जयैकदेशत्वात् शत्रुञ्जय एव, श्रीनेमिकल्याणकत्रयभावादतिशायितमप्रभावश्च । नेमिनाथस्य माहात्म्यं मिथ्यादृशोऽपि प्रभासपुराणे एवं प्रवदन्तः श्रूयन्ते- ___ २२८. पद्मासनसमासीनः श्याममूर्तिदिगम्बरः । नेमिनाथः शिवेत्याख्यो नाम चक्रेऽस्य वामनः ॥५॥ 10 वामनावतारे हि वामनेन रैवते नेमिनाथाऽग्रे वलिवन्धसामर्थ्यार्थ तपस्तेपे इति तत्र कथा। २२९. कलिकाले महाघोरे सर्वकल्मषनाशनः । दर्शनात्स्पर्शनाद्देवि ! कोटियज्ञफलप्रदः ॥ ६॥ ईश्वरोक्तमिदं प्रभासपुराण एव । तस्मायेन नेमिनाथो वन्दितो रैवतगिरिमारुह्य तेन किल परमपदं श्रद्धालुना गृहीतमेवेति तत्त्वम् । इत्येतां देशनां श्रुत्वा रत्नः श्रावक उत्थाय गुरोरने प्रतिज्ञा चक्रे-मया ससद्धेन यदा रैवतगिरौं नेमिः प्रणतो भविष्यति, तदा द्वितीया विकृति- 15 ग्रहीतव्या। तदैव एकभक्तं 'मोक्तव्यम् । तावन्तं च कालं यावद् ध्रुवं भूमिशय्या-ब्रह्मचर्ये धायें। : वरं प्राणांस्त्यजामि परं नेमिनाथं नमाम्येवेति । ततः स्वगृहमायातो राजा लोकश्च । रत्नश्रावको- परोधात् पट्टमहादेवस्तत्रास्थात् । रत्नस्तूपायनं दत्त्वा राजानमूचे-राजन् ! मां नेमियात्रायै रैवत- गमनाय विसृज । राज्ञोक्तम्-खैरं धर्मः समाचर्यताम् । अस्माकं मतमेतत् । यद्विलोक्यते तद् गृहाण । रत्नो जहर्ष । सङ्घममेलयत् । गज-रथ-तुरग-पदातिरूपं महत्तमं सैन्यं नृपालेभे । यस्य 20 यन्यूनं तस्य तत्पूरयामास । अमारि-चैत्यपरिपाटी-शान्तिक-भोजनवारा-प्रतिलाभना-बन्दि- मोक्ष-लोकसत्कारांश्चकार । गणितं मुहूर्तम् । चलितो देवालयः। राजा महोत्सवकरः परमः सखा। करभशतैर्धनानि चेलुः। श्रेष्टिनी पउमिणिपपत्नी विजयादेवीं बालवयस्यां भेटयितुं जग्मुषी, पादयोस्तस्याः पेतुषी, आपप्रच्छे-खामिनि ! यात्रायै यान्त्यस्मि । भवद्धियोगदुःखं दिन- कतिपयानि धर्मलोभतः सोढुमीहेऽहम् । राज्ञी अपि "साश्रमूचे-सखि ! तत्र गता धनकृशतया" 25 काप्पण्यं कृत्वा मां लज्जापानं मा कृथाः। खैरं ददीथाः । अमनि धनानि" भूषणानि वसनानि च- गृहाण । इत्युक्त्वा भूरि ददे । पदानि कतिपयानि सम्प्रेषयत् । निवृत्ता राज्ञी । श्रेष्ठिनी सङ्घमध्यमध्यास्त । श्रीपट्टमहादेवो गुरुः सह व्यवहरत् । तेन सनाथः सङ्घः । नित्यं धनस्य खैरं व्ययः। कोटीश्वराः साधर्मिकाः परःसहस्राः। चन्द्रहासव्रणाङ्का भटाः शतसहस्राः। तेन" क भीः। एवं पथि तीर्थानि वन्दमानो रत्नः सञ्जपतिर्वान्धवद्वययुतः सपुत्रः सपत्नीकस्तावद ययौ 30यावद्-रोला-नोलाख्यौ द्वौ पर्वतौ स्तः। तत्र प्राप्तः । इह किल शत्रुञ्जयमध्ये भूत्वा रैवतं गच्छतां . 1 A. कोटिगुणो । 2 ABE नास्ति 'एव' । 3D देव। 4 P एवम् । 5 PBD रैवते । 6A नेमिनाथः । 7-P भोक्तव्यम्। 8 A वयं। 9 A नेमिनाथयात्रायै; B यात्रायै। 10 P शास्तु०। 11 P धनकृच्छ्रतया। 12 ABE अनान्यतिधनानि । 13 P यथेच्छं। 14 A.B नास्ति 'तेन'। . . . Page 116**************************************************************************************** रजश्रावकप्रवन्ध । १५ लोकानां रोला-तोलौ गिरी न स्ता। परं भद्रेश्वरपथेन गच्छतां स्तः। तत्र रोला-तोलयोरन्योर्मुखे मिलित्वा तोडकद्वयमिव जातमास्ते । तत्र परिसरे सद्ध आवासितः। दिनं सर्व लान-चैत्यव- न्दना-नादपूजा-भोजनादीनि स्वैरं ववृतिरे। रात्री सुख स्थितम् ।प्रातः पुरो गमनाय सन्नह्याच- लत्सङ्घः । यावदग्रयानं गिरिनुखसङ्कटपथेन चलितुं प्रवृत्तम् , तावता कश्चिदेको मपीश्यामो व्यात्तवक्त्रो नरसिंहपुरट्टहासी बहुगव्यूतोचो दटाकरालास्यो नखरैलॊकं दारयितुं प्रववृते । 5 भक्षयामि भक्षयामि च ऊचे । तदु 'दृष्ट्वा भीतो लोकः पश्चान्निवृत्य गच्छति । तद्राजपुत्रा- तम् । तैर्गत्वा स कालरूपः प्रयभापे-कस्त्वम् , कथं जनमुपद्रवसि ? । देवो वा दैत्यो वा राक्षसो वा येन तन्नाम्ना पूजयामः। स कालमूर्तिर्वदति-कि रे! वाढं वदथ । यदि पुरः पदमेकं ब्रजि- प्यथ, तदा सर्वान् एकैकशश्चर्विष्याम्येव । इति गदति सति तस्मिन् सङ्घरक्षपालै टैयाघुट्य रत्नो विज्ञप्तः-देव! एवमेवं वृत्तान्तः । पुरो गन्तुं न लभ्यते । एतदंष्ट्राचर्विता लोकाः पुरः 10 'प्रेक्ष्यन्ताम् । तदाकर्ण्य कर्णकटुकं विपणो रत्नः । क उपायः१, का गतिः, का मतिः?-इति कलकलितः सङ्घः। विशेषतः स्त्रीजनः। स्थाने स्थाने वृन्दशो वार्ताः। केचिद्वदन्ति-पश्चान्नि- वृत्य गम्यते । अय सर्व भक्षयिष्यत्येव । 'जीवन्नरो भद्रशतानि पश्यति । अपरे त्वाहुः-म्रियते चेद् म्रियताम् । गम्यते पुरः, नेमिरेव शरणम् । केचिद् द्रुमलतान्तरितास्तस्थुः । अन्ये ज्योति- पमपश्यन् । इतरे सङ्घमस्थानमुहर्त्तदातारमनिन्दियुः । इत्येव विपमे वर्तमाने सङ्घपतिरत्नेन 15 भटाः प्रभापिता:-गत्वा पृच्छत त घोरं नरम् , त्वं कथ प्रसीदसि', येन तत्कुर्मः, पुरो बजामः। गता भटाः । भापितं रनवचनं तदने । तेनोक्तम्-अह्मतस्या गिरिभुवोऽधिष्ठाता । एकं सङ्घम- धानमानुप भक्षयामि, ततस्तृप्यामि, अन्येपां नोपद्रवामि, प्रतिज्ञां च न ल । ते भटा- स्तत्सम्यग्निीय तदालापं रत्नाय ऊचुः। रत्नेनैकत्रोपवेशिताः सर्वे लोकाः । तथा सनद्धा एव भणिताश्च ते लोका:-पुण्यं मे महद, येनासौ कोऽपि घोरपुरुष एक मानुप जिघत्सति ।। क्षणात् तृप्तश्चेच्छेप न भक्षयति । तस्माद यूयं यात, नेमि वन्दध्वम् । मयाऽस्मै 'खान देयम् । अहो! लाभोदयः। इयत्कालं विविधयत्नपालितं देह सङ्घार्थे उपकृतम् । एवमुक्त्वा तृष्णीके सद्देशे, राजपुत्राः प्रभणन्ति-नररत्न रत्न! त्वं चिरं जीव । अस्माकं "एकतरेण स भ्रायतु । वय हि सेवकाः । सेवकानां च धर्मोऽयम्-मृत्वाऽपि प्रभुरुद्धरणीयः । अन्यथा धर्मयशोवृत्तिक्षयात् । __ २३० ते मुग्गडा हराविया जे" परिविहा" ताह । भवरुप्परजोयतयह सामिउ गजिउ जाह ॥ ७॥ 25 सद्धप्रधानसाधर्मिका ऊचुः-"रनदेव! त्वं चिरं जीव । युवाऽसि, राजपूज्योऽसि, सहस्रलक्ष- जन"पोपकोऽसि, वय विनश्वरकलेवरव्ययेन स्थिर धर्म जिघृक्षामहे। २३१ जइ उद्यमई" तो कुहइ, अह डज्झइ तउ छारु" । एयह दुट्ठकलेवरह ज वाहियई त सारु ॥८॥ २३२ *सा सुक्तइ जगु मरइ ते वीरडी म सुक्क । इक्कु मरतइ सु मरड वरिसउ मरउ म इक्छ ॥ ९॥ भदन-पूर्णसिंहौ" जगदतु:-आवयोस्त्व ज्येष्ठो भ्राता पिता यथा। पितुरायत्तश्च पुत्रप्रायो80 लघुभ्राता । किं रामाने युद्धा लक्ष्मणेन न प्राणास्तुणीकृताः। 1P पुस्तक एच 'पर' श्पते। 2 P विहाय नास्त्यन्यत्र 'तद् दृष्ट्वा । 3P पुन: एपेद पद लभ्यते। 4 P लभ्यते- भाग्यात्। 5 P एव तद्। 6P पुर पतिता । 7 P विहाय नोपलभ्यतेऽन्यत्र पदमिदम् । 8 P निक्षति। 9 P स्थान । 10P ममाक मध्ये। 11 Pये। 12 A परिवुद्या, P परिविदा। 13 P भवरप्परजोयतद। 14 P हे रस। 15 'जन, नास्ति ABI 16 A उन्मइ, रक्सिन। 17 P छार। 18 A वाहिए, P वाहियाह। *A. आदर्श एवेद पद्य रम्यते । 19 P सिंहलातरी। Page 117**************************************************************************************** प्रवन्धकोशे ____२३३. लेहो न ज्ञायते देव ! प्रणामान्न मृदूक्तितः । ज्ञायते तु क्वचित्कायें सद्यः प्राणप्रदानतः ॥१०॥ पउमिणिबूते-कुलस्त्रियः पत्याधीनाः प्राणाः। पत्यौ लोकान्तरिते जीवन्त्यपि मृताः शृङ्गा- राद्यभावात् । यथा- _____ २३४. शशिना सह याति कौमुदी सह मेधेन तडिद् विलीयते । प्रमदाः पतिवम॑गा इति प्रतिपन्नं हि विचेतनैरपि ॥११॥ 5 भर्तरि मृते नार्याऽनुमर्तव्यं तावत् । यदि मयि मृतायां त्वं जीवसि, तदा किं न लब्धं मया। कोमलः प्राह तात!- २३५. एकदेहविनिर्माणादधमणीकृतैः सुतैः । यशो-धर्ममयं देहद्वयं पित्रोवितीर्यते ॥ १२ ॥ इत्येवं वदतस्तान् सर्वान् युक्तिभिर्वाद निपेध्य स्वयं मर्तुं स्थितः । सङ्घो वहन् कृतः । कालपुरुषेणोपद्रवो न कृतः। गते तु सङ्घ रत्नः श्रीनेमिपरायणः स्थिरस्तस्थौ । पउमिणि ग्रे 10गता। परन स्थित्वा कायोत्सर्गमधात् । कोमलोऽपि तथैव । कालपुरुपेण रत्नो गिरिगुहायामे- कस्यां क्षिप्तः । द्वारि शिलां दत्त्वा पुच्छमाच्छोटयति । सिंहनादैः खं वधिरयति । तथापि रत्नो न विभेति । 'पविस्थिरजिनरागः। ___ अत्रान्तरे कूष्माण्डी वन्दितुं रैवतशिखरे क्षेत्रपतयः सप्त-कालमेघ १ मेघनाद २ गिरि- विदारण ३ कपाट ४ सिंहनाद ५ खोटिक ६ रैवत ७ नामानो मिलिताः। ते देवीं वन्दित्वा ___15 ऊचुः-देवि! कापि पर्वतो धडहडायते। ईदृशं कापि पूर्व न वृत्तम् , यादृगधुना वर्तते । ततः पश्य, किमिदम् ?। कापि पुरुषो महानेक उपद्यमाणोऽस्ति केनापि क्रूरेण । अम्बया ज्ञात ज्ञानेन । तैः सह तत्र गता । पउमिणि-कोमलौ दृष्टौ तथाकायोत्सर्गस्थौ । कृपा-भक्ती जाते। गुहाद्वारं गत्वा स आक्षिप्तः क्रूरः-रे ! किमिदं करोषि ? । युध्यस्व चेत्समर्थोऽसि । रत्नं रक्षामो वयं क्षेत्रपालाः, अहं अम्बा जगदम्बा । तथोक्ते घुरहुरितः सः। युद्धं ववृते । "यावत् सोऽम्बया 20 पादे धृतः, शिरः परितो भ्रमयित्वा स्फालयिष्यते ग्रावण्युग्रे, तावत्प्रत्यक्षो दिव्यमूर्तिः पुरो" नरो ददृशे । रत्नश्च पुरः दिव्याभरणारागी सप्रियः, सपुत्रा, सुखी । ऊचे च स दिव्याङ्ग:- अम्बे! क्षेत्रपाः! श्रीरत्न ! शृणुत । यदा रैवतमहिमानं गुरुर्जगौ, तदाऽनेन नररत्नेन रत्नेन प्रतिज्ञा कृता-मया प्राणव्ययेनापि नेमिर्वन्दनीय एवेति । तदाऽहं वैमानिकः सुरः शङ्करो नाम तत्र उपगुरु निषण्ण आसम् । मया न सोढा साऽस्य सन्धा। "तेनानागत्य एवमुपद्वतोऽयं 25 रत्नः महासत्त्वः । धन्याऽस्य जाया, पुण्यवानङ्गजा, श्लाघ्या यूयं सङ्घभक्ताः साहाय्यकराश्च । अहं यदि सत्येनैव युध्येयं तदा भवद्भिर्न जीयेय । परं क्रीडामात्रमेवैतदमलिनमनसा कृत- मिति । रत्नैर्वृष्ट्वा रत्नमालिङ्ग्य सङ्घमध्ये मुक्त्वा स्वयं द्यां ययौ । अम्बाद्या गिरिमगुः। ... ६११०) सङ्घो रैवतकमारुरोह नेमि ननाम। लेप्यमूत्तौ नेमौ तथा लानंजलैस्तेने, यथा विम्बंघ- टीद्वये गलित्वा मृद्भूय भूम्या सह मिलितम् । विषण्णाः सर्वेऽपि ; विशेषतस्तु रत्नः। अचिन्तयच- 30 धिग्मामाशातनाकारिणम् , येन एवंविधतीर्थविध्वंसवृजिनभाजनं जातोऽस्मि । तदा" भोक्त- 1 D मदनः। 2 P पुस्तक एव लभ्यते 'वाढं'। 3 A B निषिध्य । 4 A B कतुं। 5 D नेमिध्यानपरायणः। 6 A आस्फोटयति। 7P पुस्तके 'पविस्थिर' स्थाने 'हृदिस्थित' शब्दः। 8 P जातम्। 9 P घुघुरितः। 10P यावता । 11 P पुरतो। 12 P नास्ति 'नररतेन'। 13 P विहायान्यत्र नास्ति। 14 A B नास्ति 'तेन'। 15 P विहान्यन नास्ति पदमेतत् । 16 A क्षिप्त्वा। 17 P अथ तदा । Page 118**************************************************************************************** आमहप्रवन्धः । व्यम्, यदा तीर्थ पुनः स्थापितं भविष्यति।इत्युक्त्वा बान्धवौ सद्धरक्षायै नियुज्य, अम्बां ध्यात्वा, तपस्तेपे । पठ्युपवासान्तेऽम्या प्रत्यक्षीभूय तं काञ्चनवलानाख्ये इन्द्रनिर्मिते निशि निनाय । तत्र तीर्थ दासप्ततिजिनविम्यानि महाकायान्यदीशत् । तत्राष्टादश हैमानि, अष्टादश रत्नानि, अष्टादश राजतानि, अष्टादश शैलमयानि-एवं द्वासप्ततिः । तत्रैकसिन् रत्नमये विम्बे रत्नः स्त्रनामसाम्यादिव तुष्टो विलग्नः । इदमर्पय मे स्वामिनि!, येन तत्र स्थाने रोपयामीत्यम्बामूचे च। 5 अम्वाऽप्याह स-वत्सक ! तीर्थमिदं महत् । आगमिष्यति शनैः शनैः कलिः । तत्र लोको हीन- सत्त्वोऽर्थलब्धः पापकारी सर्वधर्मवाह्यो भावी । तदग्रतो रत्नं विम्ब न छुटिप्यति । मह्त्या- शातना भाविनी ततः । तस्मादिदमाश्मनं गृहाण । रत्नेन तथेत्यूरीकृतम् । उदितं च-मातः! कथमिट महन्मया नेयम् । देव्योक्तम्-आमसूत्रतन्तुभिरेभिर्वेष्टय । ततश्चल, मा भैः। यत्र लोकयिष्यसि यप्यास तनव स्थास्यति । इत्यम्बिका गिरा चलितो रत्नो विम्ब गृहीत्वा याव-10 त्कियतीमपि भुवं पुरो याति तावद् विसितः पश्चाढाललोके-किं अम्बा आगच्छति नवेति । तत्रैव तस्यौ विम्यम्। [उदुम्बरोपरि न चलति स्थानान्मनुष्यलक्षैरपि । ततः परावृत्त्य* ] तथैव द्वारस्य प्रासादस्य च रचना कृता । साऽद्यापि तथैव तत्रास्ते । एवं प्रतिज्ञां सम्पूर्य रत्नः ससङ्घो रैवताद् व्याघुट्य शत्रुचये ऋपभं प्रणम्य अन्यान्यपि तीर्थानि वन्दित्वा नवहुल्लपत्तनं प्रविष्टः राज्ञाऽभ्यागतः । गृहे गृहे मगलानि साधर्मिकवात्सल्यानि । ऋद्धिर्वृद्धिश्च । आचन्द्रार्कस्थायि 15 यशो ललौ । रत्नस्थापितं नेमिविम्यमिदं यद्वन्द्यमानमास्तेऽधुना । तस्य तु स्तुतिरेवं प्रारुकविकृता- २३६ न खानिमध्यादुदखानि सूत्रै सूनि टदैरुदति नैव । __ अघोति न द्योतनकैन पाहेरवाहि योग्मत्रि न सिद्धमत्रै ॥ १३ ॥ २३७ अनादिरव्यक्ततनूरभेद्य प्रमामयोऽनन्तवल सुसिद्ध । तरीस्तरीतु भविना भवाब्धि स नेमिनाथ कृपयाऽऽविरासीत् ॥ १४ ॥ 20 ॥ इति श्रावकरन-रत्नप्रवन्धः ॥ २२ ॥ २३. अथ आभडप्रवन्धः । ६१११) अणहिल्लपुरे श्रीमालवंश्यः श्रेष्ठी नृपनागः । तत्पत्नी सुन्दरी । तन्नः श्रीआभडः तसिन् दशवर्षदेश्ये माता-पितरौ द्यां गतौ । श्रीनष्टा । तथाप्याभडः सुजनाश्रितो व्यवसायज्ञ इति ववृधे। पूर्वजकीया कन्या लब्धा । परिणीतः।वृत्त्यर्थं मणिकारकाणां गृहे पुर्पुरान् धर्पति 125 लोष्टिकान् पञ्चोपार्जयति । तत्र लोप्टिकमेकं धर्मे व्ययति । द्वौ कुटुम्यवृत्तिकार्य । द्वौ सञ्चये विधत्ते। चतुर्दशेन्दे पुत्रो जातः। तस्य स्तन्यप्राप्तिरल्पा। अतश्छागीगवेपणाय आभडो पहिर्गामं गतः। तत्र, आवाहे मातर्दन्तपावन कुरुते । अत्रान्तरे आगतं अजायूथम् । ताः सर्वा आवाहे पयः पातुं लगाः । पयः कम्युचवलमपि सहसा नागवल्लीदलनीलच्छाय" जातम् । विस्मित आमहः। IP नाति 'a', RP तलमाने। 32 B इसम्या । • P बिहायान्य नामि कोरगा पाट | 1 P नाति । 5ADसयाने। 6P राना यमभ्यागत । 7 मदि पृद्धि' स्थाने Pपुन 'मतानि।8P पिनाऽन्यत्र नाम्नि पदमेवा। 9B काराणां। 10P तेपी माये। 11 P.दररलाय । ११ प्र. हो. Page 119**************************************************************************************** प्रवन्धकोशे छागीषु पयः पीत्वा निवृत्तासु यावद् गवेपयति तावदेकस्याः कण्ठे टोकरकं तन्मरकतरत्नगर्भ ज्ञात्वा तेन सह सा विक्रिये। बालोऽजीवत्। [ रत्नं तु शिराणे उद्योतितं महातेजापुञ्जमयम् । परीक्षकाणां दर्शितम् । तैरसूल्यं भणितम् । तदनु जेसिंघदेवनृपाय अर्पितम् । तुप्टेन राज्ञा एका स्वर्णकोटी दापिता*] आभडोऽपि तेन महर्द्धिर्जातः । नखपृष्ठमानं हि तल्लक्षं लभते । सुभिक्षं च 5 तदा । व्यवहारी जातः । जयसिंहराज्यं तदा ऋद्धम् । ६११२) आभडस्य वहिकास्तिस्रः। एका रोक्यवहीं, अपरा विलम्बवही, तृतीया परलोक वही । [एतावता* ] को भावा-धरणवन्धनयातनाः कस्यापि न करोति कृपाम्भोधिः । ३६ वेलातटेषु धनर्द्धिः; महालाभाः। पूगहहिका १-निजसदनं २-श्रीहेमसूरिपोपधशाला ३-मापपिष्टकेप्टका- चिताऽकारि । अमारिकारकश्रीकुमारपालदेवसमये महाव्यापस्तस्य । 10 ६११३) एकदा श्रीहेमसूरिभिः साधर्मिकवात्सल्यं महाफलमिति राज्ञे व्याख्यातम् । राज्ञा आभड उक्त:-त्रुटितधनं श्रावककुलं दीनारसहस्रं दत्वोद्धार्यम् । वर्षान्ते लेख्यकं चयमवधाराप्याः। आभडेन वर्षान्ते राजे लेख्यकं दर्शितम् । एका कोटिः । राजा यावद्दापयति, तावदाभडेन विज्ञप्तम्-देव ! भूभुजां कोशो द्विधा स्थावरो जङ्गमश्च । तत्र स्थावरो हेमादिः, जङ्गमो वणि- गजनः। वणिग्धनमपि स्वामिधनमेवेति । [राजोवाच-एवं मा वादी । लोभपिशाचो मां छल- 15 यति । तावन्मानं तत्कालमेवानाय्य दापितम् । ] राजा तुष्टः। ६११४) एवं व्रजति काले राजा कुमारपालदेवः श्रीहेमश्च वृद्धौ जातौ । श्रीहेमसूरिगच्छे च विरोधः । रामचन्द्र-गुणचन्द्रादिवृन्दमेकतः; एकतो बालचन्द्रः । तस्य च वालचन्द्रस्य राजभ्रातृव्येन अजयपालेन सह मैत्री। [एकदा प्रस्तावे* ] राज्ञो गुरूणामाभडस्य च रात्री मन्त्रारम्भः । राजा पृच्छति-भगवन् ! अहमपुत्रः कं खपदे रोपयामि । गुरवो ब्रुवन्ति-प्रताप- 20 मल्लदौहित्रं राजानं कुरु धर्मस्थैर्याय; अजयपालात्तु त्वत्स्थापितधर्मक्षयः । अत्रान्तरे आभडः प्राह-भगवन् ! यादृशस्तादृशः स्वकीय 'एवोपकारी । पुनः श्रीहेम:-अजयपालं राजानं मा कृथाः [सर्वथैव* ] । एवं मन्नं कृत्वोत्थितास्त्रयः। स मन्त्रो बालचन्द्रेण श्रुतः । अजयपालाय च कथितः। [अतो*] हैमगच्छीयरामचन्द्रादिषु द्वेषः, आभडे तु प्रीतिः । श्रीहेमसुरेः स्वर्ग- गमनं जातम् । ततो दिनद्वात्रिंशता राजा कुमारपालो अजयपालदत्तविषण परलोकमगमत् । 25 अजयपालो राज्ये लिपण्णः । श्रीहेमद्वेपाद रामचन्द्रादिशिष्याणां तप्तलोहाविष्टरासनयातनया भारणम् , राजविहाराणां बहूनां पातनम् । लघुक्षुल्लकानाहाय्य प्रातः प्रातभृगयां का अभ्या- सयति । पूर्वमेते चैत्यपरिपाटीसकाधुरित्युपहासात् । बालचन्द्रोऽपि स्वगोत्रहत्याकारापक इति ब्रुवद्भिाह्मणैपमनस उत्तारितः। लघुता । मालवान् गत्वा मृतः । 'पापं पच्यते हि सद्यः'। प्रासादपातनं दृष्ट्वा श्रावकलोका खिद्यते । आभडः पूर्वप्रतिपन्ना मान्योऽपि वक्तुं न शक्नोति, 30 उन्नत्वाद्राज्ञः। [परं तेन* ] प्रपञ्चेन तु रक्षा "कारिता । "कथं ?- 1 P क्रीता। * कोष्ठकगताः पाठः P पुस्तक एवोपलभ्यन्ते । 2 P नास्ति। 3 P पारलौकिक०। 4 P कोटिरायाता । 5 P हेमादिभाण्डागारः। 6P ०क्षयो भावि। 7 P आत्मीयो भव्यः। 8 P मारणं कृतम्। 9 P लजितो। 10 P ०पन्नत्वान् । 11 P कारापिता। 12 P तदा हा कथं । Page 120**************************************************************************************** आमहप्रवन्धः। ९९ • ६११५) [एकदा*] आभडेन नृपवल्लभः कौतुकी सीलणो नामा भूरिहेमदानेन प्रार्थितः- तथा कुरु, यथा शेपप्रासादा उदरन्ति । तेनोक्तम्-निश्चिन्तैः स्थेयम्, रक्षिप्याम्येव । सीलणेन सांटकसौधमेक कृतम् । धवलितं चित्रितं च । पुत्राः पञ्च कर्णे एवमेवमुपराज कर्त्तव्यमिति शिक्षिताः । गतो नृपान्तिकं सीलणो वदति-देव ! जरा मे शिरसि स्थिता । पुत्रपौत्रवान् जातः । अधुना तीर्थयात्रायै विदेशान् यामि, यद्यादेशः स्यात् । राजोक्तम्-यथारुचि 'चेप्टस्त्र । । [तदनु*] तत्सौधं पुत्रांश्चादाय महासभास्थे नृपे आगात् । पुत्रा भलापिताः क्षितिपतये । पुत्राश्च भापिता राजि पश्यति सति-एतन्मे सौधं यत्नतो रक्ष्यम् । मम यशाशरीरमेतत् । [बहु] यत्न निष्पादितमिति । तैस्तथेति प्रतिपेदे । [नृपादिसर्व ] आएच्छ्य पुरस्तात् किय- तीमपि भुवं यावत् सीलणो याति, फिल तावत्तैस्तत् सौधं लकुटैरास्फाल्य सद्यो भग्नम् । खट- कारं श्रुत्वा सीलणो व्याधुटितो वदति-रे हताशा! असादपि कुनृपात्कुपुत्रा यूयम ! अस्मादपि कुटपात्कुपुत्रा यूयम् । अने-10 नात्मीये पितरि मृते [ सति ] तद्धर्मस्थानानि पातितानि, भवद्भिः पुनरहं पदशतकमपि गच्छन् न प्रतीक्षितः। राजा ललज्जे । चैत्यानामपातनमादिशति स्म। ६११६) तस्य कुत्सितस्य राज्ञो माता-पुत्रयोलाद्विप्लवं कारयितुं रुचिरुत्पन्ना । वण्ठांस्तथा कारयति । एकदा एकेन वण्ठेन छन्नधृतहस्त्रकंकलोहकर्तिकया जने। ६११७) दिनकतिपयानि कीर्तिपालनामा राजपुत्रो गर्जरधराया लोकरक्षामकरोत् । छन्न-15 चामरादि न तस्य। ६११८) तस्मिन् मालवसैन्ये मृते गूर्जरधरायां भीमदेवो राजा आसीत् । स दीर्घजीवी । [पर*] विकला पुण्याधिकः। [तस्य ] सोह्र मोदू व गडरिके । ते हे लपयति, सर्वांगावयववि- भूपिते कारयति', सुखासने उपवेशयति, ग्रामेपु ससैन्ये भ्रमयति । ग्रामाः 'सैन्यकैर्भक्ष्यन्ते । [एवं*] बहुकालो गतः । एकदा देशपालैः सम्भूय राजा विज्ञप्तः-देव ! निरर्थकं फिमिति 20 स्वदेश भक्षापयसि । अन्नघृतवसनादिव्ययो वृथाऽयम् । तदा*] राजा आर-कथामेकांशृणुत । फचिद्वैलाले पूर्व जलवेगारतो [एको ] मीनस्तटे लग्नः । तदा तत्र दुर्भिक्षं घोरम् । अन्नाभावे क्षुधात लोकः। अतः सर्वोऽपि जनः कुठाराद्यैश्छेद छेद तं मीनं भक्षयितुं गृह्णाति। तथापि स न म्रियते, महाकायत्वात् । अनायसरे क्षुधितः पत्नीप्रेरितः कोऽपि विप्रस्तन्मीनमांसं ग्रहीतुमग- मत् । अपरलोकशिद्यमान पश्यतस्तस्य सभावदयालोर्विप्रस्य दया आसीत् । न छिनभि। तदा25 व्यन्तरानुप्रवेशात् स मत्स्यो विममार-भो! छिन्धि माम् । अन्येऽपि खादन्तः सन्ति । तयो- पहतो भव्यः। विमः प्रोचे-दया मे, 'न दिनभि । मीनो वदति-तर्हि शृणु, अयं पापी लोको मां नियमाण मारयति । अहं तु मृत्वाऽत्र तटे राजा भविष्यामि पुरन्दरो नाम । राजकुलेऽवत- रिप्यामि । त्व ममोपाध्यायो भविष्यसि । अह प्रार चैरादमुं लोक नवनयभनिभिः कदर्थयि- प्यामि । त्वया कस्याप्यर्थं विज्ञप्तिनव करणीया। त्वां तु सत्पुरपमहं गुस्सुद्ध्या पूजयिप्यामि 130 इति जल्पन् मृतः स मीनः। यथोक्तो राजा पुरन्दरो नाम समभूत् । विप्रस्तु गुरुः । तं लोक कृत. •ोटगवान पदानि P पुमा पय यन्ते। 1P सथा घेष्टम। 2 A परेन । 3A फरोनि। 4A सन्येन । 5P माधि | CP तेन न जिनति । Page 121**************************************************************************************** पी घरतरगच्छीय शान मन्दिर, जयपुर प्रबन्धकोशे परमागसं स राजाऽपीपिडत् । विप्रस्तु तदुक्तं स्मरन् न ऊचे किञ्चित् । तस्मादु भो! ग्रामण्योऽह- मपि तद्विधः कोऽप्यवतीर्णोऽस्मि । क्रीडया पीडयामि लोकम् । [तस्माद* ] भवद्भिन वाच्यम् । वक्ष्यथ चेद् [तदा ] रसनां छेत्स्यामि । [एवं श्रुत्वा ] स्थितस्तूष्णी लोकः । देशोऽपचीयते । ६११९) एवं राज्ये आभडस्तथैव ऋद्धिमान्।आभडस्य च चाम्पलदेनाम्नी वालविधवा वाग्मिनी 5 उचितज्ञा सर्वशास्त्रविदुरा तनया गृहव्यापारान् करोति'कारयति । एकदा लोभात्किचिच्चोरयन् भाण्डागारिको रुष्टेनाभडेन निष्काशितः। स कोपादुपभीमभूपं गतः । ऊचे च-राजन् ! आभडस्य अनन्ता ऋद्धिः। एवमेवं तां गृहाण। राजाह-कोऽप्यस्यान्यायोऽस्ति । भाण्डागारिक अचे-नास्ति। तर्हि परधनं कथं वृथा गृह्यते? भाण्डागारिकः प्राह-छलं किमपि क्रियते। राजाह- तथाऽहं करिष्यामि । [इति विचार्य ] भाण्डागारिकं स्वसौधे एव स्थापयित्वा छागीमांसं दासी- 10शिरसि स्थालस्थं कृत्वा प्राहैपीत् । आगता सा दासी मध्याहे आभडसदनद्वारम् । तदा आभडो ध्यानेन जिनमर्चयति । चाम्पलया स्वयं द्वारमुदघाटि । दासी मध्यमागता । स्थालं दर्शितम् । चाम्पलया मांसं दृष्ट्वा, तदैव भाण्डागारिकविक्रियेयमिति जहांचक्रे । [मध्ये ] आनीता सगौ- रवम् । सा पृष्टा किमेतत् ? । दास्याह-राज्ञा उत्सर्वे गौरवाय वः प्रस्थापितमदः । एतन्मांसं चाम्पलया स्थालान्तरे लातम् । सपादलक्षमूल्यों हारो राज्ञेअर्पितः। दास्यै कण्ठाभरणम् । स्थालं 15 मौक्तिकैर्वर्डापितम् । दासी हृष्टा उपराज वनाज । भोजनादनु आभडः पुत्र्या जगाद-तात ! निष्कासितभाण्डागारिकप्रेरितनृपकर्त्तव्यमेतत् । मया दास्यै रीढा न कृता । यास्यति श्रीः। परं उपायं कुरु । सर्वस्वधनं टिप्पयित्वा राज्ञे दर्शय, कथय च-गृहाण खामिन् ! यदि ते रुचिरस्ति । तथैव चक्रे सः। नृपो विस्मितो लजितो हृष्टश्च । भाण्डागारिकं तटे धृत्वा राजोचे-रे मूढ ! यस्सै विधिव्यं दत्ते, तस्मै तद्रक्षोपायबुद्धिमपि दत्ते । ततो माऽत्र वृथा मत्सरी स्याः। पुनरेवा- 20 भडपादयोगितः। तृणमपि तत्सत्कं राज्ञा न गृहीतमेव । एवं धनी, अखण्डभाग्यः, चिरायुः, नीरुक्, आभडो मरणावसरे पुत्रोपकाराय स्वसदने चतुष्कोण्यां निधिचतुष्कं न्यास्थत्। मृतः खयं समाधिना । चाम्पलाऽपि चांगता । पुत्रैर्वाह्ये धने गते [ सति ] ते निधयः सम्भालिताः। [परं" ] न लभ्यन्ते । अञ्जनं चटापितम् । अञ्जनी भणति-केऽपि श्यामाझा मुद्गरपाणयोऽधोऽधो धनं नयन्ति, किं मुधा क्लिश्यध्वे ?। जाता निराशाः । सामान्यवणिजोऽभवन् । तस्मात्पुरुषाणां पुण्योदय एव धनवृद्धिनिवन्धनं न कुलमिति ॥ ॥ इत्याभडप्रवन्धः ॥ २३ ॥ cococo- 1 नास्ति P पुस्तके। 2 P चाम्पलदेव्या। 3P महिणिमोत्सवे 4 P मूलहारो। 5 P च दापितं । Page 122**************************************************************************************** श्रीवस्तुपालप्रवन्धः । २४. अथ श्रीवस्तुपालप्रवन्धः । २३८ श्रीवस्तुपाल तेज पालौ मत्रीश्वरौ उमौ आस्ताम् । यौ भ्रातरौ प्रसिद्धौ, कीर्तनसख्या तयोर्ब्रमः ॥१॥ १२०) पूर्व गूर्जरधरित्रीमण्डनायां मण्डलीमहानगयाँ श्रीवस्तुपाल तेजःपालाद्या वसन्ति स्म। 'एकदा श्रीमत्पत्तनवास्तव्यप्राग्वाटान्वयठकुरश्रीचण्डपांत्मज-ठकुरश्रीचण्डप्रसादागज-मन्निश्री- 5 सोमकुलावतंस-ठकुर श्रीआसराज नन्दनौ 'कुमारदेवीकुक्षिसरोवरराजहंसौ श्रीवस्तुपाल-तेजा- पालौ श्रीशत्रुञ्जय-गिरिनारादितीर्थयात्रायै प्रस्थितौ । हडालाग्रामं गत्वा यावत्वां भूति चिन्त- यन्तस्तावल्लक्षत्रयं जातं सर्व स्वम् । ततः सुराष्ट्रास्त्र सौस्थ्यमाकलय्य लक्षमेकमवन्यां निधातुं निशीथे महाश्वत्थतलं खानयामासतुः। तयोः खानयतोः कस्यापि प्राक्तनः कनकपूर्णः शौल्व- कलशो निरगात् । तमादाय श्रीवस्तुपालः तेजःपालजायामनुपमदेवीं मान्यतया अपृच्छत्-क 10 एतनिधीयते? । तयोक्तम्-गिरिशिखरे "एतदुच्चैः स्थाप्यते । यथा प्रस्तुतनिधिवन्नान्यसादु भवति । तत् श्रुत्वा श्रीवस्तुपाला तद्रव्यं श्रीशत्रुक्षयोजयन्तादौ अव्यययत् । कृतयात्री व्यावृत्तो धवलकपुरमगात्।। ६१२१) अत्रान्तरे"मह्णदेवी नाम कन्यकुब्जेश्वरसुता जनकात् प्रसन्नात् गूर्जरधरां कञ्चुलि- कापदे लब्धां सुचिरं भुक्त्वा कालेन मृत्वा तस्यैव गूर्जरदेशस्य अधिष्ठात्री महर्दिय॑न्तरी जाता {15 सा धवलकके शय्यायां सुखविश्रान्तं राणकश्रीवीरधवल प्रत्यक्षीभूय जगाद-राणक! इयं गूर्जर- धरा वनराजप्रभृतिभिर्नरेन्द्रैः सप्तभिश्चापोत्कटवश्यैः पण्णवत्यधिक शतं वर्पाणां भुक्ता । तदनु मूलराज-चामुण्डराज-वल्लभराज-दुर्लभराज-भीम-कर्ण-जयसिंहदेव-कुमारपाल-अजयपाल- लघुभीम-अर्णोराजै!" चौलुक्यैः सनाधीकृताः। सम्प्रति युवां पिता-पुत्रौ लवणप्रसाद-वीरधवलौ स्तः। "इयं गूज्नेरघरा कालवशादन्यायपरः पापैः साम्यभावान् 'मात्स्यन्यायेन' कदथ्यमा-20 नाऽऽस्ते, म्लेच्छैरिव गौः। यदि युवां वस्तुपाल-तेजापालौ मन्त्रिणौ कुर्वाथे, तदा राज्य प्रताप- धर्मवृद्धिर्भवति । अहं महणदेवी सर्वव्यापिभिर्भवत्पुण्यैराकृष्टा वदन्त्यस्मि । इति वदत्येव वि- धुदिव सहसाऽदृश्या बभूव । राणकवीरधवलः पद्मासनस्थस्तल्पोपविष्टश्चिन्तयति-अहो देव्युप- देशः साक्षात् !, कर्त्तव्यमेव तन्मन्निद्वयं यद्देव्योक्तम् । यत:- २३९ दृप्यद्भुजा. क्षितिभुज श्रियमर्जयन्ति, नीत्या समुन्नयति मत्रिजन पुनस्ताम् । ___ रत्नावली जलधयो जनयन्ति किन्तु, सस्कारमा मणिकारगण करोति ॥ २॥ इत्यादि चिन्तयन् प्रातरुत्थितः । पूर्वोक्तमेवोपदेश महणदेवी श्रीलवणप्रसादायाप्यदत्त । कृतप्रातःकृत्यो मिलितो पिता-पुत्रावेकन । कथितं रात्रिवृत्तमन्योऽन्यम् । तुष्टौ द्वावपि । तदैव च तेषां कुलगुरुः पुरुपसरस्वती सोमेश्वरदेवो द्विजः खस्त्ययनायागात्" । ज्ञापितोऽसौ तवृत्तान्तं ताभ्याम् । सोऽप्युवाच-देवौ! युपयोः प्राचीनपुण्यरिता देवताऽपि साक्षात् । तस्मात्तदुक्त-30 25 1 FB अन्यदा। 2P चण्डपत्रदात्मनः। 37 चण्डमसादसदराज । 4 P मोमताकुराः। 5 P मणिनीमासः । GP राजसमन्दनौ । 7 P कुमरा०। 8P हटाटकः। 9P सुराष्ट्रारस्व। 10 A. प्राचन। 11 A एवैतदुध । 12P महणट। 13 P नामा। 14 P अारान ण्व । 15A इति । 16 A कुर्यचे, P पुर्वीये। 17 P स्वरमयनपोगान् । Page 123**************************************************************************************** १०४ प्रवन्धकोशे वयोः 'समरारूढयोरहं निर्धवाऽभूवम् । [एतां ] मा म चिन्तां कृथाः । अमुं त्वत्पति हत्वापि ते चारु गृहान्तरं करिष्यावः । न च निषिद्धोऽसौ विधिः, राजपुत्रकुलेपु दृश्यमानत्वात् । ततो जयतलदेव्या-समानोदयौँ ! नाहं पतिवधभीता वः समीपमागाम् , किन्तु निष्पितगृह्त्व- भीता । स हि कोऽस्ति वो मध्ये यस्तं जगदेकवीरं ऊपरवटाख्ययारूढं नाराचान् क्षिपन्तं 5 कुन्तं वेल्लयन्तं खड्गं खेलयन्तं वा द्रष्टुमीशिष्यते । कालः साक्षादरीणां सः। ___'अदृष्टपरशक्तिः सर्वोऽपि भवति बलवान् ।' इत्येवं वदन्त्येव ततो निर्गत्य सा सती पतिसविधं गत्वा तां वार्तामुच्चैरकथयत् । तन्निशम्य वीरधवलः क्रोधकरालाक्षो भ्रकुटीभाभीपणभालानुकृतभीमसेनः सङ्ग्रामममण्डयत् । तौ दावपि वीराधिवीरौ ससैन्यौ आगतौ । सङ्घटितो रणः । पतितानि योधसहस्राणि पक्षद्वयेऽपि । 10 रजसाऽऽच्छादितं गगनम् । गतः स्व-परविभागः। वीरधवलो हत इति सैन्यद्वयेऽपि व्याचक्रे । क्षणार्द्धन वीरधवलो दिव्याश्वाधिरूढः' सारसुभटयुक् साङ्गण-चामुण्डराजयोर्मलापके गत्वा प्रसृतः। ऊचे च-रे सौराष्ट्रौ ! गृहीतं करे शस्त्रं यद्यस्ति तेजः । इत्युक्त्वा तचक्रे यद्देवैर्दिवि शिरो धूनितं कुर्वद्भिर्ददृशे। हतौ साङ्गण-चामुण्डराजी अभिमुखौं"। शोधितं क्षेत्रम्"। पालिताः खे परे च पालनार्हाः । प्रविष्टो वीरधवलो वामनस्थलीमध्यम् । गृहीतं शालकयोः कोटिसङ्ख्यं 15 पूर्वजशतसश्चितं कनकम् , चतुर्दशशतानि दिव्यतुरङ्गमाणाम् , पञ्चसहस्राणि तेजस्वितुरङ्ग- माणाम् , अन्यदपि मणिमुक्ताफलादि । जितं जितमित्युद्धोपः समुच्छालितः । स्थितस्तत्र मासमेकम् । ततो वाजा-मानगजेन्द्र-चूडासमा-वालाकादिस्वामिनः प्रत्येकं गृहीतधनाः कृताः । द्वीपवेटपत्तनेषु प्रत्येकं वभ्राम। धनमकृशं मिलितम् । एवं सौराष्ट्रजयं कृत्वा समन्त्री राणो धवलकं प्राविक्षत् । उत्सवा उत्सवोपरि प्रास्फुरन् । 20 ६१२३) तत्र प्रस्तावे चारणेन दोधकपादद्वयं पठितम्- ___ २६३. जीतउं छहिं उणेहिं, सांभली समहरि वाजियइ ।। एतावदेव पुनः पुनरपाठीत्, नोत्तरार्द्धम् । गतश्चारणः स्वस्थानम् । तत्र राजवंश्याः षण्णां जनानां मध्ये आत्मीयं नाम न्यासयितुं रात्रौ तस्मै प्रत्येकं लञ्चामदुः। सोऽपि समग्रहीत् । एवं ग्राहं ग्राहं परिपारिते, एकदा प्रातः सभायां बहुजनाकीर्णायां राणकाग्रे उत्तरार्द्धमप्यपाठीत् । 25 विहुं भुजि वीरतणेहिं चिहुं पगि ऊपरवटतणे ॥ २६ ॥ - [इति श्रुत्वा ] सर्वेऽपि चमत्कृता राजन्यकाः । अहो ! प्रपञ्चेनानेनास्मान् वञ्चयित्वा निर्यासे तत्त्वमेवोक्तम् । पुनः सविशेषं ददुः [खामिभक्तत्वात् । ६१२४) तदा भद्रेश्वरवेलाकूले भीमसिंहो नाम प्रतीहारस्तिष्ठति । स आत्मबली कस्याप्याज्ञा न मलुते"; धनी च । तस्मै वीरधवलो राजा आदेशमदीदपत्-सेवको भव । सोऽपि प्रत्यदीदपत्- 30 सेवको भव । 'यद्दीयते तल्लभ्यते' इति न्यायः। वीरधवलस्तद्विग्रहाय गूर्जरधराराजपुत्रानमेल- ___1 A B समारूढयो।। 2 P-कुले। 3 P देव्याह। 4 A च। 5 P नास्ति। 6 A B शल्यं । 7 P भीमः सन्। 8 P. व्याचक्षे। 9 A. C .श्वारूढः। 10 P गृह्णीतः। 11 B आभिमुखौ; P असिमुखैः। 12 P रणक्षेत्रे । 13 P उत्सवोपर्यपुस्फुरन् । 14 P वाजतइ। 15 P मन्यते । Page 124**************************************************************************************** वस्तुपालप्रवन्धः। १०५ _ यत्, बहुसैन्यं च । भीमसिंहोऽपि बलेन प्रयलः । उभयपक्षेऽपि घलवत्ता। ६१२५) अनान्तरे जावालिपुरे चाहमानकुलतिलक श्रीअश्वराजशाग्वीयः केतृपुत्रसमरसिंह- नन्दन श्रीउदयसिंहो नाम राजकुलो राज्यं भुनक्ति । तस्य दायादास्त्रयः सहोदराः सामन्त- पाल-अनन्तपाल-त्रिलोकसिलामानो दातारः शूरास्तद्दत्तग्रासेन तृप्तिमदधतो धवलकमागत्य श्रीवीरधवलं डाःस्थेनायभाणन्-देव! वयममुकश्यास्त्रयः क्षत्रियाः सेवार्थिन आगताः स्मः। 5 यद्यादेशः स्यात् तदा आगच्छामः । राणकेनाहृतास्ते । तेज-आकृति-श्रमादिभिः शोभनाः। मचितास्ते तस्य । परं पृष्टा:-को ग्रासो वः कल्पते ? । ते प्रोचुः-देव! प्रतिपुरुषं लूणसापुरीय- द्रम्माणां लक्ष लक्षं ग्रासः। राणकेनोक्तम्-इयता धनेन शतानि भटानां सद्गच्छन्ते । किमधिकं यूयं करिष्यथ ? । न दास्यामीयत् । इति कथयित्वा ते बीटकदानपूर्व विसृष्टाः। तदा मन्त्रिवस्तु- पाल-तेजापालाभ्यां विज्ञप्तम्-स्वामिन् ! न एते मुच्यन्ते । पुरुपसङ्ग्रहाद् धनं न बहु मन्तव्यम् । 10 २६४ वाजि-वारण-लोहाना काष्ठ-पापाण-वाससाम् । नारी-पुरुष-तोयाना अन्तर महदन्तरम् ॥ २७ ॥ एव विज्ञप्तमपि राणकेन नावधारितम् । मुक्ता एव । ते गताः प्रतिभटतटं श्रीभीमसिंहं प्रती- हारम् । भेटितः सः । उक्तो वीरधवलकृतः कार्पण्यव्यवहारः। तुष्टो भीमसिहः । कृत तदिष्ट- वृत्तिद्वैगुण्यम् । तैश्चोक्तम्-देव! शीघ्रमेव कथापय वीरधवलाय असहलेन, यथा-यदि क्षत्रि- योऽसि, तदा शीघ्रं युद्धायागच्छेः । अन्यथा अस्मदीयो भूत्वा जीवेः । प्रेपितो भीमसिंहेन 15 भः। उक्तः समेत्य वीरधवलस्तत् । [एव श्रुत्वा ] वीरधवलः ससैन्यश्चलितः। भट्ट पुरः प्राहै- पीत् । पञ्चग्रामग्राम' युद्धमावयोः। तत्र क्षेत्रं कारयन्नलि। शीघमागच्छेरित्याद्याख्यापयत् । सोऽपि तत्र ग्रामे समेतः 'सबलः । सङ्घटितं सैन्यद्वयम् । वर्तन्ते [ भटाना*] सिंहनादाः, नृत्यन्ति पात्राणि, दीयन्ते धनानि । [ पूज्यन्ते शस्त्राणि, बद्ध्यन्ते महावीराणां टोडराणि*] त्रिदिन तैयुद्ध प्रतिष्ठितम् । उत्कण्ठिता योद्धारः।। ___ 'नेदीयानिद्धवाहूनामाहवो हि महामह ।' सभामदिनादर्वाग् मनिवस्तुपाल-तेजःपालाभ्यां स्वामी विज्ञप्त:-देव । त्रयो मारवाः सुभटा. स्त्वया न संगृहीतास्ते परवले मिलिताः । तद्वलेन भीमसिंहो निभौर्गर्जति, इति अवधार्यम् । चरैरपि निवेदितमेतन्नौ । राणकेनोक्तम्-यदस्ति तदस्तु । कि भयम् । 'जयो वा मृत्युर्वा युधि भुजभृता क परिभव ?।' 25 मन्त्रिणा ज्यायसोक्तम्-स्वामिन् ! कार्मुककरे देवे के परे परोलक्षा अपि । 'यदुक्तम्- २६५ काल केलिमलङ्करोतु करिण. क्रीडन्तु कान्ताससा., कासारे "वनकासरा सरभस गर्नन्त्विह खेच्छया । __ अभ्यस्यन्तु भयोज्झिताश्च हरिणा भूयोऽपि झम्पागति, कान्तारान्तरसञ्चरव्यसनवान् यावन्न" कण्ठीरव ॥२८॥ कण्ठीरवे तु दृष्टे कुण्ठाः सर्व वन्याः। अन्यच, प्रभो ! अस्मदीयसैन्ये डोडीयावंशीयो जेहुलः, चौलुक्यः सोमवर्मा, "गुलकुल्यः क्षेत्रवास्ति । देवस्तु कि वय॑ते कल्यर्जुनः। एवं वार्तासु 30 वर्तमानासु द्वारस्य एत्य व्यजिज्ञपद्राणकम्-देव ! पुरुप एको द्वारि वोस्ति । कस्तस्यादेशः । 20 1-2 A नास्ति'च' 'पि', + P पुस्तके नास्ति दण्डान्तर्गत पाठ । 32 सेवानिरा । 4 ED नास्ति 'कथयित्वा', A दास्यामीरयुदिते। 52 श्रीमीमसिहमतीहारेण मेटिताते। 6A युद्धायापत्ते । *P विना नास्त्यन्यत्र। 7P ग्रामा। 8P समेतसन्येन सबर । 9A नाम्नि। 10P यत। 11 A यावदि। 12 A गुणकृत्य । १४ प्र. को. Page 125**************************************************************************************** १०६ प्रवन्धकोशे भ्रूसंज्ञया राणकस्तममोचयत् । मध्यमागत्य स उवाच-देव ! सामन्तपाल-अनन्तपाल-त्रिलोक- सिंहस्त्वत्त्यक्तीमसिंहमाधिनैः कथापितमास्ते-देव ! त्रिभिलक्षैर्ये भटास्त्वया स्थापिता भवन्ति, तैरात्मानं सम्यग् रक्षेः । प्रातः कुमार्यामारेण्यां त्वामेव प्रथमतममेष्यामः । इति श्रुत्वा हृष्टेन . राणेन ससत्कारं स प्रैषि । कथापितं च-एते वयमागता एव प्रातर्भवद्भिरपि ढोक्यम् । सर्वपामपि 5 तत्रैव ज्ञास्यते भुजसौष्ठवम् । गतः स तत्र । प्रातर्मिलितं चलद्वयम् । वादितानि रणतूर्याणि । अङ्गेषु भटानां वर्माणि न समुः। दत्तानि दानानि । तैस्तु त्रिभिर्मारवैरात्मीयं वर्पलभ्यं द्रव्यलक्ष- त्रयं भीमसिंहात्सद्यो लात्वाऽर्थिभ्यो ददे । स्वयमश्वेष्वारूढाः। प्रवर्तन्ते प्रहाराः। उत्थितमान्ध्यं शौः। पतन्ति शराः कृतान्तदूताभाः । आरूढं प्रहरमात्रमहः । सावधानो वीरधवलः। दत्ताव- धाना मत्र्यादयस्तद्रक्षकाः । अत्रान्तरे आगतास्ते त्रयो मरुवीराः। भापितः खमुखेन तैवीरध- _10 वल:-अयं देवः, इमे वयम्। सावधानीभूय रक्षाऽऽत्मानम् । त्वद्योधा अपि त्वां रक्षन्तु । बीरधवले- नाप्युक्तम्-किमत्र विकत्यध्वं । क्रिययैव दोःस्थाम प्रकाश्यताम् । एवमुक्तिप्रत्युक्तौ लग्नं युद्धम् । यत्नपरेषु तटस्थेषु रक्षत्वपि तैर्भलत्रयं वीरधवलस्य भाले लिङ्गितम् । एवं त्वां हन्मः, परं एकं तव बीटकं तदा भक्षितमस्माभिः-इति वदस्तैिरेव श्रीवीरधवलस्य तटस्थाः प्रहरणैः पातिताः। तेऽपि त्रयो मारवाः 'व्रणशतजर्जराङ्गाः सजाताः । राणश्रीवीरधवल ऊपरवटाश्चात्पातितः। 15 ऊपरक्टस्तैौरवैः स्वोत्तारके वन्धितः प्रच्छन्नः । रजसाऽन्धं जगत् । तदा राणश्रीवीरधवलो भुवि पातितो भट्टैरुत्पाट्य लले। तावता पतिता सन्ध्या । निवृत्तं सैन्यद्वयम् । रात्री भीमसिंहीयाः सुभटाः सर्वेऽपि वदन्ति-अस्माभिवीरधवला पातितः । ततो मारवैरभिहितम्-युष्माभिः पातित इति किमत्राभिज्ञानम् । तैरुक्तम्-किं भवद्भिः पातितः? । मारवैरभिदधे-अस्माभिरेव पातितः। ऊपरवटो वदिष्यति । उत्तारकादानीय ऊपरवटो दर्शितः । तुष्टो भीमसिंहः । उक्तवांश्च-शुद्ध- 20 राजपुत्रेभ्यो दत्तं धनं शतधा फलति । इदमेव प्रमाणम् । 'रिपुयहरणं क्षत्रियाणां महान् शृङ्गारः । एवं वार्ताः कुर्वतां भटानां रात्रिर्गता । प्रातर्वीरधवलो व्रणजर्जरोऽपि पट्टभूयाक्षान् क्रीडितुं प्रवृत्तः। भीमसिंहसैन्यहेरिकैर्गत्वा तज्ज्ञात्वा तत्रोक्तम्-वीरधवलः कुशली गर्जति । [एवं सति ] यज्जानीथ तत्कुरुथ । अथ भीमसिहाय तन्मन्त्रिभिर्विजप्तम-देव! अर्थ: देशेशः । अनेन विरोधो दुरायतिः। तस्मान्सन्धिः श्रेष्ठः । भीमसिंहेन मानितं तद्वचनम् । परं 25 सङ्ग्रामाडम्बरः कृतः। अन्योऽन्यमपि यावद् अडितौ द्वौ, तावद् भद्वैरन्तरा प्रविश्य मेलः कृतः। ऊपरवटाश्वो राणाय दापितः । भीमसिंहेन भद्रेश्वरमात्रेण धृतिधरणीया, विरुदानि न पाठनी- यानि; इति व्यवस्थाऽऽसीत् । एवं कृत्वा श्रीवीरधवलो दानं तन्वन् श्रीधवलककमागात् । शनैः शनैः प्राप्तपरमप्राणो भीमसिंहमपराध्यन्तं मूलादुच्छेद्य एकवीरां धरित्रीमकरोत् । [ एवं धव- लकके राज्यं कुर्वतस्तस्य क्षुभितैः प्रभूतैः परराष्ट्रपतिभिः खं दत्तम् । तेन स्खेन सैन्यमेव 30 मेलितम् । चतुर्दशशतानि महाकुलानि राजवंश्यानां राजपुत्राणां मेलितानि । तानि समभोजन- भोग-वसन-वाहनानि श्रीतेजःपालस्य सहचारिणीछायावत् समजीवितमरणत्वेन स्थितानि । तबलेन सैन्यबलेन च स्वभुजाबलेन सर्व जीयते। ____ 1 ABD नास्ति पदमेतत् । 2 ABD विकत्थन (?)। 3 A. लिखितं । 4 A व्रणवात०। 5A देवितुं। 6P विनाऽन्यत्र नास्ति । 7 A तद्वचनं मतं । 8 A अद्भुतौ; P मिलितो। 9 P विनाऽन्यत्र नास्ति 'अन्तरा प्रविश्य'। 10P विना नास्ति । Page 126**************************************************************************************** वस्तुपालप्रवन्धः । १०७ ६१२६) इतश्च महीतटाख्यदेशे गोध्रा'नाम नगरम् । यत्र तत्तत्कार्येपु सङ्ग्रामे मृतानां राजपुत्राणां कोत्तरशतसंख्यानि स्वयंभृलिद्गानि उदभूवन् । तत्र घूघुलो नाम मण्डलीकः । स गूर्जरधरा- समागन्तुकसार्थान् गृह्णाति । राणश्रीवीरधवलस्याज्ञा न मन्यते । तस्मै मन्त्रिभ्यां वस्तुपाल-तेज:- पालाभ्यां भट्टः प्रेपितः-अस्मत्पभोराजां मन्यस्ख, अन्यथा साङ्गण चामुण्डराजादीनां मध्ये मिल इति कथापितम् । तच्छ्रवणात् अद्धेन तेन तेनैव भट्टेन सह स्वभः प्रस्थापितः । तेनागत्य राणश्री- 5 वीरधवलाय कजलगृहं शाटिका चेति हय दत्तम् । उक्त च-ममान्तःपुर सर्वोऽपि राजलोक इति नः प्रभुणा ख्यापितमस्ति । राणेन स भट्टः सत्कृत्य प्रहितः । गतः स्वस्थानम् । राणेन भापिताः 'सर्व निजभटा:-घूघुलविग्रहाय वीटक को ग्रहीष्यति। 'कोऽपि नाद्रियते । तदा तेजःपालेन गृहीतम्। चलितःप्रौढसैन्यपरिच्छदः । गतस्तद्देशादर्वागभागे कियत्यामपि भुवि , स्थित्वा सैन्यं कियदपि, स्वल्पमग्ने प्रास्थापयत् । स्त्रय महति मेलापके गुप्तस्तस्यौ । अल्पेन सैन्येनाग्रे गत्वा 10 गोध्रागोकुलानि वालितानि । गोपालाः शरैस्ताडिताः। तैरन्तर्गोध्रकं पूत्कृतम्-गावो हियन्ते कैश्चित् । क्षानं धर्म पुरस्कृत्य ततो धावत धावत इति शब्दे श्रुते घूघुलो व्यचिन्तयत्- नवीनमिदम्, केनासत्पद्रमागत्य गावो हियन्ते ?। _____२६६ वृत्तिच्छेदविधौ द्विजातिमरणे स्वामिग्रहे गोग्रहे, सम्प्राप्ते शरणे कलनहरणे मित्रापदा वारणे । आर्तत्राणपरायणैकमनसा येपा न शस्रग्रह, स्तानालोक्य विलोकितु मृगयते सूर्योऽपि सूर्यान्तरम् ॥ २९॥ 15 इति वदन्नेव ससेनस्तुरङ्गममारूढः। जातोऽनुपदीं गोहर्तृणाम् । गोहारोऽपि घूधुलाय दर्शनं ददते, शरान् सन्दधते, न च स्थित्वा युद्ध्यन्ते । इत्येव खेदयद्भिस्तैस्तावन्नीतो घूघुलो यावन्म- त्रिणो महति वृन्दे प्रविष्टः । ततो ज्ञातमीदृशं छद्मेदं मन्त्रिणः। भवतु तावत् घूघुलोऽस्मि । निजाः सुभटाः समराय प्रेरिताः । वय सविशेषमभियोग दधौ । ततो लग्नः सहनुम् । मन्त्रि- कटकेनापि इढोके । चिरं रणरसरभसोऽभूत् । भग्नं घुघुलेन मन्त्रिकटकं कादिशीक गच्छति । तदा मत्रितेजापालेन स्थिरमश्वस्थितेन तटस्थाः सप्तकुलीनाः शुद्धराजपुत्रा भापिता:-अरिस्तावली, आत्मीय तु भग्न सकलं बलम् । नष्टानामस्माफ का गतिः, कि यशः। [यशो" विना] जीवितव्यमपि नास्त्येव । तस्मात् कुर्मः समुचितम् । तैरपि सप्तभिस्तव- चोऽभिमतम् । व्याघुटिताऽष्टी घ्नन्ति नाराचादिभिः परसेनाम् । तावन्मात्र खवृन्दं सङ्घटित दृष्ट्वा, अपरेऽपि सत्त्व धृत्वा" वलिताः । तदा तेजःपाल एकत्र निजासेऽम्निकादेवीमपरत्र 15 कपर्दियक्षं पश्यति । अतो जय निश्चित्य प्रहरस्तावद्ययौ यावद् घूघुलः। गत्वा भापिता-हे मण्डलीक ! येनास्मन्नाथाय कज्जलगृहादि प्रहीयते तद् "मुजावल दर्शय । धूघुलोऽपि प्रत्याह-इद तद् मुजायल पश्य-इत्युक्त्वा निविड युयुधे। द्वन्द्वयुद्ध मन्त्रि-मण्डलीकयोः सञ्जातम् । अथ मन्त्री सहसा दैवतवल-भुजारलाभ्यां तमश्वादपीपतत् । जीवन्तं पद्ध्वा काष्ठपजरेऽचिक्षिपत् । स्वसेनान्तर्निनाय । स्वयं बहुपरिच्छदो गोध्रानगरं प्रविवेश । अश्वसहस्राणि चत्वारि, अष्टादश 30 कोटीहंन्ना कोशम् , मूटकं शुद्धमुक्ताफलनाम्, दिव्यास्त्राणि, दिव्यवस्त्राणि इत्यादि“सर्व जग्राह । 1P गोधिरा। दण्डान्तर्गत पाठो नाति । पुस्तके। 2 ED स्वय च लिंगानि, B स्वय च सिगितानि । 3 ABD स्वे सरें। 4 P विहाय नास्त्यन्पग्र, अप्रे 'उक्त च' इत्यपि दृश्यतेऽधिकम् । 5 P पर को.पि। GA भुव । 7 A विचिन्त पति। 8P गतो नुपद। 9A पृतनाऽपि। 10P विहाय नास्त्यन्यत्र 'यशो पिना'। 11 A अवलम्य। 12A सपंन 'मुनयल। 13 A B नानि। 14P पुस्तक एवं सम्यते पदमिदम् । Page 127**************************************************************************************** .१०८ प्रवन्धकोशे घूघुलस्थाने आत्मीयं सेवकं न्यास्थत् । वलितो मन्त्री गतो धवलककम् । दर्शितो घुघुलः श्रीवीरधवलाय । तत्कज्जलगृहं तद्गले बद्धं शाटिका च वण्ठैः परिधापिता । तदा घूधुलः स्वजिहां दन्तैः खण्डयित्वा मृतः । जातं वर्धापनं धवलकके । श्रीवीरधवलेन महत्यां सभायामाकार्य श्रीतेजःपालः परिधापितः। प्रसादपदे वर्ण भूरि ददे। तदवसरे कवीश्वरसोमेश्वरे च दृक् 5 सञ्चारिता श्रीवीरधवलेन । ततः सोमेश्वरदेवः प्राह- २६७. मार्गे कदमदुस्तरे जलभृते गतशतैराकुले, खिन्ने शाकटिके भरेऽतिविपमे दूरं गते रोधसि । __शब्देनैतदहं ब्रवीमि महता कृत्वोच्छ्रितां तर्जनी,-मीदृक्षे गहने विहाय धवले वोढुं भरं कः क्षमः १ ॥३०॥ विसृष्टा सभा । मिलितो वस्तुपाल-तेज:पालावेकत्र । कृताः कथाश्चिरम् । तुष्टौ द्वौ मन्त्रयेते' स्म । 'धम्म एव धनमिदं पुण्यलब्धं व्ययनीयम् । ततः सविशेपं तथैव कुरुतः । ततः कविना 10 केनाप्युक्तम्- २६८. पन्थानमेको न कदापि गच्छेदिति स्मृतिप्रोक्तमिव स्मरन्तौ । __तौ भ्रातरौ संसृतिमोहचौरे संभूय धर्मेऽध्वनि सम्प्रवृत्तौ ॥ ३१ ॥ ६१२७) अथ श्रीवस्तुपालः शुभे मुहर्ते स्तम्भतीर्थ गतः । तत्र मिलितं चातुर्वर्ण्यम् । दानेन तोषितं सर्वम् । तत्र च 'सदीकनामा नौवित्तको वसति । स च सर्ववेलाकूलेषु प्रसरमाणवि- __ 15 भवो महाधनाढ्यो वद्धमूलोऽधिकारिणं नन्तुं नायाति । प्रत्युत तत्पादऽधिकारिणा गन्तव्यम् । एवं बहुकालो गतः । पूर्व मन्त्रीन्द्रस्तं भट्टेनोवाच-अस्मान्नन्तुं किमिति नागच्छसि ? । स प्रति- वक्ति-न नवेयं रीतिः, प्रागपि नागच्छामि । यत्तु स्यान्यूनं तव, तदा तत्पूरयामि स्थानस्थः। तत् श्रुत्वा मन्त्री रुष्टः कथापयामास-पुरुपो भूत्वा तिष्ठेः । शास्मि त्वां दुर्विनीतम् । ततस्तेन वडूआख्यवेलाकूलखामी राजपुनः, पञ्चाशद्वंशमध्यस्थखादिरमुशलस्य एकखड्गप्रहारेण' छेदने 20 प्रभुः, प्रभूतसैन्यत्वात् 'साहणसमुद्र' इति ख्यातः शंखाख्य उत्थापितः । तेन भाणितं मन्त्रिणे-मत्रिन् ! मदीयमेकं नौवित्तकं न सहसे । मदीयं मित्रमसौ ज्ञेयः । तस्मादचनात् कुद्धो सन्नीतं प्रत्यवोचत-सशानवासी भूतेभ्यो न विभेति । त्वमेव प्रगुणो भूत्वा तिष्ठेः । [इति श्रुत्वा* ] सन्नद्धवद्धो [भूत्वा सोऽप्यागतः*] मन्त्री वस्तुपालो ऽपि धवलक्क- काद् भूरि सैन्यमानाय्याभ्यषणयत् । रणक्षेत्रेऽडितो" द्वौ । [*प्रारब्धं रणम् ] शङ्खन 25 निर्दलितं मन्त्रिसैन्यं पलायिष्ट दिशोदिशि । तदा श्रीवस्तुपालेन स्वस्य राजपुत्रो भाहेचकनामा भाषितः-इदमस्मन्सूलघट्ट वर्तते । त्वं च वर्तसे । [अथ* ] तत् कुरु येन श्रीवीरधवलो न लज्जते । ततोऽसौ राजपुत्रः स्वैरेव कतिपयैर्मित्रराजपुत्रैः सह तमभिगम्योवाच-हे शङ्ख! नेयं वडूआख्या तव ग्रामहट्टिका", क्षत्रियाणां सङ्ग्रामोऽयम् । शङ्खोऽप्याह-सुठु वक्तुं वेत्सि । नायं तव प्रभोः "पट्टकिलपरिपन्थनप्रदेशः, किन्तु सुभटस्य क्रीडाक्षेत्रमिदम् । इत्येवं 30 वादैर्जाते द्वन्द्वरणे माहेचकेन" मन्त्रिणि पश्यति मन्त्रिप्रतापाच्छङ्खः पातितः । समरे जातो दण्डान्तर्गतः पाठः पतितः P पुस्तके। 1 AB मन्त्रयेतां। 2 AB तस्माद् धर्म। 3 AB नास्ति। 4 P सैद० । 5 P पुस्तक एवेदं पदम्। 6 P तव। 7 AB खङ्गेन छेदने। 8 A प्रत्यवीवचत् । *P पुस्तक एव एते पाठाः प्राप्यन्ते। 9 P मन्त्रिणा। 10 P वस्तुपालेन। 11 P मिलितौ। 12 P नास्ति । 13 P त्वमेव । 14 P ग्रामसीम- आखेटक्रीडा किन्तु। 15 P पट्टः किल परिपन्थिनः। 16 AB माहिचकेन । Page 128**************************************************************************************** 10 वस्तुपालप्रवन्धः । १०९ जयजयकारः। मन्त्रिणा तद्राज्यं गृहीतम् । वेलाकूलनुपर्दीनां क संख्याः। ततः स्तम्भतीर्थमुत्तो- रणमुत्पताकमविशत् । ततो' मन्त्री प्रविष्टः 'सदीकसदनम् । तस्य भद्दान् सप्तद्विगुण शतानि सन्नद्धानि हत्वा तं जीवग्राह जग्राह । विब्रुवाण तं कृपाणेन जघान । ततो गृहं तदीयमामूलचूल- खातपातितम् । हेमटंकाना संस्था न । तथा मणिमुक्ताफलपदकानाम् । [प्रमाणं केनापि न जातम् । केचिद् वृद्धा वदन्ति-तत्र तेजनतृरिकायाः करण्डश्चटितः श्रीमन्त्रीश्वरस्य ।] 5 आयातो मन्त्री स्वधवलगृहम् । तोपितः स्वखामी वीरः, परिग्रहलोकश्च । ततः [कवी- श्वराणां* ] स्तुतिः- २६९ श्रीवस्तुपाल प्रतिपक्षकाला त्वया प्रपेदे पुरुषोत्तमत्वम् । तीरेऽपि वाट्टैरकृतेऽपि मात्स्ये रूपे पराजीयत येन शङ्ख ॥ ३२ ॥ २७० तावल्लीलाकवलितसरित्तावदम्रलिहोर्मि,-स्तावत्तीबध्वनितमुखरस्तावदज्ञातसीमा । तावत्प्रेसत्कमठमकरव्यूहवन्धु ससिन्धु,-र्लोपामुद्रासहचरकरकोडवर्ती न यावत् ॥ ३३ ॥ ततश्चोक्षचार्टि'-नौवित्तकवाट्योः पार्थक्यं कृतम् । ६१२८) [मत्रिणा*] आ महाराष्ट्रेभ्यः साधिता भूः । वेलाकृलीयनरेन्द्राणां नरेन्द्रान्तरा- - क्रम्यमाणानां मन्त्री प्रतिग्राहेण सान्निध्य कृत्वा जयश्रियमर्पयति । इति [कारणात्*] ते [तुष्टाः ] चोहित्यानि सारवस्तुपूर्णानि प्राभृते प्रहिण्वन्ति । अम्विका कपर्दिनौ निधानभुवं 15 रात्री [समागत्य* ] कथयतः । ते निधयो मन्त्रिणा खातं ग्वातं गृह्यन्ते । [तद्भाग्यात् ] दुर्भिक्षस्य नामापि नाभूत् । विवराणि दूरे नष्टानि । मुद्गलयलानि [चार वार*] आगच्छन्ति जनिरे एकदा । पुन ययुः। पल्लीवनेपु दुकलानि नागोदराणि च पद्धानि । ग्रहीता कोऽपि न । ग्रामे ग्रामे [मण्डितानि* ] सत्राणि । सने सत्रे मिष्टान्नानि । [उपरि*] ताम्बूलानि [च । तत्र ग्लानार्थ*] वैद्याः [विविधाः प्रस्थापिताः । मन्त्रिव्यवस्थया*] दर्शनद्वेपो न, वर्णद्वेपो न । प्रतिवर्ष 20 स्वदेशे सर्वनगरेषु तिस्रस्तिस्रः श्वेताम्मरेभ्यः प्रतिलाभनाः । शेपदर्शनानामग्रेऽप्यर्चा। ६१२९) मन्त्रिवस्तुपालस्य पत्न्यौ द्वे ललतादेवि सोपूनान्यौ कल्पवल्लि कामधेनू इव । ललिता- देव्याः सुतो मन्निजयन्तसिंहः सूहवदेविजानिः प्रत्यक्षचिन्तामणिः । तेजःपालदयिताऽनुपमाऽनु- पमैव । पठितं च कविना- २७१. लक्ष्मीश्वला शिवा चण्डी, शची सापल्यदूपिता । गङ्गा न्यग्गामिनी वाणी, वाक् साराऽनुपमा तत ॥३४॥25 श्रीशत्रुक्षयादिपु नन्दीश्वरेन्द्रमण्डपमभृतिकर्मस्थायाः प्रारम्भिपत । आरासणादिदलिकानि स्थलपयेन [जलपथेन"] च तत्र तत्र प्राप्यन्ते । 'तपसामुद्यापनानां च प्रकाशः। ६१३०) एकदा तौ भ्रातरौ डायपि मन्त्रिपुरन्दरी महर्द्धिसङ्घोपेतौ श्रीपाचं नन्तुं स्तम्भनक- पुरमीयतुः। प्रथमदिने ससङ्घौ तौ श्रीपार्श्वस्य पुरः श्रावकोणिपुरःसरौ स्थितौ। [तदा*] गीत- [गान* ] रासादि [महारसः प्र*] वर्तते । [तदवसरे तत्रत्य ] सङ्घोपरोधात् तत्रत्याध्यक्षा: 30 सूरयो मल्लवादिनः समाकारिताः । ते यावद्देवगृह प्रविशन्ति तावत् पठन्ति"- 1AB येराफूलीना। 2 AB नानि 'तो मनी'। 8 P संदः। 4 P •गुणिनः। 5 P • पूल म्यानिन पानिन च । GP हेमेटिशना । :P पुग्नक एवैपा पनि प्राप्यते। * कोष्टम्गता पाटा P पुम्नक पर सभ्यन्ते। 7 A घोक्षपति। 8 P प्रतिप्रहप्रेषणेन 1 9A दशनानामप्यर्चा । 10 A नास्ति पदमिदम् । 1 P पुनः नास्ति याक्यमिदम् । 11 P वायत्तरेव पादितम्। Page 129**************************************************************************************** ११० प्रवन्धकोशे २७२. अस्मिन्नसारे संसारे सारं सारङ्गलोचनाः । मन्त्रिभ्यां श्रुतं चिन्तितं च-अहो! मठपतिवदेवगृहेऽपि शृङ्गाराङ्गारगर्भ पद्यं प्रस्तौति । देव- नमस्कारादिकमुचितमिह, तन्नाधीते । तस्माददृष्टव्योऽसौ । उपविष्टः सूरिः सः । अन्येऽपि सूरयः शतशः पङ्गो निपण्णाः । मङ्गलदीपान्तेऽपरसूरिभिर्मल्लवादिन एवाशीर्वादाय प्रेरिताः । मन्त्री 5 पुरस्तिष्ठति । 'अस्मिन्नसारे संसारे इत्यादि पादद्वयं भणितं तः । [व्याख्यातं च तदेव ] मन्त्री हस्तेन वन्दित्वा विरक्तो गतः स्वोत्तारकम् । एवं दिनाः ८ [स एव ] पद्या पाठश्च [०चक्रे । नव- नवभङ्ग्या व्याख्यातः ] मत्र्यवज्ञा चारोहत्मक । अष्टम्यां रात्री मन्त्री मुत्कलापनिकां कर्तुं देवरङ्गमण्डपे निविष्टः। पुरो धनवदकाः । कोऽपि कविराह- २७३. श्रीवस्तुपाल ! तव भालतले जिनाज्ञा, वाणी मुखे हृदि कृपा करपल्लवे श्रीः । 10 देहे द्युतिर्विलसतीति रुपेव कीर्तिः, पैतामहं सपदि धाम जगाम नाम ॥ ३५ ॥ अपरस्तु- २७४. अनिस्सरन्तीमपि गेहगर्भात् , कीर्ति परेपामसती वदन्ति । स्वैरं भ्रमन्तीमपि वस्तुपाल!, त्वत्कीर्तिमाहुः कवयः सतीं तु ॥ ३६॥ __ इतरस्तु- 15 २७५. सेयं समुद्रवसना तव दानकीर्ति,-पूरोत्तरीयपिहिताऽवयवा समन्तात् । अद्यापि कर्णविकलेति न लक्ष्यते यत् , तन्नाद्भुतं सचिवपुङ्गव ! वस्तुपाल ! ॥३७॥ ___ कश्चित्तु- २७६. क्रमेण मन्दीकृतकर्णशक्तिः, प्रकाशयन्ती च बलिखभावम् । कैर्नानुभूता सशिरःप्रकम्प, जरेव दत्तिस्तव वस्तुपाल ! ॥ ३८ ॥ 20 तेभ्यः कविभ्यः सहस्रलक्षाणि ददिरे । एवं गायनभद्दादिभ्योऽपि । यावज्जातं प्रातरिव, तदा मल्लवादिभिः स्त्रसेवकाश्चैत्यद्वारद्वयेऽपि नियुक्ताः । एकं द्वारमन्यदिशि, एकं च मठदिशि । उक्तं च तेभ्यः-मन्त्री चैत्यान्निःसरन् ज्ञापनीयः । क्षणेन वस्तुपालो मठद्वारा निर्गच्छति [यावत् ] तावता सेवकज्ञापिताः सूरयः समागत्य सम्मुखाः स्थिताः । मन्त्रिणा रीढया 'भूप्रणाम इव कृतः। आचार्यैरभिहितम्- ___ दूरे कर्णरसायनं निकटतस्तृष्णापि नो शाम्यति । विजीयताम् ; तीर्थानि पूज्यन्ताम् । मन्त्री कौतुकात्तथैव तस्थौ, किंपर्यवसानेयं प्रस्तावनेति ध्यानात्; ऊचे च-न विद्मः परमार्थ किमेतदभिदध्वे । आचार्यैरुक्तम्-पुरो गम्यताम् , पुरोगम्य- ताम् । भवतां कार्याणि भूयांसि । मन्त्री सविशेषं पृच्छति । सूरयो वदन्ति-सचिवेन्द्र ! श्रूयताम्- ६१३१) मरुग्रामे कचित् ग्रामाराः स्थूलबहुला लोमशाः पशवो वसन्ति । पर्षदि निषीदन्ति । 80 कपोलझल्लरी वादयन्ति । तत्रैकदा वेलाकूलीयचरः पान्थ आगमत् । नवीन इति कृत्वा ग्राम्यै- 25 ___1 P पदद्वयं कथयन्नस्तीति । 2 P तत्किं नाधीते । 3 A मध्यवज्ञातविचारोहत्प्रकर्षे; B मन्त्र्यज्ञात चारो०; DE मन्न्यज्ञानं चा०। 4 P बदरकाणां राशयः। 1 P पुस्तके नोपलभ्यते पद्यमिदम् । 5 P पुनः कश्चिदूचुः। 6 P चास्ति । 7 P प्रभुप्रणाम । Page 130**************************************************************************************** वस्तुपालप्रवन्ध । १११ राहतः । पृष्टः-त्वं का? कुत्रत्य'? । तेनोक्तम्-अहं समुद्रतटेऽवात्सम् । पान्था, पुरो यामि । तैः पृष्टम्-समुद्रः केन खानितः। तेनोचे-स्वयंभूः सः। पुनस्तैः पृष्टम्-कियान् सः?। पान्थेनोक्तम्- अलन्धपारः । किं तवास्ते -इति पृष्ट पुनस्तेनाचख्ये- २७७ ग्रावाणो मणयो हरिर्जलचरो लक्ष्मी पयोमानुपी, मुक्तौघा सिकताः प्रवाललतिका. सेवालमम्म सुधा। तीरे कल्पमहीरुहाः किमपर नाम्नाऽपि रत्नाकरः, इति पादत्रयं पठित्वा व्याख्याय पुरो गतः पान्थः। तेषु ग्राम्येष्वेकः सफौतुकः पृच्छन् पृच्छन् समुद्रतटमगात् । दृष्टः कल्लोलमालाचुम्बितगगनायः समुद्रः। तुष्टः सः। अचिन्तयञ्च- [इतो ] ऋद्धयः सर्वा लप्स्यन्ते । प्रथम तृपितः सलिल पियामि। [इति मत्वा ] पीतं तत् । दग्धः कोष्ठः । ततः पठति- 10 दूरे कर्णरसायन निकटतस्तृष्णापि नो शाम्यति ॥ ३९ ॥ २७८ 'वरि वियरा जहिं जणु पिया घुट्टग्घुटु 'चुलुएहिं । सायरि अस्थि बहुत्तु जल छि सारा" किं तेण ॥४०॥ तैरेव पदैनष्टः स्वास्पद गतः। तथा वयमपि स्मः । मन्त्रिणोक्तम्-कथं तथा यूय यथा स ग्राम्यः । सूरयस्तारमूचुः महामात्य ! वयमत्र श्रीपार्श्वनाथसेवकाः, त्रैविद्यविदः, सर्वर्द्धयः [अवस्थाः* ] शृणुमः। यथा-धवलकके श्रीवस्तुपालो मन्त्री सरखतीकण्ठाभरणो भारतीप्रति-15 पन्नपुत्रो विद्वज्जनमधुकरसहकारः सारासारविचारवेद्यास्ते इति । तदुत्कण्ठितास्तत्रागन्तुम् । ईश्व- रत्वाच्च न गच्छामः कापि । [पुनश्चिन्तितं च ] कदाचिद, अन्न तीर्थमित्येता" मन्त्री, तस्य पुरो वक्ष्यामःखैरं सुक्तानि । इति ध्यायतामस्माक मन्निमिश्रा "अनागताः। यावत्पद्यते किमपि ताव- "दसत्सम्भावनयाऽवज्ञापरा यूय स्थिताः। ततः कि पठ्यते । गच्छत गच्छत , उत्सूर भवति । मन्त्री प्राह-मम मन्तुः" क्षम्यताम् , किमेतत्पठितुमारेभे भवद्भिः। आचार्या जगदुः-देव! यदा 20 युवां सवान्धवौ श्रायकोण्यग्रे राजराजेश्वरौ दिव्यभूपणौ, श्रावकाश्च धनाटा दृष्टाः, गीताधुच्छ्र- यश्च । तदा एतन्नश्चित्ते बभूव-जगति स्त्रीजातिरेव धन्या । यद्भुवो" जिन-चत्र्यचक्रि-नल- कर्ण-युधिष्ठिर-विक्रम-सातवाहनादयो जाताः । सम्प्रत्यपि ईदृशाः सन्ति । तस्मात् श्रीसाम्ब- श्रीशान्ति"-ब्रह्मणाग-आमदत्त नागडवश्यश्रीआभूनन्दिनी "कुमारदेवी श्लाघ्या। यया एतौ कलियुगमहान्धकारमनजिनधर्मप्रकाशनप्रदीपौ ईदृशौ नन्दनौ जाती । इत्येवं चिन्तयतामस्माकं 25 पद्यपादद्वयं वदनादुगतम् । जिननमस्कारादि विस्मृतम् । पश्चाई तु शृणुत - यत्कुक्षिप्रभवा एते वस्तुपाल | भवाया ॥४१॥ सविस्तरतर व्याख्यानं कृतम् । लज्जितः सचिवेन्द्रः। पदोलगित्वा सूरीन् क्षमयित्वा [चलि- त:*] क्रोशान्ते ग्राम एक आगात् । तत्र लातभुक्तविलिप्तः [तदनु*] स्त्र भृत्य सचिवमेकमाकार्य आदिक्षत्-इयं वाहिनी हेमसहस्रदाफयदरकयुक सूरिभ्यो मठे देयाः । गतो मन्त्रिसेवकस्तत्र ।30 भापिता सूरया-मत्रिदत्तमिढमवधार्यताम् । आचार्यदृष्टम् । अवमारुह्य भटशतोल्लालितकृपा- 1P पत्य । 2P तजाति। * कोटकाता पाटा P पुसक पर दृश्यन्ते। 3 P लेन पठति इति । 4 P वर । 5 P निहिं। 6P यह घटु, Bघुदुग्धुड। 7P लुहिं, P चलुहिं। 8 P यहुर, B यहुप। 9P उह। 10 P सार । 11 P तीर्यनत्य पवाऽत्र। 12 PB अप्यागता । 13 ABC दसम्भावनः। 14 P अपराध | 15 P यद्गर्भ । 16 A नास्ति'धीमावि 17 P कुमरा। 18 A Mणु तत् । 19 A जिदाय । Page 131**************************************************************************************** ११२ प्रवन्धकोशे णजलप्लावितरवास्तत्र गताः, यत्र श्रीवस्तुपालः। उदितश्च तैः-मन्निन् ! किमहमुचितभाषी, कि चारणः, किं वन्दी, किं नु सर्वसिद्धान्तपारगः सम्यग् जैनः सूरिः ? । मया मनःप्रमोदेन यद् व उपश्लोकनमुक्तं तन्मूल्यभूतामिमां वो दत्तिं कथं गृह्णामि । न मयेदं वित्तायाभिहितम् । किन्त्विदं अन्तर्मनसं ध्यात्वा [भणितं ] यथाऽद्यापि जयति जिनपतिमतम् [तीर्थकृद्वारकसदृशं 5 एवंविधैः पुरुषरत्नैः ] । धनं न गृह्णाम्येव । मन्त्री प्राह-भवन्तो निःस्पृहत्वान्न गृह्णन्ति, वयं तु दत्तत्वान्न प्रतिगृह्णीमः; तर्हि कथमनेन हेम्ना भवितव्यमिति शिक्षा दत्त । ततः सूरिभिर्जगर्दै जगदेकदानी मन्त्री-मन्निन् ! स्वगृहाय सम्प्रति गंस्यते भवद्भिस्तीर्थाय कस्मैचिद्वा?। मन्त्री आह- प्रभो! श्रीसत्रततीर्थवन्दनार्थ गच्छन्तः स्मः। आचार्याः प्राहा-तहि लब्ध एतदहेमव्ययोपायः तत्र लेप्यमयी प्रतिमाऽऽस्ते । तत्र स्नात्रसुखासिका न पूर्यते श्रावकाणाम् । तस्मादनेन राया 10रीरीहेममयीं लानप्रतिमा निर्मापयत । मन्त्रिणोर्ध्वनितं मनः । तत्तथैव च कृतम् । ततः समायातः स्वसदनं गूर्जरेन्द्रमन्त्री। ६१३२) अन्येारादर्शे प्रातर्वदनं पश्यता सचिवेन पलितमेकमालोकि, अपाठि च- २७९. अधीता न कला काचित् न च किञ्चित्कृतं तपः । दत्तं न किञ्चित्पात्रेभ्यो गतं च मधुरं वयः ॥ ४२ ॥ २८०, आयुयौवनवित्तेषु स्मृतिशेषेषु या मतिः । सैव चेजायते पूर्वं न दूरे परमं पदम् ॥ ४३ ॥ __15 २८१. आरोहन्ती शिरःस्वान्तादौन्नत्यं तनुते जरा । शिरसः स्वान्तमायान्ती दिशते नीचतां पुनः ॥ ४४ ॥ २८२. लोकः पृच्छति मे वार्ता शरीरे कुशलं तव । कुतः कुशलमस्माकमायुर्याति दिने दिने ॥ ४५ ॥ ततोऽधिकं जिनधर्मे रेमे । ६१३३) अथैकदा द्वावपि भ्रातरौ राणश्रीवीरधवलं व्यजिज्ञपताम्-देव! देवपादैरियं गूर्जरधरा साधिता, राष्ट्रान्तराणि करदानि कृतानि । यद्यादेशः स्यात् तदा राज्याभिषेकोत्सवः क्रियते । ___ 20 राणकेनोक्तम्-मत्रिणौ ! ऋजू भक्तिजडौ युवाम् । २८३. अजित्वा सार्णवामुवीमनिष्ट्वा विविधैर्मखैः । अदत्त्वा चार्थमर्थिभ्यो भवेयं पार्थिवः कथम् ॥ ४६॥ ततो राणकमात्रत्वमेवास्तु । इत्युक्त्वा व्यसृजत्तौ । ६१३४) एकदा मन्त्रिभ्यां श्रीसोमेश्वरादिकविभ्यो विपुला वृत्तिः कृता भूम्यादिदानैः । ततः पठितं सोमेश्वरेण- . 25 २८४. सूत्रे वृत्तिः कृता पूर्वं दुर्गसिंहेन धीमता । विसूत्रे तु कृता तेषां वस्तुपालेन मत्रिणा ॥ ४७ ॥ ___६१३५) श्रीवीरधवलोऽपि सेवकान् सुष्ठु पदवीमारोपयन् जगत्प्रियोऽभूत् । किमुच्यते तस्य । पश्यत-श्रीवीरधवलो ग्रीष्मे चन्द्रशालायां सुप्तोऽस्ति । वण्ठश्चरणौ चम्पयत्येकः। राणकः पटी- वदनो जाग्रदपि वण्ठेन सप्तो" मेने । ततश्चरणाङ्गलिस्था रत्नाङ्का मुद्रा जगृहे, मुखे च चिक्षिपे । राणकेन किमपि नोक्तम् । उत्थितो राणः । भाण्डागारिकपााद् गृहीत्वाऽन्या मुद्रा 30ताहगेव पादानुलो स्थापिता। द्वितीयदिने पुना राणकस्तत्रैव चन्द्रशालायां प्रसुप्तः।वण्ठश्चरणी ___1 P किं वा । 2 AB तु । 3 P जैनसूरिः । * P पुस्तक एवेदं दृश्यते । 4 A मध्यप्याह । 5 P जगदेकदानवीर !। 6P इदं । 7 P तस्मादनेन हेममयीं। 8 'च' नाति P19 A नास्ति पदामिदम् । 10 P अस्माकं । 11 A सुप्त इति । 12 P शालायां । Page 132**************************************************************************************** वस्तुपालप्रवन्धः। ११३ 'चम्पयति । राणस्तथैव पटीस्थगितवदनोऽस्ति । वण्ठः पुनः पुनः मुद्रामालोकते। अहो! प्राक्तनी चेयम् । ततो राणेन्द्रः प्रार-भो वण्ठ ! इमां तु मुद्रां मा ग्रहीः । या कल्ये गृहीता सा गृहीता। एतढचनाकर्णन एव वण्ठो भीत्या वज्राहत उवास्यात् । यतः- २८५ हसन्नपि नृपो हन्ति मानयन्नपि दुर्जन । स्पृशन्नपि गजो हन्ति जिघन्नपि भुजङ्गम. ॥४८॥ तां तस्य दीनतां दृष्ट्वा राणकेन भणितम्-वत्स! मा भैपी। अस्माकमेवायं कार्पण्य दोपो 5 येन तेऽल्पा वृत्तिः । इच्छा न पूर्यते । ततो वह्नपाये चौर्ये वुद्धिः । अतः परं हय आरोहाय दीयमानोऽस्ति, लक्षाई वृत्तौ । इत्याश्वासितः सः। अतो वीरधवलः क्षमापरत्वाजगदल्लभः सेव- कसदाफलत्वेन पमथे । स सहजदया इति' मन्त्रिभ्यां रहः कथान्तरे शान्तिपर्वणि श्रीद्वैपाय- नोक्तभीष्म-युधिष्ठिरोपदेशद्वाराऽऽयातं द्वैपायनोक्तद्वात्रिंशदधिकारमयेतिहासशास्त्रीयाष्टाविं- शाधिकारस्थं शिवपुराणमध्यगतं च मांसपरिहारं व्याख्याय व्याख्याय प्रायो मांस-मद्य-10 मृगयाविमुखकृतः । पुनर्मलधारिश्रीदेवप्रभसूरिसविधे व्याख्यां श्रावं श्रावं सविशेषं तेन तत्त्व- परिमलितमतिर्विरचितः। ६१३६) अन्येद्यवस्तुपालो ब्राह्म मुहर्ते विमृशति-यद्यहंद्यात्रा विस्तरेण क्रियते तदा श्री फलवती भवेत् । २८६ *श्रीणा स्त्रीणा च ये वश्यास्तेऽवश्य पुरुषाधमा. । स्त्रिय. श्रियश्च यदृश्यास्तेऽवश्य पुरुषोत्तमा.॥४९॥ 15 २८७ विञ्चयित्वा जनानेतान् सुकृत गृह्यते श्रिया । तचतो गृह्यते येन स तु धूर्तधुरन्धर. ॥ ५० ॥ २८८ नृपव्यापारपापेभ्यः सुकृत स्वीकृत न यैः । तान् धूलिधावकेम्योऽपि मन्ये मूढतरान् नरान् ॥ ५१ ॥ इत्यादि विमृश्य तेजापालेन नित्यभक्तेन सांमत्य कृत्वा मलधारिश्रीनरचन्द्रसूरिपादानपृच्छत्- भगवन् ! या मे चिन्ताऽधुना [वर्तते* 1 सा निष्पत्यूहं सेत्स्यति ? । प्रभुभिा शास्त्रजकिरीटरु- क्तम्-जिनयात्राचिन्ता वर्तते, सा सेत्स्यति । वस्तुपालेन गदितम्-तर्हि देवालये वासक्षेप:20 क्रियताम् । तदा श्रीनरचन्द्रसूरयः प्राहुः-मन्त्रीश! वयं ते मातृपक्षे गुरवा, न पितृपक्षे । पितृपक्षे तु नागेन्द्रगच्छीयाः श्रीअमरचन्द्रसूरि-श्रीमहेन्द्रसूरिपदे-श्रीविजयसेनसूरय उदप्रभ- सूरिसज्ञकशिष्ययुजो विशालगच्छाः पीलूआईदेशे वर्तन्ते । ते वासनिक्षेपं कुर्वन्तु [पर*] न वयम् । यदुक्तम्- २८९ जा जस्स ठिई जा जस्स सतई पुवपुरिसकयमेरा । कठटिए वि जीए सा केण' न लघियय चि ॥ ५२ ।। 25 अध मन्याह-अस्माभिर्भवदन्तिके विद्य-पटावश्यक-कर्मप्रकृत्याद्यधीतम् । यूयमेव गुरवः । प्रभुभिरुक्तम्-नैव वाच्यम् , लोभपिशाचप्रवेशप्रसद्गात् । ततो मत्रिभ्यां मरुदेशाद् गुरवः शीघमानापिताः । मुहर्त प्रतिष्टा देवालयमस्थापनं वासनिक्षेपण कुलगुरुभिः कृतम् । साधर्मिक- यान्सन्यं शान्तिकं मारिवारण सामिपूजनं लोकरसनं चैत्यपरिपाटीपर्यटनं च विहितम् । अथ प्रतिलामना । तत्र मिलिताः कवी-वरा, नरेश्वराः, सद्धे बराः। दत्तानि कौशेयफटककुण्डल 30 रारादीनि लोकेभ्यः । यतिपतिभ्यस्तु तदुचितानि घरन-कम्यल-मोज्यादीनि । तदा श्रीनरचन्द्र- रिभिः सहानुजातारया कृता- 1Pariस पप सम्पपति। BAB नाशि विधेय'। 3P फापण्यो। 4 Pइनि कारणाद। 5PRA •p मा दिपा या मोपरम्पते पपमिदम् । Pyaरे नोपलम्प र पपम् । TAB रोग। 8A मारिता १५ ३. फो. Page 133**************************************************************************************** ११४ प्रवन्धकोशे ___ २९०. - चौलुक्यः परमार्हतो नृपशतस्वामी जिनेन्द्राज्ञया, निम्रन्थाय जनाय दानमनघं न प्राप जानन्नपि । स प्राप्तस्त्रिदिवं स्वचारुचरितैः सत्पात्रदानेच्छया, त्वद्रूपोऽवततार गूर्जरभुवि श्रीवस्तुपालो ध्रुवम् ॥ ५३॥ ध्वनितः सङ्घः । अथ चलितः सुशकुनैः सङ्घः । मार्गे सप्तक्षेत्राण्युद्धरन् श्रीवर्द्धमानपुरासन्न- मावासितः। 5६१३७) तदा [वर्द्धमानपुरमध्ये ] बहुजनमान्यः श्रीमान् रत्ननामा श्रावको वसति । तद्नेहे दक्षिणावर्तः शङ्ख पूज्यते । स रात्रौ करण्डान्निर्गत्य लिग्धगम्भीरं घुमघुमायते नृत्यति च । तत्मभावात्तस्य गृहे चतुरङ्गा लक्ष्मीः । शछैन रात्रौ रत्न आलेपे-तव गृहेऽहं चिरमस्थाम् । इदानीं तव पुण्यमल्पम् । मां श्रीवस्तुपालपुरुषोत्तमकरपङ्कजप्रणयिनं कुरु । सत्पात्रे मदानात् त्वमपीह परन च सुखी भवेः । [तस्याभिप्राय* ] व्यक्तं तज्ज्ञात्वा रत्नो विपुलसामग्र्याऽभिमुखो गत्वा 10 मन्त्रीशं [ससङ्घ निमन्य*] स्वगृहे वहुपरिकर भोजयित्वा परिधाप्योचे-एवमेवं शङ्खादेशो मे। गृहाणेमम् । मन्याह-न वयं परधनार्थिनः । पिशुनाच्छससत्तां ज्ञात्वा तं ग्रहीष्यति स्वयं मन्त्री, तस्मात् स्वयमेव ददामि-इत्यापि मा शडिष्ठाः, निलोभत्वादस्माकममत्प्रभूणां च । इत्युक्त्वा विरते मन्त्रिणि रत्नेन गदितम्-देव! महावस्थानमस्मै न रोचते । ततः किं क्रियते ?, गृहाणैष । ततो गृहीतो मन्त्रिणा शङ्खः । तत्प्रभावोऽनन्तः। 15 ६१३८) शनैः शनैः सङ्घः श्रीशत्रुञ्जयतलहट्टिकां प्राप्तः । तत्र ललितासरः प्रासादादिकीर्त- नानि पश्यन् प्रमुदितः ससङ्घः सचिवः। आरूढः शत्रुञ्जयादि विवेकं च भावं च । तत्र मन्त्री प्रथमं ऋषभं वन्दते । तदा काव्यपाठः- २९१. आस्यं कस्य न वीक्षितं क्व न कृता सेवा न के वा स्तुताः, तृष्णापूरपराहतेन विहिता केषां च नाभ्यर्थना । ___ तत् त्रातर् ! विमलाद्रिनन्दनवनीकल्पैककल्पद्रुम !, त्वामासाद्य कदा कदर्थनमिदं भूयोऽपि नाहं सहे ॥५४॥ 20 अथावारितसत्र-मेरुध्वजारोपणेन्द्रपदाचिरञ्जनादीनि कर्तव्यानि विहितानि । देवेभ्यो हैमानि "आरात्रिकतिलकादीनि दत्तानि । कुङ्कुमक'रागुरुमृगमदचन्दनकुसुमपरिमलमिलदलिकुलझङ्कार- भारपूरितमिव गगनमभवत् । गीत-रासध्वनिभिर्दिक्कुहराणि अभ्रियन्त । पूर्व मन्त्रिश्रीउदयन- दत्ता देवदायाः सर्वेऽपि सविशेषाः कृताः। देवद्रव्यनाशनिषेधार्थ चत्वारि श्रावककुलानि अद्रौ मुक्तानि । अनुपमा दानाधिकारिणी [कृताऽस्ति*]। तस्याः साधुभ्यो दानानि ददत्याः किल महति 25 वृन्दे पतता घृतकडहटकेन क्षौमाण्यभ्यक्तानि । तदा याष्टिकेन कडहभृते साधवे यष्टिप्रहार- लेशो दत्तः । मन्त्रिण्या देशनिर्वासनं समादिष्टम्। [भणितं च-*] रे न वेत्सि! यद्यहं तैलिकपत्नी कान्दविकी वाऽभविष्यम् , तदा प्रतिपदं तैलघृताभिष्वङ्गान्मलिनान्येव वासांस्यभविष्यन् । एवं तु वस्त्राभ्यङ्गो [भाग्यलभ्यः* ] दर्शनप्रसादादेव स्यात् । य इदं न मन्यते तेन न: कार्यमेव न इत्युक्तं च । अहो ! दर्शनभक्तिरिति ध्वनितं सर्वम् । 30 ६१३१) एकदा मन्त्रीश्वरो नाभेयपुर आरात्रिके स्थितोऽस्ति दिव्यधवलवासाश्चान्दनतिलको दिव्यपदकहारभूषितोरस्थलः। सुरीणां कवीनां श्रावक-श्राविकाणां च नतिः। तिलकं तिलकोपरि। पुष्पस्रक पुष्पस्रगुपरि। तदा सूत्रधारेणैकेन दारवी कुमारदेव्या मातुमूर्तिमहन्तकायनवीनघटिता - 1 P ससङ्घो मन्त्री। * कोष्टकगताः पाठा: P पुस्तक एव प्राप्यन्ते। 2 A रत्नस्य । 3 A पिशुनाः। 4 A. हट्टिकाया. माप । 5 P आभरणानि तिल०। 6 A दिक्षु अन्तराणि। 7 A तदयोयष्टीकेन । 8 P कान्दविकपत्री। Page 134**************************************************************************************** वस्तुपालप्रवन्धः । ११५ दृष्टौ कृता । उक्तं च तेन-मातुर्मूर्तिरियम् । तदा मन्त्री वरेणाशिखानखं दृष्टा मूर्तिः। दृष्ट्वा रुदितं च' प्रथममश्रुमात्रम्, ततो व्यक्तेतरो ध्वनिः, ततो व्यक्ततरः। सर्वे तटस्थाः पृच्छन्ति-देव ! किं कारणं रुद्यते? । हर्पस्थाने को विपादः । [यथा*] श्रुतशील उद्धव इव विष्णोः , अभय इव श्रेणिकस्य, कल्पक इव नन्दस्य, जाम्बक इव वनराजस्य, आलिग इव सिद्धराजस्य, उदयन इव कुमारपालस्य तथा*] त्वं मन्त्री वीरधवलस्य । विपट्टीताः पर्वता इव सागरं तिथा*] त्वामाश्रयन्ति 5 भूपाः । ताक्ष्येणेव पन्नगाः [तथा*] त्वया हताः सपत्नाः पृथिवीपालाः। चन्द्राय इव चकोराः तथा*] तुभ्यं स्य न्ति वजनाः। हिमवत इव गङ्गा तथा*] त्वत्प्रभवा राजनीतिः। भानोरिव पद्माः[तथा*] तवोढयमीहन्ते सूरयः। विष्णाविव रमते त्वयि श्रीः। तन्नास्ति यन्न ते [एवं सति किमर्थं दुःग्वं ध्रियते?*]ततोमत्रिणोक्तम्-इदं दुःखं यन्मे 'भाग्य-सद्धाधिपत्यादिविभूतिर्मा- तृमरणादनन्तरं सम्पन्ना । यदि तु सा मे माता इदानीं स्यात्, तदा स्वहस्तेन मगलानि कुर्वत्या-10 स्तस्या मम च मङ्गलानि कारयतः पश्यतश्च लोकस्य कियत्सुखं भवेत् । परं कि कुर्मों धात्रा हताः सः [एकैकन्यूनीकरणेन*] । तत: श्रीनरचन्द्रसूरिभिर्मलधारिभिरभिहितम्-मन्त्रीश्वर! यथा त्वं सचिवेषु तथाऽत्र देशे प्रधान राजसु सिद्धराजो व्यजयत । स मालवेन्द्र जित्वा पसन- मागतो महालेपु क्रियमाणेष्वपाठीदु यथा- २९२ मा स्म सीमन्तिनी कापि जनयेत् सुतमीदृशम् । बृहद्भाग्यफल यस्य मृतमातुरनन्तरम् ॥ ५५॥ 15 तस्मात् [हृदयमधःकृत्वा स्थीयते विवेकिभिः* ] न सर्वेऽपि नृणां मनोरथाः प्रपूर्यन्ते । [इत्याद्युक्त्वा मन्त्री बलादारात्रिकमगलदीपादिकारितः। ततो चैत्यवन्दना गुरुवन्दनं च ।तदा*] श्रीनरचन्द्रसूरिभिराशीदत्ता- २९३ तवोपकुर्वतो धर्म तस्य त्वामुपकुर्वत । वस्तुपाल द्वयोरस्तु युक्त एव समागमः ॥ ५६ ॥ इत्यादि । अथ रात्री तन्मयतया नाभेयपूजाध्यानदानपूजाः । तदा कवयः पठन्ति ।। एका कश्चित्- २९४ ये पापप्रवणा स्वभावकृपणा खामिप्रसादोल्वणा,-स्तेऽपि द्रव्यकणाय मर्त्यमपणा जिह्न ! भवत्या स्तुता । तस्मात् त्व तदघापघातनिधये बद्धादरा सम्प्रति, श्रेय स्थानविधानधिकृतकलिं श्रीवस्तुपाल स्तुहि ॥५७॥ अपरस्तु- २९५ सूरो रणेपु चरणप्रणतेषु सोमो, वक्रोऽतिनकचरितेषु युधोऽयवोधे । नीती गुरु कपिजने कविरक्रियासु, मन्दोऽपि च 'ग्रहमयो नहि वस्तुपाल ॥ ५८॥ अन्यस्तु- २९६ श्रीमोजवदनाम्मोजपियोगविधुर मन । श्रीवस्तुपाल्वक्वेन्दौ विनोदयति भारती ॥ ५९॥ इतरस्तु- २९७ श्रीनामाम्बुजमानन परिणत पयागुलिच्छमतो, जग्मुर्दक्षिणपञ्चशारामयता पयापि देवट्ठमा । 30 पान्छापरणकारण प्रणयिना जिहैव चिन्तामणि, आता यस किमस शस्यमपर श्रीवस्तुपालस्य तत् ॥६॥ सर्वत्र लक्षदानम् । अष्टाहिकाया गतायां मपभदेव गद्गढोक्त्या मन्त्री आपृच्छत"- 1PM मम्। . P पुमो प्रक्षिसाया ते पाग । AP प्रमयनि । 3 PY मातिा Pमा। SPI GPपत्रिपत। Aति। 8P .प्यानदान । विग्रहमयो। 10Pमराज 20 25 Page 135**************************************************************************************** ११६ प्रवन्धकोशे २९८. त्वत्प्रासादकृते नीडे वसन् शृण्वन् गुणांस्तव । सङ्घदर्शनतुष्टात्मा भूयासं विहगोऽप्यहम् ॥ ६१ ॥ २९९. यद्दाये द्यूतकारस्य यत्प्रियायां वियोगिनः । यद्राधावेधिनो लक्ष्ये तद् ध्यानं मेऽस्तु ते मते ॥ ६२ ॥ इत्याद्यकवत् । एवं सङ्घोऽपि चलितः । ससङ्घः सचिवः मरुदेवाशिखरादने यावत् कियदपि याति, तावत् श्रमवशविगलत्खेदक्लिन्नगात्रवसनान् कत्यपि मालिकान् पुष्पकरण्डकभारितशिर- 5 लोऽपश्यत्। पृष्टास्ते-कथमुत्सुका इव यूयम् ? । तैर्विज्ञप्तम्-देव ! वयं दूरात् पुष्पाण्याहामः। सङ्घः किल शत्रुञ्जयशिखरेऽस्ति; प्रकृष्टं मूल्यं लप्स्यामहे । तत्पुनरन्यथा जातम् । सङ्घश्वलितः। तस्मादभाग्या वयमिति । तेषां दैन्यं दृष्ट्वा मन्त्रिणाऽभाणि-अत्रैव स्थीयतामूःक्षणम् । तावता पाश्चात्यं सर्वमप्यायातम् । श्रीवस्तुपालेन स्वकुटुम्ब सङ्घश्चाभाण्येताम् । यथा-भो धन्याः ! सर्वेषां पूर्णस्तीर्थवन्दनापूजाभिलापः ? । लोकेनोक्तम्-[भवत्प्रसादात् ] पूर्णः । मन्त्र्याह-किमपि 10 तीर्थमपूजितं स्थितम् [ अस्ति ] ? लोकः प्राह-प्रत्येकं सर्वाणि तीर्थानि पूजितानि ध्यातानि । मन्त्रिमहेन्द्रः प्राह-यद्विस्मृतं तन्न जानीथ यूयम् , वयं स्मारयामः । सङ्घो वदति-किं विस्मृतम् ? । [तत्कथयन्तु*] मन्त्री गदति-भो लोकाः ! पूर्व तीर्थमयं पर्वतः । यत्र स्वयमृषभदेवः समवासा- षीत् । ततो नेमिवर्जिता द्वाविंशतिर्जिनाः समवासार्पः। असङ्ख्याः सिद्धाश्च यत्र।सोऽद्रिः कथं न तीर्थम् ।लोकोऽप्याह-सत्यं तीर्थमयं पर्वतः तर्हि पूज्यताम् । पुष्पादीनि केति चेत् [अकथयिष्यन् 15 तदा*] इसे मालिका इमानि पुष्पाणि वः पुण्यैरुपास्थिपतेति । ततः सङ्घन तानि पुष्पाणि गृही- त्वाऽद्रिपूजा कृता । [ द्रम्मेण पुष्पं जातम् ] नालिकेरास्फालन-वस्त्रदानादिकेलयश्च । तुष्टा मालिकाः । एवं पराशाभङ्गपराङ्मुखः आसराजभूः। ___६१४०) [तता* ] शनैः शनैः पशु-तुरङ्ग-शिश्वाद्यपीडया सङ्घो रैवतकमारुरोह च । नेमिनि दृष्टे मन्त्री ननत्त, पपाठ च आनन्दाश्रुनिझरिताक्ष:- ___ 20 ३००. कल्पद्रुमस्तरुरसौ तरवस्तथाऽन्ये, चिन्तामणिमणिरसौ मणयस्तथाऽन्ये । धिग् जातिमेव ददृशे वत यत्र नेमिः, श्रीरैवते स दिवसो दिवसास्तथाऽन्ये ॥ ६३ ॥ ३०१. अभङ्गवैराग्यतरङ्गरङ्गे, चित्ते त्वदीये यदुवंशरत्न!। कथं कृशाङ्गयोऽपि हि मान्तु हन्त, यस्मादनङ्गोऽपि पदं न लेभे ॥ ६४ ॥ तत्राऽप्यष्टाहिकादिविधिः प्रागिव । नाभेयभवनकल्याणत्रय-गजेन्द्रपदकुण्डान्तिकप्रासाद-अ- 25 म्बिका-शाम्ब-प्रद्युम्नशिखरतोरणादिकीर्तनदर्शनैर्मन्त्री सङ्घश्व नयनयोः स्वादुफलमार्पिपताम् । आरात्रिकेऽर्थिनां ससम्भ्रमं मन्त्रिमध्ये झम्पापनं दृष्ट्वा श्रीसोमेश्वरश्वकवे- ३०२. इच्छासिद्धिसमन्विते सुरगणे कल्पद्रुमैः स्थीयते, पाताले पवमानभोजनजने कष्टं प्रणष्टो बलिः । ___नीरागानगमन् मुनीन् सुरभयश्चिन्तामणिः क्वाप्यगात्, तस्मादर्थिकदर्थनां विषहतां श्रीवस्तुपालः क्षितौ ॥६५॥ लक्षः सपादोऽस्य दत्तौ मन्त्रिणः । दानमण्डपिकायां निषण्णो निरर्गलं [दानं ] ददद् एवं 30 स्तुतः केनापि [कविना*]- ३०३. पीयूषादपि पेशलाः शशधरज्योत्स्नाकलापादपि, स्वस्था नूतनचूतमञ्जरिभरादप्युल्लसत्सौरभाः । वाग्देवीमुखसामसूक्तविशदोगारादपि प्राञ्जलाः, केषां न प्रथयन्ति चेतसि मुदं श्रीवस्तुपालोक्तयः ॥६६॥ 12 इत्याद्यकथयत् ; A इत्यायेकवत्; V इत्याद्यपठत् । 2 V वृत्तम्। 3P आभाण्यताम् । 4 P त्रयोविंशतिः । 5P संघस्स। 6 A झम्पापतनं । 7 A सोमेश्वरस्य कवे; P सोमेश्वरकविः प्राह। 8 P समुन्नते । Page 136**************************************************************************************** ११७ वस्तुपालप्रवन्धः । ३०४ वस्तुपाल । तव पर्वशर्वरीगवितेन्दुकरजित्वर यश । क्षीरनीरनिधिवासस. क्षितेरुवरीयतुलनां विगाहते ॥ ६७॥ ___ एवं भावं सम्पूर्य देवोत्तमं श्रीनेमिनाथमापृच्छय सर्वास्तीर्थचिन्ताः'कृताः। निर्माल्यपदं दत्त्वा पर्वतादुदतारीत्, न सतां हृदयात् नापि महत्त्वात् । ६१४१) अथ खट्नारदुर्गादि-देवपत्तनादिपु देवान् ववन्दे । तेजापालं खगारदुर्गे स्थापयित्वा स्वय 5 ससङ्घो वस्तुपालः श्रीधवलकके श्रीवीरधवलमगमत् । स्वागतप्रश्नः स्वामिना कृतः। आरम्भ- सिद्धिप्रश्नश्च । ततो मन्याह- ३०५ काम खामिप्रसादेन प्रेष्याः कर्मसु कर्मठा । तद् वैभव बृहद्भानो. कचिदूष्मा जलेऽपि यत् ॥ ६८॥ राणकेन ससवः सचिवः स्वसदने भोजिता, परिचापित्ता, स्तुतश्च । तेजापालस्तु' खड्गारदुर्गस्यो भूमिं विलोक्य तेजलपुरममण्डयत् सत्रारामपुरमपाजिनगृहादि-10 रम्यम् । प्राकारश्च तेजलपुर परितः कारितः पापाणबद्धस्तुगः।। ६१४२) अथ वस्तुपाला श्रीवीरधवलपार्चे सेवां विधत्ते । देशः सुस्था। धर्मो वर्तते । एवं सत्ये- कदा ढिल्लीनगरादेत्य चरपुरुः श्रीवस्तुपालो विज्ञप्तः-देव! ढिल्लीतः श्रीमोजदीनसुरत्राणस्य सैन्यं पश्चिमां दिशमुद्दिश्य चलितम् । चत्वारि प्रयाणानि व्यूढम् । तस्मात्सावधानः स्थेयम् । मन्ये अर्बुददिशा गूर्जरधरां मवेष्टा । मत्रिणा सत्कृत्य ते चरा राणपाच नीताः। कथापितः स प्रवन्धः। 15 ततो राणकेनाभाणि-वस्तुपाल ! म्लेच्छैगईभिल्लो गईभीविद्यासिद्धोऽप्यभिभूतः । नित्यं सूर्यवि- म्वनियंत्तुरङ्गमकृतराजपाटीका शिलादित्योऽपि पीडितः । सप्तशतयोजनभूनाथो जयन्तचन्द्रोऽपि क्षयं नीतः। विशतिवारबद्धरुद्ध सहावदीनमुरत्राणमोक्ता प्रथिवीराजोऽपिबद्धः। तस्माद दज्जया अमी। किं कर्ताऽसि । वस्तुपाल उवाच-स्वामिन् ! प्रेपय माम् , यदुचितं तत्करिष्यामि । ततः सारावलक्षेण सह चलितो मन्त्री तृतीये प्रयाणे 'महणदेवी कर्पूरादिमहापूजापूर्व सस्सार । सा 20 तद्भाग्यात्प्रत्यक्षीभूयोवाच-वत्सक ! मा भैपीः । अर्बुदगिरिदिशा यवनाः प्रवेक्ष्यन्ति । तव देशं यदाऽमी प्रविशन्ति तदैव'तलंधिता घटिकाःस्वराजन्य रोधयेथाः। तेऽय*] यत्रावासान् गृह्णन्ति, तत्र स्थिरचित्तः ससैन्यो युद्धाय सरभसं ढौकेथाः। जयश्रीस्तव करपङ्कजे एव । इदं श्रुत्वा धारावपोयाबुदगिरिनायकाय खसेवकाय नरान् प्रेपयत । अकथापयच-म्लेच्छसैन्यमवंदमध्ये भूत्वा आजिगमिपदास्ते । त्वमेतानागच्छतो मुस्त्वा पश्चाद् घहिका रन्ध्याः । तेन तथैव कृतम् 125 प्रविष्टा यवनाः। यावदावासान् ग्रहीप्यन्ति तावत्पतितो वस्तुपालः कालः। इन्यन्ते यवनाः। उच्चलितो चुम्यारयः। केचिद्दन्तान्तर अगुली गृह्णन्ति, अपरे तु तोयां कुर्वन्ति । तथापि न छुटन्ति। एवं तान् हत्वा तच्छीपलक्षः शकटानि भृत्वा धवलफमेत्य मश्री स्वस्वामिनं प्रत्यद- र्शयत् । श्लाधितश्च तेनायम् । ३०६ नपान तनुपे न" यासि निकट नोचैर्वहस्यानन, दोनोल्लिखसि वितिं खरपुटै नजया वीक्ष्यसे। 30 किन्तु व वसुधातलैकवरल ! स्कन्धाधिरूढे मरे, तीर्थान्युञ्चतटीविटङ्कषिपमाण्युलहयन् लक्ष्यसे ।। ६९ ॥ 1P सर्वामा सीषिन्तावाम् । 2 सेपाटो.पि। 3 P अधुंदमप्ये भूरवा। 4P पद्धसहापदर्शन. 5 B महणा, Pमाण। GA देवपिता । 7 PB '' नाति। न तु। 9 AB'प्रनि' नाति। 10A ध्यानवमी । Page 137**************************************************************************************** ११८ प्रवन्धकोशे ततः परिधापितः । विसृष्टः स्वगृहाय । तत्र मङ्गलकरणाय लोकागमः। द्रम्मेण पुष्पं लभ्यते । [तदवसरेऽपि ] । एवं पुष्पस्रग्व्ययो लोकैः कृतः। ६१४३) इतश्च नागपुरे साधुदेहासुतः सा० पूनडः श्रीमोजदीनमुरबाणपत्नीवीवी'प्रतिपन्न- वान्धवो अश्वपति-गजपति-नरपतिमान्यो विजयते । तेन प्रथमं श्रीशत्रुञ्जये यात्रा त्रिसप्तत्य- 5धिकद्वादशशतव (१२७३) चम्बेरपुरात् विहिता । द्वितीया सुरत्राणादेशात् पडशीत्यधिके द्वादशशतसङ्ख्ये (१२८६) व नागपुरात्कर्तुमारब्धा । [तत्सद्दे] अष्टादशशतानि शकटानि, वहवो महाधराः। तदनुसारेण शेपः परिवारः । कुमारनेना सहिता माण्डलिपुर याव- दायातः[ससङ्घः ] । ततः सम्मुखमागत्य महन्तकतेजःपालेन' धवलककमानीतः। श्रीवस्तु- पालः सम्मुखमागात् । सङ्घस्य धूली पवनानुकूल्याद् यां यां दिशमनुधावति, तत्र तत्र सं 10 गच्छति। तटस्थैर्भणितम्-मन्त्रीश! इतो रजः, इतो रजः । इतः पादोऽवधार्यताम् । ततः सचि- वेन बभणे-इदं रजः स्प्रष्टुं पुण्यैलभ्यते । अनेन रजसा स्पृष्टेन "पापरजांसि दुरे नश्यन्ति । यतः- ३०७. श्रीतीर्थपान्थरजसा विरजीभवन्ति, तीर्थेषु वम्भ्रमवतो न भवे भ्रमन्ति । द्रव्यव्ययादिह नराः स्थिरसम्पदः स्युः, पूज्या भवन्ति जगदीशमधार्चयन्तः ॥ ७० ॥ ततः सङ्घपतिपूनड-मन्त्रिणोर्गाढमालिङ्गन-प्रियालापौ संवृत्तौ । सरस्तीरे स्थितः सङ्घः" । 15 पूनडः कुलगुरुमलधारिश्रीनरचन्द्रसूरिपादान् ववन्दे । रात्री श्रीवस्तुपालेन कथापितं पूनडाय पुण्यात्मने-प्रातः सर्वसङ्घनास्मद्रसवत्यतिथिना युष्मता च भवितव्यम् । धूमो न कार्यः खावा- सेषु । पूनडेन तथेति "प्रतिपन्नम् । रात्री मण्डपो द्विद्वारो रसवतीप्रकाराश्च सर्व निष्पन्नम् । [भोजनमण्डपे ] प्रातरायान्ति नागपुरीयाः। सर्वेपां चरणक्षालनं तिलकरचनां च श्रीवस्तुपाल: स्वहस्तेन करोति। एवं लग्ना द्विप्रहरी । मन्त्री तु तथैवानिर्विण्णः। तदा तेजःपालेन विज्ञप्तम्- 20 अन्यैरपि देव! वयं सङ्घपदप्रक्षालनादि करिष्यामः, भुंग्ध्वम् , तापो भावी इति। "मनिनरेन्द्रे- __णोक्तम्-मैवं वदत" । पुण्यैरयमवसरो लभ्यते । गुरुभिरपि कथापितम्- ३०८. यस्मिन् कुले यः पुरुषः प्रधानः, स एव यत्नेन हि रक्षणीयः । तस्मिन् विनष्टे हि कुलं विनष्टं, न नाभिभङ्गे त्वरका वहन्ति ॥ ७१ ॥ तस्माद् भोक्तव्यं भवद्भिः, तापो मा भूद्" । मन्त्रिणा पत्री गुरुभ्यः प्रैषि, तत्र काव्यम्- 25 ३०९, अद्य मे फलवती पितुराशा, मातुराशिषि शिखाऽङ्कुरिताऽद्य ।। यद् युगादिजिनयात्रिकलोकं, पूजयाम्यहमशेषमखिन्नः ॥ ७२॥ भोजयता मन्त्रिणा नागपुरीयाणामेकपतित्वं दृष्ट्वा शिरो धूनितम् । अहो ! शुद्धा लोका एते । ___ 1 P वीवी प्रेमकमला; V बीवी हरा०। 2 P विक्रमात् १२७२ वर्षे । 3 A वरसरे; BED वच्छरे; V वंध्वेर०; P विम्बेरपुरात् कृता। *P पुस्तक एव कोष्टकगताः पाठाः लभ्यन्ते। 4 BED कुमारतेना ! 11 P पुस्तके नास्तीदं वाक्यम् । 5 P मांडलिग्रामासन्नो । 6 P तावत् । '7 P तेजःपालमत्रिणा। 8 AB नास्ति 'स'। 9 P तटस्थैर्नरैः। 10 A वृजिनः । + P विहायान्यन नोपलभ्यते पद्यमिदम् । 11 AB नास्ति 'संघः'। 1 P नास्ति वाक्यमिदम् । 12 V आदर्श एव लभ्यते पदमिदम् । "P पुस्तके 'सर्वसद्धेनासदावासे भोक्तव्यम्' V सर्वसंधेन भवता युप्मता चासद्सव०। 13 AB तथेत्याइतम् । 8 P देव अन्यैरपि संघभक्तिः कारयिष्यते । 14 P 'मन्त्री भणति' इत्येव। 15 P वादीः। 16 P नास्ति । $P मन्त्रिणा गुरून् प्रति पुनरिदं काव्यं प्रहितम् । Page 138**************************************************************************************** वस्तुपालप्रवन्धः । ११९ एवं मोजयित्वा परिधाप्य च रजितो नागपुरसङ्घः । गतौ वस्तुपाल-पूनडौ श्रीशत्रुक्षयं ससङ्घौ। वन्दितः श्रीकपभः। एकदालाने सति देवार्चको देवस्य नासां पिधत्ते पुष्पैः, किल कलशेन नासा मा पीडीदित्याशयतः। तदा मन्त्रिणा चिन्तितम्-कदाचिद् 'दैवाद् देवाधिदेवस्य कलशादिना परचक्रेण वाऽवक्तव्यममङ्गलं भवेत् तदा का गतिः सङ्घस्य । इति चिन्तयित्वा पूनड आलेपे- भ्रातः! सङ्कल्पोऽयमेवं मे संवृत्तः। यदि विम्बान्तरमस्य मम्माणीमयं क्रियते तदा सुन्दरम् । 5 तत्तु सुरत्राणमोजदीनमित्रे त्वयि यतमाने स्यान्नान्यथा । पूनडेनोक्तम्-ततः गतैश्चिन्तयिष्य. तेऽदः । इत्यादि वदन्ती रैवतादितीर्थान् वन्दित्वा व्यावृत्तौ तौ । गतः पूनडो नागपुरम् । मन्त्री धवलक्कके राज्यं शास्ति ।। ६१४४) एव स्थितेऽन्येद्यः सुरत्राणमोजदीनमाता वृद्धा हजयात्रार्थिनी स्तम्भपुरमागता । नौ- वित्तगृहेऽतिथित्वेनास्यात् । सा समागता सचिवेन चरेभ्यो जाता । चराः प्रोक्ताः श्रीमन्त्रिणा-रे 110 यदा इयं जलपथेन याति तदा मे ज्ञाप्या। गच्छन्ती ज्ञापिता तैः । मन्त्रिणा निजकोलिकान् प्रेष्य तस्याः सर्व कोटीम्यकस्यं वस्तु ग्राहितम् । सुष्टु रक्षापितं च कचित् । तदा नौवित्तः पूत्कृत उप- मश्रि-देव ! जरत्येकाऽस्मद्यूथ्या हजयात्रायै गच्छन्ती त्वत्पद्रे तस्करैलण्ठिता । मन्त्रिणा पृष्टम्- का साजरती? तैरुक्तम्-देव! कि पृच्छसि,सा मोजदीनसुरत्राणमाता पूज्यामा भणित मायया-अरे! वस्तु विलोकयत विलोकयत। [दिनद्वयं विलम्व्य*] आनीयार्पितं सर्वम् । जरती तु15 स्वगृहे आनिन्ये । विविधा भक्तिः क्रियते । पृष्टा च-किं हजयात्रेच्छा कः । तयोक्तम्-ओमिति । तर्हि दिनकतिपयान् प्रतीक्षध्वम् । प्रतीक्षां चक्रे सा। तावताऽऽरासणाश्मीयं तोरणं घटापितम्। [आनायितं च*] मेलयित्वा विलोकितम् । पुनर्विघटितम् । रूतेन बद्धम् । सूत्रधाराः सह प्रगुणिताः, मन्त्रिता मत्रिणश्च । मार्गश्चान्तरे त्रिविधोऽस्ति । एको जलमार्गः, अपरः करभगम्यः, इतरश्च अश्वलयः। यत्र ये राजानः, योऽध्वा यथोल्लयते तथा सूत्रं कृतम् । राज्ञां उपदायै द्रव्याणि20 प्रगुणीकृतानि । एवं सामठ्या स्वयं सह भूत्वा ] सा प्रहिता । तत्र रचितं तोरणं 'मसीतिद्वारे। तत्र दीपतैलादिपूजाचिन्ता तद्राजपार्धात् शाश्वती कारिता । दत्तं भूरि भूरि तत्र । उदभूद् भूरि यशः। [ श्रीनाभेयपादुकास्थाने महामण्डपश्च तत्र। परमार्थतस्तीर्थमिदं श्रीकपभपादुकामय याहुबलिना कृतम् । ततो व्यावृत्ता जरती । आनीता स्तम्भपुरम् । पुरप्रवेशमहः कारितः। स्वयं तदंहिक्षालनं" चक्रीवं भक्त्या दिनदशक स्थापिता [स्वगृहे*]। तावता धवलकिशोरशतपञ्चकं 25 अन्यदपि दुकूलगन्धराजकपूरादि गृहीतम् । वृद्धा मोक्ता-मातश्चलसि"। "यद्यादिशसि तत्र मान च दापयसि तदाऽहमप्यागच्छामि [तव सम्मेपणार्थम् ] । तया भणितम्-तत्रारमेय प्रभुः । खैरमेहि । पूजा ते तत्र [बहुतरी* ]। श्रीवीरधवलानुमत्या चलितो मन्त्रिमहेन्द्रः । गतो दिल्लीतटम् । राजमातृवचनात् क्रोशद्वये [ऽग्*ि ] तस्यौ । सुरत्राणः सम्मुसमागान्मातुः। माता प्रणता पृष्टा च सुसयात्राम् । जरत्या प्रोक्तम्-कथ न मे भद्रम् । यस्या दिहयांत्व 50 पुत्रः, गून्नरघरायां तु वस्तुपालः । राजा पृष्टम्-कोऽसौ ? । जरत्या वृत्तान्तः प्रोक्तस्तद्विन- 1P नासो : 'देयान् नामि। 3 भरममम्माणी। विद्वान्तर्गना पत्तपः V भादरों नोपलभ्यन्ते सपंथा; सम्पाने 'मापदयात्' एयेय याश्यांगोप्स्यते । : P नामतीर्थ। 5 P सपा शवम् । गच्छन्नी शापिता। GAB मोर दीमाता। 7P आरामणे मापपीय । 8AP नानि 'मणि'पसेपका । A मशीनि। Vादरा प्येपा प. माध्यरे । 10P प्रका। 11 AB क्षारने। 12A पगमि। 13 AB पपा। 14 AP पल्पते । Page 139**************************************************************************************** १२० प्रवन्धकोशे यख्यातिगर्भः। राजाह-स किमिति नानानीतः। वृद्धाह-आनीतोऽस्ति । दृश्यतां तर्हि ?। अश्ववारान् प्रहित्य आनाय्य दर्शितो वस्तुपालः। दत्तोपदा [ मन्त्रिणा*] । आलापितश्च राज्ञा- [मात्रा मदधिकस्त्वं पुत्रो मतः । तेन मम बान्धवस्त्वम् ] अस्मन्माता त्वां स्तौति । [ एवं लुखवार्ती कृत्वा महतोत्सवेन स्वमातुरग्रेसरः कृत्वा श्रीवस्तुपालो ढिल्लीपुरं नीतः। आवासितश्च 5साधुपूनडस्यावासे । स्वमुखेन सुरत्राणेन निमत्र्य साधुपूनडसदने भोजयित्वा निजधवलगृहे आकारितः सचिवेन्द्रः । सविनयं सत्कृत्य परिधापितः। सुवर्णकोटिमेकां प्रसादपदे दत्त्वा उक्तश्चेति -] किञ्चिद्याचस्व । [येन वस्तुना प्रयोजनं तद्वद।] वस्तुपालेनाभिहितम्-देव ! गूजरधरया सह देवस्य यावज्जीवं सन्धिः स्तात् । उपलपञ्चकं मम्माणीखनीतो दापय । राज्ञा मतं तत् । [दत्ता धीरा*] फलहीपञ्चकं तु [नृपादेशात् ] पूनडेन प्रेपितं शत्रुचयाद्रौ । 10 तत्रैका ऋषभफलही। द्वितीया पुण्डरीकफलही। तृतीया कपर्दिनः । चतुर्थी चक्रेश्वर्याः । पञ्चमी तेजलपुर [प्रासाद"] पार्श्वफलही। [चलितः पश्चात् ] मन्त्रीश्वरः स्वपुरं गतः। प्रणतः स्वस्वामी तेन चिरदर्शनोत्कण्ठाविह्वलेन'। पूर्वमपि कर्णाकर्णिकया श्रुतं दिल्लीगमनवृत्तान्तम् । [पुन: सविशेष ] मन्त्रिणं पप्रच्छ । सोऽपि निरवशेषमगर्वपरः प्राचख्यौं । तुष्टो वीरधवलः। दत्ता दशलक्षी हेम्नां प्रसादेन । सा तु गृहादागेव दत्ता [बहुमिलितयाचकेभ्यः। मिलितो*] ___ 15 मन्निगृहे सर्वोऽपि*] लोकः। [स] सत्कृत्य प्रेषितः। कवयस्तु पठन्ति- ३१०. श्रीमन्ति दृष्ट्वा द्विजराजमेकं, पद्मानि सङ्कोचमहो भजन्ति ।। समागतेऽपि द्विजराजलक्षे, सदा विकासी तव पाणिपद्मः ॥ ७३ ॥ ३११. उच्चाटने विद्विषतां रमाणामाकर्षणे स्वामिहदश्च वश्ये । एकोऽपि मनीश्वरवस्तुपाल ! सिद्धस्तव स्फूर्तिमियर्ति मन्त्रः ।। ७४ ॥ ___ 20 एवं स्तूयमान उत्तमत्वाल्लजमानो वस्तुपालोऽधो विलोकयामास । ततो महानगरवासिना नानाककविना भणितम्- ३१२. एकस्त्वं भुवनोपकारक इति श्रुत्वा सतां जल्पितम् , लज्जानम्रशिराः स्थिरातलमिदं यद्वीक्षसे वेभि तत् । वाग्देवीवदनारविन्दतिलक! श्रीवस्तुपाल ! ध्रुवम् , पातालालिमुद्दिधीर्घरसकृन्मार्ग भवान् मार्गति ॥७॥ तदैव कृष्णनगरीयकविकमलादित्येन भङ्गयन्तरमुक्तम्- 25 ३१३. लक्ष्मी चलां त्यागफलां चकार यां", सार्थिश्रिता कीर्तिमसूत नन्दिनीम् । साऽपीच्छया क्रीडति विष्टपाग्रत,-स्तत्तियाऽसौ त्रपते यतो महान् ॥ ७६ ॥ [तेषां कवीनां भूरि दानं दत्तम् ।] ६१४५) अथ कदाचन मन्त्रिणा श्रुतं यथा-रैवतकासन्नं गच्छतां लोकानां पार्श्वतो भरटकाः पूर्वनरेन्द्रदत्तं करसुद्ग्राहयन्ति । पोट्टलकेभ्यः कणलाणकमेकं १, कूपकात्कर्षः १-एवं उपद्रूयते 30 लोकः । तत आयतिदर्शिना सचिवेन ते भरटकाः कुहाडीनामानं ग्राम दत्त्वा तं करमुद- ग्राहयन्तो निपिद्धाः। 1 V किमानीतो न। 2 V दश्यतां । 3 VB वारं। * एते कोष्ठकगताः सर्वेऽपि पाठा: P पुस्तक एव उपलभ्यन्ते । SV आदर्शऽधिकं वाक्यमिदम् । 4 P नास्ति 'तु'। 5A प्रैपि। 6P पुरे श्रीपार्श्व०। 7 A. विलेन। 8.P प्राचख्यौ। 9 P प्रसादपदे। 10 VB .वासिनानकविना। 11 P 'या' नास्ति। 12 AB नन्दनीम् । 13 P पोट्टलि० । Page 140**************************************************************************************** वस्तुपालप्रवन्धः। १२१ ___ अङ्केवालियाख्यो ग्रामस्तु ऋपभ-नेमियात्रिकाणां क्षीणधनानां खगृहाप्तियोग्यपाथेयद्रम्मपदे दत्तः । शत्रुञ्जय रैवतकतलहट्टिका नगरयोः सुखासनानि कृत्वा मुक्तानि, अन्धज्वरितादीनां यात्रिकाणां तीर्थारोहणार्थम् । तदुत्पाटकनराणां तु ग्रासपदे शालिक्षेत्राणि प्रतिष्ठितानि ।। तीर्थेषु सर्वेषु देवेभ्यो रत्नखचितानि हैमभूपणानि [कारितानि*] । विदेशायातसूरिशुश्रूपार्थ सर्वदेशग्रामण्यो नियुक्ताः। तिथा महातीर्थभूमी नवीनखीयजिनप्रासादान्, पुरे पुरे ग्रामे ग्रामे च 5 पुनर्जिनप्रासादान प्रारम्भयामास । लौकिकतीर्थकरणमपि स्वस्खामिरञ्जनार्थं चकार, न भक्त्या [स्त्रयं तु* ] सम्यग्दृष्टित्वात् । [एव तस्योपकाराः कियन्त्यु(न्त उ-?)च्यन्ते विवेकशिरोमणेः*] । ६१४६) एकदा मन्त्री स्तम्भ[तीर्थ*]पुरं गतो धवलककात् । तत्र [समुद्रतीरे*] यानपात्रात्तुरङ्गा उत्तरन्तः सन्ति । तदा सोमेश्वरः कवीन्द्र आसन्नवती । मन्त्रिणा समस्या पृष्टा- ३१४ प्रावृट्काले पयोराशिरासीद् गर्जितवर्जितः । सोमेश्वरः पूरयति' स- अन्त सुप्तजगन्नाथनिद्रामङ्गमयादिव ॥ ७७॥ तुरङ्गमपोडशकमुचितदाने[ऽत्र दत्तम् ]। पुनः कदाचिन्मत्रिणोक्तम्- काक किं वा क्रमेलक । सोमेश्वरेण पूरितं पद्यम्- 15 ३१५ येनागच्छन्ममाख्यातो येनानीतश्च मत्पति । प्रथम सखि ! क पूज्य. काक. किं वा क्रमेलक १ ॥ ७८ ॥ अत्रापि पोडशसहस्रा द्रम्माणां दत्तिः। एवं लीलास्तस्य । ६१४७) एकदा वृद्धेभ्यः 'श्रुतमैतिह्यम् । यथा-प्राग्वाट्वंशे श्रीविमलो दण्डनायको नेढ-चाहि- लयोोताऽभवत्। स चिरमर्बुदाधिपत्यमभुनक, गूर्जरेश्वरप्रसत्तेः। तस्य विमलस्य विमलमतेा- छाद्वयमभूत् । पुत्रवाञ्छा प्रासादवाञ्छा च । तत्सिद्ध्यै [स्वगोत्रदेवी] "अम्बामुपवासनये-20 णारराघ। प्रत्यक्षीभूय सा प्राह-वत्स! वाञ्छां ब्रूहि । विमलो जगौ-पुत्रेच्छा प्रासादनिष्प- तीच्छा चाबुंदशृङ्गे मे वर्तते । अम्बया प्रोक्तम्-द्वे प्राप्ती न स्तः। एकां ब्रूहि । ततो [भार्या- श्रीदेव्या वचसा] विमलेन संसारवृद्धिमात्रफलामसारां पुत्रेच्छां मुक्त्वा प्रासादेच्छैव सफली- कर्तुमिष्टा । अम्बयोक्तम् -सेत्स्यति तवेयम् । परं क्षणं प्रतीक्षख । यावताऽहं गिरिवराव॑दाधि- छान्याः सख्या श्रीमातुर्मत" गृह्णामि । [इत्युक्त्वा गता देवी, तावद्] विमलो ध्यानेन तस्थौ ।25 श्रीमातृमत लात्वा देव्यायाता," अभाणीच- __३१६ पुष्पस्रग्दामरुचिर दृष्ट्वा गोमयगोमुखम् । प्रासादाहीं भुव विन्द्या. श्रीमातुर्भवनान्तिके ॥ ७९ ॥ तत्तथैव दृष्ट्वा चम्पकद्रुमसन्निधौ तीर्थमस्थापयत्" । पैत्तलप्रतिमा तत्र महती। विक्रमादि- त्यात् सहस्रोपरि वाणामटाशीती गतायां चतुभिः सूरिभिरादिनाथं प्रत्यतिष्ठिपत् । 'विमलव- सतिः' इति प्रासादस्य नाम [दत्तम्*] । तस्मिन् दृष्टे जन्मफल" लभ्यते। 1 A आकवालिया। 2 AB रैवतोपत्यका०। 3 AB तयुग्यनराणा। एतदन्तर्गता पक्ति V आदर्श एव विद्यते । 4 V विहाय नास्त्यन्यत्र पदमिदम्। 5 AB आसन्न । 6P राशि कस्माद् । 7P प्राह । 8 P श्रुतमेवविधम्। 9 BV नेढ०, PV वाहिर। 10 P 'दण्डनायकोऽभवत्' इत्येव पाठ । 11 P भम्बिका। 12 V अम्मया प्रोक्तम्। 13 v •मानुरनुमत । 14 V •मत नीत्वा अम्पायाता। 15 ABD तत्तथा। 16 BD अवास्थापयत्, A अवस्थापयत्। 17 P जन्म सपल कथ्यते । 30 १६ प्र. को. Page 141**************************************************************************************** १२२ प्रवन्धकोशे एतत्कथाश्रवणान्मन्त्री दध्यौ-वयं चत्वारो भ्रातरोऽभूम । [तन्मध्ये*] द्वौ स्तः। द्वौ तु मालदेव-लूणिगावल्पवयसौ दिवमगाताम् । मालदेवनान्ना कीर्तनानि प्रागपि अकारिपत किय- न्त्यपि । लूणिगश्रेयसे तु लूणिगवसतिरवुदे काराप्या । एतत्तेजःपालाय प्रकाशितम् । तेन विनी- तेन सुतरां मेने। 5 ६१४८) अथ तेजःपालो धवलक्ककादर्बुदगिरिभूपणां चन्द्रावतीं पुरी गत्वा धारावर्पराणकगृह- मगात् । तेनात्यर्थं पूजितः, किं कार्यम् ?, आदिश्यतामित्युक्तं च । मन्त्रिणोक्तम्-अर्बुद शिखराने प्रासादं कारयामहे । यदि यूयं साहाय्याः स्यात । धारावण भणितम्-तव सेवकोऽस्मि । अहं स- र्वकार्येषु धुरि योज्यः। ततो राष्ट्रिक-गौग्गलिकादयो महादानैर्वशीकृतास्तथा, यथा निष्पत्स्यमानं चैत्यं करैर्न भारयन्तिा। 'दानेन भूतानि वशीभवन्ति' [इति वचनात् । ततश्चन्द्रावतीमहाज- 10 नमुख्यं श्रावकं चाम्पलनामानं गृहे गत्वाऽऽललाप-वयं चैत्यमवुदे कारयामहे, यदि पूजासान्निध्यं कुरुध्वे । 'चाम्पलेनापि खस्य कुटुम्बान्तराणामपि देवपूजार्थ नित्यधनचिन्ता कृता । ततो मन्त्री आरासणं गत्वा चैत्यनिष्पत्तियोग्यं दलवाटकं निष्काशयत् । तद युग्यै रहकलैश्चार्बुदोपत्यकामा- नीनयत् । अर्द्धक्रोशार्द्धक्रोशान्तरे हट्टानि [मण्डापितानि तत्र ] सर्व लभ्यते । पशूनां नराणां क्षुधादि कृच्छ्रेमा भूदिति [कारणात् ]। 'उम्बरिणीपथेन प्रासादनिष्पत्तियोग्यं दलं द्विगुणमुपरि 15 गिरेः प्रवेशयामास । पुनस्तां पद्यां विषमां चकार यथा परचक्रस्य प्रवेशो नो भवेत्। एवं सिद्धे पूर्वकर्मणि, शोभनदेवं सूत्रधारमाह्वय कर्मस्थाये" न्ययुङ्ग । ऊदलाख्यं "शालमुपरिस्थायिनमक- रोत्। अर्थव्यये स्वरितां च समादिशत् । एवं सूत्रं कृत्वा तेजःपालो धवलककमागमत् । निष्पद्यते प्रासादः। श्रीनेमिविम्वं कषोपलमयं "घट्यते। सूत्रधाराणां सप्तशती घटयति घाटम् । ते तु दुःशीलाः पुरःपुरोऽथ गृह्णन्ति । कार्यकाले पुनः पुनर्याचन्ते । तत ऊदलो मन्त्रितेजःपालाय 20 लिखति-देव ! द्रम्मा विनश्यन्ति । सूत्रधाराः कर्मस्थायात् प्रथमं प्रथमं गृह्णन्ति । ततस्तेज:- पालेन कथापितम्-द्रम्मा विनष्टा इति किं ब्रूषे ? । विनष्टाः किं कुथिताः ? । न तावत् कुथिताः, किन्तु मनुष्याणामुपकृताः। उपकृताश्चेद्विनष्टाः कथं [कथ्यन्ते ]? | माता मे वन्ध्येति वाक्यव- स्परस्परं विरुद्धं ब्रूषे । तस्मात् तत्त्वमिदम्-सूत्रधाराणामिच्छाछेदो न कार्यः, देयमेवेति । ततो दत्ते ऊदल तावन्निष्पन्नं यावद् गर्भगृहम् , मध्ये श्रीनेमिनाथविम्बं स्थापितम् । एतच्च कृतंश्रीतेज:- 25 पालाय विज्ञप्तम् । तुष्टौ द्वौ मन्त्रिणौ । श्रीवस्तुपालादेशात् तेजःपालोऽनुपमया सहानल्पपरिच्छे- दोर्बुदगिरि प्राप्तः। प्रासादं निष्पन्नप्रायं ददर्श । तुतोष । लात्वा सद्वस्त्रप्रावरणः सपत्नीको मन्त्री नेमि पूजयति स्म । अथ ध्यानेनोवस्तस्थौ चिरम् । क्षणार्द्धनानुपमा पति तथास्थ मुक्त्वा प्रासादनिष्पत्तिकुतूहलेन बहिरागात् । तत्र सूत्रधारः शोभनदेवो मण्डपचतुःस्तम्भीमूर्ध्वयितु- मुपक्रमते । तदा*] मन्त्रिण्योक्तम्-सूत्रधार! मम पश्यन्त्याश्चिरं बभूव । अद्यापि स्तम्भा नोत्त- 30 म्भ्यन्ते!। शोभनदेवेनोक्तम्-स्वामिनि ! गिरिपरिसरोऽयम् । शीतं स्फीतम् । प्रातर्घटनं विषमम् । मध्याह्नोद्देशे" तु गृहाय गम्यते, स्लायते, पच्यते, भुज्यते । एवं विलम्बः स्यात् । अर्थ विल- 1 A दधौ। 2 A मालवदेव० । 3 AV अर्बुदागे। 4 A नास्ति । | P यथा निप्पद्यमानचैत्योपरि प्रद्वेषं न भजन्ते । 5 V चम्पक०। 6 V चम्पकेनापि । '7 AB निरकाशयत् P निरवकाशयति । 8 A क्षुद्रादि। 9 V उम्बरणी० । 10 P परचक्रमः। 11 A स्थाने। 12 P आत्मगालकं। 13 BD पद्यते; P सज्जीकृतं विद्यते। 14 P अथ कायोत्सर्गे ध्यानेन । 15 V उपचक्रमे। 16 A मंत्रीण्युक्त। 17 P मध्याहे। 18 P विना नास्त्यन्यत्रेदं पदम् । 19 V अथवा । Page 142**************************************************************************************** वस्तुपालप्रवन्ध । १२३ म्यात् कि भयम् । श्रीमन्त्रिपादाश्चिर राज्यमुपभुनानाः सन्तीह तावत् । ततोऽनुपमया जगदे- सूत्रधार ' चाटुमानमेतत् । कोऽपि क्षणः कीदृग्भवेत् , को वेत्ति । सूत्रधारो मौनेनातिष्ठत् । पत्नीवचनमाकर्ण्य सचिवेन्द्रो वहिनिःसृत्य सूत्रधारमवोचत्-अनुपमा किं वावदीति ? । सूत्रधारो व्याहापात्-यद्देवेनावधारितम् । मन्त्री दयितामाह-किं त्वयोक्तम् । अनुपमाह-देव ! वदन्त्य- सि-कालस्य को विश्वासः । कापि कालकला' कीदृशी भवति । न सर्वदा तेजः पुरुषाणां तथा। 5 ३१७ श्रियो वा स्वस्य वा नाशो येनावश्य विनश्यति । श्रीसम्वन्धे बुधा. स्थैर्यबुद्धिं वध्नन्ति ता किम् ॥८०॥ ३१८ वृद्धानाराधयन्तोऽपि तर्पयन्तोऽपि पूर्वजान् । पश्यन्तोऽपि गतश्रीकान् अहो मुह्यन्ति जन्तवः ॥ ८१ ॥ ३१९ भूपद्मपल्लवप्रान्त निरालम्ब विलम्बिनीम् । स्थेयसी नत मन्यन्ते सेवका खामपि श्रियम् ॥ ८२ ॥ ३२० इतो विपदितो मृत्युरितो व्याधिरितो जरा । जन्तवो हन्त पीड्यन्ते, चतुर्भिरपि सन्ततम् ॥ ८३ ॥ एतत्तत्त्ववचः श्रुत्वा मन्त्रिवरः प्राह-अयि ! कमलदलदीर्घलोचने! त्वां विना कोऽन्यः एवं 10 वक्तुं जानाति ?। ३२१ ताम्रपणीतटोत्पन्नैौक्तिकैरिक्षुकुक्षिजै. । बद्धस्पर्द्धभरा वर्णा प्रसन्नाः स्वादवस्तव ॥ ८४ ॥ ३२२ गृहचिन्ताभरहरण मतिवितरणमखिलपानसत्करणम् ।। किं किं न फलति कृतिना गृहिणी गृहकल्पवल्लीव ॥ ८५॥ राज्यस्वामिनि ! वद, केनोपायेन शीघ्रं प्रासादा निष्पत्स्यन्ते ?। देव्याह-नाथ ! रात्रीयसूत्र-15 धाराः पृथग, दिनीयसूत्रधाराः पृथग् व्यवस्थाप्यन्ते । कटाहिश्चटाप्यते । अमृतानि भोज्यन्ते । सूत्रधाराणां च विश्रामलाभादोगो न प्रभवति । एव चैत्यसिद्धिः शीघ्रा। आयुर्यात्येव श्रीर- स्थिरैव । यतः- ३२३ गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् । अजरामरवत् प्राज्ञो विद्यामयं च चिन्तयेत् ॥ ८६ ॥ इत्यादि सरस्वतीवीणाकणितकोमलया गिरोक्त्वा निवृत्ता सुलक्षणा सा। मन्त्रिणा सर्वदेश-20 कर्मस्थायेषु सैव रीतिः प्रारब्धा । निष्पन्न च सर्वम् [स्तोकैरेव दिनैः] । गतो मन्त्री धवलककम् । दिनैः कतिपयैर्व पनिकानरा आयाताः-देव! अर्बुदाद्रौ नेमिचैत्यं निष्पन्नम् ।हृष्टौ द्वौ बान्धवौ। [पुनः प्रासादप्रतिष्ठार्थ] गतौ ससङ्घौ तत्र। ६१४९) तत्र च "जावालिपुरात् श्रीयशोवीरो नाम भाण्डागारिकः, सरस्वतीकण्ठाभरणत्वेन ख्यातः, आहृत" आगात् । मिलिता वस्तुपाल-तेजःपाल-यशोवीरा एकत्र, न्याय-विक्रम-विनया 25 इव साक्षात् । चतुरशीती राणाः, द्वादश मण्डलीकाः, चत्वारो महाधराः, चतुरशीतिमहा- जनाः-एव सभा। तदा वस्तुपालेन यशोवीरःप्रोचे-भाण्डागारिक ! त्व "उदयसिहस्य मन्त्री, यौगन्धरायण इव वत्सराजस्य । तव स्तुती स्वस्थानस्थाः शृणुमः । यथा- ३२४ निन्दव श्रीयशोवीर । मध्यशून्या निरर्थकाः । सद्ध्यावन्तो विधीयन्ते त्वयैकेन पुरस्कृता ॥ ८७ ॥ ___ यशोवीर' लिखत्याख्या यावचन्द्रे विधिस्तव । न माति भुवने तावदायमप्यक्षरद्वयम् ॥ ८८॥ 30 1P मौन कृया स्थित।। 2 V कापि कर कालस्य, P कारवेला। 3 P सर्वदापि। 4 P तेनम्नया यया-। tv स्वस्य धियो वा नाशे। 5 P प्रान्ते । 6P .रम्बाऽविर ६P स्वल्पावस्थायिनी लक्ष्मी मन्यन्ते मत्रिणो धुधा ॥ 7A न भवति, V रोगा न भवन्ति । 8 P बिहाय सघन 'स्थिर स्थिरव' । 9P पनिकानर आयात । 10 P जारहुरपुरात् । 11 P सभाहूत । 12 P नृपउदय० । Page 143**************************************************************************************** १२६ प्रवन्धकोशे ३२९. मासान्मांसलपाटलापरिमलव्यालोलरोलम्बतः, प्राप्य प्रौढिमिमां समीर ! महतीं हन्त त्वया किं कृतम् ? । सूर्याचन्द्रमसौ निरस्ततमसौ दूरं तिरस्कृत्य यत् , पादस्पर्शसहं विहायसि रजः स्थाने तयोः स्थापितम् ॥९३॥ निवर्तितं दिव्यं राज्ञा।। ६१५२) अथ कदाचिद् धवलकके मन्त्रिणि वसति सति, पौपधशाला एका आस्ते, तस्या 5 उपरितनं पुञ्जकं क्षुल्लकोऽधः क्षिपन्नासीत् । [तस्याज्ञानात् *] सः पुञ्जको वीसलदेवमातुलस्य सिंहनानो याप्ययानारूढस्याधो रथ्यायां गच्छतः शिरसि पतितः। क्रुद्धः सः । मध्ये आगत्य क्षुल्लकं दीर्घेण तर्जनकेन पृष्ठे दृढमाहत्य-रे ! मां जेठुआकं सिंह राजमातुलं न जानासीति वदन् खगृहं गतः। तं वृत्तान्तं मध्याह्ने मन्त्रिवस्तुपालं भोजनारम्भे उत्क्षिप्तप्रथमकवलं [आगत्य *] रुदन्नुर्दघाटितपृष्टोऽजिज्ञपत् क्षुल्लकः । मन्त्रिणाऽभुक्तेनैव उत्थाय क्षुल्लकः सन्धायें प्रस्थापितः । 10[शालायां प्रेषितश्च । तदनु *] स्वयं स्वकीयः परिग्रहो भाषितः-भोः क्षत्रियाः! स कोऽप्यस्ति युष्मासु [मध्ये *] यो मम मनोदाहमुपशमयति । [तन्मध्ये *] एकेन राजपुत्रेण भूणपालाख्ये- नोक्तम्-देव ! आदेशं देहि । [अहं तु] प्राणदानेऽपि तव प्रसादानां नानृणीभवामः । [स एकान्ते नीत्वा*] छन्नं मन्त्रिणादिष्टम्-याहि ] जेठुआवंशस्य राजमातुलस्य सिंहस्य दक्षिणं पाणि छित्त्वा मे ढोकय ।स राजपुत्रस्तथेत्युक्त्वा एकाकी मध्याहोद्देशे"सिंहावासद्वारे तस्थौ। तावता 15 राजकुलात् सिंह आगात् । राजपुत्रेणाने भूत्वा प्रणिपत्य सिंहाय उक्तम्-मन्त्रिणा श्रीवस्तुपाल- देवेनाहं वः समीपं केनापि गूढेन कार्येण प्रेपितोऽस्मि। तेन*] इतो भूत्वा प्रसद्याऽवधार्यताम्। इत्युक्ते स किश्चित्पराम् भूत्वा यावद्वाती श्रोतुं यतते, तावन् मन्त्रिभृत्येन सिंहस्य करः स्खकरे कृतः", सहसा छुर्या "छिन्नश्च। तं छिन्नं करं गृहीत्वा-रे! वस्तुपालस्य भृत्योऽस्मि। पुनः श्वेताम्बरं परिभवेरिति वदंश्चरणवलेन पलाय्य भूणपालो मन्यन्तिकमगमत्, करमदीदृशत् । मन्त्रिणा 20 शश्लाघे ऽसौ । स करः स्वसौधाऽग्रे बद्धः । खमानुषाणि परमाप्तनरगृहे मुक्तानि । [आत्मीय] परिग्रहो भाषितः यस्य जीविताशा स स्वगृहं यातु, जीवतु [चिरम् ]। अस्माभिर्वलवता सह वैरमुपार्जितम् । मरणं करस्थमेव, जीविते सन्देहः । तैः सर्वैरप्युक्तम्-देवेन सह मरणं जीवितं च। "स्थिताः [स्मो वयम्, एतदर्थे निश्चयो ज्ञातव्यः] । ततो गोपुराणि दत्त्वा गृहं नरैः स्वावृतं कृत्वा स्वयं स्वसौधोपरि [ सजीभूय* ] तस्थौ । निषङ्गी, कवची, धनुष्मान् । ततः सिंहस्यापि 25 परिच्छदो मिलितो वान्धवादिभूयान् । तैः सर्वैरभाणि-*] गत्वा वस्तुपालं सपुत्रपशुबान्धवं हनिष्याम इति प्रतिजज्ञे । चलितं जेटुआकसैन्यम् । यावद्राजमन्दिराग्रे आयातं कलकलायमानं तत्", तावदेकेन ज्यायसोक्तम्-एवंविधं व्यतिकरं यदि*] राजा विज्ञप्यते [तदा वरं*] मा स्म सहसाकारे तत्कोपोऽभूत् । ततो विज्ञप्तं राज्ञे। राज्ञा वाती ज्ञात्वा विमृश्य भणितम्-अनपराधे वस्तुपालो न पीडयति कश्चित् । युष्माभिरन्याय्यं कृतम् ; मन्त्रिणो गुरुरपीडैि । [राजा प्राह- 80 यदीत्थं कृतं* ] तस्मात्तिष्ठतात्रैव । वयं वयं करिष्यामो यदुचितम् । ततः सोमेश्वरदेवः 1 A तस्या उपरि उपरितनं । 2 P यानाधिरूढस्य । 3 P दीर्घया। 4 BCD सिंहराजकुलं; P सिंहनामानं । 5 B उद्घाटितः। 6 BC अभ्यजिज्ञपत् । 7 A मे। 8 P ममादेशं । 9V मत्रिणा प्रच्छन्नमादिष्टम्; P मन्त्रिणा छन्नं कर्णे प्रविश्य समादिष्टं । 10 B ढोकय मम। 11 P मध्याह्ने। 12 PC गूढकार्येण । 13 A पराङ् भूत्वा; P किञ्चिद् गत्वा पराइमुखो भूत्वा। 14 P कृत्य । 15 P कंकलोहछुर्या छिन्नः। 16 P श्लाघेऽसौ। 17 A स्थितं । 18 V ततः। 19 B राज्ञो। 20 P माऽसत्सहसाकारित्वे तस्य कोपोऽभूत्। 21 P केषामपि वस्तुपालो। 22 V कांश्चित् ; P किञ्चित् । 23 P कृतं भावि । तैरुक्तम्-मत्रिणो गुरुः पीडितः । 24 A तिष्ठतां तत्रैव । . 2 P यानाधिरूढस्य । मादेशं । 9 V मन्त्रिणा पराङ भूत्वा; P किजि B Page 144**************************************************************************************** वस्तुपालप्रपन्धः । १२७ पृष्टः-गुरो! किमत्र युक्तं स्यात् । गुरुणोक्तम्-मां तत्पाचे प्रहिणुत । आयति पथ्यं करिष्ये । प्रहितः सः। प्राप्तो मन्त्रिसौधद्वारम् । प्राप्तो मन्यनुजया मन्त्रिपाच पुरोहित आह-मनिन् ! किमेतत् । अल्पे कार्य कियत्कृत भवद्भिः!। जेटुअका मिलिताः सन्ति । राजापि तद्भागिनेयः क्रुद्धः। शम्यन्ताम्', येन सन्धि कारयामि । अथ मन्त्रीशः प्राह-मरणात् किं भयम् ?। ३३० *जिते च लभ्यते लक्ष्मीर्मते चापि सुराङ्गना । क्षणविध्वमिनी काया, का चिन्ता मरणे रणे ॥ ९४ ॥ 5 गुरुपरिभवो दुस्सहः। [अथ कि ] व्यापृतम्, जग्धम्, पीतम् , दत्तम् , गृहीतम् , विल- सितम् । यदा तदा यथा तथा मर्त्तव्यमेव । इदमेक मरणमित्थ भवतु । ___३३१ जीवितैकफलमुद्यमार्जितम् , लुण्ठित पुरत एव यद् यश । ते शरीरकपलालपालन, कुर्वते वत कय मनखिन. ॥ ९५॥ इत्यादिगीर्भिर्मतिकृतनिश्चय मन्त्रिणं ज्ञात्वा गुरुर्गत्वा राजानमूचे-राजेन्द्र ! नियत एवात्र 10 प्रघटके' मन्त्री। 'अग्रेऽपि युद्धशूरस्तेपु स्थानेषु [जयश्रीवरो जातः। तत्र वक्तु न पार्यते । अपि च*] 'तृणं शूरस्य जीवितम्' [इति वचनात्*] ईदृशो योधः कचिद्विपमे कार्येऽने धृत्वा घात्यते नैवं वृथा । बहुधा भवतामुपकारी। [अन्यच*] स किंप्रभुयाँ जीर्णभृत्यानां द्विवान्मन्तृन्न सहते। अस्मदादीनामपि' मनसि देवस्य कीदृशी आशा भाविनी । इत्यादि दृढं मृदुसार निगद्य हस्ते कृतो राजा । [यदुक्तम्-*] 15 ३३२ विली नरिन्दचित्त वक्खाण पाणिय च महिलाओ । तत्य य वच्चन्ति सया जत्य य धुत्तेहिं निजन्ति ॥१६॥ [राजा*] प्रोवाच-मन्त्रीह धीरां दत्त्वा सम्मान्य समानीयताम् ।गतो गुरुस्तत्र । राज्ञोक्तमुक्त्वा नीतो मत्री। परं सन्नद्धयद्धः [एव मिलितः*]। राज्ञा विविधतदुपकृतिस्मृत्या आद्रेनयनमनसा पितृवदुपशमितो मन्त्री। [ मिनिन् ! भवत्समो मम राज्ये न परो राज्यवर्द्धकः । पूर्व भवान् अधिकारी अभूत्, सांप्रतं तु राज्याधिष्ठाता मुख्यः । मत्प्रकृती राज्यं भवदीयमेव । नागडस्तु 20 तवादेशकर्ता मन्तव्यः।] मातुला मन्त्रिपादयोलगिताः । [ग्रामगतं मन्त्रिणो ग्रासे शाश्वत कृतम् । ] स मन्त्रिच्छेदितः सिंहहस्तो लोके दर्शितः। बहुराजलोकसमक्ष शब्दः प्रलापितः-यो मन्त्रिगुरु-देवहन्ता तस्य प्राणान् हनिष्यामः [मिम राज्ये न्यायान्यायनिरीक्षणा मत्र्यधीना] इत्युक्त्वा जिनमतस्य मन्त्रिणश्व गौरवमवृध" वीसलदेवः । [इत्यादि यावता श्रीवीसलदेवेन सम श्रीवस्तुपालस्य परमप्रीतिरभूत् ।] 25 ३३३ यत्कृत वस्तुपालेन नान्यथा तत्कय च न । सौभाग्यभाग्यत शश्वद्वद्धतेऽनुदिन यश. ॥ ९७ ॥ ___६१५३) "अथ विक्रमादित्यात् १२९८ वर्ष प्राप्तम्। श्रीवस्तुपालोज्वररुक"लेशेन पीडितः। तदा] तेजःपालं सपुत्रपौत्र स्वपुत्र" च जयन्तसिंहमभापत-वत्सा! श्रीनरचन्द्रसूरिभिर्मल्लधारिभिः संवत् १२८७ वर्षे भाद्रपदवदि १० दिने "दिवगमसमये "चयमुक्ताः -मन्निन् ! भवतां १९९८ 1 AB तद्भाय । 2P सद्भागिनेय । तेन मोघ शम्यताम् । 3 V कारापयामि। * P पुम्ना प्येप लोको सभ्यते । Pझगटके। 5 Pस अमे० । 6P द्विवादपराधास । 7 A 'अपि' नास्ति । SP पुस्तक एयेय गाया सभ्यते । 1 ण्वरिता पारा: V भादा एव एम्यन्ते। 8 Peगापिता । 9P पिना सर्यन 'यह रानलोक ' इत्येव । 10P अवीवृधत् । आ एवेपोको सम्पते। 11 Pएवं कारे गरठति निमः। 12P रटेरोन | 13 P नास्ति 'म्बर। 14p तेषां देवासना 15P घयमेरमुका। Page 145**************************************************************************************** १२८ प्रवन्धकोशे वर्षे स्वर्गारोहो भविष्यति । तेपां च वचांसि न चलन्ति, गी:सिद्धिसम्पन्नत्वात् । ततो वयं श्रीशत्रुञ्जयं गमिष्याम एव । ३३४. गुरुभिषग् 'युगादीशप्रणिधानं रसायनम् । सर्वभूतदयापथ्यं सन्तु मे भवरुग्भिदे ॥ ९८॥ ३३५. लब्धाः श्रियः सुखं स्पृष्टं मुखं दृष्टं तनूरुहाम् । पूजितं दर्शनं जैनं न मृत्योर्भयमस्ति मे ॥ ९९ ॥ 5 कुटुम्वेन तन्मतम् । शत्रुञ्जयगमनसामग्री निष्पन्ना । वीसलदेवो मन्त्रिणा साश्रुलोचनः समापृष्टः। [मुत्कलापितश्च कतिपयपदानि सम्प्रेषणायायातः।*] ततो नागडगृहं मत्री स्वय- मगात्।तेनाऽऽसनादिभिः सत्कृतो [पृष्टः कार्यविशेष मन्त्री ] बभाप-वयं भवान्तरशुद्धये विम- लगिरि प्रतिष्ठामहे । भवद्भिज॑नमुनयोऽभी ऋजवः सम्यगरक्षणीयाः क्लिष्टलोकात् । [यतः*]- ३३६. गौर्जरात्रमिदं राज्यं वनराजात् प्रभृत्यपि । स्थापितं जैनमन्त्रीवैस्तद् द्वेपी नैव नन्दति ॥ १० ॥ 10 इति ज्ञातव्यम् । मन्त्रिनागडेनोक्तम्-श्वेताम्बरान् भत्तया गौरवयिष्यामि । चिन्ता एपा] न कार्या । वस्त्यस्तु वः । इति तद्वचसा समतुषत् । ६१५४) अथ चचाल वस्तुपालः । अङ्केचालिआग्रामं यावत्माप, तत्र शरीरं बाढमसहं दृष्ट्वा तस्थौ । तत्र सहायाताः सूरयो निर्यामणां कुर्वन्ति । मन्त्रीश्वरोऽपि समाधिना सर्व शृणोति, श्रद्दधाति च । अनशनं प्रतिपद्य यामे गते खयं भणति- 15 ३३७. न कृतं सुकृतं किञ्चित् सतां संस्मरणोचितम् । मनोरथैकसाराणामेवमेव गतं वयः ॥ १०१॥ ३३८. यन्मयोपार्जितं पुण्यं जिनशासनसेवया । जिनशासनसेवैव तेन मेऽस्तु भवे भवे ॥ १०२ ॥ ३३९. या रागिणि विरागिण्यः स्त्रियस्ताः कामयेत कः । तामहं कामये मुक्तिं या विरागिणि रागिणी ॥ १०३ ॥ ३४०. शास्त्राभ्यासो जिनपदनुतिः सङ्गतिः सर्वदाऽऽर्यैः, सद्वृत्तानां गुणगणकया दोषवादे च मौनम् । सर्वस्यापि प्रियहितवचो भावना चात्मतत्त्वे, सम्पद्यन्तां मम भवभवे यावदाप्तोऽपवर्गः ॥ १०४ ॥ 20 इति भणन्नेवास्तमितो जैनशासनगगनमण्डलमृगाङ्कः श्रीवस्तुपालः। तदा निर्ग्रन्थैरपि तार- पूत्कारमरोदि; का कथा सोदरादीनाम् । [*मन्त्रिणि दिवंगते श्रीवर्द्धमानसूरयो वैराग्यादाम्बि- लवर्द्धमानतपः कर्तुं प्रारेभुः। मृत्वा शंखेश्वराधिष्ठायकतया जाताः। तैमन्त्रिणो गतिर्विलोकिता, परं न ज्ञाता । ततो महाविदेहे गत्वा श्रीसीमन्धरो नत्वा पृष्टः । वाम्याह-अत्रैव विदेहे पुष्क- लावत्यां पुण्डरीकिण्यां पुरि कुरुचन्द्रराजा संजातः। स तृतीये भवे सेत्स्यति । अनुपदेजीवस्तु । 25 अत्रैव श्रेष्ठिसुताऽष्टवार्षिकी मया दीक्षिता पूर्वकोट्यायुः। प्रान्ते केवलं मोक्षश्च । सा एषा साध्वी व्यन्तरस्य दर्शिता । तदनु तेन व्यन्तरेणात्रागत्य तयोर्गतिः प्रकटिता।] तत्र तेजःपालो विलपति- ३४१. आल्हादं कुसुदाकरस्य जलधेर्वृद्धिः सुधास्यन्दिभिः, प्रद्योतैर्नितरां चकोरवनितानेत्राम्बुजप्रीणनम् । एतत्सर्वमनादरादहृदयोऽनादृत्य राहुईहा !, कष्टं चन्द्रमसं ललाटतिलकं त्रैलोक्यलक्ष्म्याः पपौ ॥ १०५॥ जयन्तसिंहो वदति- ३४२. खद्योतमात्रतरला गगनान्तरालमुच्चावचाः कति न दन्तुरयन्ति ताराः । एकेन तेन रजनीपतिना विनाऽद्य सर्वा दिशो मलिनमाननमुद्वहन्ति ॥ १०६ ॥ 1 A युगादीनां। 2 P तन्मानितं । 3 P नागडप्रधानगृहं । 4 P गौर्जराणां। 5 P मन्त्रैस्तु । 6 A आकवालिया। 7 PA जिनपतिः। 8 AB जिन। - कोष्ठकगतः एष सर्वोऽपि पाठः P पुस्तके लभ्यते, नान्यत्र ABCD आदर्शपु; अतः प्रक्षिप्तप्रायोऽयम्। 9 A अहृदयेनादृत्य । 30 Page 146**************************************************************************************** चित्र-15 वस्तुपालप्रवन्धः । १२९ कवयः प्राहा- ३४३. मन्ये मन्दधियां विधे । त्वमवधिर्वैरायसे चार्थिनां, यद्वैरोचन-सातवाहन-बलि-श्वेताज-भोजादयः । कल्पान्त चिरजीविनो न विहितास्ते विश्वजीवातवो, मार्कण्ड-ध्रुव-लोमशाश्च मुनय क्लुप्ता' प्रभूतायुपः ॥१०॥ ___ लोकास्तु वदन्ति- ३४४ किं कुर्मः 'कमुपालभेमहि किमु ध्यायाम क वा स्तुम', कस्याग्रे स्वमुख स्वदुःखमलिन सन्दर्शयामोऽधुना। 5 शुष्क कल्पतरुयंदगणगतश्चिन्तामणिश्चाजरत् , क्षीणा कामगवी च कामकलशो भग्नो हहा । दैवत. ॥१०॥ __ततस्तेजःपाल-जयन्तसिंहाभ्यां मत्रिदेहस्य शत्रुञ्जयैकदेशे संस्कारः कृतः। संस्कारभूम्या- सन्नः स्वर्गारोहणनामा प्रासादो नमि-विनमियुत-ऋपभसनाथ: कारितः।मन्त्रिण्यौ ललितादेवी- सौख्वौं अनशनेन मम्रतुः। ६१५५) श्रीतेजःपालस्त्वनुपमासहितो मध्यमव्यापारभोगभाग 'लेशतस्तथैव दानं तन्वन् 10 १३०८ वर्षे द्यामगमत् । शनैः श्रीजयन्तसिंहोऽपि परलोकमभजत् । श्रीअनुपमापि तपसा स्वर्ग- मसाधयदिति भद्रम् । ६१५६) एतयोश्च श्रीवस्तुपाल-तेजःपालयोधर्मस्थानसहयां कर्तुं क ईश्वरः, परं गुरुमुखश्रुतं किञ्चिल्लिख्यते-लक्षमेकं सपादं जिनविम्यानां विधापितम् । अष्टादश कोट्यः पण्णवतिलक्षाः श्रीशत्रुञ्जयतीर्थ द्रविण व्ययितम् । द्वादश कोट्योऽशीतिलेक्षा:श्रीउज्जयन्ते । द्वादशकोट्यारि पंचाशल्लक्षा अर्बुदगिरिशिखरे लूणिगवसत्याम् । नवशतानि चतुरशीतिश्च पौपधशालाः का- रिताः । पञ्चशतानि दन्तमयसिंहासनानां [कारापणं सूरीणां प्रत्येकमुपवेशनार्थमर्पणम्*], पञ्चशतानि पञ्चोत्तराणि समवसरणानां जादरमयानां [कारणं श्रीकल्पवाचनाक्षणे मण्डना- र्थम् *], ब्रह्मशालाः सप्तशतानि । [ब्रह्मपुर्यः*] सप्तशतानि सत्रागाराणाम् । सप्तशती तपखि- कापालिक-भगवयोगिनां मठानाम् । [तेपां*] सर्वेषां भोजननिर्वापादिदानं निश्चित कृतम् । 20 • त्रिंशच्छतानि झुत्तराणि महेश्वरायतनानाम् । त्रयोदशशतानि चतुरुत्तराणि शिखरवद्धजैनमा- सादानाम् । त्रयोविंशतिशतानि जीर्णचैत्योद्धाराणाम् । अष्टादशकोटिव्ययेन सरस्वतीभाण्डा- गाराणां त्रयाणां स्थानत्रये करणम् [धवलक-स्तम्भतीर्थ-पत्तनादौ*]। पञ्चशती "ब्राह्मणानां नित्यं वेदपाठं करोति स्म [तेपां गृहमानुपाणां निर्वाह्करणम्*]। वर्षमध्ये सवपूजात्रितयं [सर्व- दर्शनिनाम् *] पञ्चशती श्रमणानां नित्यं गृहे विहरति स्म। तटिक-कार्पटिकाना" सहस्रं समधिकं 25 प्रत्यहमभुक्त । त्रयोदशयात्राः सङ्घपतीभूय कारिताः [लोकानाम् । तत्र प्रथमयात्रायां चत्वारि सहस्राणि पञ्चशतानि शकटानां सशय्यापालकानाम् । सप्तशती सुखासनानाम् । अष्टा- दशशती वाहिनीनाम् । एकोनविशतिशतानि श्रीकरीणाम् । एकविशतिशतानि श्वेताम्बरा- णाम् । एकादशगती दिगम्बराणाम् । चत्वारि शतानि सार्दानि जैनगायनानाम् । त्रयस्त्रिंश- च्छती यन्दिजनानाम् । [चतुःसहस्रतुरगाः। द्विसहस्रोष्ट्राः । चतुश्चत्वारिंशदधिकशतं देवार्याः 130 सप्तलक्षमनुप्याः । इदं प्रथमयानाप्रमाणम् । अग्रेतना तदधिका ज्ञेया"] (द्वितीययात्रायां सम- 1P वैराय सेवार्थिना। 2 CD श्वेठोऽल्जमोजा०, B वातोनमो०, P श्वेताजमो०। 3 P तृता । 4 A विमुपा० । 5 P मन्त्रिण - पक्ष्यौ। 6 A. सौखौ, P सोपू। 7P देशवतोऽपि। 8 P वन्वान । 9 Pad | 10 A. ध्ययोचित । fP पञ्चविंशतिरावानि हरिहरमालादिमहेश्वरा०1 111 गारत्रय स्थानत्रये। 12 V निमाणा। 13 ACD कुति स, P कारयति स्म। 14 AP पञ्चदशशती। 15 P घटुकटिककार्पटिकाना। १७ प्र० को Page 147**************************************************************************************** ' प्रवन्धकोशे .. धिकम् )। तथा चतुरशीतिस्तडागाः सुबद्धाः। चतुःशती चतुःषष्ट्यधिका वापीनाम् । पाषा- णमयानि द्वात्रिंशद् दुर्गाणि । चतुःपष्टिर्मशीतयः । तथा दन्तमयजैनरथानां चतुर्विशतिः। विशं शतं शाकघटितानां रथानाम् । [ एकविंशत्याचार्यपदानि कारितानि*] सरस्वतीकण्ठा- भरणादीनि चतुर्विशतिविरुदानि [ भाषितानि कविजनैः। ] श्रीवस्तुपालस्य दक्षिणस्यां दिशि - 5 श्रीपर्वतं यावत्, पश्चिमायां प्रभासं यावत्, उत्तरस्यां केदारपर्वतं यावत्, पूर्वस्यां वाणारसी यावत्, तयोः कीर्तनानि [श्रूयन्ते]। सर्वाग्रेण त्रीणि कोटिशतानि चतुर्दशलक्षा अष्टादश- सहस्राणि अष्टशतानि व्यव्ययः [पुण्यस्थाने]। विपष्टिवारान् सङ्ग्रामे जैत्रपदं गृहीतम् । अष्टादश वर्षाणि तयोर्व्यापृतिः ॥ ॥ इति श्रीवस्तुपाल-तेजःपालयोः प्रवन्धः ।। V'द्वादश याना संघपतीभूय संपूर्णा । त्रयोदशमी याना अवसानकाले मार्गे मनसा पूर्णा एतद्वाक्याने 'एवं लौकिकमार कृतं मनो विनापि' इदं प्रक्षिप्तमधिकं वाक्यं लभ्यते P पुसके। 1P पानदं। 2 मापारः। Page 148**************************************************************************************** प्रन्धकारप्रशस्ति। ग्रन्थकारप्रशस्तिः।... श्रीप्रश्नवाहनकुले कोटिकनामनि गणे जगद्विदिते । श्रीमध्यमशाखायां हर्षपुरीयाभिधे गच्छे ॥१॥ मलधारिविरुदविदितश्रीअभयोपपदसूरिसन्ताने । श्रीतिलकसूरिशिष्यः सूरिः श्रीराजशेखरो जयति ॥२॥ तेनायं मृदुगद्यैर्मुग्धो मुग्धाववोधकामेन । रचितः प्रवन्धकोशो जयताजिनपतिमतं यावत् ॥३॥ तथा- कटारवीरदुस्साधवंशमुकुटो नृपौघगीतगुणः । वब्बूलीपुरकारितजिनपतिसदनोच्छलत्कीर्तिः ॥ ४॥ बप्पकसाधोस्तनयो गुणदेवोऽजनि सपादलक्षभुवि । तद्भर्नूनकनामा तत्पुत्रः साढको दृढधीः॥५॥ तत्सूनुः सामन्तस्तं कुलतिलकोऽभवज्जगत्सिहः । दुर्भिक्षदुःखदलनः श्रीमहमदसाहिगौरवितः ॥ ६ ॥ तज्जो जयति सिरिभवः षड्दर्शनपोषणो महणसिंहः। ढियां खदत्तवसतौ ग्रन्थमिमं कारयामास ॥७॥ शरगगनमनुमिताब्दे (१४०५) ज्येष्ठामूलीयधवलसप्तम्याम् । निष्पन्नमिदं शास्त्रं श्रोत्रध्येत्रोः सुखं तन्यात् ॥ ८॥ ॥ इति चतुर्विशतिप्रवन्धापरनामा प्रयन्धकोशो ग्रन्थः सम्पूर्णः ॥ 1AB •मिधाच्छे। 2 ABE सरकुल । * जाति-पद्यमेवत् A भादशें । Page 149**************************************************************************************** प्रवन्धकोशे १. परिशिष्टम्-प्रथमम् । मनिवस्तुपालकृतसुकृतसूचिः । [v सञ्ज्ञकादर्शप्रान्तमागे इयं सूचिलिखिता लम्यते ।] महं श्रीवस्तुपालेन अष्टादशभिर्वर्यावन्मानं सुकृतं कृतं तावन्मानं वैतरणीतीरे सन्तिष्ठमान- 5 सोपारा-आदिनाथदेवालय स्थितप्राकृतप्रशस्ते यम् । श्रीजिनर्विव ल० १ स० २५......लेकतपोधनसत्कमठ......७०० । पोषधसाला ९८४ ।...... सिंहासन ५०० । जिनप्रासाद १३५७४ । तेषां मध्ये हेमकुम्भमय २४ । जनतपोधनावासे अन्न- पानं विहरंति पंचदश, सह० १५०००। श्रीशत्रुञ्जयपर्वते कोडि १८ ल० ९६ । सोमेश्वरे कोडि १० । ब्रह्मशाला ७००। पाखाणबद्ध 10 सरोवर २८४ । जादरमय समोसरण ५०५ । तीर्थयात्रा वार १२॥ । प्रतिवर्ष संघपूजा वार २३ । प्रतिवर्ष संघवात्सल्य वार २५ । तोरण सह० ३ जैन-माहेशप्रासादेषु । नानामार्गे प्रपा १००। माहेश प्रा० ३००२। ब्राह्मण ५०० वेदपाठं कुर्वति । आचार्यपद कारापित २१ । जीर्णोद्धार प्रासाद २०००, शत ३०० जैन-माहेश्वराणाम् । पाखाणमयमढ सह० ४०००। कृप ७००। श्रीगिरनारि व्यये कोटि १२ ल० ८० अर्बुदाचले १२ कोडि, लक्ष ३५ लूणिकवसत्यां पुण्यवरः। श्रीअचलेश्वरं 15प्रति वृद्धदेवलोकजनानां दत्तद्रव्यलक्ष १, प्रतिदिनावासे कार्पटिकानां १ सह० भोजनम् । ब्राह्म- णदत्तगौ १०००। ब्रह्मपुरी कारिता शत ७०० । वापीनां शत ४६५ । श्रीभृगे लानं कृत्वा दत्ता लक्ष ५। श्रीभृगुपुरे श्रीजैनप्रासादमध्ये दत्ता को० २। जैन-माहेश्वरग्रंथलेखने कोडि १८ द्रव्य- व्ययः। रेवातीरे शुक्लतीर्थ स्नानं विधाय श्वेतवाराहं नत्वा दत्ता लक्ष २। दर्भावत्यां वैद्यनाये १२०००० शत १ दत्ता। श्रीसेरीशके श्रीपार्श्वनाथं प्रणम्य दत्त लक्ष १ सह० १३ शत १६५ । 20 नानास्थाने अकारि दुर्ग ४१६ । पाखाणमया ३२ । वाणारस्यां देवविश्वनाथपूजार्थ प्रहितद्रव्य ल. १। श्रीद्वारिकायां देवपूजार्थं प्रहितद्रव्य लक्ष१ स० ६१ श०१। प्रयागतीर्थे प्रहितद्रव्य लक्ष १॥ गंगातीर्थे प्रहितद्रव्य ल०५ (१)। श्रीस्तंभने द्रव्य ल०१ श्रीसंखेश्वरे द्रव्य ल० २। सोपारा- आदिनाथ......ग्रे द्रव्य ल०४। ग(गो)दावयाँ द्रव्य ल०१। तपत्यां प्रहित द्रव्य ल०१॥ मसीति ६४ हजतो० १।। 25 संघचालतां शकटशत ४५००, वाहणिशत १८, सुखासन ७००, पालषी ५००, दंतरथ २४, रक्तसांढि ७००। संघरक्षणाय राणा ४. सीकरि १९००। श्वेतांबर सह० २०००, शत १०० दिगंबर ११००। जैनगायिनि ४००० (१) ४५०, भदृशत ३३००, अपरगायिन सह० १००० । सर- स्वतीकण्ठाभरण [आदि ] विरद २४ । नर्तकी १०० । वेसरशत १ संप्रदायसमं (2)। अश्ववैद्य १०, नरवैद्य १००। 80 श्रीवस्तुपालस्य दक्षिणस्यां दिशि श्रीपर्वतं यावत् कीर्तनानि । __ संग्रामे श्रीवीरधवलकार्ये वार ६३ जेत्र(त)पदम् । सर्वाने त्रीणि कोटिशतानि, १४ लक्ष, १८ सहस्र,८ शतानि द्रव्यव्ययः॥ ॥ इति श्रीवस्तुपालमंत्रीश्वरधर्मवरः सर्वाग्रः॥ छ । Page 150**************************************************************************************** परिशिष्टम् । २. परिशिष्टम्-द्वितीयम् । [अस्मत्सहीतादर्शमध्यात् केवल BDE सन्ज्ञकानामादर्शनां प्रान्तमागे एषा वंशावली लिखिता लभ्यत इति-सम्पादकः ।] सपाद-लक्षीयचाहमानवंशो लिख्यते- १ सं० ६०८ राजा वासुदेवः। २ सामंतराजः। ३ नरदेवः। ४ अजयराजः। अजयमेरुदुर्गकारापक। ५ विग्रहराजा। ६ विजयराजा। ७ चंद्रराजः। ८ गोविंदराजः। सुरत्राणस्य वेगवरिसनामो जेता। ९दुर्लभराजः। १० वत्सराजः। ११ सिंहराजः। सुरत्राणस्य हेजिवदीननाम्नो 'जेठाणाकजेता। १२ दुर्योजनः। निसरदीनसुरत्राणजेता। १३ विजयराजः। १४ वप्पहराजः। शाकमाँ देवताप्रसादाद् हेमादिखानि सपन्न । १५ दुर्लभराजः। १६ गंडू। महमदसुरत्राणजेता। १७ यालपदेवः। १८ विजयराजः। १९ चामुंडराजः। सुरवाणमका। २० दूसलदेवः। तेन गूर्जरानाधिपतिर्घवानीतः । अजयमेरुमध्ये तक्रविक्रय कारापितः। २१ वीसलदेवः। स च स्त्रीलम्पटः । महासत्या ब्राह्मण्यां विलग्नो पलात् । तच्छापाद् दुष्ट-52 व्रणसमे मृत। २२ वृहत्पृथ्वीराजा। वगुलीसाहसुरत्राणभुजमीं। २३ आल्हणदेवः। सहावदीनसुरनाणजित। २४ अनलदेवा। २५ जगदेवः। २६ वीसलदेवा तुरुष्कजित् । २७ अमरगांगेयः। 1B जेवाणा। 2 B'सानि' माति। 8 DE सपना । 4 B'मुनवष्ठी। Page 151**************************************************************************************** प्रवन्धकोशे .सं० १२३६-राज्यम् । वीरः १२४८ मृतः । १३४ २८ पान्थडदेवः । २९ सोमेश्वरदेवः। ३० पृथ्वीराजः। ३१ हरिराजदेवः। 5३२ राजदेवः। - ३३ बालणदेवः। ३४ वीरनारायणः। ३५ बाहडदेवः। ३६ जैनसिंहदेवः। __10३७ श्रीहम्मीरदेवः । बाबरीयालविरुदं तस्य । तुरुष्कसमसदीनयुद्धे मृतः । मालवजेता। । सं० १३४२ राज्यम् । १३५८ युद्धे मृतः । हस्ती ४, हस्तिनी ४, अश्व- सहस्र ३०, दुर्ग १० एवं प्रभुः सत्त्ववान् । 1 B पान्धदेवः। *DE आदर्श नास्ति एतन्नाम। 2001 Page 152**************************************************************************************** परिशिष्टम् । ३. परिशिष्टम्-तृतीयम् । प्रवन्धकोपान्तर्गत- सुभापितखरूपवाक्यानां पादानां न्यायवचनानां च उद्धरणम् । गुरुवचनममलमपि सलिलमिव मदुपजनयति श्रवणस्थितं शूलमभव्यस्य । पृ० २७ पं० २३. राजभिः पूज्यते यश्च सर्वैरपि स पूज्यते । पृ० ३; प० ११. शोकापनोदो धर्माचार्यः। पृ० ३, पं० २७. तपो हि वज्रपञ्जरप्रायं महामुनीनां परमेरितप्रत्यूहपृषत्कदुर्भेदतरम् । पृ० ४, पं० १९.' कुतरस्कन्धाधिरूढोऽपि भपणैर्भक्ष्यते । पृ० ४, पं० २२. लोकः पूजितपूजकः । पृ० ६, पं० १३. यचिन्त्यते परस्य तदायाति सम्मुखमेव । पृ० ९, पं०६. एकं वानरी, अपरं वृश्चिकेन जग्धा । पृ०९, पं० १८. हनूमति रक्षति सति शाकिन्यः पात्राणि कथं असन्ते । पृ० १०; पं० २१. जर्जरापि यष्टिः स्यालीनां भञ्जनाय प्रभवत्येव । पृ० १३ पं० २५. मृत्वापि पञ्चमो गेयः। पृ० १४, पं० २८ यः कालज्ञः स सर्वज्ञः । पृ० २५, पं० २१. तेजसां हिन वयः समीक्ष्यते । पृ० २०: पं० २५. रवानि पुण्यप्रचयप्राप्यानि । पृ० २६, पं० २८. नष्टं मृतं सरन्ते हि पितरो निजतनयम् । पृ० २७, पं० ३. घनार्जकस्य कृष्छ्रमस्थानव्ययी पुत्रो न वेत्ति तातस्य । पृ० २७, पं० १३. स्वनाम नामाददते न साधवः । पृ० २७, पं० २०. वात्याभिन चलति काचनाचलः । पृ० ३४, पं० १४. विद्वान् सर्वत्र पूज्यते । पृ० ३७, पं० १२. काकतालीयन्याय । पृ०४०, ३१. अन्धवर्तकीन्याय । पृ० ४०, ३१. अगीकृतसाहसानां न किञ्चिदपि दुफ्फरम् । पृ० ५०, पं० २६. सेवकस्य च हिताहितविचारो नास्ति । ०५१, पं०४. अर्थो हि परावर्तयति त्रिभुवनम् । ०५१, पं०१७. पलवद्भिः सह का विरोधिता। पृ० १२, पं० १९. बुमुक्षितः किं न करोति पापम् । १० ५३, पं० २६. अतिप्रज्ञापि दोपाय । पृ०५५, पं० प०७. रसावेशे हि कालो झर्गच्छन्नपि न लक्ष्यते । पृ० ६३, पं०७. अशुभस्य कालररणम् । ए०७०; पं० १६. प्रक्षालनादि पकस्य दूरादस्पर्शन चरम् । पृ०७८, पं०१२ कुतूहली पलसो न भवेत् । पृ० ८३, पं० २०, Page 153**************************************************************************************** प्रयन्धकोशे विद्या-कन्या-लक्ष्म्यो हि कुस्थाने निवेशिता निवेशयितारं शपन्ति । पृ० ८८, पं०५. पापं पच्यते हि सद्यः । पृ० ९८; पं० २८. इयं गूर्जरधरा कालवशादन्यायपरैः पापैः खाम्यभावात् 'मात्स्यन्यायेन' फयमाना आस्ते म्लेच्छैरिव गीः। पृ० १०१, पं० २० 5 लब्धास्वादः पुमान् यत्र तत्रासक्तिं न मुशति । पृ० १०३% पं० २४. अदृष्टपरशक्तिः सर्वोऽपि भवति पलवान् । पृ० १०४, पं० २. यदीयते तल्लभ्यते-इति न्यायः । पृ० १०४; पं०३०. नेदीयानिचाहनामाहवो हि महामहः । पृ० १०५, पं० ३१. जयो वा मृत्यु युधि भुजभृतां का परिभवः । पृ० १०५, पं० २०. 10 कण्टीरवे तु दृष्टे कुण्ठाः सर्वे वन्याः । पृ० १०५, पं० २०. दानेन भूतानि वशीभवन्ति । पृ० ११२, पं० १. तृणं शूरस्य जीवितम् । पृ० १२७; पं० १२. स किं प्रभु- जीर्णभृत्यानां हिनान्मन्तॄन्न सहते । पृ० १२५%; पं० १३. Page 154**************************************************************************************** प्रवन्धकोशे उदृतपद्यानां विशेषनाम्नां च अकारायनुक्रमेण सूचिः। Page 155**************************************************************************************** Page 156**************************************************************************************** प्रवन्धकोशग्रन्थान्तर्गत-उद्धृतपद्यानां सूचिः। -:अकाराद्यनुक्रमेण:- प्रथमपादाश पत्राङ्क पद्याङ्क पनाह अ २०७ प्रथमपादाश अस्याः सर्गविधौ प्रजापति अहयो वहव सन्ति अब तबच्छीए अपुप्फ १८ १२ २८२ आ 10. १ २४० १७० ३२७ ३२ ११२ ९८ अग्यायति महुअरा अग्रे गीत सरसकवय. अजित्वा सार्णवामुर्वी अजवि सा परितप्पइ अजवि सा सुमरिजइ अणफुल्लिय फुल्ल म अदृष्टे दर्शनोत्कण्ठा अद्य मे फलवती पितु० अद्य मे सफला प्रीति अधीता न कला काचित. अध्यापितोऽसि पदवी० अनादिरव्यक्ततनूरभेद्य अनिस्सरन्तीमपि गेहगर्मात् अनेकयोनिसम्पाता० अन्धा एव धनान्धा स्यु. अपूर्वेय धनुर्विद्या अमङ्गवैराग्यतरङ्गर) अमुमकृत यदङ्गना न वेधाः अयसाभियोगसमियस्स अये भेक च्छेको भव अच्छिाम्यधिकार्पण अर्हतस्त्रिजगद्वन्धान् अष्टौ हाटककोटय अस्माक प्रभुयुद्धार्थी अस्मान् विचिनवपुप० अस्माभिर्यदि 'व. कार्य अस्मामिश्चतुरम्बुराशि० अस्मिन्नसारे ससारे आकृतिर्गुणसमृद्धि० आगतस्य निजगेह० आयान्ति यान्ति च परे आयुयविनवित्तेषु ३०९ १ आरम्भगुर्वी क्षयिणी कमेण आरुक्षाम नृपप्रसाद २७९ आरोहन्ती शिर स्वान्ताद् ३३ आलब्धा कामधेनु २३७ ९७ आलेख्ये चित्रपतिते २७४ ११० आलोकवन्त्य सन्त्येव ६६ २९ आवयोश्च पितृपुत्रयो० २५४ १०३ आस्स कस्य न वीक्षित ४७ २० आ साम्य न सहेहमस्य ११६ आल्हाद कुमुदाकरस्य २१० ८८ इक्केण कुत्युहेण इच्छासिद्धिसमन्विते इतो विपदितो मृत्यु १३६ इह लोए चिय कोवो ३० उच्चाटने विद्विपता उच्चैर्गवं समारोप्य ३२ उजिंतसेलसिहरे उत्तरओ हिमवतो २७२ ११० । उत्तिष्ठन्या रतान्ते २८० ११२ ६४ २८ १७४ ६१ २८१ ११२ १३३ २०६ ८६ १२६ ४० २४३ १०३ २९१ ११४ ૭૭૨ ३४१ १२८ ६१ ३०१ २४ ९० १४८ ३०२ ११६ ३२० १२३ १८३ ३११ १२० २५३ १०३ १३२ १९९ १२० SR Page 157**************************************************************************************** पद्याद पत्रा प्रवन्धकोशान्तर्गतपद्यानां सूचिः। पद्या पत्राक। प्रथमपादांश २१६ ८९ क्षुण्णाः क्षोणिभृता० १३ ९ १२ ८ खद्योतमात्रतरला प्रथमपादांश उपकारसमर्थस्य उपद्रवत्सु क्षुद्रेयु उवयारह उवयारडउ २२१ ९१ રૂછર ૨૮ २३५ ९६ । एकदेहविनिर्माणाद् एकधारापतिस्तेऽद्य एकस्त्वं भुवनोपकारक० एकादशाधिके तत्र एकं ध्याननिमीलना० ទី១ २१८ ९० ૧૮ ૨૬ ५६ २५ ३३४ १२८ ३३ २६ ३२२ १२३ ३२३ १२३ १५३ ५५ ८२ १२ ३३६ १२८ १२९ ४१ २७७ १११ गतिरन्या गजेन्द्रस्य २२० गुणचंदवाणवंतर० ३१२ गुणसेण-अग्गिसम्मा __ २९ गुरुर्भिपग् युगादीश० ११८ ___३९ गुलसिउं चावइ तिलतांदली गृहचिन्ताभरहरणं __ ३१ गृहीत इव केशेषु १८४ गोविन्दनन्दनतया च २२८ गौरवाय गुणा एव ३०० गौ रात्रमिदं राज्यं ४१ गङ्गान्तर्मागधे तीर्थे ३०५ ११७ ग्रावाणो मणयो हरिर्जल० २५८ १०३ ३४ १६ चक्किदुगं हरिपणगं २५७ १०३ चतुर्दश तु वैकुण्ठाः २६५ १०५ चाटुकारगिरां गुम्फैः १०८ ३७ चित्रस्था अपि चेतांसि २४८ १०२ । चेतः सार्द्रतरं वचः ३४४ १२९ चौलुक्यः परमार्हतो नृप० १८८ ६४ ४९ २० छत्रच्छायाछलेनामी १७१ छायाकारणि सिरि धरिय १५२ ज १७८ जइ उटुंभइ तो कुहइ ११ जन्मस्थानं न खलु विमलं २१९ ९० जय-विजया य सहोयर ११० जलधरेपि कल्लोला० १७३ जह जलइ जलउ लोए १८६ जह जह पएसिणि १४१ ४८ । जा जस्स ठिई जा जस्स संतई ५३ २४ १६७ ५९ ३७ १७ कथासु ये लब्धरसाः कलयसि किमिह कृपाणं कलिकाले महाघोरे कल्पद्रुमस्तरुरसौ कवाडमासज्ज वरंगणाए कामं स्वामिप्रसादेन कायः कर्मकरोऽयं कालउ कंवलु अनुनी चाटु कालेन सौनिकेनेव कालः केलिमलङ्करोतु कियती पञ्चसहस्री किन्तु विज्ञपयिताऽस्ति किं कुर्मः कमुपालभेमहि कीर्तिः कैकत ! कुन्तिभोज कीर्तिस्ते जातजाड्येव कुमारपाल मन चितकार कुमारपाल रणहट्टि वलिउ कैषा भूषा शिरोऽक्ष्णां कः कण्ठीरवकण्ठकेसर० कः सिंहस्य चपेटपातित० क्रमेण मन्दीकृतकर्ण० क यातु कायातु क वदतु क्षारोऽब्धिः शिखिनो मखा क्षिप्त्वा वारिनिधिस्तले १९१ २१ १२ २९० ११४ २५६ १०३ ८१ २३१ ११० ५७ २७६ ७२ २० १२ २८९ ११३ Page 158**************************************************************************************** प्रथमपादाश जितश्चेत्पुरुषो लक्ष्म्या जिते च लभ्यते लक्ष्मी जीतउ छहिं जणेहिं जीय जलनिंदुसम जीवितव्य च मृत्युश्च जीवितैकफलमुद्यमा० जे के वि पहू महिमडल. ज दिट्ठी करुणातरगिय० प्रबन्धकोशान्तर्गतपद्याना सूचिः । पद्याङ्क पत्राङ्क । प्रथमपादाश २०० ७३ | देव त्वद्भुजदण्डदर्प० ३३० १२७ | देव । सेवकजन. स २६३ १०४ | देव । खर्नाथ ! कष्ट ११४ ३९ | देवाज्ञापय किं करोमि १७ ११ देवी पविनितचतुर्भुज० ३३१ १२७ दोवि गिहत्या धडहड० __३२ द्वादशार्का वसवोष्टी - ર૪ धनी धनात्यये जाते धन्यास्त एव धवला । धन्यास्ते ये न पश्यन्ति धर्मलाम इति प्रोक्ते ३३ धिग वृत्तनृत्तमुचिता १९४ धूवे पक्खोवासो पद्याङ्क पत्राक १८७ ६४ २४५ १०२ १६८ ५९ २०५ ८४ १५६ १२५ ४० १६५ ५९ ५ १२३ २५५ १०३ ३५ ७८ १८० ३५ ६५ २२७ २३ १७ २८ ९४ ११५ तइया मह निग्गमणे तटविपिनविहारो० तत्ती सीयली मेलावा तर्कोप्रतिष्ठ श्रुतयो तवोपकुर्वतो धर्म ताम्रपर्णीतटोत्पन्न तावहिण्डिमघोषणा तावल्लीलाकवलितसरित् ते मुग्गडा हराविया त्वत्कृपाणविनिर्माण त्वत्प्रसादकृते नीडे त्वत्रारब्धप्रचण्डप्रधन० १२३ ३३७ १२८ २३६ ९७ ८० ३१ ३०६ ११७ १९ २३० १८२ ९ ६३ ५४ २९८ ११६ न कृत सुकृत किञ्चित् न खानिमध्यादुदखानि न गगा गाङ्गेय सुयुवति० न ध्वान तनुपे न यासि न नाना नो वृत्त्या नमोऽस्तु हरिभद्राय नवसय तेणउएहिं नवि मारियइ नवि चोरियइ नव्योद्वाहविधौ वधूद्वय० न सर्वथा कश्चन लोम० नास्ति तीर्थमिह पार्थिवात् निरर्थक जन्म गत नलिन्या. निवपुच्छिएण गुरुणा नृपच्यापारपापेम्य नेनेन्दीवरिणी मुखाम्बु० न्युन्छने यामि वाक्याना १७ ३९ ४६ २० १४९ ___५१ १७५ २०१ ७४ ३२ १६ १४५ ४९ २५१ १०२ २४६ १०२ १८९ ६४ २२ २८८ २०९ ८७ १०३ ३४ दगपाण पुप्फफल दत्तानि दशलक्षाणि दधाति लोम एवैको दधिमथनविलोलोल. दिजइ वकग्गीनाइ दिक्षुभिक्षुरायात. दुखाग्निर्वा स्मराग्निर्वा दृप्यद्भुजा क्षितिभुज दृष्टस्तेन शरान्किरन् दृष्टिर्नष्टा भूपतीना देव । ल मलयाचलोऽसि १०६ २६१ २० १०३ १०१ ५८ ०१ १०२ पइ मुक्काण वि तरुवर ६३ । पत्चमवलनिय तह जो १८५ Page 159**************************************************************************************** पद्याङ्क पत्राङ्क २७ १५ १३१ ४२ १२२ ४० २९ १५ ११६ ३९ ३४३ १२९ १२४ ४० ६९ २९ १०२ प्रथमपादांश पदं सपदि कस्य न पद्मासनसमासीनः पन्थानमेको न कदापि परिच्छेदातीतः सकल० परिसेसियहंसउलं पसुजेम पुलिंदउ पारतजनपदान्त० पालित्तय कहसु फुडं पीयूषादपि पेशला पीलूवृक्षमहाजाल्यां पुण्यलक्ष्म्याश्च कीर्तेश्व पुन्ने वाससहस्से पुरस्कृत्य न्यायं खल० पुरुषः सम्पदामग्र० पुष्पस्रग्दामरुचिरं पूजाकोटिसमं स्तोत्रं पूर्वाह्ने प्रतिवोध्य प्रभुप्रसादस्तारुण्यं प्रयोजकान्यकार्येषु प्रावृट्काले पयोराशि० प्रियं वा विप्रियं वापि प्रियादर्शनमेवास्तु " " वाला चंकंमंती पए वालो मे वृषभो भरं विन्दवः श्रीयशोवीर! प्रबन्धकोशान्तर्गतपद्यानां सूचिः। पद्याङ्क पत्राङ्क | प्रथमपादांश ४३ १९ भोगे रोगभयं सुखे क्षय० २२७ ९४ २६८ १०८ मग्नैः कुटुम्बजम्बाले १९२ ६५ | मदेन मानेन मनोभवेन ८६ ३२ मदोः शृङ्गं शक्रयष्टि० ९७ ___३३ मनसा मानसं कर्म २०२ मन्ये मन्दधियां विधे २३ १३ मयनाहिसुरहिएणं ३०३ ११६ | मर्दय मानमतङ्गजदएँ ६३ २७ | मलओ स चंदणु चिय मलमूत्रादिपात्रेषु महाव्रतानि पञ्चैव २५२ १०२ माणसरहिएहिं सुहाई ३२८ १२५ | मानं मुञ्च सरस्वति ! ३१६ १२१ | मार्गे कद्देमंदुस्तरे २२६ ९४ मासान्मांसलपाटला० १३४ ४३ मा स्म सीमन्तिनी कापि ४ ४ मिता भूः पत्यापां मित्रस्नेहभरैदिग्धो ३१४ १२१ । मुधा मधु मुधा सीधु मृगेन्द्रं वा मृगारिं वा १०१ | यट्टको दृषदो यदुष्ण यत्कृतं वस्तुपालेन ४९ यत् पश्यन्ति झगित्य० ३२४ १२३ यथा नदी विनाऽम्भोदा० यथा यूनस्तद्वत्परम० ६० | यदीदृशेषु कार्येषु १७९ यदेतत्स्वच्छन्दं विहरण. १११ | यद्दाये द्यूतकारस्य १२८ ४१ | यडूरं यदुराराध्यं ११ ७ यन्मयोपार्जितं पुण्यं ३१९ १२३ | यशोवीर ! लिखत्याख्या _ . १ २ यस्मिन्कुले यः पुरुषः १३७ ४५ ८५ ३२ २२३ २६७ १०८ ३२९ १२६ २९२ ३१ १५ २१४ ८९ १६४ २१३ ८९ ११५ २५९ ३४ १९५ २०८ - - १६९ M २ भजते विदेशमधिकेन भवस्याभूद् भाले भस्त्रा काचन भूरिरन्ध्र० भिक्खयरो पिच्छइ भुञ्जइ आहाकम्म भूपभ्रूपल्लवप्रान्त भोगा भङ्गुरवृत्तयो १९ १२ ३३८ १२८ ३२५ १२३ ३०८ ११८ Page 160**************************************************************************************** प्रथमपादाश याचको वञ्चको व्याधि याम. स्वस्ति तवास्तु या रागिणि विरागिण्य. यास्यामीति जिनालये स युष्मादृशा कृपणका येन केन न च धर्म येनागच्छन्ममाख्यातो येनेद भक्षित भक्ष्य ये पापप्रवणा. स्वभाव० योग्य सुत च शिष्य च यौवनेऽपि मदनान्न पद्याङ्क पत्राङ्क २६४ १०५ १९७ ७१ २६२ १०३ १९३ ६५ २६० १०३ ८४ ३२ १७६ ६३ २६६ १०७ ३१८ १२३ ७९ ३१ २४२ ६२ २७ ३२६ १६२ ५८ रवेरेवोदय श्लाघ्य राज्ये सार वसुधा रामो नाम बभूव हु रूढि किलैव वृषम रूप रहो धन तेज २३४ प्रवन्धकोशान्तर्गतपद्याना सूचि। पद्याङ्क पत्राङ्क | प्रथमपादाश। १५७ ५६ वाजिवारणलोहानां ७३ ३० विक्रमाकान्तविश्वोऽपि ३३९ १२८ विधौ विध्यति सक्रोधे २२४ ९३ विरमत बुधा योपित्सङ्गात् विषयाविषमुत्सृज्य २४४ १० विझण विणावि गया ३१५ १ वीक्ष्यैतद जविक्रम० वृत्तिच्छेदविधौ द्विजाति० वृद्धानाराधयन्तोऽपि | वेश्यानामिव विद्याना श शताष्टके वत्सराणा १०७ ३६ शतेषु जायते शूर' १०० शम्भुर्मानससन्निधौ ३९ | शशिना सह याति कौमुदी ४९ शस्त्र शास्त्र कृषिविद्या शाणोत्तीर्णमिवोचल. शास्त्रज्ञाः सुवचखिनो ३१३ १२० शास्त्राभ्यासो जिनपदनुति. २७१ १०९ शूरा. सन्ति सहस्रश शैत्य नाम गुणस्तवैव १२८ श्रियो वा स्वस्य वा नाशो ४२ श्रीचौलुक्य । स दक्षिण २८२ ११२ श्रीणा स्त्रीणा च ये वश्याः श्रीतीर्थपान्थरजसा श्रीमत्कर्णपरपरागत० ૩૮ श्रीभोजवदनाम्भोज २८७ ११३ श्रीमन्ति दृष्ट्वा द्विजराज. ५४ २४ | श्रीरिय प्रायश पुसा. १५८ ५६ श्रीवस्तुपाल | तव भाल० १५९ ५६ / श्रीवस्तुपाल-तेजपाली २७८ १११ श्रीवस्तुपाल | प्रतिपक्ष० ३३२ १२७ | श्रीवासाम्बुजमानन ३०४ ११७ | श्रीवीरे परमेश्वरेऽपि १४४ ৩৩ २१५ ३९ लक्ष्मी चला त्यागफला लक्ष्मीश्चला शिवा चण्डी लजिजइ जेण जणे 'लब्धा श्रियः सुख स्पृष्ट लावण्यामृतसारसारणि लोक पृच्छति मे वार्ता ३३५ १३० ३१ .२५ १४ १३८ ४५ ३४० १२८ १४० ११२ ३८ ३१७ १२३ १४६ ४९ २८६ ११३ ३०७ ११८ ३२५ १२४ २९६ ११५ ३१० १२० ६८ २९ २७३ ११० २३८ १०१ २६९ १०९ २९७ ११५ ४८ १०५ ३५ वइविवरनिग्गयदलो वक्त्र पूर्णशशी सुधा० वञ्चयित्वा जनानेतान् वपुरेव तवाचष्टे वर प्रज्वलिते वहा० वर सा निर्गुणावस्था वरि वियरा जहिं जणु वली नरिंदचित्त वस्तुपाल | तव पर्व १४२ Page 161**************************************************************************************** प्रथमपादांश श्रुत्वा ध्वनेमधुरतां श्रूयते यन्न शास्त्रेषु श्लाघ्यतां कुलमुपैति षट्त्रिंशदधिके माहा. प्रवन्धकोशान्तर्गतपद्यानां सूचिः । पद्याङ्क पत्राङ्क | प्रथमपादांश १८१ ६३ साहिये सुकुमार वस्तु० १४७ ५० । सांख्या निरीश्वराः केचित् २४१ १ सिद्धततत्तपारंगयाण सीसं कह वि न फुझे | सुअइ गुरू निर्चितो सुधाधौतं धाम व्ययभर० २१७ ८९ | सुभ्र! त्वं कुपितेत्यपास्त० १९८ ७३ सूत्रे वृत्तिः कृता पूर्व | सूरो रणेषु चरणप्रणतेषु १९६ | सेयं समुद्रवसना तव संपइ पहुणो पहुणो । स्नेहो न ज्ञायते देव २४७ | स्फुरन्ति वादिखद्योताः २०३ ___ ७५ | स्वयंभुवं भूतसहस्र० पद्या पत्रा १५४ ५५ १२१ ३९ ९९ ३४ २६ १४ ३८ १७ २११ ८८ १९० ६५ २८४ ११२ २९५ ११५ २७५ ११० ९३ ३२ २३३ ९६ ११३ m ११७ २०४ ४१ स एव पुरुषो लोके सचं भण गोदावरि सद्वृत्त सद्गुण महार्य सन्दष्टाधरपल्लवा सचकितं सन्ध्यां यत्प्रणिपत्य सन्धौ वा विग्रहे वापि सप्रसादवदनस्य भूपते. समणाणं सउणाणं सयं पमजणे पुन्नं सरस्वती स्थिता वक्त्रे सर्वदा सर्वदोऽसीति सदो पुत्वकयाणं सा गता शुभमयी युग० सा बुद्धिर्विलयं प्रयातु सा सुकंतई जगु मरइ साहसजुत्तइ हलु वहा ९४ २० २८५ १६१ । हसन्नपि नृपो हन्ति __ २० । हितवचनानाकर्णन० ५ | हित्वा जीर्णमयं देहं २४९ १०२ | हिंस्राः सन्ति सहस्रशो ६१ २७ । हे विश्वत्रयसूत्रधार ! २३२ ९५ । हंस जिहिं गय तिहिं गय १५० ५१ । हंसा जहिँ गय तहिं गय १३९ १५५ ४५ ५५ Page 162**************************************************************************************** प्रबन्धकोशान्तर्गतविशेषनाम्नां सूचिः । ** अकाराद्यक्षरानुक्रमेण - १९ । १९,२० भरनगर मझबाट भरियमम्म अनिताल भोवाटिका माम] भयन्दीमुहमाल भनाज WER [य] मष्टापद [निR] ४८,७,८५ भाधाराण [सूत्र] जयिनी ८,१०,५९, १४, १५, १६., el, ६ उत्तराध्ययन [एन] उतरापथ उदयन [कमराज] २,८१,८७ उदयन मनी re ४, १५ उपप्रमति उपमिह १.५, १२१, १२५ उदय उपमिनिमयसमा कसरी उम्परि[माम] १२३ उररखपुर ५३, ५४ उयमगार [ग] २५ ८., ३ १३१, १२० al,r ९०,१." ५७,११,९.,९१ ४१,९७ १., १.६ भरपाल भगदपचन ५. अनम्सपार अनगिरी भागमा अनुप 1 अनुपमदेवी अनुपमा १२० ११२ बारवर [भ] अनेसामनपा भमपमत्रो जमदगी भमिनम राम अभिमन्यु ममरपट[R] १, ६- अमरापनि भगा [] __४१,९९,९५, १२ भीम ४१,४३,९५, १. महिमा सपोमा नि १ ॥ मादिनाप भाना राजा ५.-५१ भामर २,४८, ९७-१.. मामू माम (गर, स] २-४५ मामदत भागास [प्राम] १.९, ", २१ भापं सपर [सूरि] २, ५, १०," भाप मन्दिल भार्य नागहती भापं रक्षित [मानी] भार्ग पत्र [मामी] भायं मुस्मी [ ] भाप मम्मूनिविजप मरम्मत भाडिग भाप [मत्र] मन अपम [देव, जिन] १, २२, ४९, ९५, ११४, १५, १६, ११, ११, १५ क्रममा परित अपमानिमा परमादी ११. अपमान भरिमापिएर ओ मोहर (Raji ,r समगार १.१ मार मागमा agrint पगारपि ) net गत ... , 13, ११, m 1, १९९ vem Karan अम्मरमार 1 १९,१.१६ [४] , n...", Page 163**************************************************************************************** ‘प्रवन्धकोशे केतू १३० कैलास ८४ १०१ १ ७. 9 ८६ १०५ ge गोध्रा ११७ कपीभवन ४९ । कृष्ण , , . ८३ गुणसेनसूरि ४७ कपाट कृष्णनगर, . . ६२, १२० गुलकुल्य १०५ कमलादित्य [कवि] ६२, १२० १०५ गूर्जर ५२, ६२ कर्ण ४३, १११ केदार पर्वत गूर्जरदेश ९, २६, ४३, १०१ कर्णदेव ९०, १०१ केल्हण ५१ गूजरधरा ७,८,३७,४५, ५८, कर्णमेरु [प्रासाद] ५० ९१, ९९, १०१, कर्णाटदेश १९१ कोटिकगण १३१ १०३, १०४, १०६, कर्मप्रकृति [प्रन्थ] ११३ कोणिक १२४ ११२, ११७, ११९, कलहपञ्चानन [हस्ती] ५१, ५२ कोमल ९३, ९४ १२०, १२५ कल्प [सूत्र] कोल्लापुर गूजरधरित्री कल्पक [ मंत्री] ११५ कोल्लासुर गूजरमण्डल कलाकलाप कोशला [प्राम, नगरी]११, १५, ८१,८२ गुर्जग्लोक कलाकेलि कौशाम्बी ८६-८८ गृजरेन्द्र ५०, ११२ कलाभारती कंस १२४ गुजरेश्वर ५०, १२१ कलावती क्रौञ्चहरण [पत्तन] गोदावर कलि-अर्जुन १०५ क्षेत्रवर्मा गोदावरी १४,३२, ६६, ६८, कल्याणमन्दिर [स्तव] ख ७२, ५३ काञ्चनबलानक १०७ खगार दुर्ग कात्यायन गोपगिरि खण्डन [खण्डखाद्य ] ग्रन्थ २९, ३१, ३३, ३६, कान्ती [पुर, नगरी] १३, खपटाचार्य ३५, ४०, ४१, ४२, कार्तिकेय खरमुख कालमेघ गोपालगिरि खप्परक [चोर] कालाग्निरुद्र गोमती खेट [महास्थान] कालिकाचार्य गोविन्द खोटिक कालिकादेवी गोविन्दचन्द्र खून्दला [वीर] कालिञ्जर [गिरि गोविन्दाचार्य ३४, ३७, ३८, ४४, कालिन्दी नदी] ४५, ४६ कावेरी , गगनगामिनी विद्या ८४, ८५ गोहिलवाटी १०३ काव्यकल्पलता गङ्गा [देवी] गौग्गलिक । काशी ८८-९० गङ्गा [नदी] १२, ४३, ४६, ५४, गौडदेश १५, ३०, ५८ काश्मीर ५५, ९३ ५५, ५७, ५८, ८०, गौडवध [काव्य] कासी ५५, ५७, ६१, ७९ १०९, ११५ गौर्जर कीर्तिपाल गजेन्द्रपद [कुण्ड] गोर्जरात्र १२८ कुन्तिभोज गन्धवह [श्मशान] कुमरनरिंद गईभिल्ल कुमारदेव [मंत्री] घण्टा माघ [विरुद] गईभी विद्या ८८-९० कुमारदेवी घीन्दिणी [छन्द] १०१, १११, ११४ गिरिनार १०७, १०८ घूघुलवंश कुमारपाल गिरिविदारण ४७, ४८, ५०-५४, ५७,९८,१०१,११५ गिरिसेण . च कुमुदचन्द्र गुडशस्त्रपुर चउरासी प्रासाद कुरुचन्द्र गुणचन्द चक्रेश्वरी [ देवी] कुहाडीग्राम गुणचन्द्र चक्रेश्वरी विद्या कूर्मारपुर गुणदेव १३१ । चण्डप [ठकुर] १०१ कूप्माण्डीदेवी ४२, ९६ । गुणसेण २५ । पण्डप्रद्योत . ८६०८ .. १२२ ११६ G4 घ - १०१ ___ २५ १२८ १२० १७ Page 164**************************************************************************************** १०१ ११५ २८ २६ १२२ २४ जेहुर विशेषनाम्ना सूचिः। चण्डप्रसाद [ ठकुर] जयन्तचद्र ५४-५७,४८-९०, तरालोला चन्दनवल्ली- ११७ सापी चन्द्रप्रम [जिन] ४३, ४९ जयन्तसिंह १०९, १२४-१२९ ताम्रपर्णी चन्द्रलेखा ७२,८५ जयसिंहदेव ५२, ५३, ९०, ९१, ताक्ष्य चन्द्रावती १२२ ९३, १०१ तारा ૮૬ चमरकृत [कार्पटिक] जाम्रक ११५ तालारस [प्राम] चम्पक्सेना जालिणि तिरकसरि १, १३१ धर्मण्वती ७५-७७ जावालिपुर १०५, १२३, १२५ तिलगदेश ५३, ५४, ९१ चाङ्गदेव जान्हवी तिहुमणपाल ५२, ५४ चाचिग [टकुर] नितशत्रु तेजरपुर ११५, १२० चापोस्कट [वश १०१ तिनदत्तसूरि ७, ६१ तेज पार [मत्री] १०१, १०३, १०५-- चामुण्डराज [१] ९०, १०१ मिनदास १०९, ११३, ११, चामुण्डराज [२] १०३, १०४, १०७ जिनधर्म ११८, १२२, १२३, चाम्पर [महाजन] दिनभटाचार्य १२५, १०८, १२९ चाम्पल्द ४८, १०० जीवदेवसूर २, ७-९,६१ त्रिकूटाचर ८४ चारण १०४ जीवन्तस्वामी विपथगा चाहदकुमार जेठुक [व] १२६ निपुरादेवी चाहमान [व] ५०, १०५ जेसिंघदेव त्रिलोकसिंह १०५, १०६ चाहिल १२१ १०५ प्रैलोक्यविजयिनी विद्या चित्रकूट १५, २१, २४, २५ जैन १०, ११, १३, १५, चिनकूट वसाहहि १५, २०, २१, २३, दक्षिण सण्ड चिन्तामणि विनायक ४०, ४०, ६१, ६८, दक्षिण देश चूहासमा जैन गायन दक्षिण मधुरा चेटकराज १२९ दक्षिणापथ चेलणदेव जैन धर्म ४, ४४ दत्तरि चेहणपाश्वनाथ दशक घर। चोक्षवाटि १०९ जैन मुनि १२४, १२८ दशवदन चौलुक्य [व] ४८-५२, ५८, ९०, जैन रय १३० दशवकालिक [सूम] १०१, १०५, ११४ दशाभुतस्कन्ध [सून छ टाणाचि [अन्य] दशाहमण्डप उन्दोरमावली दाशरथि छाडा [श्रेष्ठी] दाहलदेश दाहट डिण्डुआणक दिश्पट ०४, ४३, १४, ६५ जगसिंह इपाउधीग्राम २६, २७ . ५,४२, ६४, ९४, १२९ जारक दिग्वसन डोहीयवा ५०, ५१ ५९,१०५ दिग्वासस्) जनक [राजा] दिवाकर १६ जनमेजय ढा पर्वत १३, ८४, ८५ दीपिका काटिदास जम्बूद्वीप दिस्सी नगर ११७, ११९, २०, इन्दुक नृप ४१,४१-४६ जम्बूम्वामी १३१ दुर्गसिंह ११२ जय हि(ट)पुरी ७५, ७७, ७८ दुईमराज ९०,१०१ अपतटदेवी १०३, १०४ सुस्माघ [व] १५ जयताक ५१,५४ যায় না। ८६, ८७ देषचन्दसूरि जयप ____| तक्षशिया ५७ । देयता २५ w ४३, ६४ १०४ ८३, ८८ २,६८, जैन प्रासाद ७७ १२९ SA ४७ ज Page 165**************************************************************************************** प्रवन्धकोशे १२९ देवपत्तन देवपाल ११३ १२७ ४९, ६१, ९०, ११७ । नमि-विनमि १७ नयचक्र [प्रन्य] २२, २३ पठमिणि ९३, ९४, १६ देवप्रभसूरि नरचन्द्रसूरि ११३, ११५, ११७, परग्राम देवबोधि पञ्चलिङ्गी [अन्य] देवर्षि नरभारती [विरुद] पलवस्तुक [प्रन्य] देवसिका नरवा ९०, ९१ पञ्चसूत्र [प्रन्य] देवसूरि नल राजा ४३, ९१, १११ पक्षालदेश देवादित्य नलिनीगुल्म [ विमान] २६, ८८ पश्चागत [अन्य] देल्हा साधु नवलपत्तन पन्नासर [पुरी] २३ दोगुन्दुक [देव] नवहंस पहमहादेव [सूरि] ९३, ९४ दोधक [छन्द] नागड मंत्री १११, १२५, १२८ पत्तन (भणहिलपुर) ५०, ५२, ५४, द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका नागदत्त द्वादशरुद्र [ विरुद] १०१, ११७, १२९ नागनायक [देव] पम द्वारवती नागपुर ११८, ११९ पा कोष्टागारिक द्वीपवेट पत्तन ६१, ६३ १०४ नागमत ८८ पगदत्त द्वैपायन ११३ नागार्जुन २,१३, १४, ८४-८६ परप्रम नागेन्द्र [देव] १२ মৃন্মযা धण नागेन्द्र गच्छ पमा [रानी] धणसिरि नाणायत्तक [अन्य] पनाकर धनपति नादसमुद्र पमानन्द ( काव्य] धन्धुक्कपुर नानाक कवि ६२, १२० पमावती [ रानी] धरण पग्मिनीखण्ड [पत्तन] धरणेन्द्र [देव] नामेय ११४,११५ धर्मऋपि नामेयचैत्य परकायप्रवेश [ विद्या] परमहंस धर्मदत्त नाभयपादुका ११९ धर्मदेव परमार [वंश] ३५, ४८, ५३, ९१ नामेयभवन परीक्षित धर्मनृप ३०, ३२, ३३, ३५-३७ नामलदेवी ८६-८८ पल्ली धर्मसूरि नारायण पाटलीपुत्र) धवलक्क-क [पुर] ५८, ६१, ६२, १०१, निम्ब मंत्री पाटलीपुर । [पत्तन] १०३-१०८, १११ निर्वाणकलिका [प्रन्थ] १४ पाडलापुर ११७-१२६, १२९ १३१ पाडलीपुर) धवलचन्द्र ८३, ८४ नृपनाग ४८, ९७ पाण्ड धारा [नगरी] ९०, ९२ नेट मंत्री पाण्ड्यनृप धारावर्ष ११७, १२२ पाण्ड्यराष्ट्र धारू ४९, ८६ नेमि [नाथ, जिन] १, ४२, ४३, ४७, पातालविवर [ कूप] धूलीसमुद्र ४९, ८५, ९३-९६, पादलिप्तक [पुर] १२, १३ ११६, ११७, १२१, पादलिप्तसूरि २, १३, १४, १५ १२४ ८४, ८५ नेमिनाग पाराञ्चिक नन्दन नेमिविम्ब ९७, १२२ पारेत जनपद नन्दिल [ आचार्य] नैपध [ काव्य] ५५, ५६, ६० पार्श्वनाथ [जिन] १३, १४, ८५, नन्दीश्वर १०९ नौवित्तकवाटि १०९ १०९, १११ ननसूरि ३४, ३७, ३८, ४४-४६ । न्यायावतारवृत्ति २६ । पार्श्वनाथ द्वात्रिंशिका नाभिभूजिन] ५८ ११६ ४८ .. ११, १२, नूनक १२१ नेना ११८ नडूल नन्द ४७ १८ ११५ ७५ १८ Page 166**************************************************************************************** ७७, ८५ १९, ७६ २२ ब पावनाय प्रतिमा पानाथविम्ब पावफलही पालित्तम पालित्तानकपुर पाशुपत शास्त्र पाहिणि पीठजादेवी पीलूआई [देश] पीहुलि पुण्डरिकीणी पुण्डरीक फलही पुरन्दर पुरुष मरम्वती [निरुद] पुरूनचा पुष्कररावनी ११० १२८ १०१ ८६ १०८ विशेषनाम्नां सूचिः । मुगुकच्छ) मुगुक्षेत्र फुलश्रेष्ठी ११ भूगुपुर ) १०-१६ भोजदेव [प] ४१,४४, ४५, ४६, बम्बूलीपुर १३१ ५९, ७४, ११५ बप्प [क्षत्रिय] भोपल देवी ४८, ०४ बप्पक साधु १३१ अप्पमहि सूरि २, २५-४६ मण्डन मुनि १२ बम्बेरपुर मण्डली [नगर] १०१, १०२ पर मित्र मथुरा ३९-४१, ४६, ७२ बलि ८३, ९४ मदन [श्रावक] ९१, ९५ मापला-बुदला [वीर ] मदनरीति [कवि] २,६४, ६६ पारचन्द्र मदनमजरी बालभारत [काव्य] मदनमूच्छा याहुबलि ३८, ११९ मदनवर्मा २, ११, १२, ९३ निमीषण मधुसूदन बुद्ध २४ मध्यम शाखा बाद्ध १,१०, ११, २२ मम्माणी [खनि] ११९, १२० २६, ३५-३५ भयणलादेवि प्रह्मणाग मरु [प्राम, देश] १.६, ११०, ११३ प्रझमवन मरुदेवा ब्रह्मशान्ति [यक्ष] मरदेवा शिखर माझी __ १३, १५, ७३ मरधारी [गच्छ] ११३, ११५, ११८, १५, १३० मगदत्त नृप मलवादी [सूरि] २, २१, २२, २३ महमान १०९, ११० महि महणदेवी १०१, ११७ महणसिंह २,३,४ भद्रयाहु महणीक (का) भद्रा [ष्टिनी] महमदसाहि मन्द्रेश्वर [वेराकूल] ९५, १०४, १०६ महाकाल भरत [खण्ड, क्षेत्र] १,२, ५३ महाकारमायाद भरत [प, चो] ३२, ३८, ४८ महानगर १२. भादयाहयो सहिता महामहविजय [काव्य] भारतवर्ष भारनी [देवी] १,५९,६१, ४२ महाराष्ट्र [देश, जनपद] ४३, ६१, ६२, भागव ६४, ६६, ६५, ११ मीमदेव [][चौलस्य] ९०, ११ महालक्ष्मी देवी ] ५९, ७४ भीमदेव [२] महारदमी देवी भवन। भीमदेव (राण) [ोरीयवस्य] ५९ महालक्षमी मासाद । भीमसिंह १.४-१०६ महानिदेव [क्षेत्र] भीम महावीर प्रामाद भुवन मुनि ९-११ महावीर विन्य भूगपाए १२६ । महीतट [दे] १७ २६ १३१ ११ पुष्पचूला पूनह साधु ११८-१२० पूर्णचन्द्र पूर्णतल्ल गरछ पूर्ण सिंह ९३, ९५ पूर्व देश पूर्वमथुरा पृथिवीराज ११७ पृथियीस्थान [पुर, पत्तन] २१, ८४,८५ प्रतापमल ४८,९० प्रतिमाणा प्रतिष्ठान [पुर, पत्तन] २, ३, १४,६६, ६७,६८ प्रतीहार [व] १०४ प्रधुम शिपर ११६ प्रधुम सूरि ४७ प्रयन्धकोश १३१ प्रय धचिन्तामगि प्रभास [वीर्य] ४३, १३० मभासपुराण प्रामकास प्रभयानकुर १३३ प्रल्हादनपुर ४० महादनराणक प्राग्याट [प] १.१, १२१ प्रेममा १३१ १८ ४७ ११३ ७२ । Page 167**************************************************************************************** १२ : प्रवन्धकोशे. १२९ घरायण ४५ ८ ० ८ . महीधर महीपाल महूआक ४९ महेन्द्र [देव] . ११, १३ महेन्द्रसूरि १११ महेश्वरायतन महोवक पुर [पत्तन] ९१, ९२ माऊ मागधतीर्थ माण्डलिपुर ११८ मातुलिङ्गीविद्या माधवदेव मानगजेन्द्र १०४ मायासुर ६९-७२ मारव १०५, १०६ मालदेव मालव [देश] १९, ५३, ५९, ६७, ९०, ९१, ९८, ९९ मालवीय ५२ मालवेन्द्र ११५ माहेचक १०८ मुकुन्द मुद्गल १०९ सुरुण्ड मूलराज ५४, ९०, १०१ मृगावती मेघचन्द्र मेघनाद मेडंतक मेदपाट ५ १२२ लील ur r 2 १५ यशोभद्र [राणक] ४६ । लक्ष्मी यशोभद्रसूरि २, ४६, ५३ लघु भीम यशोवर्म ___ २७, २८ लघु भोजराज यशोवीर १२३, १२४ लघु युधिष्ठिर यशःपटह [ हस्ती] याकिनी [ साध्वी] २४, २५ लच्छी युगादीश १२८ ललितविस्तरा [अन्य] युधिष्ठिर . ४३, ८३, ८४, १११, ललि(ल)तादेवि १०९, १२९ ११३ ललितासर ११४ १२३ लल्लश्रेष्टी लवणप्रसाद १०१, १०२, १२५ रघु लवणसमुद्र रङ्क वणिक् लाट [ देश रणसिंह लीलादेवी रन [श्रावक लीलावती २, ९३, ९४, ९५, ९७, ११४ रन्ति नदी टाणग रम्भा लूणिगवसति १२२, १२९ राजगिरि । राजगृहपुर । वइजल टक्कर राजशेखरसूरि वकचूल २, ७५, ७८ राजीमती गुहा वज्रकुमार रास ३६, ८१-८४, वटपद्र रामचन्द्र वडूआ [ वेलाकूल] रामसैन्य [प्राम] वत्स [जनपद] रामायण वत्सराज ९१, १२३ ८३, ८४ वनराज १०१, ११५, १२८ राशिल्लसूरि वरदत्त राष्ट्रिक १२२ वराहमन्दिर वराहमिहिर २, ३, ४ वर्द्धनकुञ्जर ३५, ४७ रैवत [क्षेत्रपाल] वर्द्धमान [जिन] रैवत-क [ तीर्थ, पर्वत] ४२, ४३, ४७, वर्द्धमानपुर १०३, ११४ ४८, ८६, ९४, ९६ वर्द्धमानविम्ब ९७, ११६, ११९, वर्द्धमानसूरि १२८ १२० वलभी [पुरी] २१, २२, २३ रैवतक तलहट्टिका १२१ वल्लभराज १०१ रोला-तोला [पर्वत] ९४, ९५ वसन्तवल्ली वसुदत्ति(का) ८६, ८७, ८८ लक्षणसेन . ०,८८-९० वस्तुपाल [मंत्री] २, ५८-६० १०१- लक्षणावती ३०, ३३, ३६, ३७, १३० ८८-९० वस्त्रापथ लक्ष्मण ८२-८४, ९५ , वाक्पति [कविराज] ३०, ३५-४० १२ ८६ रावण २९ मेरु रेवा ९६ मोजदीन सुरत्राण ११७, ११८, ११९ मोढ ज्ञाति मोढेर 1 ३८,४५, मोढेरवसहिका मोहमाया मौर्यवंश २६, २९, ३४, ३७ मोढेरक पुर] ८६ यदुवंश यमुना यवन यशोधर्म ११६ ५४, ८७ ११७ ३७ Page 168**************************************************************************************** i १६ ५६, ११५ १०४ ५० ९४ १८ ११३ १२४ १२८ १० १०९ nlisakihi Jiuni liki विशेषनाम्ना सूचि। बोगरदेश - १६ । विशालकीर्ति --- ६३, ६५ शम्भु वाग्मट [मत्री] ४८, ४९ विषमादेवी शराविका [ पर्वत वाचक [विरुद] विष्णु शाक्य घाना [ज्ञाति] विसेणा २५ शाकम्मरी वात्स्यायन ३७, ३८ वीर [जिन] शाखीन्द्र वामन वीरद्वात्रिंशिका शातवाहन वामनस्थली ६२, १०३, १०४ वीरधवल ५८, ६१, १०१ शान्तनु वामा १०९, ११०, ११५, शान्ति ។។។ चायट [नगर, महास्थान] ५,८,६१ १२०, १२४, १२५ शान्तिनाथ चरिन वायटगच्छ वीरनारायण प्रासाद शान्तिपर्व वायुदेवता वीरम [ नृप] १२४, १२५ शाम्पतिसर ११६ वाराणसी ५४, ८८, १३० धीरमग्राम शालतपम्बी वाराहसहिता वीरमोक्षवर्ष । शालिभद्र वारू [मवत् ] ७४ शासनदेवता वालाक धीसल देव ६२,६३, १०४ शिलादित्य २२, २३, ११७ वालि शिव वासवदत्ता वीसलनगर ८८ ६२ शिवभवन वामुकि [ नाग] १३, १४, ८४, ८६ वृन्दावन शिवपुराण ११३ विक्रमकार वृद्धकर शिवा विश्मसेन ७८,८१ वृद्धनगर १२५ शीलवती विक्रमादित्य २,८,१५, १७, १८, वृद्धवादी [सरि] २, १५-१८ शूद्रक ६८-७४ °माक १९, २०, २३, ४३, वृपम [जिन] शेप नागराज ६६, ६०, ७४,७८ घेणीकृपाण [विरुद] ६२ ८२, ८४, १११, वैरोट्या ५-७, ११, १२ शोभनदेव [ सूत्रधार] १२२, १२४ १२४ " स्वव श्यामल ५१, ५२ विक्रमादित्यवर्ष ४५, १११, १२७ वैष्णव ६१, १२४ श्रावक प्रज्ञप्ति विचित्रवीर्य व्यवहार धीकान्त विपयपुर व्याघ्रराज ५०,५१ श्रीदेवी १२१ विजयवर्मा श्रीपर्वत १३. विजयसेनरि शक श्रीपाद विनया २५ शचिकुमार श्रीपाल [कवि] ४८, ९३ विनयादेवी ९३,९४ श्रीमाता रार [मुर] १२१ विद्याधर शीमाल पुर ०८, १०९ २५, २६, ४८ ___ [मत्रा] ८८,८९, ९० शहंधर श्रीमार वश १२० ९७ विद्याधर गाठ 1 १२ शतक[प्रय] श्रीहर्ष [कवि] २५ २,५४-५८ , पर शवानी भुतकीर्ति विद्याधरेन्दगठ) १५ शत्रुनिन् अंगिक [प] २२, ४३, ४८, ११५ विण्यापर ८४,८६ पात्रुभय [गिरि, तीर्थ ] १२, १४, २२, श्वेताम्बर [संप्रदाय ] ३, ७,९, १०, ११, विमर गिरि [पर्वत] ४२, ४९, १२८ २३, ४६, ४८,४९, २२-२६, २७, ३९, विमल दण्डनायक ૧૨૧ ८४,९४,९५, १.१, ४०, ४२, ४३, ५०, विमलयाम् ७५ १.९, ११४, ११६, १.९, ११६, १२८ विमरवमति १२१ ११८-१२१, १२, विमानना पडायश्पक [प्रय] विवाहवाटिका | शत्रुक्षय पलहाहा ११४ । पोसाक [य] ११३ शक्ष १००, Page 169**************************************************************************************** प्रवन्धकोशे सिद्धराज [जयसिंह] ४७, ५४,९१,९२, ९३, ११५ सिद्धर्षि सिद्धसेन [दिवाकर] २, १५-१९ सिद्धसेन गच्छ २१ सिद्धसेनसूरि २६, २९, ३३ सिद्धिमण्डप सिहि सिंह १२६, १२७ सिंहगुहापल्ली __ ७५, ७७ सिंहनाद सीता ७१, ८२, ८३ सीमन्धर [जिन] १२८ सीलण कौतुकी ५२ २५ २ १०४ सोमदत्त सोमनाथ ५७,९० सोममंत्री १०१ सोमवर्मा १०५ सोमेश्वर [ कवि] ५९, ६२, १०१, १०८, ११२, ११६, १२१, १२५, १२६ सोमेश्वर महादेव] ५८, ६०, ६१ सोमादित्य [कवि] सौराष्ट्र सौराष्ट्रिक स्कन्दिलाचार्य १५ स्तम्भतीर्थ ४२, १०३, १०८,१०९, १२९ स्तम्भन , ८६ स्तम्भनका १४, २३ स्तन्मपुर ११९, १२१ स्तम्भन . १४, ५२, ८६ स्तम्भनक १०९ स्थिरदेवी स्थूलभद्र ४, ५३ स्वर्गारोहणप्रासाद १२९ ४९ संस्कृत [भाषा] सञ्जीवनीविद्या सण्डेर गच्छ सतारकपुर सदीक [ नौवित्तक] १०८, १०९ सपादलक्ष [देश] ५१, ५२, १३१ सपादलक्षीय समरसिंह १०५ समराइच समराक [प्रतीहार] १२५ समरादित्य चरित्र समुद्रविजय समुद्रसेन सम्प्रति [राजा] १९, ४३ सरस्वती [ देवी] सरस्वती [ नदी] सरस्वती [ साध्वी] सरस्वतीकण्ठाभरण [विरुद] सरस्वतीकण्ठाभरणप्रासाद सर्षपविद्या सहदेव सहस्त्रानीक सहावदीन सुरत्राण ११७ साङ्कलीयाली पद्या साङ्गण १०३, १०४, १०७ साडक १३१ सातवाहन २, १४, १६, ६७- ७४,८४,८५, १११ सातवाहनक [शाक] सामन्त १३१ सामन्तपाल १०५, १०६ सीसुला ३६, ८३ १८ ५९ __ ९७ सीह सुग्रीव सुधर्मा सुन्दर ग्रामणी] सुन्दरी सुभगा सुभद्रा सुमङ्गलदेवी- सुयशादेवी सुरत्राण सुरधुनी सुराष्ट्रा [देश] ११९ १०१ हजयात्रा हडालाग्राम हनूमान् हरसिद्धिदेवी १०, ८३, ८४ ५७, ५८ ५८ २२, ४२, ४७, ८४, १०१, १०३ 20 हरि २, २४-२६ २, ५८-६१ १३१ ७२ ११२ २२, ७५ २५ مر مر في हरिभद्रसूरि हरिहर [कवि] हर्षपुरीय गच्छ हारिभद्र ग्रन्थ हाल [नृपति] हिमवान् [पर्वत] हिमाद्रि हीर विष हेम [चन्द्र] सूरि सास्त्र هر سم सुवर्णकीर्ति सुव्रततीर्थ सुस्थिताचार्य सूक्तावली सूत्रकृत [ सूत्र] सूरपाल सूरिमन्त्र सूर्यप्रज्ञप्ति [ सूत्र] सुहवदेवि सेण सेडीनदी २६, २७ ७२, ७३ ७३, ११५ ४६ ५४,५५ २, ४७, ४८, ४९, ५२, ५३, ९८ सारस्वतमन्त्र " व्याकरण सारा सालवाहण सालाहण साहणसमुद्र सितपट सिद्ध [राजपुत्र] सिद्धपाल सिद्धपुर ५७, १०९ २५ १४, ८५ १०९, १२९ हेम विद्या हेमसिद्धिविद्या हेमसूरिपौषधशाला हंस [श्रेष्ठी] सोखू सोढू-मोद ९९ सोपारक ४८ | हंस परमहंस Page 170****************************************************************************************